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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 222 - Khand 5, Adhyaya 222

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देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन

पार्वतीजीने कहा- भगवन्! समस्त पुराणोंमें श्रीमद्भागवत श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके प्रत्येक पदमें महर्षिद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका नाना प्रकारसे गान किया गया है; अतः इस समय उसीके माहात्म्यका इतिहाससहित वर्णन कीजिये ।

श्रीमहादेवजीने कहा- जिनका अभी यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा जो समस्त लौकिक वैदिक कृत्योंका परित्याग करके घरसे निकले जा रहे थे. ऐसे शुकदेवजीको बाल्यावस्थायें ही संन्यासी होते देख उनके पिता श्रीकृष्णद्वैपायनविरहसे कातर हो उठे और 'बेटा! बेटा!! तुम कहाँ चले जा रहे हो ?' इस प्रकार पुकारने लगे। उस समय शुकदेवजीके साथ एकाकार होनेके कारण वृक्षोंने ही उनकी ओरसे उत्तर दिया था। ऐसे सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मारूपसे विराजमान परम ज्ञानी श्रीशुकदेव मुनिको मैं प्रणाम करता हूँ।

एक समय भगवत्कथाका रसास्वादन करनेमें कुशल परम बुद्धिमान् शौनकजीने नैमिषारण्यमें विराजमान सूतजीको नमस्कार करके पूछा।

शौनकजी बोले- सूतजी आप इस समय कोई ऐसी सारगर्भित कथा कहिये, जो हमारे कानोंको अमृतके समान मधुर जान पड़े तथा जो अज्ञानान्धकारका विध्वंस और कोटि-कोटि जन्मोंके पापों का नाश करनेवाली हो। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाला विज्ञान कैसे बढ़ता है तथा वैष्णवलोग किस प्रकार माया मोहका निवारण करते हैं। इस पोर कलिकालमें प्रायः जीव असुरस्वभावके हो गये हैं, इसीलिये वे नाना प्रकारके क्लेशोंसे घिरे रहते हैं; अतः उनकी शुद्धिका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है? इस समय हमें ऐसा कोई साधन बताइये, जोसबसे अधिक कल्याणकारी, पवित्रको भी पवित्र करनेवाला तथा सदाके लिये भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा देनेवाला हो। चिन्तामणि केवल लौकिक सुख देती है, कल्पवृक्ष स्वर्गतककी सम्पत्ति दे सकता है; किन्तु यदि गुरुदेव प्रसन्न हो जायँ तो वे योगियोंको भी कठिनतासे मिलनेवाला नित्य वैकुण्ठधामतक दे सकते हैं।

सूतजीने कहा— शौनकजी! आपके हृदयमें भगवत्कथाके प्रति प्रेम है अतः मैं भलीभाँति विचार करके सम्पूर्ण सिद्धान्तोंद्वारा अनुमोदित और संसार जनित भयका नाश करनेवाले सारभूत साधनका वर्णन करता हूँ। वह भक्तिको बढ़ानेवाला तथा भगवान् श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान हेतु है। आप उसे सावधान होकर सुनें। कलियुगमें कालरूपी सर्पसे डँसे जानेके भयको दूर करनेके लिये ही श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-शास्त्रका उपदेश किया है। मनकी शुद्धिके लिये इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। जब जन्म-जन्मान्तरोंका पुण्य उदय होता है तब कहीं श्रीमद्भागवत - शास्त्रकी प्राप्ति होती है। जिस समय श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित्को कथा सुनानेके लिये सभामें विराजमान हुए, उस समय देवतालोग अमृतका कलश लेकर उनके पास आये। देवता अपना कार्य साधन करनेमें बड़े चतुर होते हैं। वे सब-के-सब श्रीशुकदेवजीको नमस्कार करके कहने लगे- 'मुने ! आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृतका दान दीजिये। इस प्रकार परिवर्तन करके राजा परीक्षित् अमृतका पान करें [ और अमर हो जायँ] तथा हम सब लोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करेंगे। तब श्रीशुकदेवजीने सोचा- 'इस लोकमें कहाँ अमृत औरकहाँ भागवतकथा, कहाँ काँच और कहाँ बहुमूल्य मणि!' यह विचारकर वे देवताओंकी बातपर हँसने लगे, तथा उन्हें अनधिकारी जानकर कथामृतका दान नहीं किया। अतः श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। केवल श्रीमद्भागवतके अग हो राजा परीक्षित्‌का मोक्ष हुआ देख पूर्वकालमें ब्रह्माजीको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला उस समय अन्य सभी साधन हलके पड़ गये, अपने गौरवके कारण श्रीमद्भागवतका ही पलड़ा सबसे भारी रहा। यह देखकर समस्त ऋषियोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इस पृथ्वीपर भगवत्स्वरूप भागवत - शास्त्रको ही पढ़ने-सुननेसे तत्काल भगवान्की प्राप्ति करानेवाला निश्चय किया। यदि एक वर्षमें श्रीमद्भागवतको सुनकर पूरा किया जाय, तो वह श्रवण महान् सौख्य प्रदान करनेवाला होता है। जिसके हृदयमें भगवद्भक्तिकी कामना हो, उसके लिये एक मासमें पूरे श्रीमद्भागवतका श्रवण उत्तम माना गया है। यदि सप्ताहपारायणकी विधिसे इसका श्रवण किया जाय तो यह सर्वथा मोक्ष देनेवाला होता है। पूर्वकालमें सनकादि महर्षियोंने कृपा करके इसे देवर्षि नारदको सुनाया था। यद्यपि देवर्षि नारद श्रीमद्भागवतको पहले ही ब्रह्माजीके मुखसे सुन चुके थे तथापि इसके सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी।

शौनकजी! अब मैं आपको वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना प्रिय शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था। एक समयकी बात है, सनक सनन्दन आदि चारों निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षि सत्संगके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम) में आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा।

सनकादि कुमारोंने पूछा- ब्रहान् आपके मुखपर दीनता क्यों छा रही है। आप चिन्तासे आतुर कैसे हो रहे हैं। इतनी उतावलीके साथ आप जाते कहाँ हैं और आये कहाँसे हैं? इस समय तो आप जिसका सारा धन लुट गया हो, उस पुरुषके समान सुध-बुध खोये हुए हैं।आप जैसे आसक्तिशून्य विरक्त पुरुषकी ऐसी अवस्था होनी तो उचित नहीं है। बताइये, इसका क्या कारण है?

नारदजीने कहा- महात्माओ मैं पृथ्वीको नाग तीर्थोंके कारण] सबसे उत्तम जानकर यहाँकी यात्रा करनेके लिये आया था। आनेपर पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि तीर्थोंमें इधर-उधर विचरता रहा। किन्तु कहीं भी मुझे मनको सन्तोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सखा कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तपस्या, शौच, दया और दान आदि कुछ भी नहीं हैं। बेचारे जीव पेट पालनेमें लगे हैं। वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हो गये हैं। उन्हें तरह तरहके उपद्रव घेरे रहते हैं। साधु-संत कहलानेवाले लोग पाखण्ड में फँस गये हैं। ऊपरसे विरक्त जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तवमै पूरे संग्रही हैं। घर-घरमें स्त्रियोंका राज्य है। साले ही सलाहकार बने हुए हैं। पैसोंके लोभसे कन्याएँतक बेची जाती हैं। पति-पत्नीमें सदा ही कलह मचा रहता है। आश्रमों, तीर्थों और नदियोंपर म्लेच्छोंने अधिकार जमा रखा है। उन दुष्टोंने बहुत-से देवमन्दिर भी नष्ट कर दिये हैं। अब यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध न कोई जानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही इस समय सब साधन कलिरूपी दावानलसे भस्म हो गया है। पृथ्वीपर चारों ओर सभीदेशवासी बाजारोंमें अन्न बेचते हैं। ब्राह्मणलोग पैसे लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिसे जीवन निर्वाह करती देखी जाती हैं। इस प्रकार कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर आ पहुँचा, जहाँ र भगवान् श्रीकृष्णकी लीला हुई थी। मुनीश्वरो ! वहाँ आनेपर मैंने जो आश्चर्यकी बात देखी है, उसे आपलोग सुनें- 'वहाँ एक तरुणी स्त्री बैठी थी; जिसका चित्त बहुत ही खिन्न था। उसके पास ही दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा-शुश्रूषा करती, उन्हें जगाने की चेष्टा करती और अपने प्रयत्नमें असफल होकर रोने लगती थी। बीच-बीचमें दसों दिशाओंकी ओर दृष्टि डालकर वह अपने लिये कोई रक्षक भी ढूँढ़ रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ पंखा झलती हुई उसे बार-बार सान्त्वना दे रही थीं। दूरसे ही यह सब देखकर मैं कौतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री उठकर खड़ी हो गयी और व्याकुल होकर बोली-'महात्माजी !

क्षणभरके लिये ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कीजिये। आपका दर्शन संसारके समस्त पापको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है। आपके वचनोंसे मेरे दुःखकी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। जब बहुत बड़ा भाग्य होता है, तभी आप-जैसे महात्माका दर्शन होता है।'नारदजी कहते हैं— युवतीकी ऐसी बात सुनकर मेरा हृदय करुणासे भर आया और मैंने उत्कण्ठित होकर उस सुन्दरीसे पूछा- देवि! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष कौन हैं? तथा तुम्हारे पास ये कमलके समान नेत्रोंवाली देवियाँ कौन हैं? तुम विस्तारके साथ अपने दुःखका कारण बताओ।

युवती बोली- मेरा नाम भक्ति है, ये दोनों पुरुष मेरे पुत्र हैं; इनका नाम ज्ञान और वैराग्य है। समयके फेरसे आज इनका शरीर जराजीर्ण हो गया है। इन देवियोंके रूपमें गंगा आदि नदियाँ हैं, जो मेरी सेवाके लिये आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख नहीं मिलता। तपोधन! अब तनिक सावधान होकर मेरी बात सुनिये। मेरी कथा कुछ विस्तृत है। उसे सुनकर मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न होकर कर्णाटकमें बड़ी हुई। महाराष्ट्रमें भी कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ। गुजरातमें आनेपर तो मुझे बुढ़ापेने घेर लिया। वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग-भंग कर डाला। तबसे बहुत दिनोंतक मैं दुर्बल ही दुर्बल रही। वृन्दावन मुझे बहुत प्रिय है, इसलिये अपने दोनों पुत्रोंके साथ यहाँ चली आयी। इस स्थानपर आते ही मैं परम सुन्दरी नवयुवती हो गयी। इस समय मेरा रूप अत्यन्त मनोरम हो गया है, परन्तु मेरे ये दोनों पुत्र थके-माँदे होनेके कारण यहीं सोकर कष्ट भोग रहे हैं। मैं यह स्थान छोड़कर विदेश जाना चाहती थी; परन्तु ये दोनों बूढ़े हो गये हैं, इसी दु:खसे मैं दुःखित हो रही हूँ। पता नहीं मैं यहाँ युवती कैसे हो गयी और मेरे ये दोनों पुत्र बूढ़े क्यों हो गये । हम तीनों साथ-ही-साथ यात्रा करते थे, फिर हममें यह विपरीत अवस्था कैसे आ गयी। उचित तो यह है कि माता बूढ़ी हो और बेटे जवान; परन्तु यहाँ उलटी बात हो गयी। इसीलिये मैं चकितचित्त होकर अपने लिये शोक करती हूँ। महात्मन् ! आप परम बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। बताइये, इसमें क्या कारण हो सकता है ?

नारदजी कहते हैं— उसके इस प्रकार पूछनेपरमैंने कहा- साध्वी! मैं अभी ज्ञानदृष्टिसे अपने हृदयके 3 भीतर तुम्हारे दुःखका सारा कारण देखता हूँ। तुम खेद न करो। भगवान् तुम्हें शान्ति देंगे।

तब मुनीश्वर नारदजीने ध्यान लगाया और एक ही क्षणमें उसका कारण जानकर कहा- 'बाले! तुम व ध्यान देकर सुनो। यह कलिकाल बड़ा भयंकर युगदृ है। इसीने सदाचारका लोप कर दिया। योगमार्ग और तप आदि भी लुप्त हो गये हैं। इस समय मनुष्य इ शठता और दुष्कर्ममें प्रवृत्त होकर असुरस्वभावके हो गये हैं। आज जगत् में सज्जन पुरुष दुःखी हैं और दुष्टलोग मौज करते हैं। ऐसे समयमें जो धैर्य धारण किये रहे, वही बुद्धिमान्, धीर अथवा पण्डित है। अब यह पृथ्वी न तो स्पर्श करनेयोग्य रह गयी है और न देखनेयोग्य। यह क्रमशः प्रतिवर्ष शेषनागके लिये भारभूत होती जा रही है। इसमें कहीं भी मंगल नहीं दिखायी देता । तुम्हें और तुम्हारे पुत्रोंको तो अब कोई देखता भी नहीं है। इस प्रकार विषयान्ध मनुष्योंके उपेक्षा करनेसे ही तुम जर्जर हो गयी थी, किन्तु वृन्दावनका संयोग पाकर पुनः नवीन तरुणी-सी हो गयी हो; अतः यह वृन्दावन धन्य है, जहाँ सब ओर भक्ति नृत्य कर रही है ! परन्तु इन ज्ञान और वैराग्यका यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है; इसलिये अभीतक इनका बुढ़ापा दूर नहीं हुआ। इन्हें अपने भीतर कुछ सुख सा प्रतीत हो रहा है, इससे इनकी गाढ़ सुषुप्तावस्थाका अनुमान होता है।

भक्तिने कहा- महर्षे! महाराज परीक्षितने इस अपवित्र कलियुगको पृथ्वीपर रहने ही क्यों दिया ? तथा कलियुगके आते ही सब वस्तुओंका सार कहाँ चला गया ? भगवान् तो बड़े दयालु हैं, उनसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। आपकी बातोंसे मुझे बड़ा सुख मिला है।

नारदजी बोले बाले यदि तुमने पूछा है तो प्रेमपूर्वक सुनो कल्याणी में तुम्हें सब बातें बताऊँगाऔर इससे तुम्हारा सब शोक दूर हो जायगा। जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ कलियुगका आगमन हुआ है, जो समस्त साधनोंमें बाधा उपस्थित करनेवाला है। दिग्विजयके समय जब राजा परीक्षित्की दृष्टि इस कलियुगके ऊपर पड़ी तो यह दीनभावसे उनकी शरण में गया। राजा भँरिके समान सारग्राही थे, इसलिये उन्होंने सोचा कि मुझे इसका वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस कलियुगमें एक बड़ा अद्भुत गुण है अन्य युगों में तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती, वही फल कलियुगमें भगवान् केशवके कीर्तनमात्रसे और अच्छे रूपमें उपलब्ध होता है।" असार होनेपर भी इस एक ही रूपमें यह सारभूत फल प्रदान करनेवाला है, यही देखकर राजा परीक्षितने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये इसे रहने दिया ।

इस समय लोगोंकी खोटे कममें प्रवृत्ति होनेसे सभी वस्तुओंका सार निकल गया है तथा इस पृथ्वीपर जितने भी पदार्थ हैं, वे बीजहीन भूसीके समान निस्सार हो गये हैं। ब्राह्मणलोग धनके लोभसे पर परमें जाकर प्रत्येक मनुष्यको [ अधिकारी अनधिकारीका विचार किये बिना ही ] भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इससे कथाका सार चला गया लोगोंकी दृष्टिमें उसका कुछ महत्त्व नहीं रह गया है तीथोंमें बड़े भयंकर कर्म करनेवाले नास्तिक और दम्भी मनुष्य भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी सार चला गया। जिनका चित्त काम, क्रोध, भारी लोभ और तृष्णासे सदा व्याकुल रहता है, वे भी तपस्वी बनकर बैठते हैं। इसलिये तपस्याका सार भी निकल गया। मनको काबू न करने, लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेने तथा शास्त्रका अभ्यास न करनेके कारण ध्यानयोगका फल भी चला गया। औरोंकी तो बात ही क्या, पण्डितलोग भी अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं। वे सन्तानपैदा करनेमें ही दक्ष हैं। मुक्तिके साधनमें वे नितान्त र असमर्थ पाये जाते हैं। परम्परासे प्राप्त हुआ वैष्णव धर्म कहीं भी नहीं रह गया है। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युगका स्वभाव ही है, इसमें दोष किसीका नहीं है; यही कारण है कि कमलनयन भगवान् विष्णु निकट रहकर भी यह सब कुछ सहन करते हैं।

शौनकजी! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने जो कुछ कहा, उसे आप सुनिये ।

भक्ति बोली- देवर्षे! आप धन्य हैं। मेरेसौभाग्यसे ही आपका यहाँ शुभागमन हुआ है । संसारमें साधु-महात्माओंका दर्शन सब प्रकारके कार्योंको सिद्ध करनेवाला और सर्वश्रेष्ठ साधन है। अब जिस प्रकार मुझे सुख मिले- मेरा दुःख दूर जाय, वह उपाय बताइये। ब्रह्मन्! आप समस्त योगोंके स्वामी हैं, आपके लिये इस समय कुछ भी असाध्य नहीं है। एकमात्र आपके ही सुन्दर उपदेशको सुनकर कयाधू नन्दन प्रह्लादने संसारकी मायाका त्याग किया था तथा राजकुमार ध्रुव भी आपकी ही कृपासे ध्रुवपदको प्राप्त हुए थे। आप सब प्रकारसे मंगलभाजन एवं श्रीब्रह्माजीके पुत्र हैं; मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार