शिवजी कहते हैं - नारद! अब मैं दीक्षाकी यथार्थ विधिका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। इस विधिका अनुष्ठान न करके केवल श्रवण मात्रसे भी मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। विद्वान् पुरुष इस बात को समझ ले कि साधारण कीटसे लेकर ब्रह्मजीतक यह सम्पूर्ण जगत् नश्वर है; इसमें आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक- इन तीन प्रकारके दुःखोंका ही अनुभव होता है । यहाँके जितने सुख हैं, ये सभी अनित्य हैं अतः उन्हें भी दुःखौकी हो श्रेणीमें रखें। फिर विरक्त होकर उनसे अलग हो जाय और संसारबन्धनसे छूटने के लिये उपायोंका विचार करे साथ ही सर्वोत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोंको भी सोचे तथा पूर्ण शान्त बना रहे। नाना प्रकारके कर्मोंका ठीक ठीक सम्पादन बहुत कठिन है, ऐसा समझकर परम बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह अत्यन्त चिन्तित होकर श्रीगुरुदेवकी सरणमें जाय जो शान्त हों, जिनमें मात्सर्यका नितान्त अभाव हो, जो श्रीकृष्णके अनन्य भत हो, जिनके मनमें श्रीकृष्ण-प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई कामना न हो, जो भगवत्कृपाके सिवा दूसरे किसी साधनका भरोसा न करते हों, जिनमें क्रोध और लोभ लेशमात्र भी न हो, जो श्रीकृष्णरसके तत्त्व और श्रीकृष्णमन्त्रकी जानकारी रखनेवालों में श्रेष्ठ हो, जिन्होंने श्रीकृष्णमन्त्रका ही आश्रय लिया हो, जो सदा मन्त्रके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हों, सर्वदा पवित्र रहते हों, प्रतिदिन सद्धर्मका उपदेश देते और लोगोंको सदाचारमें प्रवृत्त करते हों, ऐसे कृपालु एवं विरक्त महात्मा ही गुरु कहलाते हैं। शिष्य भी ऐसा होना चाहिये, जिसमें प्रायः उपर्युक्त गुण मौजूद हो इसके सिवा उसे गुरुचरणोंकीसेवाके लिये इच्छुक, गुरुका नितान्त भक्त तथा मुमुक्षु होना चाहिये। जिसमें ऐसी योग्यता हो, वही शिष्य कहलाता है। प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान् श्रीकृष्णकी साक्षात् सेवाका जो अवसर मिलता है, उसीको वेद वेदांगका ज्ञान रखनेवाले विद्वानोंने मोक्ष कहा है।
शिष्यको चाहिये कि वह गुरुके चरणोंकी शरणमें जाकर उनसे अपना वृत्तान्त निवेदन करे तथा गुरुको उचित है कि वे अत्यन्त प्रसन्न होकर बारम्बार समझाते हुए शिष्यके सन्देहोंका निराकरण करें, तत्पश्चात् उसे मन्त्रका उपदेश दें। चन्दन या मिट्टी लेकर शिष्यकी बायीं और दाहिनी भुजाओंके मूल-भागमें क्रमशः शंख और चक्रका चिह्न अंकित करें। फिर ललाट आदिमें विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्र लगायें। तदनन्तर पहले बताये हुए दोनों मन्त्रोंका शिष्यके दाहिने कानमें उपदेश करें तथा क्रमशः उन मन्त्रोंका अर्थ भी उसे अच्छी तरह समझा दें। फिर यत्नपूर्वक उसका कोई नूतन नाम रखें, जिसके अन्तमें 'दास' शब्द जुड़ा हो। इसके बाद विद्वान् शिष्य प्रेमपूर्वक वैष्णवोंको भोजन कराये तथा अत्यन्त भक्तिके साथ वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा श्रीगुरुका पूजन करे। इतना ही नहीं, अपने शरीरको भी गुरुकी सेवामें समर्पित कर दे।
नारद! अब मैं तुम्हें शरणागत पुरुषोंके धर्म बताना चाहता हूँ, जिनका आश्रय लेकर कलियुगके मनुष्य भगवान्के धाममें पहुँच जायँगे। ऊपर बताये अनुसार गुरुसे मन्त्रका उपदेश पाकर गुरुभक्त शिष्य प्रतिदिन गुरुकी सेवामें संलग्न हो अपने ऊपर उनकी पूर्ण कृपा समझे। तदनन्तर सत्पुरुषोंके, उनमें भी विशेषतः शरणागतोंके धर्म सीखे और वैष्णवोंको अपना इष्टदेवसमझकर सदा उन्हें संतुष्ट रखे। शरणागत शिष्यको कभी इहलोक और परलोककी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इहलोकके जितने भी सुख भोग हैं, वे पूर्वजन्ममें किये हुए कमके अनुसार प्राप्त होते हैं। [अतः जितना प्रारब्धमें होगा, उतना अपने-आप मिल जायगा ] और जो परलोकका सुख है, उसे तो भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही पूर्ण करेंगे। अतः मनुष्यको इहलोक और परलोकके सुखोंके लिये किये जानेवाले प्रयत्नका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। सब प्रकारके उपायोंका परित्याग करके अपनेको श्रीकृष्णका सेवक समझकर निरन्तर उन्हींकी आराधनामें संलग्न रहना चाहिये। जैसे पतिव्रता स्त्री चिरकालसे परदेश गये हुए अपने पतिके लिये सदा दीन बनी रहती है प्रियतममें अनुराग रखती हुई केवल उसीसे मिलनेकी आकांक्षा रखती है, निरन्तर उसीके गुणोंका चिन्तन, गायन और श्रवण करती है, उसी प्रकार शरणागत भक्तको भी सदा श्रीकृष्णके गुण तथा लीला आदिका स्मरण, कीर्तन और श्रवण करते रहना चाहिये। परन्तु यह सब किसी दूसरे फलका साधन बनाकर कदापि नहीं करना चाहिये। जैसे पतिव्रता कामिनी चिरकालके बाद परदेशसे लौटे हुए पतिको एकान्तमें पाकर उसे छातीसे लगाती तथा नेत्रोंसे उसकी रूप-सुधाका पान करती है, साथ ही वह अधिक प्रसन्नताके साथ उसकी सेवामें लग जाती है, उसी प्रकार अर्चाविग्रह (स्वयं प्रकट हुई मूर्ति) के रूपमें अवतीर्ण हुए भगवान्के साथ रहकर भक्तको निरन्तर उनकी परिचर्या में लगे रहना चाहिये। वह सदा अनन्य भावसे भगवान्की शरणमै रहे। भगवान्की आराधना के सिवा दूसरे किसी साधनका न तो आश्रय ले और न दूसरे साधनकी इच्छा करे। भगवान्के सिवा अन्य किसी वस्तुसे प्रयोजन न रखे कभी किसीकी निन्दा न करे न तो दूसरेका जूठा खाय और न दूसरेका प्रसाद ही ग्रहण करे। भगवान् और वैष्णवोंकी निन्दा कभी न सुने। यदि कहीं निन्दा होती होतो कान बंद करके वहाँसे अन्यत्र चला जाय। विप्रवर नारद! मेरा तो ऐसा विचार है कि शरणागत भक्तको मृत्युपर्यन्त चातकी वृत्तिका आश्रय लेकर युगल मन्त्रके अर्थका विचार करते हुए रहना चाहिये। जैसे चातक सरोवर, समुद्र और नदी आदिको छोड़कर केवल मेघसे पानीकी याचना करता है अथवा प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक भगवत्प्राप्तिके साधनोंपर विचार करना चाहिये। अपने इष्टदेव श्रीराधा और श्रीकृष्णसे इस बातकी याचना करनी चाहिये कि वे उसे आश्रय प्रदान करें। सदा अपने इष्टदेवके, उनके भक्तोंके और विशेषतः गुरुके अनुकूल रहना चाहिये । प्रतिकूलताका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। मैं एक बार शरणमें जाकर अनुभवपूर्वक कहता हूँ-श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनोंके गुण परम कल्याणमय हैं; मेरी बातपर विचार करके शरणागत पुरुष उनपर विश्वास करे कि ये दोनों इष्टदेव निश्चय ही मेरा उद्धार करेंगे। फिर विनीत भावसे प्रार्थना करते हुए कहे- 'नाथ! आप ही दोनों पुत्र, मित्र और गृह आदिकी ममतासे पूर्ण इस संसारसागरसे मेरी रक्षा करनेवाले हैं। आप ही शरणागतोंका भय दूर करते हैं। मैं जैसा भी हूँ, इस लोक और परलोकमें मेरा जो कुछ भी है, वह सब आज मैंने आप दोनोंके चरणोंमें समर्पित कर दिया। मैं अपराधोंका घर हूँ। मैंने सब साधन छोड़ रखे हैं; अब मुझे कोई सहारा देनेवाला नहीं है, इसलिये नाथ! अब आप ही दोनों मेरे आश्रय हैं। राधिकाकान्त ! मैं मन, वाणी और कर्मसे आपका हूँ। कृष्णप्रिया राधे ! मैं आपका ही हूँ, आप ही दोनों मेरी गति हैं। मैं आपकी शरण में पड़ा हूँ। आप दोनों करुणाके भंडार - दयाके सागर हैं; मुझपर कृपा करें। मैं दुष्ट हूँ, अपराधी हूँ; तो भी कृपा करके मुझे अपना दास्यभाव प्रदान करें।' मुनिश्रेष्ठ! जो भक्त शीघ्र ही दास्यभावकी प्राप्ति चाहता हो, उसे भगवान्के चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए प्रतिदिन उपर्युक्त प्रार्थना करनी चाहिये ।'यहाँतक मैंने शरणागतोंके बाह्य धर्मोका संक्षेपसे वर्णन किया है। अब उनके अत्यन्त उत्कृष्ट आन्तरिक धर्मका परिचय दिया जाता है। अन्तरंग तको यत्नपूर्वक कृष्णप्रिया श्रीराधाके सखीभावका आश्रय लेकर निरन्तर उन दोनोंकी सेवा करनी चाहिये तथा आलस्यको अपने पास फटकने नहीं देना चाहिये। मन्त्र और उसके अंगोंका पहले वर्णन किया जा चुका है। उसके अधिकारी, अधिकारियोंके धर्म तथा उन्हें मिलनेवाले फलका भी प्रतिपादन किया गया है। नारद! तुम भी इस साधनाका अनुष्ठान करो; तुम्हें श्रीराधा और श्रीकृष्णके दास्य भावकी प्राप्ति अवश्य होगी इसमें कोई संदेह नहीं है जो एक बार भी शरणमें जा 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर याचना करता है, उसे भगवान् अवश्य ही अपना दासत्व प्रदान करते हैं। मेरे मनमें इसके लिये अन्यथा विचार करनेकी गुंजाइश नहीं है। मुनिवर। यह मैंने तुमसे शरणागत भक्तके आन्तरिक धर्मका वर्णन किया है। यह गुह्यसे भी बढ़कर अत्यन्त गुह्यतम विषय है, इसलिये इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये-सर्वत्र प्रकाशित नहीं करना चाहिये।
इस प्रसंग में मैं तुम्हें अत्यन्त अद्भुत रहस्यकी बात बतलाता हूँ, जिसे मैंने साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे सुना था। पूर्वकालकी बात हैं, मैं कैलाश पर्वतके शिखरपर एक सघन वनमें रहता था और यहाँ भगवान् श्रीनारायणका ध्यान करते हुए उनके श्रेष्ठ मन्त्रका जप करता था। इससे संतुष्ट होकर भगवान् मेरे सामने प्रकट हुए और बोले-'वर माँगो' उनके य कहनेपर मैंने आँखें खोलकर देखा, भगवान् अपनी प्रिया श्रीलक्ष्मीजीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। मैंने बारम्बारप्रणाम करके लक्ष्मीपतिसे कहा-'कृपासिन्धो! आपका जो रूप परम आनन्ददायक, सम्पूर्ण आनन्दोंका आश्रय, नित्य, मनोहर मूर्तिधारी, सबसे श्रेष्ठ निर्गुण, निष्क्रिय और शान्त है, जिसे विद्वान् पुरुष ब्रह्म कहते हैं, उसको मैं अपने नेत्रोंसे देखना चाहता हूँ।' यह सुनकर भगवान् कमलापतिने मुझ शरणागत भक्त से कहा - 'महादेव! तुम्हारे मनमें मेरे जिस रूपको देखनेकी इच्छा है, उसका अभी दर्शन करोगे। यमुनाके पश्चिम तटपर मेरा लीला-धाम वृन्दावन है वहीं चले जाओ।' यों कहकर वे जगदीश्वर अपनी प्रियाके साथ अन्तर्धान हो गये। तब मैं भी यमुनाके सुन्दर तटपर चला आया। वहाँ मुझे सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर श्रीकृष्णका दर्शन हुआ, जो किशोरावस्थासे युक्त, कमनीय गोपवेष धारण किये,अपनी प्रियाके कंधेपर बायाँ हाथ रखकर खड़े थे। उनकी वह की बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। चारों ओरसे गोषियोंका समुदाय था और बीचमें भगवान् खड़े होकर श्रीराधिकाजीको हँसाते हुए स्वयं ही हँस रहे थे। उनका श्रीविग्रह सजल मेघके समान श्यामवर्ण तथा कल्याणमय गुणका धाम था। श्रीकृष्ण मुझे देखकर हँसे उनकी वाणीमें अमृत भरा था। वे मुझसे बोले- 'रुद्र। तुम्हारा मनोरथ जानकर आज मैंने तुम्हें दर्शन दिया। इस समय मेरे जिस अलौकिक रूपको तुम देख रहे हो, यह निर्मल प्रेमका पुंज है। इसके रूपमें सत्, चित् और आनन्द ही मूर्तिमान् हुए हैं। उपनिषदोंके समूह मेरे इसी स्वरूपको निराकार, निर्गुण, व्यापक, निष्क्रिय और परात्पर बतलाते हैं। मेरे दिव्य गुणोंका अन्त नहीं है तथा उन गुणोंको कोई सिद्ध नहीं कर सकता; इसीलिये वेदान्त शास्त्र मुझ ईश्वरको निर्गुण बतलाता है। महेश्वर! मेरा यह रूप चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता; अतः सम्पूर्ण वेद मुझे अरूप-निराकार कहते हैं। मैं अपने चैतन्यअंशसे सर्वत्र व्यापक हूँ। इससे विद्वान् लोग मुझे 'ब्रह्म' के नाम से पुकारते हैं। मैं इस प्रपंचका कर्ता नहीं हूँ इसलिये शास्त्र मुझे निष्क्रिय बताते हैं। शिव! मेरे अंश ही मायामय गुणोंके द्वारा सृष्टि आदि कार्य करते हैं। मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता। महादेव! मैं तो इन गोपियोंके प्रेममें विल होकर न तो दूसरी कोई क्रिया जानता हूँ और न मुझे अपने आपका ही भान रहता है। ये मेरी प्रिया श्रीराधिका हैं; इन्हें परा देवता समझो। मैं इनके प्रेमके वशीभूत होकर सदा इन्होंके साथ विचरण करता है। इनके पीछे और अगल-बगलमें जो लाखों सखियाँ हैं, ये सब की सब नित्य हैं। जैसे मेरा विग्रह नित्य है, वैसे ही इनका भी है। मेरे सखा, पिता, गोप, गौएँ तथा वृन्दावन – ये सब नित्य हैं। इन सबका स्वरूप चिदानन्दरसमय ही है। मेरे इस वृन्दावनका नाम आनन्दकन्द समझो। इसमें प्रवेश करने मात्रसे मनुष्यको पुनः संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता। मैं वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाता। अपनी इस प्रियाके साथ सदा यहीं निवास करता हूँ । रुद्र! तुम्हारे मनमें जिस-जिस बातको जाननेकी इच्छा थी, वह सब मैंने बता दिया। बोलो, इस समय मुझसे और क्या सुनना चाहते हो ?'
