नारदजीने पूछा- पिताजी! किस आचरणसे ब्राह्मणके ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है ?
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि वह प्रतिदिन कुछ रात रहते ही बिस्तरसे उठ जाय और गोविन्द, माधव, कृष्ण, हरि, दामोदर, नारायण, जगन्नाथ वासुदेव, वेदमाता सावित्री, अजन्मा, विभु, सरस्वती, महालक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर, शिव, शम्भु, ईश्वर, महेश्वर, सूर्य, गणेश, स्कन्द, गौरी, भागीरथी और शिवा आदि नामोंका कीर्तन करे। जो मनुष्य सबेरे उठकर इन सबका स्मरण करता है, वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। तात! एक बार भी इन नामोंका उच्चारण करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका तथा लाखों गोदानका फल मिलता है।
इस प्रकार उपर्युक्त नामोंका उच्चारण करके गाँवसे बाहर दूर जाकर साफ-सुथरे स्थानमें मल मूत्रका परित्याग करे। यदि रातका समय हो तो दक्षिण दिशाको ओर मुँह करके और दिनमें उत्तर दिशाको ओर मुँह करके शौच होना चाहिये। इसके बाद [हाथ मुँह धो, कुल्ला करके] गूलर आदिकी लकड़ीसे दाँत साफ करना चाहिये। तत्पश्चात् द्विजको स्नान आदि करके संयमपूर्वक बैठकर सन्ध्योपासन करना चाहिये। पूर्वाह्नकालमें रक्तवर्णा गायत्री, मध्याहनकालमें शुक्लवर्णा सावित्री और सायंकालमें श्यामवर्णा सरस्वतीका विधिपूर्वक ध्यान करना उचित है।
प्रतिदिनके स्नानकी विधि इस प्रकार है। अपने ज्ञानके अनुसार यत्नपूर्वक स्नान विधिका पालन करना चाहिये। पहले शरीरको जलसे भिगोकर फिर उसमें मिट्टी लगाये। मस्तक, ललाट, नासिका, हृदय, भौंह, बाहु, पसली, नाभि, घुटने और दोनों पैरोंमें मृत्तिका लगाना उचित है। मनुष्यको शुद्धिकी इच्छासे [शौच होकर ] एक बार लिंगमें, तीन बार गुदामें, दस बार बायेंहाथमें तथा पुनः सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगानी चाहिये। 'घोड़े, रथ और भगवान् श्रीविष्णुद्वारा आक्रान्त होनेवाली मृत्तिकामयी वसुन्धरे! मेरे द्वारा जो दुष्कर्म या पाप हुए हों, उन्हें तुम हर लो।" इस मन्त्रसे जो अपने शरीरमें मिट्टीका लेप करता है, उसके सब पापका क्षय होता है तथा वह मनुष्य सर्वथा शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर विद्वान् पुरुष नद, नदी, पोखरा, सरोवर या कुएँपर जाकर वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक स्नान करे। उसे नदी आदिकी जल-राशिमें प्रवेश करके स्नान करना चाहिये और कुएँपर नहाना हो तो किनारे रहकर घड़ेसे स्नान करना उचित है। मनुष्यको अपने समस्त पापोंका नाश करनेके लिये विधिवत् स्नान करना चाहिये। सबेरेका स्नान महान् पुण्यदायक और सब पापका नाश करनेवाला है। जो ब्राह्मण सदा प्रातःकाल स्नान करता है, वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। प्रातः सन्ध्याके समय चार दण्डतक जल अमृतके समान रहता है, वह पितरोंको सुधाके समान तृप्तिदायी होता है उसके बाद दो घड़ीतक अर्थात् कुल एक पहरतक जल मधुके समान रहता है; वह भी पितरोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला होता है। तत्पश्चात् डेढ़ पहरतकका जल दूधके समान माना गया है। उसके बाद चार दण्डतकका जल दुग्ध-मिश्रित-सा रहता है।
नारदजीने कहा- देवेश्वर ! अब मुझे यह बताइये कि जलके देवता कौन हैं तथा जिस प्रकार मैं तर्पणकी विधि ठीक-ठीक जान सकूँ, ऐसा उपदेश कीजिये।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा। सम्पूर्ण लोकोंमें भगवान् श्रीविष्णु ही जलके देवता माने गये हैं; अतः जो जलसे स्नान करके पवित्र होता है, उसका भगवान् श्रीविष्णु कल्याण करते हैं। एक घूँट जल पीकर भी मनुष्य पवित्र हो जाता है। विशेष बात यह है किकुशके संसर्गसे जल अमृतसे भी बढ़कर होता है। कुश सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है; पूर्वकालमें मैंने ही उसे उत्पन्न किया था। कुशके मूलमें स्वयं मैं (ब्रह्मा) उसके मध्यभागमें श्रीविष्णु और अग्रभागमें भगवान् श्रीशंकर विराजमान हैं; इन तीनोंके द्वारा कुशकी प्रतिष्ठा है। अपने हाथोंमें कुश धारण करनेवाला द्विज सदा पवित्र माना गया है; वह यदि किसी स्तोत्र या मन्त्रका पाठ करे तो उसका सौगुना महत्त्व बतलाया गया है। वही यदि तीर्थमें किया जाय तो उसका फल हजारगुना अधिक होता है। कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल-ये सात प्रकारके कुरा बताये गये हैं। इनमें पूर्व-पूर्व कुश अधिक पवित्र माने गये हैं। ये सभी कुश लोकमें प्रतिष्ठित हैं।
तिलके सम्पर्कसे जल अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। जो प्रतिदिन स्नान करके तिलमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने दोनों कुलौका (पितृकुल एवं मातृकुलका) उद्धार करके ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वर्षकि चार महीनों में दीपदान करनेसे पितरोंके ऋणसे छुटकारा मिलता है जो एक वर्षतक प्रति अमावास्याको तिलोंके द्वारा पितरोंका तर्पण करता है, वह विनायक पदवीको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण देवता उसकी पूज करते हैं। जो समस्त युगादि तिथियाँको तिलोद्वारा पितरोंका तर्पण करता है, उसे अमावास्याकी अपेक्षा सौगुना अधिक फल प्राप्त होता है। अयन आरम्भ होनेके दिन, विषुव योग में, पूर्णिमा तथा अमावास्याको पितरोंका तर्पण करके मनुष्य स्वर्ग-लोकमें प्रतिष्ठित होता है। मन्वन्तरसंज्ञक तिथियोंमें तथा अन्यान्य पुण्यपर्व के अवसरपर भी तर्पण करनेसे यही फल होता है। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गया आदि पुण्य तीर्थोंक भीतर पितरोंका तर्पण करके मनुष्यवैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। इसलिये कोई पुण्यदिवस प्राप्त होनेपर पितृसमुदायका तर्पण करना चाहिये। एकाग्रचित्त होकर पहले देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष पितरोंका तर्पण करनेका अधिकारी होता है। श्राद्धमें भोजनके समय एक ही हाथसे अन्न परोसे, किन्तु तर्पणके समय दोनों हाथोंसे जल दे; यही सनातन विधि है। दक्षिणाभिमुख होकर पवित्र भावसे 'तृप्यताम्' इस वाक्यके साथ नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए पितरोंका तर्पण करना चाहिये।
जो मोहवश सफेद तिलोंके द्वारा पितृवर्गका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है। यदि दाता स्वयं जलमें स्थित होकर पृथ्वीपर तर्पणका जल गिराये तो उसका वह जलदान व्यर्थ हो जाता है, किसीके पास नहीं पहुँचता । इसी प्रकार जो स्थलमें खड़ा होकर जलमें तर्पणका जल गिराता है, उसका दिया हुआ जल भी निरर्थक होता है; वह पितरोंको नहीं प्राप्त होता जो जलमें नहाकर भीगे वस्त्र पहने हुए ही तर्पण करता है, उसके पितर देवताओंसहित सदा तृप्त रहते हैं। विद्वान् पुरुष धोबीके धोये हुए वस्त्रको अशुद्ध मानते हैं। अपने हाथसे पुनः धोनेपर ही वह वस्त्र शुद्ध होता है। 2 जो सूखे वस्त्र पहने हुए किसी पवित्र स्थानपर बैठकर पितरोंका तर्पण करता है, उसके पितर दी तृप्ति लाभ करते हैं जो अपनी तर्जनी अंगुलीमें चाँदीको अंगूठी धारण करके पितरोंका तर्पण करता है, उसका सब तर्पण लाखगुना अधिक फल देनेवाला होता है। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष यदि अनामिका अँगुलीमें सोनेकी अंगूठी पहनकर पितृवर्गका तर्पण करे तो वह करोड़ोंगुना अधिक फल देनेवाला होता है।
जो स्नान करनेके लिये जाता है, उसके पीछे प्याससे पीड़ित देवता और पितर भी वायुरूप होकरजलकी आशासे जाया करते हैं; किन्तु जब वह नहाकर धोती निचोड़ने लगता है, तब वे निराश लौट जाते हैं; अतः पितृतर्पण किये बिना धोती नहीं निचोड़नी चाहिये। मनुष्य के शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोएँ हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थोके प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल धोतीपर गिरता है, वह मानो सम्पूर्ण तीर्थोंका ही जल गिरता है; इसलिये तर्पणके पहले धोये हुए बस्वको निचोड़ना नहीं चाहिये। देवता स्नान करनेवाले व्यक्तिके मस्तक से गिरनेवाले जलको पीते हैं, पितर मूँछ-दाढ़ीके जलसे तृप्त होते हैं, गन्धर्व नेत्रोंका जल और सम्पूर्ण प्राणी अधोभागका जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता, पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्नानमात्रसे संतुष्ट होते हैं। स्नानसे शरीरमें पाप नहीं रह जाता। जो मनुष्य प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। देवता और महर्षि तर्पणतक स्नानका ही अंग मानते हैं। तर्पणके बाद विद्वान् पुरुषको देवताओंका पूजन करना चाहिये।
जो गणेशकी पूजा करता है, उसके पास कोई विघ्न नहीं आता। लोग धर्म और मोक्षके लिये लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णुकी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये शंकरकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये भवानीको पूजा करते हैं। देवताओंकी पूजा करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव करना चाहिये। पहले अग्निकार्य करके फिर ब्राह्मणको तृप्त करनेवाला अतिथियज्ञ करे। देवताओं और सम्पूर्ण प्राणियोंका भाग देकर मनुष्य स्वर्गलोकको जाता है। इसलिये प्रतिदिन पूरा प्रयत्न करके नित्यकमौका अनुष्ठान करना चाहिये। जो स्नान नहीं करता, वह मल भोजन करता है। जो जप नहीं करता, वह पीब और रक्तपान करता है। जो प्रतिदिन तर्पण नहीं करता, वह पितृघाती होता है। देवताओंकी पूजा न करनेपर ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। सन्ध्योपासन न करके पापी मनुष्य सूर्यकी हत्या करता है। नारदजीने पूछा- पिताजी! ब्राह्मणादि वर्णोंकेसदाचार और उनके कर्तव्योंका क्रम बतलाइये, साथ ही समस्त प्रवृत्तिप्रधान कमका वर्णन कीजिये। ब्रह्माजीने कहा- वत्स! मनुष्य आचारसे आयु,
धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। आचार अशुभ लक्षणोंका निवारण करता है। आचारहीन पुरुष संसारमें निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी और अल्पायु होता है। अनाचारी मनुष्यको निश्चय ही नरकमें निवास करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो।
प्रतिदिन अपने घरको गोबरसे लीपना चाहिये। उसके बाद काठका पीढ़ा, बर्तन और पत्थर धोने चाहिये । काँसेका बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध होता है। सोने और चाँदी आदिके वर्तन जलमात्रसे धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहेका पात्र आगके द्वारा तपाने और धोनेसे शुद्ध होता है अपवित्र भूमि खोदने जलाने, लीपने तथा धोनेसे एवं वर्षासे शुद्ध होती है। धातुनिर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थर से बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और कमण्डलु ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते। एक वस्त्र धारण करके भोजन और स्नान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र कभी न धारण करे। केशों और दाँतोंकी सफाई सबेरे ही करनी चाहिये। गुरुजनोंको नित्यप्रति नमस्कार करना नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-इन पाँचों अंगोंको धोकर विद्वान् पुरुष भोजन आरम्भ करे। जो इन पाँचोंको धोकर भोजन करता है, वह सौ वर्ष जीता है। देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य और यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी छायापर जान-बूझकर पैर नहीं रखना चाहिये। गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी, मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतियोंको अपने दाहिने करके चलना चाहिये। गौ-ब्राह्मण, अग्नि-ब्राह्मण, दो ब्राह्मण तथा पति-पत्नीके बीचसे होकर नहीं निकलना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्गमें रहता हो तो भी नीचे गिर जाता है। जूठे हाथसे अग्नि, ब्राह्मण, देवता,गुरु, अपने मस्तक, पुष्पवाले वृक्ष तथा यज्ञोपयोगी पेड़का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र- इन तीन प्रकारके तेजोंकी ओर जूठे मुँह कभी दृष्टि न डाले। इसी प्रकार ब्राह्मण, गुरु, देवता, राजा, श्रेष्ठ संन्यासी, योगी, देवकार्य करनेवाले तथा धर्मका उपदेश करनेवाले द्विजकी ओर भी जूठे मुँह दृष्टिपात न करे।
नदियों और समुद्र के किनारे, यज्ञ-सम्बन्धी वृक्षकी जड़के पास, बगीचेमें, फुलवारीमें, ब्राह्मणके निवास स्थानपर, गोशालामें तथा साफ-सुथरी सुन्दर सड़कोंपर तथा जलमें कभी मल-त्याग न करे। धीर पुरुष अपने हाथ, पैर, मुख और केशोंको रूखे न रखे। दाँतोंपर मैल न जमने दे। नखको मुँहमें न डाले। रविवार और मंगलको तेल न लगाये। अपने शरीर और आसनपर ताल न दे। गुरुके साथ एक आसनपर न बैठे। श्रोत्रियके धनका अपहरण न करे। देवता और गुरुका भी धन न ले। राजा, तपस्वी, पंगु, अंधे तथा स्त्रीका धन भी न ले। ब्राह्मण, गौ, राजा, रोगी भारसे दबा हुआ मनुष्य, गर्भिणी स्त्री तथा अत्यन्त दुर्बल पुरुष सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे होकर उन्हें जानेके लिये रास्ता दे । राजा, ब्राह्मण तथा वैद्यसे झगड़ा न करे। ब्राह्मण और गुरु- पत्नीसे दूर ही रहना चाहिये। पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोमांस-भक्षी और समाजबहिष्कृतको दूरसे ही त्याग दे। जो स्त्री दुष्टा, दुराचारिणी, कलंक लगानेवाली, सदा ही कलहसे प्रेम करनेवाली, प्रमादिनी, निडर, निर्लज्ज, बाहर घूमने-फिरनेवाली, अधिक खर्च करनेवाली और सदाचारसे हीन हो, उसको भी दूरसे ही त्याग देना चाहिये।
बुद्धिमान् शिष्यको उचित है कि वह रजस्वला अवस्थामें गुरुपत्नीको प्रणाम न करे, उसका चरण स्पर्श न करे; यदि उस अवस्थामें भी वह उसे छू ले तो पुनः स्नान करनेसे ही उसकी शुद्धि होती है। शिष्य गुरु- पत्नीके साथ खेल-कूदमें भी भाग न ले। उसकी। बात अवश्य सुने; किन्तु उसकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं। पुत्रवधू, भाईकी स्त्री, अपनी पुत्री, गुरुपत्नी तथाअन्य किसी युवती स्त्रीकी ओर न तो देखे और न उसका स्पर्श करे। उपर्युक्त स्त्रियोंकी ओर भ मटकाकर देखना, उनसे विवाद करना और अश्लील वचन बोलना सदा ही त्याज्य हैं। भूसी, अंगारे, हड्डी, राख, रुई निर्माल्य (देवताको अर्पण की हुई वस्तु), चिताकी लकड़ी, चिता तथा गुरुजनोंके शरीरपर कभी पैर न रखे अपवित्र, दूसरेका उच्छिष्ट तथा दूसरेकी रसोई बनानेके लिये रखा हुआ अन्न भोजन न करे। धीर पुरुष किसी दुष्टके साथ एक क्षण भी न तो ठहरे और न यात्रा ही करे। इसी प्रकार उसे दीपककी छायामें तथा बहेड़े वृक्षके नीचे भी खड़ा नहीं होना चाहिये।
अपनेसे छोटेको प्रणाम न करे। चाचा और मामा आदिके आनेपर उठकर आसन दे और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहे। जो तेल लगाये हो [ किन्तु स्नान न किये हो], जिसके मुँह और हाथ जूठे हों, जो भीगे वस्त्र पहने हो, रोगी हो, समुद्रमें घुसा हो, उद्विग्न हो, भार ढो रहा हो, यज्ञ-कार्यमें लिप्त हो, स्त्रियोंके साथ क्रीड़ामें आसक्त हो, बालकके साथ खेल कर रहा हो तथा जिसके हाथोंमें फूल और कुश हों, ऐसे व्यक्तिको प्रणाम न करे। मस्तक अथवा कानोंको ढककर, जलमें खड़ा होकर, शिखा खोलकर, पैरोंको बिना धोये अथवा दक्षिणाभिमुख होकर आचमन नहीं करना चाहिये। यज्ञोपवीतसे रहित या नग्न होकर, कच्छ खोलकर अथवा एक वस्त्र धारण करके आचमन करनेवाला पुरुष शुद्ध नहीं होता। पहले तर्जनी, मध्यमा और अनामिका तीन अँगुलियोंसे मुखका स्पर्श करे, फिर अँगूठे और तर्जनीके द्वारा नासिकाका, अँगूठे और अनामिकाके द्वारा दोनों का कनिष्ठिका और अंगूठेके द्वारा दोनों कानोका केवल अँगूठेसे नाभिका करतलसे हृदयका, सम्पूर्ण अँगुलियोंसे मस्तकका तथा अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों बाहुओंका स्पर्श करके मनुष्य शुद्ध होता है। इस विधिसे आचमन करके मनुष्यको संयमपूर्वक रहना चाहिये। ऐसा करनेसे वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। भीगे पैर सोना, सूखे पैर भोजन करना और अँधेरेमें शयन तथा भोजन करनानिषिद्ध है। पश्चिम और दक्षिणकी ओर मुँह करके दन्तधावन न करे। उत्तर और पश्चिम दिशाकी ओर सिरहाना करके कभी न सोये; क्योंकि इस प्रकार शयन करनेसे आयु क्षीण होती है। पूर्व और दक्षिण दिशाकी ओर सिरहाना करके सोना उत्तम है। मनुष्यके एक बारका भोजन देवताओंका भाग, दूसरी बारका भोजन मनुष्योंका, तीसरी बारका भोजन प्रेतों और दैत्योंका तथा चौथी बारका भोजन राक्षसोंका भाग होता है । ll 1 ll
जो स्वर्ग में निवास करके इस लोकमें पुनः उत्पन्न हुए हैं, उनके हृदयमें नीचे लिखे चार सद्गुण सदा मौजूद रहते हैं— उत्तम दान देना, मीठे वचन बोलना, देवताओंका पूजन करना तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना ।इनके विपरीत कंजूसी, स्वजनोंकी निन्दा, मैले-कुचैले वस्त्र पहनना, नीच जनोंके प्रति भक्ति रखना, अत्यन्त क्रोध करना और कटुवचन बोलना-ये नरकसे लौटे हुए मनुष्योंके चिह्न हैं । 2 नवनीतके समान कोमल वाणी और करुणासे भरा कोमल हृदय-ये धर्मबीजसे उत्पन्न मनुष्योंकी पहचानके चिह्न हैं। दयाशून्य हृदय और आरीके समान मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेवाला तीखा वचन - ये पापबीजसे पैदा हुए पुरुषोंको पहचाननेके लक्षण हैं। जो मनुष्य इस आचार आदिसे युक्त प्रसंगको सुनता या सुनाता है, वह आचार आदिका फल पाकर पापसे शुद्ध हो स्वर्गमें जाता है और वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता।