पुलस्त्यजी कहते हैं— अगस्त्यजीके ये अद्भुत वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने विस्मयके कारण पुनः प्रश्न किया-'महामुने! वह वन, जिसका विस्तार सौ योजनका था, पशु-पक्षियोंसे रहित, निर्जन, सूना और भयंकर कैसे हुआ ?"
अगस्त्यजी बोले - राजन्! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है, वैवस्वत मनु इस पृथ्वीका शासन करनेवाले राजा थे। उनके पुत्रका नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर और अपने भाइयोंमें सबसे बड़े थे महाराज उनको बहुत मानते थे। उन्होंने इक्ष्वाकुको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके कहा- 'तुम पृथ्वीके राजवंशोंके अधिपति (सम्राट्) बनो।' रघुनन्दन! 'बहुत अच्छा' कहकर इक्ष्वाकुने पिताकी आज्ञा स्वीकार की। तब वे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर बोले- 'बेटा! अब तुम दण्डके द्वारा प्रजाकी रक्षा करो। किन्तु दण्डका अकारण प्रयोग न करना। मनुष्योंके द्वारा अपराधियोंको जो दण्ड दिया जाता है, वह शास्त्रीय विधिके अनुसार [उचित अवसरपर] प्रयुक्त होनेपर राजाको स्वर्गमें ले जाता है। इसलिये महाबाहो ! तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना। ऐसा करनेपर संसारमें तुम्हारे द्वारा अवश्य परम धर्मका पालन होगा।'
इस प्रकार एकाग्र चित्तसे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको बहुत-से उपदेश दे महाराज मनु बड़ी प्रसन्नताके साथब्रह्मलोकको सिधार गये। तत्पश्चात् राजा इक्ष्वाकुको यह चिन्ता हुई कि 'मैं कैसे पुत्र उत्पन्न करूँ ?' इसके लिये उन्होंने नाना प्रकारके शास्त्रीय कर्म (यज्ञ यागादि) किये और उनके द्वारा राजाको अनेकों पुत्रोंकी प्राप्ति हुई। देवकुमारके समान तेजस्वी राजा इक्ष्वाकुने पुत्रोंको जन्म देकर पितरोंको सन्तुष्ट किया। रघुनन्दन। इक्ष्वाकुके पुत्रोंमें जो सबसे छोटा था, वह [गुणोंमें] सबसे श्रेष्ठ था। वह शूर और विद्वान् तो था ही, प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष गौरवका पात्र हो गया था। उसके बुद्धिमान् पिताने उसका नाम दण्ड रखा और विन्ध्यगिरिके दो शिखरोंके बीचमें उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया। उस नगरका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया। तदनन्तर एक समय जब कि चारों ओर चैत्र मासकी मनोरम छटा छा रही थी, राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया। वहाँ जाकर उसने देखा-भार्गव मुनिकी परम सुन्दरी कन्या, जिसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी, वनमें घूम रही है उसे देखकर राजा दण्डके मनमें पापका उदय हुआ और वह कामबाणसे पीड़ित हो कन्याके पास जाकर बोला- 'सुन्दरी! तुम कहाँ से आयी हो ? शोभामयी! तुम किसकी कन्या हो ? मैं कामसे पीड़ित होकर तुमसे ये बातें पूछ रहा हूँ। वरारोहे। मैं तुम्हारा दास हूँ। सुन्दरि ! मुझ भक्तको अंगीकार करो।'अरजा बोली- राजेन्द्र ! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं भार्गव वंशकी कन्या हूँ। पुण्यात्मा शुक्राचार्यकी में ज्येष्ठ पुत्री हैं, मेरा नाम अरजा है। पिताजी इस आश्रमपर ही निवास करते हैं। महाराज! शुक्राचार्य मेरे पिता हैं और आप उनके शिष्य हैं। अतः धर्मके नाते मैं आपकी बहिन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि दूसरे कोई दुष्ट पुरुष भी मुझपर कुदृष्टि करें तो आपको सदा उनके हाथसे मेरी रक्षा करनी चाहिये मेरे पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं। वे [अपने शापसे] आपको भस्म कर सकते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ! आप मेरे महातेजस्वी पिताके पास जाइये और धर्मानुकूल बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना कीजिये। अन्यथा [ इसके विपरीत आचरण करनेपर] आपपर महान् एवं घोर दुःख आ पड़ेगा मेरे पिताका क्रोध उभड़ जानेपर वे समूची त्रिलोकीको भी जलाकर खाक कर सकते हैं। दण्ड बोला- सुन्दरी! तुम्हें पा लेनेपर चाहे मेरा वध हो जाय अथवा वधसे भी महान् कष्ट भोगना पड़े
[मुझे स्वीकार है]। भीरु! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मुझे स्वीकार करो।
ऐसा कहकर राजाने उस कन्याको बलपूर्वक बाहुपाशमें कस लिया और उस एकान्त वनमें, जहाँसे कहीं आवाज भी नहीं पहुँच सकती थी, उसे नंगा कर दिया। बेचारी अबला उसकी भुजाओंसे छूटनेके लिये बहुत छटपटायी, परन्तु फिर भी उसने स्वेच्छानुसार उसके साथ भोग किया। राजा दण्ड वह अत्यन्त कठोरतापूर्ण और महाभयानक अपराध करके तुरंत अपने नगरको चल दिया तथा भार्गव कन्या अरजा दीनभावसे रोती हुई अत्यन्त उद्विग्न हो आश्रमके समीप अपने देव-तुल्य पिताके पास आयी। उसके पिता अमित तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्य सरोवरपर स्नान करने गये थे। स्नान करके वे दो ही घड़ीमें शिष्यसहित आश्रमपर लौट आये। [आश्रमपर आकर] उन्होंने 2 देखा-अरजाकी दशा बड़ी दयनीय है, वह धूलमें सनी हुई है। [ तुरंत ही सारा रहस्य उनके ध्यानमें आगया। ] फिर तो शुक्रको बड़ा रोष हुआ, वे तीनों लोकोंको दग्ध-सा करते हुए अपने शिष्योंको सुनाकर बोले- 'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है; तुम सब लोग देखना- वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है, उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर-जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है, वहाँतकके उपवनों और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक धूलकी वर्षा होती रहेगी।'
क्रोधसे संतप्त होनेके कारण इस प्रकार शाप दे महर्षि शुकने आश्रमवासी शिष्योंसे कहा-'तुमलोग यहाँ रहनेवाले सब लोगोंको इस राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ।' उनकी आज्ञा पाते ही आश्रमवासी मनुष्य शीघ्रतापूर्वक उस राज्यसे हट गये और सीमासे बाहर जाकर उन्होंने अपने डेरे डाल दिये। तदनन्तर शुक्राचार्य अरजासे बोले-' ओ नीय बुद्धिवाली कन्या! तू अपने चित्तको एकाग्र करके सदा इस आश्रमपर ही निवास कर। यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। अरजे! तू रजोगुणसे रहित सात्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षोंतक यहीं रह ।' महर्षिका यह आदेश सुन अरजाने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की। उस समय वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। शुक्राचार्यने कन्यासे उपर्युक्त बात कहकर वहाँ दूसरे आश्रमके लिये प्रस्थान किया। ब्रह्मवादी महर्षिके कथनानुसार विन्ध्यगिरिके शिखरोंपर फैला हुआ राजा दण्डका समूचा राज्य एक सप्ताह के भीतर ही जलकर खाक हो गया। तबसे वह विशाल वन 'दण्डकारण्य' कहलाता है। रघुनन्दन। आपने जो मुझसे पूछा था, वह सारा प्रसंग मैंने कह सुनाया, अब सन्ध्योपासनका समय बीता जा रहा है। ये महर्षिगण सब ओर जलसे भरे पड़े लेकर अयं दे भगवान् सूर्यकी पूजा कर रहे हैं। आपभी चलकर सन्ध्यावन्दन करें।
ऋषिकी आज्ञा मानकर श्रीरघुनाथजी सन्ध्योपासन करनेके लिये उस पवित्र सरोवर के तटपर गये। आचमन एवं सायं सन्ध्या करके श्रीरघुनाथजी महात्मा कुम्भज के आश्रम में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आदरके साथ अधिक गुणकारी फल मूल तथा रसीले साग भोजनके लिये अर्पण किये। नरश्रेष्ठ श्रीरामने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस अमृतके समान मधुर भोजनका भोग लगाया और पूर्ण तृप्त होकर रात्रिमें वहीं शयन किया। सबेरे उठकर
उन्होंने अपना नित्यकर्म किया और वहाँसे विदा होनेके लिये महर्षिके पास गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिको प्रणाम किया और कहा- 'ब्रह्मन् ! अब मैं आपसे विदा होना चाहता हूँ, आप आज्ञा देनेकी कृपा करें महामुने। आज मैं आपके दर्शनसे कृतार्थ और अनुगृहीत हुआ।'
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसे अद्भुत वचन कहनेपर तपस्वी अगस्त्यजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-'श्रीराम ! कल्याणमय अक्षरोंसे युक्त आपका यह वचन बड़ा ही अद्भुत है। रघुनन्दन। यह सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाला है। जो मनुष्य आपको दो घड़ी भी देख लेतेहैं, वे समस्त प्राणियोंमें पवित्र हैं और देवता कहलाते हैं।" रघुश्रेष्ठ आप समस्त देहधारियोंके लिये परम पावन हैं आपका प्रभाव ऐसा ही है। जो लोग आपकी चर्चा करेंगे, उन्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी। आप इस मार्गसे शान्त एवं निर्भय होकर जाइये और धर्मपूर्वक राज्यका पालन कीजिये; क्योंकि आप ही इस जगत्के एकमात्र सहारे हैं।'
महर्षिके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामचन्द्रजीने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा अन्यान्य मुनिवरोंको भी, जो सब-के-सब तपस्याके धनी थे, सादर अभिवादन करके वे शान्तभावसे सुवर्णभूषित पुष्पक विमानपर चढ़ गये। यात्राके समय मुनिगणने सब ओरसे उनपर आशीर्वादोंकी वर्षा की समस्त पुरुषार्थोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजी दोपहर होते-होते अयोध्या में पहुँचकर सातवीं ड्योढ़ीमें उतरे। तत्पश्चात् उन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले उस परम सुन्दर पुष्पक विमानको विदा कर दिया। फिर महाराजने द्वारपालोंसे कहा-'तुमलोग फुर्तीसे जाकर भरत और लक्ष्मणको मेरे आगमनकी सूचना दो और उन्हें अपने साथ ही लिवा लाओ; विलम्बन करना।' द्वारपाल आज्ञाके अनुसार जाकर दोनों कुमारोंको बुला ले आये। श्रीरघुनाथजी अपने प्रियबन्धु भरत और लक्ष्मणको देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें छातीसे लगाकर बोले- 'मैंने ब्राह्मणके शुभकार्यका यथावत् सम्पादन किया है। अब मैं [ प्रतिमास्थापन, देवालय-निर्माण आदि] पूर्त-धर्मका अनुष्ठान करूँगा। वीरो ! मेरा कान्यकुब्ज देशमें जाकर भगवान् वामनकी प्रतिष्ठा करनेका विचार है।'