मुनिश्रेष्ठ नारद! तब मैंने भगवान्से कहा 'प्रभो। आपके इस स्वरूपको प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसका उपाय मुझे बताइये।' भगवान्ने कहा 'रुद्र! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है; किन्तु यह विषय अत्यन्त रहस्यका है, इसलिये इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। देवेश्वर ! जो दूसरे उपायका भरोसा छोड़कर एक बार हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है और गोपीभावसे मेरी उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है जो एक बार हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है अथवा अकेली मेरी इस प्रियाको ही अनन्यभावसे उपासना करता है, वह मुझे अवश्य प्राप्त होता है। जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं आपका ऐसा कह देता है, वह साधनके बिना भी मुझे प्राप्त कर लेता है—इसमें संशय नहीं है। * इसलियेसर्वथा प्रयत्न करके मेरी प्रियाकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। रुद्र मेरी प्रियाका आश्रय लेकर तुम भी मुझे अपने वशमें कर सकते हो। यह बड़े रहस्यकी बात है, जिसे मैंने तुम्हें बता दिया है। तुम्हें यत्नपूर्वक इसे छिपाये रखना चाहिये। अब तुम भी मेरी प्रियतमा श्रीराधाकी शरण लो और मेरे युगल मन्त्रका जप करते हुए सदा मेरे इस धाममें निवास करो।'
यह कहकर दयानिधान श्रीकृष्ण मेरे दाहिने कानमें पूर्वोक्त युगल मन्त्रका उपदेश देकर मेरे देखते-देखते वहीं अपने गणोंसहित अन्तर्धान हो गये। तबसे मैं भी निरन्तर यहीं रहता हूँ। नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूछे हुए विषयका सांगोपांग वर्णन कर दिया।
सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! पूर्वकालमें भगवान् शंकरने साक्षात् श्रीकृष्णके मुखसे इस रहस्यका ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने नारदजीसे कहा और नारदजीने मुझे इसका उपदेश दिया था [ वही आज मैंने यहाँ आपको सुनाया है। ] आपको भी उचित है कि इस परमअद्भुत रहस्यको सदा गोपनीय रखें- इसे हर एकके सामने प्रकट न करें।
शौनकने कहा- गुरुदेव ! आपकी कृपासे आज कृतकृत्य हो गया; क्योंकि आपने मेरे सामने यह मैं रहस्योंका भी रहस्य प्रकाशित किया है।
सूतजी कहते हैं - ब्रह्मन्! आप भी अहर्निश युगल मन्त्रका जप करते हुए इन धर्मोका पालन कीजिये। थोड़े ही दिनोंमें आपको भगवान्के दास्यभावकी प्राप्ति हो जायगी। मैं भी यमुनाके तटपर भगवान् गोपीनाथके नित्य धाम वृन्दावनमें जा रहा हूँ। महादेवजीके मुखसे निकला हुआ यह उत्तम चरित्र परम पवित्र है, इसमें महान् अनुभव भरा हुआ है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, वे अवश्य ही भगवान्के परमपदको प्राप्त होते हैं। यह स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्तिका भी कारण और समस्त पापका नाशक है। जो लोग सदा भगवान् विष्णुकी सेवामें तत्पर रहकर इसका भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं, उन्हें विष्णुलोकसे कभी किसी तरह भी पुन: इस संसारमें नहीं आना पड़ता।