नारदजी बोले- सर्वेश्वर अब आप विशेष रूपसे त्रिस्पृशा नामक व्रतका वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर लोग तत्काल कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। महादेवजीने कहा- विद्वन् पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंके हितकी इच्छा सनत्कुमारजीने व्यासजीके प्रति इस व्रतका वर्णन किया था। यह व्रत सम्पूर्ण पापराशिका शमन करनेवाला और महान् दुःखाँका विनाशक है। विप्र त्रिस्पृशा नामक महान् व्रत सम्पूर्ण कामनाओंका दाता माना गया है। ब्राह्मणोंके लिये तो मोक्षदायक भी है। महामुने! जो प्रतिदिन 'त्रिस्पृशा' का नामोच्चारण करता है, उसके समस्त पापका क्षय हो जाता है। देवाधिदेव भगवान्ने मोक्ष प्राप्तिके लिये इस व्रतकी सृष्टि की है, इसीलिये इसे 'वैष्णवी तिथि' कहते हैं। इन्द्रियोंका निग्रह न होनेसे मनमें स्थिरता नहीं आती [ मनकी यह अस्थिरता ही मोक्षमें बाधक है।] ब्रह्मन्! जो ध्यान-धारणासे वर्जित, विषयपरायण तथा काम भोगमें आसक्त हैं, उनके लिये त्रिस्पृशा ही मोक्षदायिनी है। मुनिश्रेष्ठ पूर्वकालमें जब चक्रधारी श्रीविष्णु के द्वारा क्षीरसागरका मन्थन हो रहा था, उस समय चरणोंमें पड़े हुए देवताओंके मध्य में ब्रह्माजीसे मैंने ही इस व्रतका वर्णन किया था। जो लोग विषयोंमें आसक्त रहकर भी त्रिस्पृशाका व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्षका अधिकार दे रखा है। नारद! तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है। महामुने। बड़े-बड़े मुनियोंके समुदायने इस व्रतका पालन किया है। यदि कार्तिक शुक्लपक्षमें सोमवार या बुधवारसे युक्तत्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापका नाश करनेवाली है। विप्रवर! और पापोंकी तो बात ही क्या है, त्रिस्पृशाके व्रतसे ब्रह्महत्या आदि महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। प्रयागमें मृत्यु होनेसे तथा द्वारकामें श्रीकृष्णके निकट गोमतीमें स्नान करनेसे शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु त्रिस्पृशाका उपवास करनेसे घरपर भी मुक्ति हो जाती है। इसलिये विप्रवर नारद! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृशाके व्रतका अवश्य अनुष्ठान करो। विप्र! पूर्वकालमें भगवान् माधवने प्राची सरस्वतीके तटपर गंगाजीके प्रति कृपापूर्वक त्रिस्पृशाव्रतका वर्णन किया था। गंगाने पूछा- हृषीकेश! ब्रह्महत्या आदि करोड़ों
पाप - राशियोंसे युक्त मनुष्य मेरे जलमें स्नान करते हैं, उनके पापों और दोषोंसे मेरा शरीर कलुषित हो गया है। देव! गरुडध्वज ! मेरा वह पातक कैसे दूर होगा ? प्राचीमाधव बोले- शुभे! तुम त्रिस्पृशाका व्रत करो। यह सौ करोड़ तीर्थोंसे भी अधिक महत्त्वशालिनी है। करोड़ों यज्ञ, व्रत, दान, जप, होम और सांख्ययोगसे भी इसकी शक्ति बढ़ी हुई है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली है। नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा ! त्रिस्पृशाव्रत जिस-किसी महीनेमें भी आये तथा वह शुक्लपक्षमें हो या कृष्णपक्षमें, उसका अनुष्ठान करना ही चाहिये। उसे करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगी। जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रिके अन्तिम प्रहरमें त्रयोदशी भी हो तो उसे 'त्रिस्पृशा' समझना चाहिये उसमें दशमीका योग नहीं होता। देवनदी! एकादशी व्रतमें दशमी-वेधका दोष मैं नहीं क्षमा करता।ऐसा जानकर दशमीयुक्त एकादशीका व्रत नहीं करना चाहिये। उसे करनेसे करोड़ों जन्मोंके किये हुए पुण्य तथा संतानका नाश होता है। वह पुरुष अपने वंशको स्वर्गसे गिराता और रौरव आदि नरकोंमें पहुँचाता है। अपने शरीरको शुद्ध करके मेरे दिन एकादशीका व्रत करना चाहिये। द्वादशी मुझे अत्यन्त प्रिय है, मेरी आज्ञासे इसका व्रत करना उचित है।
गंगा बोलीं- जगन्नाथ। आपके कहनेसे मैं त्रिस्पृशाका व्रत अवश्य करूँगी, आप मुझे इसकी विधि बताइये।
प्राचीमाधवने कहा- सरिताओंमें उत्तम गंगा देवी! सुनो, मैं त्रिस्पृशाका विधान बताता हूँ। इसका श्रवण मात्र करनेसे भी मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। अपने वैभवके अनुसार एक या आधे पल सोनेकी मेरी प्रतिमा बनवानी चाहिये। इसके बाद एक ताँबेके पात्रको तिलसे भरकर रखे और जलसे भरे हुए सुन्दर कलशकी स्थापना करे, जिसमें पंचरत्न मिलाये गये हो कलशको फूलोंकी मालाओंसे आवेष्टित करके कपूर आदिसे सुवासित करे। इसके बाद भगवान् दामोदरको स्थापित करके उन्हें स्नान कराये और चन्दन चढ़ाये। फिर भगवान्को वस्त्र धारण कराये। तदनन्तर पुराणोक्त सामयिक सुन्दर पुष्प तथा कोमल तुलसीदलसे भगवान्की पूजा करे। उन्हें छत्र और उपानह (जूतियाँ) अर्पण करे! मनोहर नैवेद्य और बहुत-से सुन्दर सुन्दर फलका भोग लगाये। यज्ञोपवीत -से तथा नूतन एवं सुदृढ़ उत्तरीय वस्त्र चढ़ाये। सुन्दर ऊँची बाँसकी छड़ी भी भेंट करे दामोदराय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी, 'माधवाय नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'कामप्रदाय नमः' से गुह्यभागकी तथा 'वामनमूर्तये नमः' कहकर कटिकी पूजा करे। 'पद्मनाभाय नमः' से नाभिकी, 'विश्वमूर्तये नमः' से पेटकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से हृदयकी, 'वैकुण्ठगामिने नमः' से कण्ठकी, 'सहस्त्रबाहवे नमः' से बाहुओंकी, 'योगरूपिणे नमः' से नेत्रोंकी, 'सहस्वशीष्पों नमः' से सिरकी तथा 'माधवाय नमः' कहकर सम्पूर्ण अंगोंकी पूजा करनी चाहिये।इस प्रकार विधिवत् पूजा करके विधिके अनुसार अर्ध्य देना चाहिये। जलयुक्त शंखके ऊपर सुन्दर नारियल रखकर उसमें रक्षासूत्र लपेट दें। फिर दोनों हाथोंमें वह शंख आदि लेकर निम्नांकित मन्त्र पढ़े
स्मृतो हरसि पापानि यदि नित्यं जनार्दन ॥
दुःस्वप्नं दुर्निमित्तानि मनसा दुर्विचिन्तितम् ।
नारकं तु भवं देव भयं दुर्गतिसंभवम् ॥
यन्मम स्यान्महादेव ऐहिकं पारलौकिकम् ।
तेन देवेश मां रक्ष गृहाणाय नमोऽस्तु ते ॥
सदा भक्तिर्ममैवास्तु दामोदर तवोपरि ।
(35 /69-72) 'जनार्दन ! यदि आप सदा स्मरण करनेपर मनुष्यके सब पाप हर लेते हैं तो देव! मेरे दुःस्वप्न, अपशकुन, मानसिक दुश्चिन्ता, नारकीय भय तथा दुर्गतिजन्य त्रास हर लीजिये। महादेव! देवेश्वर ! मेरे लिये इहलोक तथा परलोकमें जो भय हैं, उनसे मेरी रक्षा कीजिये तथा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है। दामोदर ! सदा आपमें ही मेरी भक्ति बनी रहे।'
तत्पश्चात् धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करके भगवान्की आरती उतारे। उनके मस्तकपर शंख घुमाये। यह सब विधान पूरा करके सद्गुरुकी पूजा करे। उन्हें सुन्दर वस्त्र, पगड़ी तथा अंगा दे। साथ ही जूता, छत्र, अंगूठी, कमण्डलु, भोजन, पान, सप्तधान्य तथा दक्षिणा दे। गुरु और भगवान्की पूजाके पश्चात् श्रीहरिके समीप जागरण करे। जागरणमें गीत, नृत्य तथा अन्यान्य उपचारोंका भी समावेश रहना चाहिये। तदनन्तर रात्रिके अन्तमें विधिपूर्वक भगवान्को अर्घ्य दे स्नान आदि कार्य करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करे।
महादेवजी कहते हैं—ब्रह्मन् । 'त्रिस्पृशा' व्रतका यह अद्भुत उपाख्यान सुनकर मनुष्य गंगातीर्थमें स्नान करनेका पुण्य-फल प्राप्त करता है। त्रिस्पृशाके उपवाससे हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञोंका फल मिलता है। यह व्रत करनेवाला पुरुष पितृकुल, मातृकुल तथा पत्नीकुलके सहित विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। करोड़ों तीर्थोंमें जो पुण्य तथा करोड़ों क्षेत्रों में जो फलमिलता है, वह त्रिस्पृशाके उपवाससे मनुष्य प्राप्त कर लेता है। द्विजश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अन्य जातिके लोग भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाकर इस व्रतको करते हैं, वे सब इस धराधामको छोड़नेपर मुक्त हो जाते हैं। इसमें द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये। यह मन्त्रोंमें मन्त्रराज माना गया है। इसीप्रकार त्रिस्पृशा सब व्रतोंमें उत्तम बतायी गयी है। जिसने इसका व्रत किया, उसने सम्पूर्ण व्रतोंका अनुष्ठान कर लिया । पूर्वकालमें स्वयं ब्रह्माजीने इस व्रतको किया था, तदनन्तर अनेकों ऋषियोंने भी इसका अनुष्ठान किया; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। नारद ! यह त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है।