वैश्यने पूछा- मुने राजा दिलीप कौन थे तथा वह नन्दिनी गौ कौन थी, जिसकी आराधना करके महाराजने पुत्र प्राप्त किया था? इस कथाके सुननेके बाद में पत्नीसहित पार्वतीजीकी आराधना करूंगा।देवलने कहा- महामते ! वैवस्वत मनुके वंशमें एक दिलीप नामके श्रेष्ठ राजा हुए हैं। वे धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करते हुए अपने उत्तम गुणके द्वारा समस्त प्रजाको प्रसन्न रखते थे। मगधराजकुमारीसुदक्षिणा राजा दिलीपकी महारानी थी। महारानीको अवधमें आये बहुत दिन हो गये, किन्तु उनके गर्भसे कोई पुत्र नहीं हुआ तब कोसलसम्राट दिलीप अपने मनमें विचार करने लगे कि 'मैंने कोई दोष नहीं किया है और धर्म, अर्थ तथा कामका यथासमय सेवन किया है। फिर मेरे किस दोषके कारण महारानीके गर्भसे सन्तान नहीं हुई? हमारे कुलगुरु वसिष्ठजी भूत और भविष्यके ज्ञाता हैं; वे ही उस दोषको बता सकते हैं, जिससे मुझे पुत्र नहीं हो रहा है।
ऐसा विचारकर राजा अपनी रानीसहित गुरु वसिष्ठके शुभ आश्रमपर गये। वसिष्ठजी सायंकालका नित्यकर्म समाप्त करके आश्रम में बैठे थे। उसी समय राजा और रानीने वहाँ पहुँचकर उनका दर्शन किया। महाराजने गुरुके और महारानीने गुरुपत्नी अरुन्धती देवीके चरणोंमें प्रणाम किया। वसिष्ठजीने राजाको और अरुन्धती देवीने रानीको आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् पूजनीय पुरुषोंमें श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठने मधुपर्क आदि सामग्रियोंसे अपने नवागत अतिथिका सत्कार करके उनसे कुशल पूछी।
तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठने अपने योगके प्रभावसे नाना प्रकारके भोज्य पदार्थ प्रस्तुत किये और उन्हें राजा दिलीपको भोजन कराया तथा उदारहृदया अरुन्धती देवीने भी महारानी सुदक्षिणाको बड़े आदरके साथ भाँति-भाँतिके व्यंजन और पकवान भोजन कराये। जब राजा भोजन करके आरामसे बैठे, तब सदा आत्मस्वरूपमें स्थित रहनेवाले मुनि उन विनयशील नरेशका हाथ अपने हाथमें लेकर पूछने लगे-'राजन्! जिस राज्य के राजा, मन्त्री, राष्ट्र किला खजाना, सेना और मित्रवर्ग- ये सातों अंग एक-दूसरेके उपकारक एवं सकुशल हों, जहाँकी प्रजा अपने-अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहती हो, जहाँ बन्धुजन और मन्त्री प्रेम और प्रसन्नता से रहते हो, जहाँके योद्धा अस्त्र-शस्त्रोंके संचालनकी क्रियामें कुशल हों, मित्र वशमें हों और शत्रुओंका नाश हो गया हो तथा जहाँ निवास करनेवाले लोगोंका मन भगवान्की आराधनायें लगा रहता हो,ऐसा राज्य जिस राजाके अधिकारमें हो, उसे स्वर्गका राज्य लेकर क्या करना है? राजन्। इक्ष्वाकुकुलके धार्मिक नरेश पुत्र उत्पन्न करके उनको राज्यका भार सौंपनेके बाद तपके लिये वनमें आया करते थे। तुम तो अभी जवान हो। तुमने अभी पुत्रका मुँह भी नहीं देखा है, 1 अतः तुम तपस्याके अधिकारी नहीं हो फिर वैसा राज्य छोड़कर इस तपोवनमें किस लिये आये हो?"
