पार्वतीजीने कहा- भगवन्! परम उत्तम देवसर्गका
विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। साथ ही भगवान्के अवतारोंको कथा भी विस्तृतरूपसे कहिये।
श्रीमहादेवजी बोले- देवि । सृष्टिकी इच्छा रखनेवाले भगवान् मधुसूदनने योगनिद्राको प्राप्त होकर मायाके साथ चिरकालतक रमण किया। उससे कालात्माको जन्म दिया, जो कला, काष्ठा, मुहूर्त, पक्ष और मास आदिके रूपमें उपलब्ध होता है। उस समय श्रीहरिकानाभिकमल, जो सम्पूर्ण जगत्का बीज और परम तेजस्वी था, मुकुलाकार हो विकसित होने लगा। उसीसे परम बुद्धिमान् ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके मनमें रजोगुणकी प्रेरणासे सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई। तब उन्होंने योगनिद्रामें सोये हुए परमेश्वरका स्तवन किया।
ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर समस्त इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु योगनिद्रासे उठ गये। योगनिद्राको काबूमें करके उन्होंने जगत्की सृष्टि आरम्भ की।जगत्के स्वामी श्रीअच्युतने पहले एक क्षणतक कुछ विचार किया। विचारके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की। उस समय सब लोकोंसे युक्त सुवर्णमय अण्डको, सात द्वीप, सात समुद्र और पर्वतोंसहित पृथ्वीको तथा एक अण्डकटाहको भी भगवान्ने अपने नाभिकमलसे उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उस अण्डमें श्रीहरि स्वयं ही स्थित हुए। तदनन्तर नारायणने अपने मनसे इच्छानुसार ध्यान किया। ध्यानके अन्तमें उनके ललाटसे पसीने की बूँद प्रकट हुई। वह बूँद बुदबुदेके आकारमें परिणत हो तत्क्षण पृथ्वीपर गिर पड़ी। पार्वती! उसी बुदबुदेसे मैं उत्पन्न हूँ। उस समय रुद्राक्षकी माला और त्रिशूल हाथमें लेकर जटामय मुकुटसे अलंकृत हो मैंने विनयपूर्वक देवेश्वर श्रीविष्णुसे पूछा- 'मेरे लिये क्या आज्ञा है।' तब भगवान् नारायणने प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कहा- 'रुद्र! तुम संसारका भयंकर संहार करनेवाले होओगे।' इस प्रकार मैं भयंकर आकृतिमें जगत्का संहार करनेके लिये ही भगवान् नारायणके श्रीअंगसे उत्पन्न हुआ। जनार्दनने मुझे संहारके कार्यमें नियुक्त करके पुनः अपने नेत्रोंसे अन्धकार दूर करनेवाले चन्द्रमा और सूर्यको उत्पन्न किया। फिर कानोंसे वायु और दिशाओंको, मुखकमलसे इन्द्र और अग्निको, नासिकाके छिद्रोंसे वरुण और मित्रको, भुजाओंसे साध्य और मरुद्गणसहित सम्पूर्ण देवताओंको, रोमकूपोंसे वन और ओषधियोंको तथा त्वचासे पर्वत, समुद्र और गाय आदि पशुओंको प्रकट किया। भगवान्के मुखसे ब्राह्मण, दोनों भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघोंसे वैश्य तथा दोनों चरणोंसे शूद्रजातिकी उत्पत्ति हुई।
इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्को सृष्टि करके देवेश्वर श्रीकृष्णने उसे अचेतनरूपमें स्थित देख स्वयं ही विश्वरूपसे उसके भीतर प्रवेश किया। श्रीहरिकी शलिके बिना संसार हिल-डुल नहीं सकता। इसलिये सनातन श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण जगत्के प्राण हैं। वे ही अव्यक्तरूपमें स्थित होनेपर परमात्मा कहलाते हैं। वे षड्विध ऐश्वर्यसे परिपूर्ण सनातन वासुदेव हैं। वे अपने तीन गुणोंसे चार स्वरूपोंमें स्थित होकर जगत्की सृष्टि करते हैं। प्रशुश्नरूपधारी भगवान् सब ऐश्वयोंसे युक्त है। बड़ा प्रजापति, काल तथा सबके अन्तर्यामीहोकर सृष्टिका कार्य भलीभाँति सिद्ध करते हैं। महात्मा वासुदेवने उन्हें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्रदान किया है। लोकपितामह ब्रह्माजी प्रद्युम्न के ही अंशभागी हैं। वे संसारको सृष्टि और पालन भी करते हैं। भगवान् अनिरुद्ध शक्ति और तेजसे सम्पन्न हैं। वे मनुओं, राजाओं, काल तथा जीवके अन्तर्यामी होकर सबका पालन करते हैं। संकर्षण महाविष्णुरूप हैं। उनमें विद्या और बल दोनों हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंके काल, रुद्र और यमके अन्तर्यामी होकर जगत्का संहार करते हैं। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कल्कि ये दस भगवान् विष्णुके अवतार हैं।
पार्वती! श्रीहरिकी उस अवस्थाका वर्णन सुनो। परमश्रेष्ठ वैकुण्ठलोक, विष्णुलोक, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर ये चार व्यूह महर्षियोंद्वारा बताये गये हैं। वैकुण्ठलोक जलके घेरे में है। वह कारणरूप और शुभ है। उसका तेज कोटि अग्नियोंके समान उद्दीप्त रहता है। वह सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त और अविनाशी है। परमधामका जैसा लक्षण बताया गया है, वैसा ही उसका भी है नाना प्रकारके रत्नोंसे उद्भासित वैकुण्ठनगर चण्ड आदि द्वारपालों और कुमुद आदि दिक्पालोंसे सुरक्षित है। भाँति-भाँति की मणियोंसे बने हुए दिल्य गृहोंकी पंक्तियोंसे वह नगर घिरा हुआ है। उसकी चौड़ाई पचपन योजन तथा लंबाई एक हजार योजन है। करोड़ों ऊँचे-ऊँचे महल उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगर तरुण अवस्थावाले दिव्य स्त्री-पुरुषोंसे सुशोभित है। वहाँकी स्त्रियाँ और पुरुष समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देते हैं। स्त्रियोंका रूप भगवती लक्ष्मीके समान होता है. और पुरुषोंका भगवान् विष्णुके समान वे सब प्रकार आभूषणोंसे विभूषित होते हैं तथा भक्तिजनित मनोरम आह्लादसे सदा आनन्दमग्न रहते हैं। उनका भगवान् विष्णु के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध बना रहता है। वे सदा उनके समान ही सुख भोगते हैं। जहाँ कहींसे भी श्रीहरिके लोकमें प्रविष्ट हुए शुद्ध अन्तःकरणवाले मानव फिर संसारमें जन्म नहीं लेते। मनीषी पुरुष भगवान् विष्णुके दासभावको ही मोक्ष कहते हैं। उनकी दासताका नाम बन्धन नहीं है। भगवान्के भक्त तो सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त और रोग-शोकसे रहित होते हैं।ब्रह्मलोकतकके प्राणी पुनः संसारमें आकर जन्म लेते, र कर्मोंके बन्धनमें पड़ते और दुःखी तथा भयभीत होते हैं। पार्वती उन लोकोंमें जो फल मिलता है, वह बड़ा आयाससाध्य होता है। वहाँका सुख भोग विषमिश्रित मधुर अन्नके समान है। जब पुण्यकर्मोंका क्षय हो जाता है, तब मनुष्योंको स्वर्गमें स्थित देख देवता कुपित हो उठते हैं और उसे संसारके कर्मबन्धनमें डाल देते हैं; इसलिये स्वर्गका सुख बड़े क्लेशसे सिद्ध होता है। वह अनित्य, कुटिल और दुःखमिश्रित होता है; इसलिये योगी पुरुष उसका परित्याग कर दे। भगवान् विष्णु सब दुःखोंकी राशिका नाश करनेवाले हैं; अतः सदा उनका स्मरण करना चाहिये। भगवान्का नाम लेनेमात्रसे मनुष्य परमपदको प्राप्त होते हैं। इसलिये पार्वती! विद्वान् पुरुष सदा भगवान् विष्णुके लोकको पानेकी इच्छा करे। भगवान् दयाके सागर हैं; अतः अनन्यभक्तिके साथ उनका भजन करना चाहिये। वे सर्वज्ञ और गुणवान् हैं। निःसन्देह सबकी रक्षा करते हैं। जो परम कल्याणकारक और सुखमय अष्टाक्षर मन्त्रका जप करता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है।
वहाँ भगवान् श्रीहरि सहस्रों सूर्योकी किरणोंसे सुशोभित दिव्य विमानपर विराजमान रहते हैं। उस विमानमें मणियोंके खंभे शोभा पाते हैं। उसमें एक सुवर्णमय पीठ है, जिसे आधारशक्ति आदिने धारण कर रखा है तथा जो भाँति-भाँतिके रत्नोंका बना हुआ एवं अलौकिक है। उसमें अनेकों रंग जान पड़ते हैं। पीठपर अष्टदल कमल है, जिसपर मन्त्रोंके अक्षर और पद अंकित हैं। उसकी सुरम्य कर्णिकामें लक्ष्मी-बीजका शुभ अक्षर अंकित है। उसमें कमलके आसनपर दिव्यविग्रह भगवान् श्रीनारायण विराजमान हैं, जो अरबोंखरबों बालसूयोंके समान कान्ति धारण करते हैं। उनके दाहिने पार्श्वमें सुवर्णके समान कान्तिमती जगन्माता श्रीलक्ष्मी विराजती हैं, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और दिव्य मालाओंसे सुशोभित हैं। उनके हाथोंमें सुवर्णपात्र, मातुलुंग और सुवर्णमय कमल शोभा पाते हैं। भगवान् के वामभागमें भूदेवी विराजमान हैं, जिनकी कान्ति नील कमल दलके समान श्याम है। वे नाना प्रकारके आभूषणों और विचित्र वस्त्रोंसे विभूषित हैं। उनके ऊपरके हाथोंमें दो लाल कमल हैं और नीचेके दो हाथोंमें उन्होंने दो धान्यपात्र धारण कर रखे हैं। विमला आदि शक्तियाँ दिव्य चँवर लेकर कमलके आठों दलोंमें स्थित हो भगवान्की सेवा करती हैं। वे सभी समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं । भगवान् श्रीहरि उन सबके बीचमें विराजते हैं। उनके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। भगवान् केयूर, अंगद और हार आदि दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके कानोंमें उदयकालीन सूर्यके समान तेजोमय कुण्डल झिलमिला रहे हैं। पूर्वोक्त देवता उन परमेश्वरकी सेवामें सदा संलग्न रहते हैं। इस प्रकार नित्य वैकुण्ठधाममें भगवान् सब भोगोंसे सम्पन्न हो नित्य विराजमान रहते हैं। वह परम रमणीय लोक अष्टाक्षर मन्त्रका जप करनेवाले सिद्ध मनीषी पुरुषों तथा श्रीविष्णुभक्तोंको प्राप्त होता है। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुमसे प्रथम व्यूहका वर्णन किया।
इसी प्रकार वैष्णवलोक, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर निवासी द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ व्यूहका वर्णन करके श्रीशिवजीने कहा- 'पार्वती! अब और क्या सुनना | चाहती हो? देवि! भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी भक्ति है। इसलिये तुम धन्य और कृतार्थ हो ।