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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 118 - Khand 4, Adhyaya 118

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देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना

वात्स्यायन बोले- फणीश्वर जो भक्तको पौड़ा दूर करनेके लिये नाना प्रकारको कोर्ति किया करते हैं. उन syaruaat कथा सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती- अधिकाधिक सुननेको इच्छा बढ़ती जाती है। वेदोको धारण करनेवाले आरण्यक मुनि धन्य थे, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके उनके सामने हो अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था। शेषजी! अब यह बताइये कि महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँसे किस ओर गया, किसने उसे पकड़ा तथा वहाँ रमानाथ श्रीरघुनाथजोको कोर्तिका किस प्रकार विस्तार हुआ ?

शेषजीने कहा- ब्रह्मयें। आपका प्रश्न बड़ा सुन्दर है। आप औरघुनाथजीके सुने हुए गुणोंको भी नहीं सुने हुएके समान मानकर उनके प्रति अपना लोभ प्रकट करते हैं और बारम्बार उन्हें पूछते हैं। अच्छा, अब आगेकी कथा सुनिये। बहुतेरे सैनिकोंसे घिरा हुआ वह घोड़ा आरण्यक मुनिके आश्रम से बाहर निकला और नर्मदाके मनोहर तटपर भ्रमण करता हुआ देवनिर्मित देवपुर नामक नगर में जा पहुँचा जहाँ मनुष्योंके घरोंको दीवारें स्फटिक मणिकी बनी हुई थीं तथा वे गृह अपनी ऊँचाईके कारण हाथियोंसे भरे हुए विन्ध्याचल पर्वतका उपहास करते थे वहाँकी प्रजाके घर भी चाँदीके बने हुए दिखायी देते थे तथा उनके गोपुर नाना प्रकारके माणिक्योंद्वारा बने हुए थे जिनमें भाँति-भाँतिको विचित्र मणियाँ जड़ी हुई थीं। उस नगरमें महाराज वीरमणि राज्य करते थे, जी धर्मात्माओं में अग्रगण्य थे। उनका विशाल राज्य सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था। राजाके पुत्रका नाम था रुक्मांगद वह महान् शूरवीर और बलवान् था। एक दिन वह सुन्दर शरीरवाली रमणियों के साथ विहार करनेके लिये वनमें गया और वहाँ प्रसन्नचित्त होकर मधुर वाणीमें मनोहर गान करता हुआ विचरने लगा। इसी समय परम बुद्धिमान् राजाधिराजश्रीरामचन्द्रजीका वह शोभाशाली अश्व उस वनमें आ पहुँचा। उसके ललाटमें स्वर्णपत्र बँधा हुआ था। शरीरका रंग गंगाजल के समान स्वच्छ था। परन्तु केसर और कुंकुमसे चर्चित होनेके कारण कुछ पीला दिखायी देता था। वह अपनी तीव्र गतिसे वायुके वेगको भी तिरस्कृत कर रहा था। उसका स्वरूप अत्यन्त कौतूहलसे भरा हुआ था उसे देखकर राजकुमारकी स्त्रियोंने कहा—'प्रियतम! स्वर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह महान् अश्व किसका है? यह देखनेमें बड़ा सुन्दर है। आप इसे बलपूर्वक पकड़ लें।'

राजकुमारके नेत्र लीलायुक्त चितवनके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। उसने स्त्रियोंकी बातें सुनकर खेल-सा करते हुए एक ही हाथसे घोड़ेको पकड़ लिया। उसके भालपत्रपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए थे। राजकुमार उसे बाँचकर हँसा और उस महिला मण्डलमें इस प्रकार बोला-'अहो! शौर्य और सम्पत्तिमें मेरे पिता महाराज वीरमणिकी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है, तथापि उनके जीते जी ये राजा रामचन्द्र इतना अहंकार कैसे धारण करते हैं? पिनाकधारी भगवान् शंकर जिनकी सदा रक्षा करते रहते हैं तथा देवता, दानव और यक्ष- अपने मणिमय मुकुटद्वारा जिनके चरणोंकी बन्दना किया करते हैं, वे महाबली मेरे पिताजी ही इस घोड़ेके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करें। इस समय यह घुड़सालमें जाय और मेरे सैनिक इसे ले जाकर वहाँ बाँध दें।' इस प्रकार उस घोड़ेको पकड़कर राजा वीरमणिका ज्येष्ठ पुत्र रुक्मांगद अपनी पत्नियोंके साथ नगरमें आया। उस समय उसके मनमें बड़ा उत्साह भरा हुआ था। उसने पितासे जाकर कहा-'मैं रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रका घोड़ा ले आया हूँ। यह इच्छानुसार चलनेवाला अद्भुत अश्व अश्वमेधयज्ञके लिये छोड़ा गया था। रामके भाई शत्रुघ्न अपनी विशाल सेनाके साथ - इसकी रक्षाके लिये आये हैं।' महाराज वीरमणि बड़ेबुद्धिमान् थे। पुत्रकी बात सुनकर उन्होंने उसके कार्यकी प्रशंसा नहीं की। सोचा कि 'यह घोड़ा लेकर चुपकेसे चला आया है। इसका यह कार्य तो चोरके समान है।' अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् शंकर राजाके इष्टदेव थे। उनसे राजाने सारा हाल कह सुनाया।

भगवान् शिवने कहा- राजन् ! तुम्हारे पुत्रने बड़ा अद्भुत काम किया है। यह परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीरामचन्द्रके महान् अश्वको हर लाया है, जिनका मैं अपने हृदयमें ध्यान करता हूँ, जिह्वा से जिनके नामका उच्चारण करता हूँ, उन्हीं श्रीरामके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका तुम्हारे पुत्रने अपहरण किया है। परन्तु इस युद्धक्षेत्रमें एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हमलोग भक्तोंद्वारा सेवित श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन कर सकेंगे। परन्तु अब हमें अश्वकी रक्षा के लिये महान् प्रयत्न करना होगा। इतनेपर भी मुझे संदेह है कि शत्रुघ्नके सैनिक मेरे द्वारा रक्षा किये जानेपर भी इसे बलपूर्वक पकड़ ले जायेंगे। इसलिये महाराज [मैं तो यही सलाह दूंगा कि] तुम विनीत होकर जाओ और राज्यसहित इस सुन्दर अश्वको भगवान्‌की सेवामें अर्पण करके उनके चरणोंका दर्शन करो।

वीरमणि बोले- भगवन्! क्षत्रियोंका यह धर्म है। कि वे अपने प्रतापकी रक्षा करें, अतः हर एक मानी पुरुषके लिये अपने प्रतापकी रक्षा करना कर्तव्य है; इसके लिये उसे अपनी शक्तिभर पराक्रम करना चाहिये। आवश्यकता हो तो शरीरको भी होम देना चाहिये। सहसा किसीकी शरणमें जानेसे शत्रु उपहास करते हैं। वे कहते हैं-'यह कायर है, राजाओंमें अधम है. शुद्र है। इस नौचने भयसे विल होकर अनार्यपुरुषोंकी भाँति शत्रुके चरणोंमें मस्तक झुकाया है। अतः अब युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है। इस समय जैसा उचित हो, वही आप करें। कर्तव्यका विचार करके आपको अपने इस भक्तकी रक्षा करनी चाहिये ।

शेषजी कहते हैं-राजाकी बात सुनकर भगवान् चन्द्रमौलि अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका मन लुभाते हुए हँसकर बोले- 'राजन् ! यदि तैंतीसकरोड़ देवता भी आ जायें तो भी किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे द्वारा रक्षित रहनेपर तुमसे घोड़ा ले सके। यदि साक्षात् भगवान् यहाँ आकर अपने स्वरूपकी झाँकी करायेंगे तो मैं उनके कोमल चरणोंमें मस्तक झुकाऊँगा; क्योंकि सेवकका स्वामीके साथ युद्ध करना बहुत बड़ा अन्याय बताया गया है। शेष जितने वीर हैं, वे मेरे लिये तिनकेके समान हैं- कुछ भी नहीं कर सकते। अतः राजेन्द्र ! तुम युद्ध करो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरे रहते कौन ऐसा वीर है जो बलपूर्वक घोड़ा ले जा सके? यदि त्रिलोकी भी संगठित होकर आ जाय तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।'

इधर श्रीरघुनाथजीके जितने सैनिक थे, वे अश्वका मार्ग ढूँढ़ रहे थे। इतने ही में महाराज शत्रुघ्न भी अपनी विशाल सेनाके साथ आ पहुँचे। आते ही उन्होंने सभी सेवकोंसे प्रश्न किया-'कहाँ है मेरा अश्व ? स्वर्णपत्रसे सुशोभित वह यज्ञसम्बन्धी घोड़ा इस समय दिखायी क्यों नहीं देता ?' उनकी बात सुनकर अश्वके पीछे चलनेवाले सेवकोंने कहा- नाथ! उस मनके समान तीव्रगामी अश्वको इस जंगलमें किसीने हर लिया। हमें भी वह कहीं दिखायी नहीं देता।' सेवकोंके वचन सुनकर राजा शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा-'मन्त्रिवर! यहाँ कौन राजा निवास करता है? हमें अश्वकी प्राप्ति कैसे होगी? जिसने आज हमारे अश्वका अपहरण किया है, उस राजाके पास कितनी सेना है?' इस प्रकार शकुनी मन्त्रीकेसाथ परामर्श कर रहे थे इतनेहीमें देवर्षि नारद युद्ध देखनेके लिये उत्सुक होकर वहाँ आये। शत्रुघ्नने उन्हें स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। वे बातचीत करनेमें बड़े चतुर थे; अतः अपनी वाणीसे नारदजीको प्रसन्न करते हुए बोले- 'महामते! बताइये, मेरा अश्व कहाँ है? उसका कुछ पता नहीं चलता। मेरे कार्यकुशल अनुसार भी उसके मार्गका अनुसन्धान नहीं कर पाते।'

नारदजी वीणा बजाते और श्रीराम कथाका बारम्बार गान करते हुए बोले-'राजन् यहाँ देवपुर नामका नगर है उसमें वीरमणि नामसे विख्यात एक बहुत बड़े राजा रहते हैं। उनका पुत्र इस वनमें आया था, उसीनेअश्वको पकड़ लिया है। आज उस राजाके साथ तुमलोगोंका बड़ा भयंकर युद्ध होगा। उसमें बड़े-बड़े बलवान् और शूरवीर मारे जायेंगे। इसलिये तुम पूरी तैयारीके साथ यहाँ स्थिरतापूर्वक खड़े रहो तथा सेनाका ऐसा व्यूह बनाओ जिसमें शत्रुके सैनिकका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन हो। श्रेष्ठ राजा वीरमणिसे युद्ध करते समय तुम्हें बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा; तथापि अन्तमें विजय तुम्हारी ही होगी। भला, सम्पूर्ण जगत्‌में कौन ऐसा वीर है, जो भगवान् श्रीरामको पराजित कर सके।' ऐसा कहकर नारदजी वहाँसे अन्तर्धान हो गये और देवता तथा दानवोंके समान उन दोनों पक्षोंका भयंकर युद्ध देखनेके लिये आकाशमें ठहर गये।

उधर शूरशिरोमणि राजा वीरमणिने रिपुवार नामक सेनापतिको बुलाया और उसे अपने नगरमें ढिंढोरा पिटवानेका आदेश दिया। सेनापतिने राजाकी आज्ञाका पालन किया। प्रत्येक घर, गली और सड़कपर डंकेकी आवाज सुनायी देने लगी। लोगोंको जो घोषणा सुनायी गयी, वह इस प्रकार थी राजधानीमें जो-जो वीर उपस्थित हैं, वे सभी शत्रुघ्नपर चढ़ाई करें। जो लोगवीरता के अभिमानमें आकर राजाज्ञाका उल्लंघन करेंगे, वे महाराजके पुत्र या भाई ही क्यों न हों, वधके योग्य समझे जायेंगे। फिरसे डंका बजाकर उपर्युक्त घोषणा दुहराई जाती है-सभी वीर सुन लें और सुनकर शीघ्र ही अपने कर्तव्यका पालन करें। विलम्ब नहीं होना चाहिये।" नरश्रेष्ठ वीरमणिके सैनिक श्रेष्ठ योद्धा थे। उन्होंने यह घोषणा अपने कानों सुनी और कवच आदिसे सुसजित होकर वे महाराजके पास गये। उनकी दृष्टिमें युद्ध एक महान् उत्सवके समान था; उसका अवसर पाकर उनका हृदय हर्ष और उत्साहसे भर गया था। राजकुमार रुक्मांगद भी अपने मनके समान वेगशाली रथपर सवार होकर आये। उनके छोटे भाई शुभांगद भी अपने सुन्दर शरीरपर बहुमूल्य रत्नमय कवच धारण करके रणोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये प्रस्थित हुए। महाराजके भाईका नाम था वीरसिंह ये सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें प्रवीण थे। राजाज्ञाके अनुसार वे भी दरबारमें गये; क्योंकि महाराजका शासन कोई लाँघ नहीं सकता था। राजाका भानजा बलमित्र भी उपस्थित हुआ तथा सेनापति रिपुकारने भी चतुरंगिणी सेना तैयार करके महाराजको इसकी सूचना दी।

तदनन्तर राजा वीरमणि सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे भरे हुए अपने श्रेष्ठ रथपर सवार हुए। वह रथ बहुत ऊँचा था और उसके ऊँचे-ऊँचे पहिये मणियोंके बने हुए थे चारों ओर भैरियाँ बज उठीं। उनके बजानेवाले बहुत अच्छे थे। भेरी बजते ही राजाकी सेना संग्रामके लिये प्रस्थित हुई। सर्वत्र कोलाहल छा गया। महाराज वीरमणि युद्धके उत्साहसे युक्त होकर रणक्षेत्रकी ओर गये। राजकी सेना आ पहुँची। शस्त्र-संचालनमें चतुर रथियोंके द्वारा समूची सेनामें महान् कोलाहल छा रहा है, यह देखकर शत्रुघ्नने सुमति से कहा- 'मन्त्रिवर! मेरे अश्वको पकड़नेवाले बलवान् राजा वीरमणि मुझसे युद्ध करनेके लिये विशाल चतुरंगी सेनाके साथ आ गये अब किस तरह युद्ध आरम्भ करना चाहिये। कौन-कौन महाबली योद्धा इस समय युद्ध करेंगे? उन सबको आदेश दो; जिससे इस संग्राममें हमें मनोवांछित विजय प्राप्त हो।'सुमतिने कहा- स्वामिन्! वीर पुष्कल श्रेष्ठ अस्त्रोंक ज्ञाता है; इस समय ये ही युद्ध करें। नीलरत्न आदि दूसरे योद्धा भी संग्राममें कुशल है; अतः वे भी लड़ सकते हैं। आपको तो भगवान् शंकर अथवा राजा मणिके साथ ही युद्ध करना चाहिये। वे राजा बड़े बलवान् और पराक्रमी हैं; उन्हें द्वन्द्वयुद्धके द्वारा जीतना चाहिये। इस उपायसे काम लेनेपर आपकी विजय होगी। इसके बाद आपको जैसा जैचे, वैसा ही कीजिये: क्योंकि आप तो स्वयं ही परम बुद्धिमान् हैं।

मन्त्रीकी यह बात सुनकर शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले शत्रुघ्नने युद्धके लिये निश्चय किया और श्रेष्ठ योद्धाओंको लड़नेकी आज्ञा दी। संग्रामके लिये उनकी आज्ञा सुनकर युद्धकुशल वीर अत्यन्त उत्साहसे भर गये और शत्रुसैनिकोंके साथ बुद्ध करनेके लिये चले वे हाथोंमें धनुष धारण किये युद्धके मैदानमें दिखायी दिये और बाणोंकी बौछार करके बहुतेरे विपक्षी योद्धाओंको विदीर्ण करने लगे। उनके द्वारा अपने सैनिकका संहार सुनकर मणिमय स्थपर बैठा हुआ बलवान् राजकुमार रुक्मांगद उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा। उसने अपने अनेकों वाणोंकी मारसे शत्रुपक्षके हजारों वीरोंको उद्विग्न कर दिया। उनमें हाहाकार मच गया। राजकुमार बलवान् था; उसने बल, यश और सम्पत्तिमें अपनी समानता रखनेवाले शत्रुघ्न तथा भरतकुमार पुष्कलको युद्धके लिये ललकारा - 'वीररत्न! मुझसे युद्ध करनेके लिये आओ। इन करोड़ों मनुष्योंको डराने या मारनेसे क्या लाभ? मेरे साथ घोर संग्राम करके विजय प्राप्त करो।'

स्वमांगद के ऐसा कहनेपर बलवान् वीर पुष्कल हँस पड़े। उन्होंने अपने तीखे बाणोंसे राजकुमारकी छातीमें बड़े वेगसे प्रहार किया। राजकुमार शत्रुके इस पराक्रमको नहीं सह सका। उसने अपने महान् धनुषपर बाणका सन्धान किया और दस सायकोंसे वीर पुष्फलको छातीको बींध डाला। दोनों ही युद्धमें एक दूसरेपर कुपित थे। दोनोंहीके हृदयमें विजयकी अभिलाषा थी। रुक्मांगदने पुष्कलसे कहा-'वीरअब तुम बलपूर्वक किया हुआ मेरा पराक्रम देखो। सम्हलकर बैठ जाओ, मैं तुम्हारे रथको आकाश उड़ाता हूँ।' ऐसा कहकर उसने मन्त्र पढ़ा और पुष्कलके रथपर भ्रामकास्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आहत होकर पुष्कलका रथ चक्कर काटता हुआ एक योजन दूर जा पड़ा। सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथको रोका तो भी वह पृथ्वीपर ही चक्कर लगाता रहा। किसी तरह पूर्वस्थानपर रथको ले जाकर उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता पुष्कलने कहा- 'राजकुमार। तुम्हारे जैसे वीर पृथ्वीपर रहनेके योग्य नहीं हैं। तुम्हें तो इन्द्रकी सभायें रहना चाहिये; इसलिये अब देवलोकको ही चले जाओ।' ऐसा कहकर उन्होंने आकाशमें उड़ा देनेवाले महान् अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणकी चोटसे रुक्मांगदका रथ सीधे आकाशमें उड़ चला और समस्त लोकोंको लाँघता हुआ सूर्यमण्डलतक जा पहुँचा। वहाँकी प्रचण्ड ज्वालासे राजकुमारका रथ घोड़े और सारथिसहित दग्ध हो गया तथा वह स्वयं भी सूर्यकी किरणोंसे झुलस जानेके कारण बहुत दुःखी हो गया। अन्तमें वह दग्ध होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय युद्ध के अग्रभागमें महान् हाहाकार मचा राजा वीरमणि अपने पुत्रको मूच्छित देखकर क्रोधमें भर गये और रणभूमिके मध्यभागमें खड़े हुए पुष्कलकी ओर चले। इधर कपिवर हनुमानजीने जब देखा कि समुद्रके समान विशाल सेनाके भीतर स्थित हुए राजा वीरमणि भरतकुमार पुष्कलको ललकार रहे हैं तब वे उनकी ओर दौड़े। उन्हें आते देख पुष्कलने कहा- 'महाकपे आप क्यों युद्धभूमिमें लड़नेके लिये आ रहे हैं? राजा वीरमणिकी यह सेना है ही कितनी मैं तो इसे बहुत थोड़ी - अत्यन्त तुच्छ समझता हूँ। जिस प्रकार आपने भगवान् श्रीरामकी कृपासे राक्षस-सेनारूपी समुद्रको पार किया था, उसी प्रकार में भी श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके इस दुस्तर संकटके पार हो जाऊँगा। जो लोग दुस्तर अवस्थामें पड़कर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हैं, उनका दुःखरूपी समुद्र सूख जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है; इसलिये महावीर। आप चाचा शत्रुघ्न केपास जाइये। मैं अभी एक क्षणमें राजा वीरमणिको जीतकर आ रहा हूँ।'

हनुमान्जी बोले- बेटा! राजा वीरमणिसे भिड़नेका साहस न करो ये दानी, शरणागतकी रक्षामें कुशल, बलवान् और शौर्यसे शोभा पानेवाले हैं। तुम अभी बालक हो और राजा वृद्ध ये सम्पूर्ण अस्ववेत्ताओंगे श्रेष्ठ हैं। इन्होंने युद्धमें अनेकों शूरवीरोंको परास्त किया है तुम्हें मालूम होना चाहिये कि भगवान् सदाशिव इनके रक्षक हैं और सदा इनके पास रहते हैं। वे राजाकी भक्तिके वशीभूत होकर इनके नगरमें पार्वतीसहित निवास करते हैं।

पुष्कलने कहा- कपिश्रेष्ठ माना कि राजाने भगवान् शंकरको भक्तिसे वशमें करके अपने नगरमें स्थापित कर रखा है; परन्तु भगवान् शंकर स्वयं जिनकी आराधना करके सर्वोत्कृष्ट स्थानको प्राप्त हुए हैं, वे श्रीरघुनाथजी मेरा हृदय छोड़कर कहीं नहीं जाते। जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं, वहीं सम्पूर्ण चराचर जगत् है; अतः मैं राजा वीरमणिको युद्धमें जीत लूंगा।

धीरतापूर्वक कही हुई पुष्कलकी ऐसी वाणी सुनकर हनुमानजी राजाके छोटे भाई वीरसिंहसे युद्ध करनेके लिये चले गये। पुष्कल द्वैरथ-युद्धमें कुशल थे और सुवर्णजटित रथपर विराजमान थे। वे राजाको ललकारते देख उनका सामना करनेके लिये गये। उन्हें आया देखकर राजा वीरमणिने कहा- 'बालक! मेरे सामने न आओ, मैं इस समय क्रोधमें भरा हूँ; युद्धमें मेरा क्रोध और भी बढ़ जाता है; यदि प्राण बचानेकी इच्छा हो तो लौट जाओ मेरे साथ युद्ध मत करो।' राजाका यह वचन सुनकर पुष्कलने कहा- 'राजन् ! आप युद्धके मुहानेपर सँभलकर खड़े होइये। मैं श्रीरामका भक्त हूँ; मुझे कोई युद्धमें जीत नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र पदका ही अधिकारी क्यों न हो।' पुष्कलका ऐसा वचन सुनकर राजाओंमें अग्रगण्य वीरमणि उन्हें निरा बालक समझकर हँसने लगे, तत्पश्चात् उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया। राजाको कुपित जानकर रणोन्मत्त वीर भरतकुमारने उनकी छातीमें बीस तीखे बाणोंका प्रहार किया। उन बाणकोआते देख राजाने अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण सायकोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वाणका का जाता देख वीरोंका विनाश करनेवाले भरतकुमारके हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तीन बाणोंसे राजाके ललाटको बाँध डाला। उन बाणोंकी चोटसे राजाको बड़ी व्यथा हुई। वे प्रचण्ड क्रोधमें भर गये और वीर पुष्कलकी छातीमें उन्होंने नौ बाण मारे तब तो पुष्कलका क्रोध भी बढ़ा। उन्होंने तीखे पर्ववाले सी बाण मारकर तुरंत ही राजाको घायल कर दिया। उन बाणोंके प्रहारसे राजाका कवच, किरीट, शिरस्त्राण तथा रथ- सभी छिन्न-भिन्न हो गये। तब वीरमणि दूसरे रथपर सवार होकर भरतकुमारके सामने आये और बोले—' श्रीरामचन्द्रजीके चरण-कमलोंमें भ्रमरके समान अनुराग रखनेवाले वीर पुष्कल! तुम धन्य हो !' ऐसा कहकर अस्त्र-विद्यामें कुशल राजाने उनपर असंख्य बाणका प्रहार किया। वहाँ पृथ्वीपर और दिशाओंमें उनके बाणोंके सिवा दूसरा कुछ नहीं दिखायी देता था। अपनी सेनाका यह संहार देखकर रथियोंमें अग्रगण्य पुष्कलने भी शत्रुपक्षके योद्धाओंका विनाश आरम्भ किया। हाथियोंके मस्तक विदीर्ण होने लगे, उनके मोती बिखर-बिखरकर गिरने लगे। उस समय क्रोधमै भरे हुए पुष्कलने राजा वीरमणिको सम्बोधित करके शंख बजाकर निर्भयतापूर्वक कहा- 'राजन्! आप वृद्ध होनेके कारण मेरे मान्य हैं, तथापि इस समय युद्धमें मेरा महान् पराक्रम देखिये बोरवर! यदि तीन बाणोंसे मैं आपको मूच्छित न कर दूँ तो जो महापापी मनुष्य पापहारिणी गंगाजीके तटपर जाकर भी उनकी निन्दा करके उनके जलमें डुबकी नहीं लगाता, उसको लगनेवाला पाप मुझे ही लगे।'

यह कहकर पुष्कलने राजाके महान् वक्षःस्थलको, जो किवाड़ोंके समान विस्तृत था निशाना बनाया और एक अग्निके समान तेजस्वी एवं तीक्ष्ण बाण छोड़ा। किन्तु राजाने अपने बाणसे पुष्कलके उस बाणके दो टुकड़े कर डाले। उनमेंसे एक टुकड़ा तो भूमण्डलको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा और दूसराराजाके रथपर गिरा। तब पुष्कलने अपना मातृ भक्तिजनित पुण्य अर्पण करके दूसरा बाण चलाया; किन्तु राजाने अपने महान् बाणसे उसको भी काट दिया। इससे पुष्कलके मनमें बड़ा खेद हुआ। वे सोचने लगे-'अब क्या करना चाहिये ?' इतनेहीमें उन्हें एक उपाय सूझ गया। वे श्रेष्ठ अस्त्रोंके ज्ञाता तो थे ही, अपनी पीड़ा दूरकरनेवाले श्रीरघुनाथजीका उन्होंने मन-ही-मन स्मरण किया और तीसरा बाण छोड़ दिया। वह बाण सर्पके समान विषैला और सूर्यके समान प्रज्वलित था। उसने राजाकी छातीमें चोट पहुँचाकर उन्हें मूच्छित कर दिया। राजाके मूच्छित होते ही उनकी सारी सेना हाहाकार मचाती हुई भाग चली और पुष्कल विजयी हुए ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार