वात्स्यायन बोले- फणीश्वर जो भक्तको पौड़ा दूर करनेके लिये नाना प्रकारको कोर्ति किया करते हैं. उन syaruaat कथा सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती- अधिकाधिक सुननेको इच्छा बढ़ती जाती है। वेदोको धारण करनेवाले आरण्यक मुनि धन्य थे, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके उनके सामने हो अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था। शेषजी! अब यह बताइये कि महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँसे किस ओर गया, किसने उसे पकड़ा तथा वहाँ रमानाथ श्रीरघुनाथजोको कोर्तिका किस प्रकार विस्तार हुआ ?
शेषजीने कहा- ब्रह्मयें। आपका प्रश्न बड़ा सुन्दर है। आप औरघुनाथजीके सुने हुए गुणोंको भी नहीं सुने हुएके समान मानकर उनके प्रति अपना लोभ प्रकट करते हैं और बारम्बार उन्हें पूछते हैं। अच्छा, अब आगेकी कथा सुनिये। बहुतेरे सैनिकोंसे घिरा हुआ वह घोड़ा आरण्यक मुनिके आश्रम से बाहर निकला और नर्मदाके मनोहर तटपर भ्रमण करता हुआ देवनिर्मित देवपुर नामक नगर में जा पहुँचा जहाँ मनुष्योंके घरोंको दीवारें स्फटिक मणिकी बनी हुई थीं तथा वे गृह अपनी ऊँचाईके कारण हाथियोंसे भरे हुए विन्ध्याचल पर्वतका उपहास करते थे वहाँकी प्रजाके घर भी चाँदीके बने हुए दिखायी देते थे तथा उनके गोपुर नाना प्रकारके माणिक्योंद्वारा बने हुए थे जिनमें भाँति-भाँतिको विचित्र मणियाँ जड़ी हुई थीं। उस नगरमें महाराज वीरमणि राज्य करते थे, जी धर्मात्माओं में अग्रगण्य थे। उनका विशाल राज्य सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था। राजाके पुत्रका नाम था रुक्मांगद वह महान् शूरवीर और बलवान् था। एक दिन वह सुन्दर शरीरवाली रमणियों के साथ विहार करनेके लिये वनमें गया और वहाँ प्रसन्नचित्त होकर मधुर वाणीमें मनोहर गान करता हुआ विचरने लगा। इसी समय परम बुद्धिमान् राजाधिराजश्रीरामचन्द्रजीका वह शोभाशाली अश्व उस वनमें आ पहुँचा। उसके ललाटमें स्वर्णपत्र बँधा हुआ था। शरीरका रंग गंगाजल के समान स्वच्छ था। परन्तु केसर और कुंकुमसे चर्चित होनेके कारण कुछ पीला दिखायी देता था। वह अपनी तीव्र गतिसे वायुके वेगको भी तिरस्कृत कर रहा था। उसका स्वरूप अत्यन्त कौतूहलसे भरा हुआ था उसे देखकर राजकुमारकी स्त्रियोंने कहा—'प्रियतम! स्वर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह महान् अश्व किसका है? यह देखनेमें बड़ा सुन्दर है। आप इसे बलपूर्वक पकड़ लें।'
राजकुमारके नेत्र लीलायुक्त चितवनके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। उसने स्त्रियोंकी बातें सुनकर खेल-सा करते हुए एक ही हाथसे घोड़ेको पकड़ लिया। उसके भालपत्रपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए थे। राजकुमार उसे बाँचकर हँसा और उस महिला मण्डलमें इस प्रकार बोला-'अहो! शौर्य और सम्पत्तिमें मेरे पिता महाराज वीरमणिकी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है, तथापि उनके जीते जी ये राजा रामचन्द्र इतना अहंकार कैसे धारण करते हैं? पिनाकधारी भगवान् शंकर जिनकी सदा रक्षा करते रहते हैं तथा देवता, दानव और यक्ष- अपने मणिमय मुकुटद्वारा जिनके चरणोंकी बन्दना किया करते हैं, वे महाबली मेरे पिताजी ही इस घोड़ेके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करें। इस समय यह घुड़सालमें जाय और मेरे सैनिक इसे ले जाकर वहाँ बाँध दें।' इस प्रकार उस घोड़ेको पकड़कर राजा वीरमणिका ज्येष्ठ पुत्र रुक्मांगद अपनी पत्नियोंके साथ नगरमें आया। उस समय उसके मनमें बड़ा उत्साह भरा हुआ था। उसने पितासे जाकर कहा-'मैं रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रका घोड़ा ले आया हूँ। यह इच्छानुसार चलनेवाला अद्भुत अश्व अश्वमेधयज्ञके लिये छोड़ा गया था। रामके भाई शत्रुघ्न अपनी विशाल सेनाके साथ - इसकी रक्षाके लिये आये हैं।' महाराज वीरमणि बड़ेबुद्धिमान् थे। पुत्रकी बात सुनकर उन्होंने उसके कार्यकी प्रशंसा नहीं की। सोचा कि 'यह घोड़ा लेकर चुपकेसे चला आया है। इसका यह कार्य तो चोरके समान है।' अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् शंकर राजाके इष्टदेव थे। उनसे राजाने सारा हाल कह सुनाया।
भगवान् शिवने कहा- राजन् ! तुम्हारे पुत्रने बड़ा अद्भुत काम किया है। यह परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीरामचन्द्रके महान् अश्वको हर लाया है, जिनका मैं अपने हृदयमें ध्यान करता हूँ, जिह्वा से जिनके नामका उच्चारण करता हूँ, उन्हीं श्रीरामके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका तुम्हारे पुत्रने अपहरण किया है। परन्तु इस युद्धक्षेत्रमें एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हमलोग भक्तोंद्वारा सेवित श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन कर सकेंगे। परन्तु अब हमें अश्वकी रक्षा के लिये महान् प्रयत्न करना होगा। इतनेपर भी मुझे संदेह है कि शत्रुघ्नके सैनिक मेरे द्वारा रक्षा किये जानेपर भी इसे बलपूर्वक पकड़ ले जायेंगे। इसलिये महाराज [मैं तो यही सलाह दूंगा कि] तुम विनीत होकर जाओ और राज्यसहित इस सुन्दर अश्वको भगवान्की सेवामें अर्पण करके उनके चरणोंका दर्शन करो।
वीरमणि बोले- भगवन्! क्षत्रियोंका यह धर्म है। कि वे अपने प्रतापकी रक्षा करें, अतः हर एक मानी पुरुषके लिये अपने प्रतापकी रक्षा करना कर्तव्य है; इसके लिये उसे अपनी शक्तिभर पराक्रम करना चाहिये। आवश्यकता हो तो शरीरको भी होम देना चाहिये। सहसा किसीकी शरणमें जानेसे शत्रु उपहास करते हैं। वे कहते हैं-'यह कायर है, राजाओंमें अधम है. शुद्र है। इस नौचने भयसे विल होकर अनार्यपुरुषोंकी भाँति शत्रुके चरणोंमें मस्तक झुकाया है। अतः अब युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है। इस समय जैसा उचित हो, वही आप करें। कर्तव्यका विचार करके आपको अपने इस भक्तकी रक्षा करनी चाहिये ।
शेषजी कहते हैं-राजाकी बात सुनकर भगवान् चन्द्रमौलि अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका मन लुभाते हुए हँसकर बोले- 'राजन् ! यदि तैंतीसकरोड़ देवता भी आ जायें तो भी किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे द्वारा रक्षित रहनेपर तुमसे घोड़ा ले सके। यदि साक्षात् भगवान् यहाँ आकर अपने स्वरूपकी झाँकी करायेंगे तो मैं उनके कोमल चरणोंमें मस्तक झुकाऊँगा; क्योंकि सेवकका स्वामीके साथ युद्ध करना बहुत बड़ा अन्याय बताया गया है। शेष जितने वीर हैं, वे मेरे लिये तिनकेके समान हैं- कुछ भी नहीं कर सकते। अतः राजेन्द्र ! तुम युद्ध करो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरे रहते कौन ऐसा वीर है जो बलपूर्वक घोड़ा ले जा सके? यदि त्रिलोकी भी संगठित होकर आ जाय तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।'
इधर श्रीरघुनाथजीके जितने सैनिक थे, वे अश्वका मार्ग ढूँढ़ रहे थे। इतने ही में महाराज शत्रुघ्न भी अपनी विशाल सेनाके साथ आ पहुँचे। आते ही उन्होंने सभी सेवकोंसे प्रश्न किया-'कहाँ है मेरा अश्व ? स्वर्णपत्रसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी घोड़ा इस समय दिखायी क्यों नहीं देता ?' उनकी बात सुनकर अश्वके पीछे चलनेवाले सेवकोंने कहा- नाथ! उस मनके समान तीव्रगामी अश्वको इस जंगलमें किसीने हर लिया। हमें भी वह कहीं दिखायी नहीं देता।' सेवकोंके वचन सुनकर राजा शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा-'मन्त्रिवर! यहाँ कौन राजा निवास करता है? हमें अश्वकी प्राप्ति कैसे होगी? जिसने आज हमारे अश्वका अपहरण किया है, उस राजाके पास कितनी सेना है?' इस प्रकार शकुनी मन्त्रीकेसाथ परामर्श कर रहे थे इतनेहीमें देवर्षि नारद युद्ध देखनेके लिये उत्सुक होकर वहाँ आये। शत्रुघ्नने उन्हें स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। वे बातचीत करनेमें बड़े चतुर थे; अतः अपनी वाणीसे नारदजीको प्रसन्न करते हुए बोले- 'महामते! बताइये, मेरा अश्व कहाँ है? उसका कुछ पता नहीं चलता। मेरे कार्यकुशल अनुसार भी उसके मार्गका अनुसन्धान नहीं कर पाते।'
नारदजी वीणा बजाते और श्रीराम कथाका बारम्बार गान करते हुए बोले-'राजन् यहाँ देवपुर नामका नगर है उसमें वीरमणि नामसे विख्यात एक बहुत बड़े राजा रहते हैं। उनका पुत्र इस वनमें आया था, उसीनेअश्वको पकड़ लिया है। आज उस राजाके साथ तुमलोगोंका बड़ा भयंकर युद्ध होगा। उसमें बड़े-बड़े बलवान् और शूरवीर मारे जायेंगे। इसलिये तुम पूरी तैयारीके साथ यहाँ स्थिरतापूर्वक खड़े रहो तथा सेनाका ऐसा व्यूह बनाओ जिसमें शत्रुके सैनिकका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन हो। श्रेष्ठ राजा वीरमणिसे युद्ध करते समय तुम्हें बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा; तथापि अन्तमें विजय तुम्हारी ही होगी। भला, सम्पूर्ण जगत्में कौन ऐसा वीर है, जो भगवान् श्रीरामको पराजित कर सके।' ऐसा कहकर नारदजी वहाँसे अन्तर्धान हो गये और देवता तथा दानवोंके समान उन दोनों पक्षोंका भयंकर युद्ध देखनेके लिये आकाशमें ठहर गये।
उधर शूरशिरोमणि राजा वीरमणिने रिपुवार नामक सेनापतिको बुलाया और उसे अपने नगरमें ढिंढोरा पिटवानेका आदेश दिया। सेनापतिने राजाकी आज्ञाका पालन किया। प्रत्येक घर, गली और सड़कपर डंकेकी आवाज सुनायी देने लगी। लोगोंको जो घोषणा सुनायी गयी, वह इस प्रकार थी राजधानीमें जो-जो वीर उपस्थित हैं, वे सभी शत्रुघ्नपर चढ़ाई करें। जो लोगवीरता के अभिमानमें आकर राजाज्ञाका उल्लंघन करेंगे, वे महाराजके पुत्र या भाई ही क्यों न हों, वधके योग्य समझे जायेंगे। फिरसे डंका बजाकर उपर्युक्त घोषणा दुहराई जाती है-सभी वीर सुन लें और सुनकर शीघ्र ही अपने कर्तव्यका पालन करें। विलम्ब नहीं होना चाहिये।" नरश्रेष्ठ वीरमणिके सैनिक श्रेष्ठ योद्धा थे। उन्होंने यह घोषणा अपने कानों सुनी और कवच आदिसे सुसजित होकर वे महाराजके पास गये। उनकी दृष्टिमें युद्ध एक महान् उत्सवके समान था; उसका अवसर पाकर उनका हृदय हर्ष और उत्साहसे भर गया था। राजकुमार रुक्मांगद भी अपने मनके समान वेगशाली रथपर सवार होकर आये। उनके छोटे भाई शुभांगद भी अपने सुन्दर शरीरपर बहुमूल्य रत्नमय कवच धारण करके रणोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये प्रस्थित हुए। महाराजके भाईका नाम था वीरसिंह ये सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें प्रवीण थे। राजाज्ञाके अनुसार वे भी दरबारमें गये; क्योंकि महाराजका शासन कोई लाँघ नहीं सकता था। राजाका भानजा बलमित्र भी उपस्थित हुआ तथा सेनापति रिपुकारने भी चतुरंगिणी सेना तैयार करके महाराजको इसकी सूचना दी।
तदनन्तर राजा वीरमणि सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे भरे हुए अपने श्रेष्ठ रथपर सवार हुए। वह रथ बहुत ऊँचा था और उसके ऊँचे-ऊँचे पहिये मणियोंके बने हुए थे चारों ओर भैरियाँ बज उठीं। उनके बजानेवाले बहुत अच्छे थे। भेरी बजते ही राजाकी सेना संग्रामके लिये प्रस्थित हुई। सर्वत्र कोलाहल छा गया। महाराज वीरमणि युद्धके उत्साहसे युक्त होकर रणक्षेत्रकी ओर गये। राजकी सेना आ पहुँची। शस्त्र-संचालनमें चतुर रथियोंके द्वारा समूची सेनामें महान् कोलाहल छा रहा है, यह देखकर शत्रुघ्नने सुमति से कहा- 'मन्त्रिवर! मेरे अश्वको पकड़नेवाले बलवान् राजा वीरमणि मुझसे युद्ध करनेके लिये विशाल चतुरंगी सेनाके साथ आ गये अब किस तरह युद्ध आरम्भ करना चाहिये। कौन-कौन महाबली योद्धा इस समय युद्ध करेंगे? उन सबको आदेश दो; जिससे इस संग्राममें हमें मनोवांछित विजय प्राप्त हो।'सुमतिने कहा- स्वामिन्! वीर पुष्कल श्रेष्ठ अस्त्रोंक ज्ञाता है; इस समय ये ही युद्ध करें। नीलरत्न आदि दूसरे योद्धा भी संग्राममें कुशल है; अतः वे भी लड़ सकते हैं। आपको तो भगवान् शंकर अथवा राजा मणिके साथ ही युद्ध करना चाहिये। वे राजा बड़े बलवान् और पराक्रमी हैं; उन्हें द्वन्द्वयुद्धके द्वारा जीतना चाहिये। इस उपायसे काम लेनेपर आपकी विजय होगी। इसके बाद आपको जैसा जैचे, वैसा ही कीजिये: क्योंकि आप तो स्वयं ही परम बुद्धिमान् हैं।
मन्त्रीकी यह बात सुनकर शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले शत्रुघ्नने युद्धके लिये निश्चय किया और श्रेष्ठ योद्धाओंको लड़नेकी आज्ञा दी। संग्रामके लिये उनकी आज्ञा सुनकर युद्धकुशल वीर अत्यन्त उत्साहसे भर गये और शत्रुसैनिकोंके साथ बुद्ध करनेके लिये चले वे हाथोंमें धनुष धारण किये युद्धके मैदानमें दिखायी दिये और बाणोंकी बौछार करके बहुतेरे विपक्षी योद्धाओंको विदीर्ण करने लगे। उनके द्वारा अपने सैनिकका संहार सुनकर मणिमय स्थपर बैठा हुआ बलवान् राजकुमार रुक्मांगद उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा। उसने अपने अनेकों वाणोंकी मारसे शत्रुपक्षके हजारों वीरोंको उद्विग्न कर दिया। उनमें हाहाकार मच गया। राजकुमार बलवान् था; उसने बल, यश और सम्पत्तिमें अपनी समानता रखनेवाले शत्रुघ्न तथा भरतकुमार पुष्कलको युद्धके लिये ललकारा - 'वीररत्न! मुझसे युद्ध करनेके लिये आओ। इन करोड़ों मनुष्योंको डराने या मारनेसे क्या लाभ? मेरे साथ घोर संग्राम करके विजय प्राप्त करो।'
स्वमांगद के ऐसा कहनेपर बलवान् वीर पुष्कल हँस पड़े। उन्होंने अपने तीखे बाणोंसे राजकुमारकी छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। राजकुमार शत्रुके इस पराक्रमको नहीं सह सका। उसने अपने महान् धनुषपर बाणका सन्धान किया और दस सायकोंसे वीर पुष्फलको छातीको बींध डाला। दोनों ही युद्धमें एक दूसरेपर कुपित थे। दोनोंहीके हृदयमें विजयकी अभिलाषा थी। रुक्मांगदने पुष्कलसे कहा-'वीरअब तुम बलपूर्वक किया हुआ मेरा पराक्रम देखो। सम्हलकर बैठ जाओ, मैं तुम्हारे रथको आकाश उड़ाता हूँ।' ऐसा कहकर उसने मन्त्र पढ़ा और पुष्कलके रथपर भ्रामकास्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आहत होकर पुष्कलका रथ चक्कर काटता हुआ एक योजन दूर जा पड़ा। सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथको रोका तो भी वह पृथ्वीपर ही चक्कर लगाता रहा। किसी तरह पूर्वस्थानपर रथको ले जाकर उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता पुष्कलने कहा- 'राजकुमार। तुम्हारे जैसे वीर पृथ्वीपर रहनेके योग्य नहीं हैं। तुम्हें तो इन्द्रकी सभायें रहना चाहिये; इसलिये अब देवलोकको ही चले जाओ।' ऐसा कहकर उन्होंने आकाशमें उड़ा देनेवाले महान् अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणकी चोटसे रुक्मांगदका रथ सीधे आकाशमें उड़ चला और समस्त लोकोंको लाँघता हुआ सूर्यमण्डलतक जा पहुँचा। वहाँकी प्रचण्ड ज्वालासे राजकुमारका रथ घोड़े और सारथिसहित दग्ध हो गया तथा वह स्वयं भी सूर्यकी किरणोंसे झुलस जानेके कारण बहुत दुःखी हो गया। अन्तमें वह दग्ध होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय युद्ध के अग्रभागमें महान् हाहाकार मचा राजा वीरमणि अपने पुत्रको मूच्छित देखकर क्रोधमें भर गये और रणभूमिके मध्यभागमें खड़े हुए पुष्कलकी ओर चले। इधर कपिवर हनुमानजीने जब देखा कि समुद्रके समान विशाल सेनाके भीतर स्थित हुए राजा वीरमणि भरतकुमार पुष्कलको ललकार रहे हैं तब वे उनकी ओर दौड़े। उन्हें आते देख पुष्कलने कहा- 'महाकपे आप क्यों युद्धभूमिमें लड़नेके लिये आ रहे हैं? राजा वीरमणिकी यह सेना है ही कितनी मैं तो इसे बहुत थोड़ी - अत्यन्त तुच्छ समझता हूँ। जिस प्रकार आपने भगवान् श्रीरामकी कृपासे राक्षस-सेनारूपी समुद्रको पार किया था, उसी प्रकार में भी श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके इस दुस्तर संकटके पार हो जाऊँगा। जो लोग दुस्तर अवस्थामें पड़कर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हैं, उनका दुःखरूपी समुद्र सूख जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है; इसलिये महावीर। आप चाचा शत्रुघ्न केपास जाइये। मैं अभी एक क्षणमें राजा वीरमणिको जीतकर आ रहा हूँ।'
हनुमान्जी बोले- बेटा! राजा वीरमणिसे भिड़नेका साहस न करो ये दानी, शरणागतकी रक्षामें कुशल, बलवान् और शौर्यसे शोभा पानेवाले हैं। तुम अभी बालक हो और राजा वृद्ध ये सम्पूर्ण अस्ववेत्ताओंगे श्रेष्ठ हैं। इन्होंने युद्धमें अनेकों शूरवीरोंको परास्त किया है तुम्हें मालूम होना चाहिये कि भगवान् सदाशिव इनके रक्षक हैं और सदा इनके पास रहते हैं। वे राजाकी भक्तिके वशीभूत होकर इनके नगरमें पार्वतीसहित निवास करते हैं।
पुष्कलने कहा- कपिश्रेष्ठ माना कि राजाने भगवान् शंकरको भक्तिसे वशमें करके अपने नगरमें स्थापित कर रखा है; परन्तु भगवान् शंकर स्वयं जिनकी आराधना करके सर्वोत्कृष्ट स्थानको प्राप्त हुए हैं, वे श्रीरघुनाथजी मेरा हृदय छोड़कर कहीं नहीं जाते। जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं, वहीं सम्पूर्ण चराचर जगत् है; अतः मैं राजा वीरमणिको युद्धमें जीत लूंगा।
धीरतापूर्वक कही हुई पुष्कलकी ऐसी वाणी सुनकर हनुमानजी राजाके छोटे भाई वीरसिंहसे युद्ध करनेके लिये चले गये। पुष्कल द्वैरथ-युद्धमें कुशल थे और सुवर्णजटित रथपर विराजमान थे। वे राजाको ललकारते देख उनका सामना करनेके लिये गये। उन्हें आया देखकर राजा वीरमणिने कहा- 'बालक! मेरे सामने न आओ, मैं इस समय क्रोधमें भरा हूँ; युद्धमें मेरा क्रोध और भी बढ़ जाता है; यदि प्राण बचानेकी इच्छा हो तो लौट जाओ मेरे साथ युद्ध मत करो।' राजाका यह वचन सुनकर पुष्कलने कहा- 'राजन् ! आप युद्धके मुहानेपर सँभलकर खड़े होइये। मैं श्रीरामका भक्त हूँ; मुझे कोई युद्धमें जीत नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र पदका ही अधिकारी क्यों न हो।' पुष्कलका ऐसा वचन सुनकर राजाओंमें अग्रगण्य वीरमणि उन्हें निरा बालक समझकर हँसने लगे, तत्पश्चात् उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया। राजाको कुपित जानकर रणोन्मत्त वीर भरतकुमारने उनकी छातीमें बीस तीखे बाणोंका प्रहार किया। उन बाणकोआते देख राजाने अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वाणका का जाता देख वीरोंका विनाश करनेवाले भरतकुमारके हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तीन बाणोंसे राजाके ललाटको बाँध डाला। उन बाणोंकी चोटसे राजाको बड़ी व्यथा हुई। वे प्रचण्ड क्रोधमें भर गये और वीर पुष्कलकी छातीमें उन्होंने नौ बाण मारे तब तो पुष्कलका क्रोध भी बढ़ा। उन्होंने तीखे पर्ववाले सी बाण मारकर तुरंत ही राजाको घायल कर दिया। उन बाणोंके प्रहारसे राजाका कवच, किरीट, शिरस्त्राण तथा रथ- सभी छिन्न-भिन्न हो गये। तब वीरमणि दूसरे रथपर सवार होकर भरतकुमारके सामने आये और बोले—' श्रीरामचन्द्रजीके चरण-कमलोंमें भ्रमरके समान अनुराग रखनेवाले वीर पुष्कल! तुम धन्य हो !' ऐसा कहकर अस्त्र-विद्यामें कुशल राजाने उनपर असंख्य बाणका प्रहार किया। वहाँ पृथ्वीपर और दिशाओंमें उनके बाणोंके सिवा दूसरा कुछ नहीं दिखायी देता था। अपनी सेनाका यह संहार देखकर रथियोंमें अग्रगण्य पुष्कलने भी शत्रुपक्षके योद्धाओंका विनाश आरम्भ किया। हाथियोंके मस्तक विदीर्ण होने लगे, उनके मोती बिखर-बिखरकर गिरने लगे। उस समय क्रोधमै भरे हुए पुष्कलने राजा वीरमणिको सम्बोधित करके शंख बजाकर निर्भयतापूर्वक कहा- 'राजन्! आप वृद्ध होनेके कारण मेरे मान्य हैं, तथापि इस समय युद्धमें मेरा महान् पराक्रम देखिये बोरवर! यदि तीन बाणोंसे मैं आपको मूच्छित न कर दूँ तो जो महापापी मनुष्य पापहारिणी गंगाजीके तटपर जाकर भी उनकी निन्दा करके उनके जलमें डुबकी नहीं लगाता, उसको लगनेवाला पाप मुझे ही लगे।'
यह कहकर पुष्कलने राजाके महान् वक्षःस्थलको, जो किवाड़ोंके समान विस्तृत था निशाना बनाया और एक अग्निके समान तेजस्वी एवं तीक्ष्ण बाण छोड़ा। किन्तु राजाने अपने बाणसे पुष्कलके उस बाणके दो टुकड़े कर डाले। उनमेंसे एक टुकड़ा तो भूमण्डलको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा और दूसराराजाके रथपर गिरा। तब पुष्कलने अपना मातृ भक्तिजनित पुण्य अर्पण करके दूसरा बाण चलाया; किन्तु राजाने अपने महान् बाणसे उसको भी काट दिया। इससे पुष्कलके मनमें बड़ा खेद हुआ। वे सोचने लगे-'अब क्या करना चाहिये ?' इतनेहीमें उन्हें एक उपाय सूझ गया। वे श्रेष्ठ अस्त्रोंके ज्ञाता तो थे ही, अपनी पीड़ा दूरकरनेवाले श्रीरघुनाथजीका उन्होंने मन-ही-मन स्मरण किया और तीसरा बाण छोड़ दिया। वह बाण सर्पके समान विषैला और सूर्यके समान प्रज्वलित था। उसने राजाकी छातीमें चोट पहुँचाकर उन्हें मूच्छित कर दिया। राजाके मूच्छित होते ही उनकी सारी सेना हाहाकार मचाती हुई भाग चली और पुष्कल विजयी हुए ।