राजाने कहा- ब्रहान्! मैं तपस्या करनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ। जैसे बाल्यावस्था चली गयी और जवानी आयी है, उसी प्रकार यह भी चली जायगी और वृद्धावस्था आयेगी। वृद्धावस्थाके अनन्तर मृत्यु निश्चित है। गुरुदेव ! इस प्रकार यदि मैं पुत्र हुए बिना ही मर जाऊँगा, तो मेरे बाद यह पृथ्वीका राज्य किसके अधिकारमे रहेगा ? तपोनिधे! किस दोषके कारण मुझे पुत्र नहीं होता ? गुरुदेव मेरे उस दोषको ध्यानके द्वारा देखकर शीघ्र ही बतानेकी कृपा मुझे कीजिये ।
राजाका यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठने ध्यान लगाया और सन्तान बाधाका कारण जानकर इस प्रकार कहा- "नृपश्रेष्ठ पहले की बात है, तुमने देवराज इन्द्रकी सेवासे राजमहलको लौटते समय उतावलीके कारण मार्ग में कल्पवृक्षके नीचे खड़ी कामधेनु गौको प्रदक्षिणा करके प्रणाम नहीं किया। इससे कामधेनुको बड़ा क्रोध हुआ और उसने यह शाप दे दिया कि 'जबतक तू मेरी सन्तानकी सेवा नहीं करेगा, तबतक तुझे पुत्र नहीं होगा।' अतः अब तुम बछडेसहित मेरी नन्दिनी गौकी, जो कामधेनुकी पुत्रीकी पुत्री है, इस बहूके साथ आराधना करो यह नन्दिनी तुम्हें पुत्र प्रदान करेगी।'
इसी समय नन्दिनी गौ तपोवनसे आश्रमपर आ पहुँची। उसे देखकर मुनिवरका मन प्रसन्न हो गया। वे नन्दिनीको दिखाकर राजासे बोले-'राजन्! देखो, स्मरणमात्रसे कल्याण करनेवाली यह नन्दिनी गौ चर्चा होते ही चली आयी; अतः तुम अपनी कार्य सिद्धिको समीप ही समझो। तपोवनमें इसके पीछे-पीछे रहकर तुम इसकी आराधना करो और आश्रमपर आनेपर रानी सुदक्षिणा इसकी सेवामें लगी रहे। इससे प्रसन्नहोकर यह गौ तुम्हें निश्चय ही पुत्र प्रदान करेगी। महाराज! तुम हाथमें धनुष लेकर वनमें पूरी सावधानीके साथ गौको चराओ, जिससे कोई हिंसक जीव इसपर आक्रमण न कर बैठे।' राजाने 'बहुत अच्छा' कहकर शीघ्र ही गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की।
देवलजी कहते हैं- तदनन्तर प्रातः काल जब महारानी सुदक्षिणाने फूल आदिसे नन्दिनीकी पूजा कर ली, तब राजा उस धेनुको लेकर वनमें गये। वह गौ जब चलने लगती तो राजा भी छायाकी भाँति उसके पीछे-पीछे चलते थे। जब घास आदि चरने लगती, तब वे भी फल मूल आदि भक्षण करते थे। जब वह वृक्षोंके नीचे बैठती तो वे भी बैठते और जब पानी पीने लगती तो वे भी स्वयं पानी पीते थे। राजा हरी हरी घास लाकर गौको देते, उसके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटाते तथा उसे हाथोंसे सहलाते और खुजलाते थे। इस प्रकार वे गुरुकी कामधेनु गौके सेवनमें लगे रहे। जब शाम हुई, तब वह गौ अपने खुरोंसे उड़े हुए धूलिकणोंद्वारा राजाके शरीरको पवित्र करती हुई आश्रमको लौटी। आश्रमके निकट पहुँचनेपर रानी सुदक्षिणाने आगे बढ़कर नन्दिनीकी अगवानी की और विधिपूर्वक पूजा करके बारंबार उसके चरणों में मस्तक झुकाया। फिर गौकी परिक्रमा करके वह हाथ जोड़ उसके आगे खड़ी हो गयी। गौने स्थिरभावसे खड़ी होकर रानीद्वारा श्रद्धापूर्वक की हुई पूजाको स्वीकार किया, तत्पश्चात् उन दोनों दम्पतिके साथ वह आश्रमपर आयी। इस प्रकार दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले राजा दिलीपके उस गौकी आराधना करते हुए इक्कीस दिन बीत गये। तत्पश्चात् राजाके भक्तिभावको परीक्षा लेनेके लिये नन्दिनी सुन्दर घासोंसे सुशोभित हिमालयकी कन्दरामें प्रवेश कर गयी। उस समय उसके हृदयमें तनिक भी भय नहीं था। राजा दिलीप हिमालयके सुन्दर शिखरकी शोभा निहार रहे थे। इतनेमें ही एक सिंहने आकर नन्दिनीको बलपूर्वक धर दबाया। राजाको उस सिंहके आनेकी तक नहीं मालूम हुई। सिंहके चंगुलमें पैसकर नन्दिनीने दयनीय स्वरमें बड़े जोरसे चीत्कार |किया। उसके करुण क्रन्दनने धनुर्धर राजाके चित्तमें दयाका संचार कर दिया। उन्होंने देखा, गौका मुख आँसुओंसे भीगा हुआ है और उसके ऊपर तीखे दादों तथा पंजोंवाला सिंह चढ़ा हुआ है। यह दुःखपूर्ण दृश्य देखकर राजा व्यथित हो उठे। उन्होंने सिंहके पंजेमें पड़ी हुई गौको फिरसे देखा और तरकससे एक बाण निकालकर उसे धनुषकी डोरीपर रखा और सिंहका वध करनेके लिये धनुषकी प्रत्यंचाको खींचा। इसी समय सिंहने राजाकी ओर देखा उसकी दृष्टि पड़ते ही उनका सारा शरीर जडवत् हो गया। अब उनमें बाण छोड़नेकी शक्ति न रही इससे वे बहुत ही विस्मित हुए।
राजाको इस अवस्थामें देखकर सिंहने उन्हें और भी विस्मयमें डालते हुए मनुष्यकी वाणीमें कहा 'राजन्! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा दिलीप हो। तुम्हारा शरीर जो जडवत् हो गया है, उसके लिये तुम्हें विस्मय नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस हिमालय में भगवान् शंकरकी बहुत बड़ी माया फैली है। किसी दूसरे सिंहकी भाँति मुझपर प्रहार करना भी तुम्हारे वशकी बात नहीं है; क्योंकि भगवान् शंकर मेरी पीठपर पैर रखकर अपने वृषभपर आरूढ़ हुआ करते हैं। अच्छा, अब तुम लौट जाओ और समस्त पुरुषार्थोके साधनभूत अपने शरीरकी रक्षा करो। वीर। इस गौको दैवने मेरे आहारके लिये ही भेजा है।'
सिंहके 'वीर' सम्बोधनसे युक्त वचन सुनकर जडवत् शरीरवाले राजा दिलीपने उसे इस प्रकार उत्तर दिया- मृगराज हमारे गुरु महर्षि वसिष्ठकी यह सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली नन्दिनी नामक धेनु है। गुरुदेवने सन्तान प्राप्तिके उद्देश्यसे इसकी आराधना करनेके लिये इसे मुझको सौंपा है। मैंने अबतक इसकी भलीभाँति आराधना की है। यह छोटे बछड़ेकी माँ है। तुमने इसे पर्वतकी कन्दरामें पकड़ रखा है। तुम शंकरजीके सेवक हो, इसलिये तुम्हारे हाथसे बलपूर्वक इसको छुड़ाना मेरे लिये असम्भव है। अब मेरा यह शरीर अपकीर्तिसे मलिन हो चुका। मैं इस गौके बदले अपने शरीरको ही तुम्हें समर्पित करता हूँ। ऐसा करनेसेमहर्षिके धार्मिक कृत्योंमें भी कोई बाधा नहीं पड़ेगी और तुम्हारे भोजनका भी काम चल जायगा। साथ ही गो-रक्षाके लिये प्राणत्याग करनेसे मेरी भी उत्तम गति होगी।' यह सुनकर सिंह मौन हो गया। धर्मज्ञ राजा दिलीप उसके आगे नीचे मुँह किये पड़ गये। वे सिंहके द्वारा होनेवाले दुःसह आघातकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि अकस्मात् उनके ऊपर देवेश्वरोंद्वारा की हुई फूलोंकी वृष्टि होने लगी। फिर, 'बेटा! उठो ।' यह वचन सुनकर राजा दिलीप उठकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने माताके समान सामने खड़ी हुई धेनुको ही देखा। वह सिंह नहीं दिखायी दिया। इससे राजाको बड़ा विस्मय हुआ । तब नन्दिनीने नृपश्रेष्ठ दिलीपसे कहा- 'राजन्! मैंने मायासे सिंहका रूप बनाकर तुम्हारी परीक्षा ली है। मुनिके प्रभावसे यमराज भी मुझे पकड़नेका विचार नहीं ला सकता। तुम अपना शरीर देकर भी मेरी रक्षाके लिये तैयार थे। अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगी।"
राजा बोले- माता! देहधारियोंके अन्तःकरणमें जो बात होती है, वह आप जैसी देवियोंसे छिपी नहीं रहती। आप तो मेरा मनोरथ जानती ही हैं। मुझे वंशधर पुत्र प्रदान कीजिये।
राजाकी बात सुनकर देवता पितर ऋषि और मनुष्य आदि सब भूतोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाली नन्दिनीने कहा-'बेटा! तुम पत्तेके दोनेमें मेरा दूध दुहकर इच्छानुसार पी लो। इससे तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाला वंशधर पुत्र प्राप्त होगा।' यह सुनकर राजाने कामधेनुकी दौहित्री नन्दिनीसे विनयपूर्वक कहा— 'माता इस समय तो मैं आपके मधुर वचनामृतका पान करके ही तृप्त हूँ, अब आश्रमपर चलकर समस्त धार्मिक क्रियाओंके अनुष्ठानसे बचे हुए आपके प्रसादस्वरूप दूधका ही पान करूँगा।'
राजाका यह वचन सुनकर गौको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने 'साधु-साधु' कहकर राजाका सम्मान किया। तत्पश्चात् वह उनके साथ आश्रमपर गयी। पूर्व दिनकी भाँति उस दिन भी महारानी सुदक्षिणाने आगे आकरउसका पूजन किया। महाराजके मुखको प्रसन्न देखकर रानीको कार्य सिद्धिका निश्चय हो गया वह समझ गयी कि जिसके लिये यह यत्न हो रहा था, वह उद्देश्य सफल हो गया। तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी विधिवत् पूजित हुई गौके साथ अपने गुरु वसिष्ठजीके सामने उपस्थित हुए। उन दोनोंके मुख कमल प्रसन्नतासे खिले हुए देखकर ज्ञानके भण्डार मुनिवर वसिष्ठजी उन्हें प्रसन्न करते हुए बोले- 'राजन्! मुझे मालूम हो गया कि यह गौ तुम दोनोंपर प्रसन्न है; क्योंकि इस समय तुम्हारे मुखकी कान्ति अपूर्व दिखायी दे रही है। कामधेनु और कल्पवृक्ष- दोनों ही सबकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं-यह बात प्रसिद्ध है। फिर उसी कामधेनुकी सन्तानकी भलीभाँति आराधना करके यदि कोई सफलमनोरथ हो जाय तो आश्चर्य हो क्या है? यह पापरहित कामधेनु तथा देवनदी गंगा दूरसे भी नाम लेनेपर समस्त मनोरथोंको पूर्ण करती हैं; फिर श्रद्धापूर्वक निकटसे सेवा करनेपर ये समस्त कामनाएँ पूर्ण करें- इसके लिये तो कहना ही क्या है। राजन्! आज इस गौकी पूजा करके रानीसहित यहीं रात्रि बिताओ। कल अपने व्रतको विधिपूर्वक समाप्त करके अयोध्यापुरीको जाना।'
देवलजी कहते हैं—वैश्यवर ! इस प्रकार धेनुकी आराधनासे मनोवांछित वर पाकर राजा दिलीप रात्रिमें पत्नीसहित आश्रमपर रहे। फिर प्रातः काल होनेपर गुरुकी आज्ञा ले वे राजधानीको पधारे। कुछ दिनोंके बाद राजा दिलीपके रघु नामक पुत्र हुआ, जिसके नामसे इस पृथ्वीपर सूर्यवंशकी ख्याति हुई अर्थात् रघुके बाद वह वंश 'रघुवंश' के नामसे प्रसिद्ध हुआ। जो भूतलपर राजा दिलीपकी इस कथाका पाठ करता है, उसे धन-धान्य और पुत्रकी प्राप्ति होती है। शरभ तुम भी इस वधूके साथ जा श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये अपनी बुद्धिसे -आराधना करके पार्वतीजीको प्रसन्न करो। वे तुम्हें पापरहित, गुणवान् एवं वंशधर पुत्र प्रदान करेंगी।
इस प्रकार शरभसे राजा दिलीपके मनोहर चरित्रका वर्णन करके देवल मुनिने उन्हें अम्बिकाके पूजनकी विधि बतायी। इसके बाद वे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये।