नारदजी कहते हैं-धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर! कुरुक्षेत्रसे तीर्थयात्रीको परम प्राचीन धर्मतीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ महाभाग धर्मने उत्तम तपस्या की थी। धर्मशील मनुष्य एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान करके अपनी सात पीढ़ियाँतकको पवित्र कर देता है। वहाँसे उत्तम कलाप वनकी यात्रा करनी उचित है; उस तीर्थमें एकाग्रतापूर्वक स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और विष्णुलोकको जाता है। राजन् ! तत्पश्चात् मानव सौगन्धिक बनकी यात्रा करे। उस वनमें प्रवेश करते ही वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उसके बाद नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती आती हैं, जिन्हें पलक्षा देवी भी कहते हैं। उनमें जहाँ वल्मीक (बाँबी) से जल निकला है, वहाँ स्नान करे। फिर देवताओं तथा पितरोंका पूजन करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। भारत! सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पंचयज्ञकी यात्रा करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात सुवर्ण नामक तीर्थमें जाय; वहाँ पहुँचकर भगवान् शंकरकी पूजा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और गणपति पदको प्राप्त होता है। वहाँसे धूमवन्तीको प्रस्थान करे। वहीं तीन रात निवास करनेवाला मनुष्य मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवीके दक्षिणार्ध भागमें रथावर्त नामक स्थान है। वहाँ जाकर श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय पुरुष महादेवजीकी कृपासे परमगतिको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् महागिरिको नमस्कार करके गंगाद्वार(हरिद्वार) की यात्रा करे तथा वहाँ एकाग्रचित्त हो कोटितीर्थ स्नान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुण्डरीक यज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग और शक्रावर्त नामक तीर्थमें देवता तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करनेवाला पुरुष पुण्यलोक प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद कनखल स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। वहाँसे ललितिका-(ललिता)-में, जो राजा शन्तनुका उत्तम तीर्थ है, जाना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यकी कभी दुर्गति नहीं होती।
महाराज युधिष्ठिर। तत्पश्चात् उत्तम कालिन्दी तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता। नरश्रेष्ठ! पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, पृथूदक, अविमुक्त क्षेत्र (काशी) तथा सुवर्ण नामक तीर्थमें भी जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती, वह यमुनामें स्नान करनेसे मिल जाता है। निष्काम या सकाम भावसे भी जो यमुनाजीके जलमें गोता लगाता है, उसे इस लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखना पड़ता। जैसे कामधेनु और चिन्तामणि मनोगत कामनाओंको पूर्ण कर देती हैं, उसी प्रकार यमुनामें किया हुआ स्नान सारे मनोरथोंको पूर्ण करता है। सत्ययुगमें तप, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमें दान सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं; किन्तु कलिन्द कन्या यमुना सदा ही शुभकारिणी हैं। राजन्। यमुनाके जलमें स्नान करना सभी वर्णों तथासमस्त आश्रमोंके लिये धर्म है। मनुष्यको चाहिये कि वह भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नता, समस्त पापकी निवृत्ति तथा स्वर्गलोककी प्राप्ति के लिये यमुनाके जलमें स्नान करे। यदि यमुना स्नानका अवसर न मिला तो सुन्दर, सुपुष्ट, बलिष्ठ एवं नाशवान् शरीरकी रक्षा करनेसे क्या लाभ ।
विष्णुभकिसे रहित ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषोंसे रहित ब्राद्ध ब्राह्मणभक्तिसे शून्य क्षत्रिय, दुराचारसे दूषित कुल, दम्भयुक्त धर्म, क्रोधपूर्वक किया हुआ तप, दृढ़तारहित ज्ञान, प्रमादपूर्वक किया हुआ शास्त्राध्ययन, परपुरुषमें आसक्ति रखनेवाली नारी, मदयुक्त ब्रह्मचारी, बुझी हुई आगमें किया हुआ हवन, कपटपूर्ण भक्ति, जीविकाका साधन बनी हुई कन्या, अपने लिये बनायी। हुई रसोई, शूद्र संन्यासीका साधा हुआ योग, कृपणका धन, अभ्यासरहित विद्या, विरोध पैदा करनेवाला ज्ञान, जीविकाके साधन बने हुए तीर्थ और व्रत, असत्य और चुगलीसे भरी हुई वाली छकानोंमें पहुंचा हुआ गुप्त मन्त्र, चंचल चित्तसे किया हुआ जप, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान, नास्तिक मनुष्य तथा अश्रद्धापूर्वक किया हुआ समस्त पारलौकिक कर्म-ये सब-के-सब जिस प्रकार नष्टप्राय माने गये हैं, वैसे ही यमुना स्नानके बिना मनुष्योंका जन्म भी नष्ट ही है। मन वाणी और क्रियाद्वारा किये हुए आर्द्र, शुष्क, लघु और स्थूल- सभी प्रकारके पापको यमुनाका स्नान दग्ध कर देता है; ठीक उसी तरह जैसे आग लकड़ीको जला डालती है। राजन्! जैसे भगवान् विष्णुकी भक्ति में सभी अधिकार है, उसी प्रकार मुनादेवी सदा सबके पापका नाश करनेवाली हैं। यमुनामें किया हुआ स्नान ही सबसे बड़ा मन्त्र, सबसे बड़ी तपस्या और सबसे बढ़कर प्रायश्चित है। यदि मथुराकी यमुना प्राप्त हो जायें तो वे मोक्ष देनेवाली मानी गयी हैं। अन्यत्रकी यमुना पुण्यमयी तथा महापातकोंका नाश करनेवाली हैं; किन्तु मथुरामें बहनेवाली यमुनादेवी विष्णुभक्ति प्रदान करती हैं।
राजन् इस विषय में तुमसे एक प्राचीनइतिहासका वर्णन करता हूँ। पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है। निषेध नामक सुन्दर नगरमें एक वैश्य रहते थे। उनका नाम हेमकुण्डल था। वे उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके साथ ही सत्कर्म करनेवाले थे। देवता, ब्राह्मण और अग्निकी पूजा करना उनका नित्यका नियम था। वे खेती और व्यापारका काम करते थे। पशुओंके पालन-पोषणमें तत्पर रहते थे। दूध, दही, मट्ठा, घास, लकड़ी, फल, मूल, लवण, अदरख, पीपल, धान्य, शाक, तैल, भाँति-भाँति के वस्त्र, धातुओंके सामान और ईखके रससे बने हुए खाद्य पदार्थ (गुड़, खाँड़, शक्कर आदि) - इन्हीं सब वस्तुओंको सदा बेचा करते थे। इस तरह नाना प्रकारके अन्यान्य उपायोंसे वैश्यने आठ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ पैदा की इस प्रकार व्यापार करते करते उनके कानोंतकके बाल सफेद हो गये। तदनन्तर उन्होंने अपने चित्तमें संसारको क्षणभंगुरताका विचार करके उस धनके छठे भागसे धर्मका कार्य करना आरम्भ किया। भगवान् विष्णुका मन्दिर तथा शिवालय बनवाये, पोखरा खुदवाया तथा बहुत-सी बावलियाँ बनवायें। इतना ही नहीं, उन्होंने बरगद, पीपल, आम, जामुन और नीम आदिके जंगल लगवाये तथा सुन्दर पुष्पवाटिका भी तैयार करावी सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक अन्न-जल बाँटनेकी उन्होंने व्यवस्था कर रखी थी। नगरके बाहर चारों ओर अत्यन्त शोभायमान पाँसले बनवा दिये थे। राजन्! पुराणोंमें जो-जो दान प्रसिद्ध हैं, वे सभी दान उन धर्मात्मा वैश्यने दिये थे। वे सदा ही दान देवपूजा तथा अतिथि सत्कारमें लगे रहते थे।
इस प्रकार धर्मकार्यमें लगे हुए वैश्यके दो पुत्र हुए । उनके नाम थे— श्रीकुण्डल और विकुण्डल। उन दोनोंके सिरपर परका भार छोड़कर हेमकुण्डल तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ देवता वरदायक भगवान् गोविन्दकी आराधनामें संलग्न हो तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर डाला। तथा निरन्तर श्रीवासुदेवमें मन लगाये रहनेके कारण वे वैष्णवधामको प्राप्त हुए, जहाँ जाकर मनुष्यको शोक नहीं करना पड़ता। तत्पश्चात् उस वैश्यके दोनों पुत्र जबतरुण हुए तो उन्हें बड़ा अभिमान हो गया। वे धनके गर्वसे उन्मत्त हो उठे। उनका आचरण बिगड़ गया। वे दुर्व्यसनोंमें आसक्त हो गये। धर्म-कर्मोंकी ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती थी। वे माताकी आज्ञा तथा वृद्ध पुरुषका कहना नहीं मानते थे। दोनों ही दुरात्मा और कुगामी हो गये। ये अधर्म हो लगे रहते थे। उन दुष्टोंने परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार आरम्भ कर दिया। वे गाने-बजानेमें मस्त रहते और सैकड़ों वेश्याओंको साथ रखते थे। चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर 'हाँ-में-हाँ' मिलानेवाले चापलूस ही उनके संगी थे। उन्हें मद्य पीनेका चस्का लग गया था। इस प्रकार सदा भोगपरायण होकर पिताके धनका नाश करते हुए वे दोनों भाई अपने रमणीय भवनमें निवास करते थे। धनका दुरुपयोग करते हुए उन्होंने वेश्याओं, गुंडों, नटों, मल्लों, चारणों तथा बन्दियोंको अपना सारा धन लुटा दिया। ऊसरमें डाले हुए बीजकी भाँति सारा धन उन्होंने अपात्रोंको ही दिया। सत्पात्रको कभी दान नहीं दिया, ब्राह्मणके मुखमें अन्नका होम नहीं किया तथा समस्त भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले सर्वपापनाशक भगवान् विष्णुकी कभी पूजा नहीं की।
इस प्रकार उन दोनोंका धन थोड़े ही दिनोंमें समाप्त हो गया। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके घरमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बची, जिससे वे अपना निर्वाह करते। द्रव्यके अभावमें समस्त स्वजनों, बान्धवों, सेवकों तथा आश्रितोंने भी उन्हें त्याग दिया। उस नगरमें उनकी बड़ी शोचनीय स्थिति हो गयी। इसके बाद उन्होंने चोरी करना आरम्भ किया। राजा तथा लोगोंके भयसे डरकर वे अपने नगरसे निकल गये और वनमें जाकर रहने लगे। अब वे सबको पीड़ा पहुँचाने लगे। इस प्रकार पापपूर्ण आहारसे उनकी जीविका चलने लगी। तदनन्तर एक दिन उनमेंसे एक तो पहाड़पर गया और दूसरेने वनमें प्रवेश किया। राजन्! उन दोनोंमें जो बड़ा था, उसे सिंहने मार डाला और छोटेको साँपने डस लिया। उन दोनों महामयिकी एक ही दिन मृत्यु हुई। इसके बाद यमदूत उन्हें पाशोंमें बाँधकर यमपुरीमें ले गये। वहाँजाकर वे यमराजसे बोले-'धर्मराज! आपकी आज्ञासे हम इन दोनों मनुष्योंको ले आये हैं अब आप प्रसन्न होकर अपने इन किंकरोंको आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य करें ?' तब यमराजने दूतोंसे कहा- 'वीरो ! एकको तो दुःसह पीड़ा देनेवाले नरकमें डाल दो और दूसरेको स्वर्गलोकमें, जहाँ उत्तम उत्तम भोग सुलभ हैं, स्थान दो।' यमराजकी आज्ञा सुनकर शीघ्रतापूर्वक काम करनेवाले दूतोंने वैश्यके ज्येष्ठ पुत्रको भयंकर रौरव नरकमे डाल दिया। इसके बाद उनमेंसे किसी श्रेष्ठ | दूतने दूसरे पुत्रसे मधुर वाणीमें कहा-'क्कुिण्डल! तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें स्वर्गमें स्थान देता हूँ। तुम वहाँ अपने पुण्यकर्मद्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंका उपभोग करो।'
यह सुनकर विकुण्डलके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। मार्गमें अत्यन्त विस्मित होकर उसने दूतसे पूछा 'दूतप्रवर! मैं आपसे अपने मनका एक सन्देह पूछ रहा हूँ। हम दोनों भाइयोंका एक ही कुलमें जन्म हुआ। हमने कर्म भी एक-सा ही किया तथा दुर्मृत्यु भी हमारी एक-सी ही हुई; फिर क्या कारण है कि मेरे ही समान कर्म करनेवाला मेरा बड़ा भाई नरकमें डाला गया और मुझे स्वर्गकी प्राप्ति हुई? आप मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। बाल्यकालसे ही मेरा मन पापोंमें लगा रहा। पुण्य कर्मोंमें कभी संलग्न नहीं हुआ। यदि आप मेरे किसी पुण्यको जानते हो तो कृपया बतलाइये।'
देवदूतने कहा- वैश्यवर! सुनो। हरिमित्रके पुत्र स्वमित्र नामक ब्राह्मण वनमें रहते थे। वे वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। यमुनाके दक्षिण किनारे उनका पवित्र आश्रम था। उस वनमें रहते समय ब्राह्मणदेवताके साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी थी। उन्होंके संगसे तुमने कालिन्दीके पवित्र जलमें, जो सब पापको हरनेवाला और श्रेष्ठ है, दो बार माघ स्नान किया है। एक माघ स्नानके पुण्यसे तुम सब पापोंसे मुक्त हो गये और दूसरेके पुण्यसे तुम्हें स्वर्गकी प्राप्ति हुई है। इसी पुण्यके प्रभावसे तुम सदा स्वर्गमें रहकर आनन्दका अनुभव करो। तुम्हारा भाई नरकमें बड़ी भारी यातना भोगेगा। असिपत्र-वनकेपोंसे उसके सारे अंग छिद जायेंगे। मुगदरोंकी मारसे उसकी धज्जियाँ उड़ जायँगी। शिलाकी चट्टानोंपर पटककर उसे चूर-चूर कर दिया जायगा तथा वह दहकते हुए अंगारोंमें भूना जायगा दूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलको भाईके दुःखसे बड़ा दुःख हुआ। उसके सारे शरीरके रोंगटे खड़े हो गये। वह दीन और विनीत होकर बोला 'साधो ! सत्पुरुषों में सात पग साथ चलनेमात्रसे मैत्री हो जाती है तथा वह उत्तम फल देनेवाली होती है; अतः आप मित्रभावका विचार करके मेरा उपकार करें। मैं आपसे उपदेश सुनना चाहता हूँ। मेरी समझमें आप सर्वज्ञ हैं; अतः कृपा करके बताइये, मनुष्य किस कर्मके अनुष्ठानसे यमलोकका दर्शन नहीं करते तथा कौन-सा कर्म करनेसे वे नरकमें जाते हैं?'
देवदूतने कहा- जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी किसी भी अवस्थामें दूसरोंको पीड़ा नहीं देते, वे यमराजके लोकमें नहीं जाते। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा ही श्रेष्ठ तपस्या है तथा अहिंसाको ही मुनियोंने सदा श्रेष्ठ दान बताया है। जो मनुष्य दयालु हैं वे मच्छर, साँप, डाँस, खटमल तथा मनुष्य-सबको अपने ही समान देखते हैं। जो अपनी जीविकाके लिये जलचर और थलचर जीवोंकी हत्या करते हैं, वे कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर दुर्गति भोगते हैं। वहाँ उन्हें कुत्तेका मांस खाना तथा पीव और रक्त पीना पड़ता है। वे चर्बीकी कोचमें दुक्कर अधोमुखी कीड़ोंके द्वारा डँसे जाते हैं। अँधेरेमें पड़कर वे एक-दूसरेको खाते और परस्पर आघात करते हैं। इस अवस्थायें भयंकर चीत्कार करते हुए वे एक कल्पतक वहाँ निवास करते हैं। नरकसे निकलनेपर उन्हें दीर्घकालतक स्थावर योनिमें - रहना पड़ता है। उसके बाद वे क्रूर प्राणी सैकड़ों बारतिर्यग्योनियोंमें जन्म लेते हैं और अन्तमें योनिके भीतर जन्मसे अंधे, काने, कुबड़े, पंगु, दरिद्र तथा अंगहीन होकर उत्पन्न होते हैं। मनुष्य इसलिये जो दोनों लोकोंमें सुख पाना चाहता है, उस धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि इस लोक और परलोकमें मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी जीवकी हिंसा न करे। प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले लोग दोनों लोकोंमें कहीं भी सुख नहीं पाते। जो किसी जीवकी हिंसा नहीं करते, उन्हें कहीं भी भय नहीं होता। जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार समस्त धर्म अहिंसामें लय हो जाते हैं- यह निश्चित बात है। वैश्यप्रवर! जिसने इस लोकमें सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान कर दिया है, उसीने सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान किया है तथा वह सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षा ले चुका है। वर्णाश्रमधर्ममें स्थित होकर शास्त्रोक्त आज्ञाका पालन करनेवाले समस्त जितेन्द्रिय मनुष्य सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं। जो इष्टरे और पूर्तमें 3 लगे रहते हैं, पंचयज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं, जिनके मनमें सदा दया भरी रहती है, जो विषयोंकी ओरसे निवृत्त, सामर्थ्यशाली, वेदवादी तथा सदा अग्निहोत्रपरायण हैं, वे ब्राह्मण स्वर्गगामी होते हैं। शत्रुओंसे घिरे होनेपर भी जिनके मुखपर कभी दीनताका भाव नहीं आता, जो शूरवीर हैं, जिनकी मृत्यु संग्राममें ही होती है; जो अनाथ स्त्रियों, ब्राह्मणों तथा शरणागतोंकी रक्षाके लिये अपने प्राणोंकी बलि दे देते हैं तथा जो पंगु, अन्ध, बाल-वृद्ध, अनाथ, रोगी तथा दरिद्रोंका सदा पालन-पोषण करते हैं, वे सदा स्वर्गमें रहकर आनन्द भोगते हैं। जो कीचड़ में फँसी हुई गाय तथा रोगसे आतुर ब्राह्मणको देखकर उनका उद्धार करते हैं, जो गौओंको ग्रास अर्पण करते, गौओंकी सेवा-शुश्रूषामें रहते तथा गौओंकी पीठपरकभी सवारी नहीं करते, वे स्वर्गलोकके निवासी होते. हैं। जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निपूजा, देवपूजा, गुरुपूजा और द्विजपूजामें तत्पर रहते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं।
बावली, कुआँ और पोखरे बनवाने आदिके पुण्यका कभी अन्त नहीं होता: क्योंकि वहाँ जलचर और थलचर जीव सदा अपनी इच्छाके अनुसार जल पीते रहते हैं। देवता भी बावली आदि बनवानेवालेको नित्य दानपरायण कहते है वैश्यवर प्राणी जैसे-जैसे जवली आदिका जल पीते हैं, वैसे ही वैसे धर्मकी वृद्धि होनेसे उसके बनवानेवाले मनुष्यके लिये स्वर्गका निवास अक्षय होता जाता है। जल प्राणियोंका जीवन है। जलके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं। पातकी मनुष्य भी प्रतिदिन स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं। प्रातःकालका स्नान बाहर और भीतरके मलको भी धो डालता है। प्रातः स्नानसे निष्पाप होकर मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता। जो बिना स्नान किये भोजन करता है, वह सदा मलका भोजन करनेवाला है। जो मनुष्य स्नान नहीं करता, देवता और पितर उससे विमुख हो जाते हैं। वह अपवित्र माना गया है। वह नरक भोगकर कोट-योनिको प्राप्त होता है।
जो लोग पर्वके दिन नदीकी धारामें स्नान करते हैं वे न तो नरकमें पड़ते हैं और न किसी नीच योनिमें ही जन्म लेते हैं। उनके लिये बुरे स्वप्न और बुरी चिन्ताएँ सदा निष्फल होती हैं। विकुण्डल ! जो पृथ्वी, सुवर्ण और गौ- इनका सोलह बार दान करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाकर फिर वहाँसे वापस नहीं आते। विद्वान् पुरुष पुण्य तिथियोंमें, व्यतीपात योगमें तथा संक्रान्तिके समय स्नान करके यदि थोड़ा-सा भी दान करे तो कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। जो मनुष्य सत्यवादी, सदा मौन धारण करनेवाले, प्रियवक्ता, क्रोधहीन, सदाचारी, अधिक बकवाद न करनेवाले, दूसरोंके दोष नदेखनेवाले, सदा सब प्राणियोंपर दया करनेवाले, दूसरोंकी गुप्त बातोंको प्रकट न करनेवाले तथा दूसरोंके गुणका बखान करनेवाले हैं; जो दूसरेके धनको तिनकेके समान समझकर मनसे भी उसे लेना नहीं चाहते, ऐसे लोगोंको नरक यातनाका अनुभव नहीं करना पड़ता। जो दूसरोंपर कलंक लगानेवाला, पाखण्डी, महापापी और कठोर वचन बोलनेवाला है, वह प्रलयकालतक नरकमें पकाया जाता है। कृतघ्न पुरुषका तीर्थोंके सेवन तथा तपस्यासे भी उद्धार नहीं होता। उसे नरकमें दीर्घकालतक भयंकर यातना सहन करनी पड़ती है जो मनुष्य जितेन्द्रिय तथा मिताहारी होकर पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें स्नान करता है, वह यमराजके घर नहीं जाता तीर्थमें कभी पातक न करे, तीर्थको कभी जीविकाका साधन न बनाये, तीर्थमें दान न ले तथा वहाँ धर्मको बेचे नहीं। तीर्थमें किये हुए पातकका क्षय होना कठिन है। तीर्थमें लिये हुए दानका पचाना मुश्किल है।
जो एक बार भी गंगाजीके जलमें स्नान करके गंगाजलसे पवित्र हो चुका है, उसने चाहे राशि राशि पाप किये हों, फिर भी वह नरकमें नहीं पड़ता। हमारे सुननेमें आया है कि व्रत, दान, तप, यज्ञ तथा पवित्रताके अन्यान्य साधन गंगाकी एक बूँदसे अभिषिक्त हुए पुरुषकी समानता नहीं कर सकते।" जो धर्मद्रव (धर्मका ही द्रवीभूतस्वरूप) है, जलका आदि कारण है, भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुआ है तथा जिसे भगवान् शंकरने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है, वह गंगाजीका निर्मल जल प्रकृतिसे परे निर्गुण ब्रह्म ही है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है अतः ब्रह्माण्डके भीतर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो गंगाजलकी समानता कर सके। जो सौ योजन दूरसे भी 'गंगा, गंगा' कहता है, वह मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता। फिर गंगाजीके समानकौन हो सकता है। नरक देनेवाला पापकर्म दूसरे किसी उपायसे तत्काल दग्ध नहीं हो सकता; इसलिये मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक गंगाजीके जलमें स्नान करना चाहिये।
जो ब्राह्मण दान लेनेमें समर्थ होकर भी उससे अलग रहता है, वह आकाशमें तारा बनकर चिरकालतक प्रकाशित होता रहता है। जो कीचड़से गौका उद्धार करते हैं, रोगियोंकी रक्षा करते हैं तथा गोशालामें जिनकी मृत्यु होती हैं, उन्हीं लोगोंके लिये आकाशमें स्थित तारामय लोक हैं। सदा प्राणायाम करनेवाले द्विज यमलोकका दर्शन नहीं करते। वे पापी हो तो भी प्राणायामसे ही उनका पाप नष्ट हो जाता है। वैश्यवर! यदि प्रतिदिन सोलह प्राणायाम किये जायँ तो वे साक्षात् ब्रह्मघातीको भी पवित्र कर देते हैं। जिन-जिन तपका अनुष्ठान किया जाता है, जो-जो व्रत और नियम कहे गये हैं, वे तथा एक सहस्र गोदान- ये सब एक साथ हों तो भी प्राणायाम अकेला ही इनकी समानता कर सकता है। जो मनुष्य सौसे अधिक वर्षोंतक प्रतिमास कुशके अग्रभागसे एक बूँद पानी पीकर रहता है, उसकी कठोर तपस्याके बराबर केवल प्राणायाम ही है प्राणायामके बलसे मनुष्य अपने सारे पातकोंको क्षणभरमै भस्म कर देता है जो नरश्रेष्ठ! परायी स्त्रियोंको माताके समान समझते हैं, वे कभी यम यातनामें नहीं पड़ते। जो पुरुष मनसे भी परायी स्त्रियाँका सेवन नहीं करता, उसने इस लोक और परलोकके साथ समूची पृथ्वीको धारण कर रखा है। इसलिये परस्त्री सेवनका परित्याग करना चाहिये। परायी स्त्रियाँ इक्कीस पीढ़ियोंको नरकोंमें ले जाती हैं।जो क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी कभी क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उस अक्रोधी पुरुषको इस पृथ्वीपर स्वर्गका विजेता समझना चाहिये। जो पुत्र माता-पिताकी देवताके समान आराधना करता है, वह कभी यमराजके घर नहीं जाता। स्त्रियाँ अपने शील सदाचारकी रक्षा करनेसे इस लोकमें धन्य मानी जाती हैं। शील भंग होनेपर स्त्रियोंको अत्यन्त भयंकर यमलोककी प्राप्ति होती है। अतः स्त्रियोंको दुष्टोंके संगका परित्याग करके सदा अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिये। वैश्यवर ! शीलसे नारियोंको उत्तम स्वर्गकी प्राप्ति होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। 2
जो शास्त्रका विचार करते हैं, वेदोंके अभ्यासमें लगे रहते हैं, पुराण-संहिताको सुनाते तथा पढ़ते हैं, स्मृतियोंकी व्याख्या और धर्मोका उपदेश करते हैं तथा वेदान्तमें जिनकी निष्ठा है, उन्होंने इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। उपर्युक्त विषयोंके अभ्यासकी महिमासे उन सबके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे ब्रह्मलोकको जाते हैं, जहाँ मोहका नाम भी नहीं है। जो अनजान मनुष्यको वेद-शास्त्रका ज्ञान प्रदान करता है, उसकी वेद भी प्रशंसा करते हैं; क्योंकि वह भव-बन्धनको नष्ट करनेवाला है।
वैष्णव पुरुष यम, यमलोक तथा वहाँके भयंकर प्राणियोंका कदापि दर्शन नहीं करते—यह बात मैंने बिलकुल सच-सच बतायी है। यमुनाके भाई यमराज हमलोगों से सदा ही और बारंबार कहा करते हैं कि 'तुमलोग वैष्णवोंको छोड़ देना; ये मेरे अधिकारमें नहीं हैं। जो प्राणी प्रसंगवश एक बार भी भगवान् केशवका स्मरण कर लेते हैं, उनकी समस्त पापराशि नष्ट हो जातीहै तथा वे श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। दुराचारी, पापी अथवा सदाचारी-कैसा भी क्यों न हो, जो मनुष्य भगवान् विष्णुका भजन करता है, उसे तुमलोग सदा दूरसे ही त्याग देना। जिनके घरमें वैष्णव भोजन करता हो, जिन्हें वैष्णवोंका संग प्राप्त हो, वे भी तुम्हारे लिये त्याग देने योग्य हैं; क्योंकि वैष्णवोंके संगसे उनके पाप नष्ट हो गये हैं।' पापिष्ठ मनुष्योंको नरक - समुद्रसे पार जानेके लिये भगवान् विष्णुकी भक्तिके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव पुरुष चारों वर्णोंसे बाहरका हो तो भी वह तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है। मनुष्योंके पाप दूर करनेके लिये भगवान्के गुण, कर्म और नामोंका संकीर्तन किया जाय - इतने बड़े प्रयासकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि अजामिल-जैसा पापी भी मृत्युके समय 'नारायण' नामसे अपने पुत्रको पुकारकर भी मुक्ति पा गया। 2 जिस समय मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करते हैं, उसी समय उनके मातृकुल और पितृकुल दोनों कुलोंके पितर, जो चिरकालसे नरकमें पड़े होते हैं, तत्काल स्वर्गको चले जाते हैं। जो विष्णुभक्तोंके सेवक तथा वैष्णवोंका अन्न भोजन करनेवाले हैं, वे शान्तभावसे देवताओंकी गतिको प्राप्त होते हैं। अतः विद्वान् पुरुष समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये प्रार्थना और यत्नपूर्वक वैष्णवका अन्न प्राप्त करे; अन्नके अभावमें उसका जल माँगकर ही पी ले। यदि 'गोविन्द' इस मन्त्रका जप करते हुए कहीं मृत्यु हो जाय तो वह मरनेवाला मनुष्य न तो स्वयं यमराजको देखता है और न हमलोग ही उसकी ओर दृष्टि डालते हैं। अंग, मुद्रा, ध्यान, ऋषि,छन्द और देवतासहित द्वादशाक्षर मन्त्रकी दीक्षा लेकर उसका विधिवत् जप करना चाहिये। जो श्रेष्ठ मानव ['ॐ नमो नारायणाय' ] इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करते हैं, उनका दर्शन करके ब्राह्मणघाती भी शुद्ध हो जाता है तथा वे स्वयं भी भगवान् विष्णुकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं।
जो मनुष्य हृदय, सूर्य, जल, प्रतिमा अथवा वेदीमें भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे वैष्णवधामको प्राप्त होते हैं अथवा मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे शालग्राम शिलाके चक्रमें सर्वदा वासुदेव भगवान्का पूजन करें। वह श्रीविष्णुका अधिष्ठान है तथा सब प्रकारके पापका नाशक, पुण्यदायक एवं सबको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो शालग्राम शिलासे उत्पन्न हुए चक्रमें श्रीहरिका पूजन करता है, वह मानो प्रतिदिन एक सहस्र राजसूय यज्ञोंका अनुष्ठान करता है। जिन शान्त ब्रह्मस्वरूप अच्युतको उपनिषद् सदा नमस्कार करते हैं, उन्हींका अनुग्रह शालग्राम शिलाकी पूजा करनेसे मनुष्योंको प्राप्त होता है। जैसे महान् काष्ठमें स्थित अग्नि उसके अग्रभागमें प्रकाशित होती है, उसी प्रकार सर्वत्र व्यापक भगवान् विष्णु शालग्राम शिलामें प्रकाशित होते हैं। जिसने शालग्राम शिलासे उत्पन्न चक्रमें श्रीहरिका पूजन कर लिया उसने अग्निहोत्रका अनुष्ठान पूर्ण कर लिया तथा समुद्रसहित सारी पृथ्वी दान दे दी। जो नराधम इस लोकमें काम, क्रोध और लोभसे व्याप्त हो रहा है, वह भी शालग्राम शिलाके पूजनसे श्रीहरिके लोकको प्राप्त होता है। वैश्य ! शालग्राम शिलाकी पूजा करनेसे मनुष्य तीर्थ, दान, यज्ञ और व्रतोंके बिना हीमोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। शालग्राम शिलाकी पूजा करनेवाला मानव पापी हो तो भी नरक, गर्भवास, तिर्यग्योनि तथा कीटयोनिको नहीं प्राप्त होता गंगा, गोदावरी और नर्मदा आदि जो-जो मुक्तिदायिनी नदियाँ हैं, वे सब की सब शालग्राम शिलाके जलमें निवास करती हैं। शालग्राम शिलाके लिंगका एक बार भी पूजन करनेपर ज्ञानसे रहित मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं जहाँ शालग्राम शिलारूपी भगवान् केशव विराजमान रहते हैं, वहाँ सम्पूर्ण देवता, यज्ञ एवं चौदह भुवनोंके प्राणी वर्तमान रहते हैं। जो मनुष्य शालग्राम शिलाके निकट श्राद्ध करता है, उसके पितर सौ कल्पोंतक द्युलोक में तृप्त रहते हैं। जहाँ शालग्राम शिला रहती है, वहाँकी तीन योजन भूमि तीर्थस्वरूप मानी गयी है। वहाँ किये हुए दान और होम सब कोटिगुना अधिक फल देते हैं। जो एक बूँदके बराबर भी शालग्राम-शिलाका जल पी लेता है, उसे फिर माताके स्तनोंका दूध नहीं पीना पड़ता, वह मनुष्य भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है। जो शालग्राम शिलाके चक्रका उत्तम दान देता है, उसने पर्वत, वन और काननों सहित मानो समस्त भूमण्डलका दान कर दिया। जो मनुष्य शालग्राम शिलाको बेचकर उसकी कीमत उगाहता है, वह विक्रेता, उसकी बिक्रीका अनुमोदन करनेवाला तथा उसकी परख करते समय अधिक प्रसन्न होनेवाला- ये सभी नरकमें जाते हैं और जबतक सम्पूर्ण भूतोंका प्रलय नहीं हो जाता, तबतक वहीं बने रहते हैं।
वैश्य! अधिक कहनेसे क्या लाभ? पापसे डरनेवाले मनुष्यको सदा भगवान् वासुदेवका स्मरण करना चाहिये। श्रीहरिका स्मरण समस्त पापको हरनेवाला है। मनुष्य वनमें रहकर अपनी इन्द्रियोंका संयम करते हुए घोर तपस्या करके जिस फलको प्राप्तकरता है वह भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेसे ही मिल जाता है।" मनुष्य मोहके वशीभूत होकर अनेकों पाप करके भी यदि सर्वपापापहारी श्रीहरिके चरणों में मस्तक झुकाता है तो वह नरकमें नहीं जाता। भगवान् विष्णुके नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्य भूमण्डलके समस्त तीर्थों और पुण्यस्थानोंके सेवनका पुण्य प्राप्त कर लेता है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी शरण में जा चुके हैं, वे शरणागत मनुष्य न तो यमराजके लोकमें जाते हैं और न नरकमें ही निवास करते हैं।
वैश्य! जो वैष्णव पुरुष शिवकी निन्दा करता है, वह विष्णुके लोकमें नहीं जाता; उसे महान् नरकमें गिरना पड़ता है। जो मनुष्य प्रसंगवश किसी भी एकादशीको उपवास कर लेता है, वह यमयातनामें नहीं पड़ता—यह बात हमने महर्षि लोमशके मुखसे सुनी है। एकादशीसे बढ़कर पावन तीनों लोकोंमें दूसरा कुछ भी नहीं है। एकादशी और द्वादशी- दोनों ही भगवान् विष्णुके दिन हैं और समस्त पातकोंका नाश करनेवाले हैं। इस शरीरमें तभीतक पाप निवास करते हैं, जबतक प्राणी भगवान् विष्णुके शुभ दिन एकादशीको उपवास नहीं करता। हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं। मनुष्य अपनी ग्यारहों इन्द्रियोंसे जो पाप किये होता है, वह सब एकादशीके अनुष्ठानसे नष्ट हो जाता है। एकादशी व्रतके समान दूसरा कोई पुण्य इस संसारमें नहीं है। यह एकादशी शरीरको नीरोग बनानेवाली और स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वैश्य ! एकादशीको दिनमें उपवास और रातमें जागरण करके मनुष्य पितृकुल, मातृकुल तथा पत्नीकुलकी दस-दस पूर्व पीढ़ियोंका निश्चय ही उद्धार कर देता है। मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा किसी भीप्राणके साथ द्रोह न करना, इन्द्रियोंको रोकना, दान देना, श्रीहरिकी सेवा करना तथा वर्णों और आश्रमोंके कर्तव्योंका सदा विधिपूर्वक पालन करना-ये दिव्य गतिको प्राप्त करानेवाले कर्म है। वैश्य स्वर्गार्थी मनुष्यको अपने तप और दानका अपने ही मुँहसे बखान नहीं करना चाहिये; जैसी शक्ति हो उसके अनुसार अपने हितकी इच्छासे दान अवश्य करते रहना चाहिये। दरिद्र पुरुषको भी पत्र, फल, मूल तथा जल आदि देकर अपना प्रत्येक दिन सफल बनाना चाहिये। अधिक क्या कहा जाय, मनुष्य सदा और सर्वत्र अधर्म करनेसे दुर्गतिको प्राप्त होते हैं और धर्मसे स्वर्गको जाते हैं। इसलिये बाल्यावस्थासे ही धर्मका संचय करना उचित है। वैश्य ये सब बातें हमने तुम्हें बता दीं, अब और क्या सुनना चाहते हो ?
वैश्य बोला - सौम्य ! आपकी बात सुनकर मेरा चित्त प्रसन्न हो गया। गंगाजीका जल और सत्पुरुयोंका वचन- ये शीघ्र ही पाप नष्ट करनेवाले हैं। दूसरोंका उपकार करना और प्रिय वचन बोलना - यह साधु पुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। अतः देवदूत! आप कृपा करके मुझे यह बताइये कि मेरे भाईका नरकसे तत्काल उद्धार कैसे हो सकता है?
देवदूतने कहा- वैश्य! तुमने पूर्ववर्ती आठवें जन्ममें जिस पुण्यका संचय किया है, वह सब अपने भाईको दे डालो। यदि तुम चाहते हो कि उसे भी स्वर्गकी प्राप्ति हो जाय तो तुम्हें यही करना चाहिये ।।
विकुण्डलने पूछा- देवदूत वह पुण्य क्या है? हुआ? मेरे प्राचीन जन्मका परिचय क्या है ? ये कैसे सब बातें बताइये; फिर मैं शीघ्र ही वह पुण्य भाईको अर्पण कर दूँगा ।
देवदूतने कहा- पूर्वकालकी बात है, पुण्यमय मधुवनमें एक ऋषि रहते थे, जिनका नाम शाकुनि था, वे तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते थे और तेजमें ब्रह्माजीके समान थे। उनके रेवती नामकी पत्नीके गर्भसे नौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो नवग्रहोंके समान शक्तिशाली थे। उनमेंसे ध्रुव, शाली, बुध, तार और ज्योतिष्मान्-येपाँच पुत्र अग्निहोत्री हुए। उनका मन गृहस्थधर्मके अनुष्ठानमें लगता था। शेष चार ब्राह्मण कुमार-जो निर्मोह, जितकाम, ध्यानकाष्ठ और गुपाधिकके नामसे प्रसिद्ध थे-घरकी ओरसे विरक्त हो गये। वे सब सम्पूर्ण भोगोंसे निःस्पृह हो चतुर्थ आश्रम-संन्यासमें प्रविष्ट हुए। वे सब-के-सब आसक्ति और परिग्रहसे शून्य थे। उनमें आकांक्षा और आरम्भका अभाव था। वे मिट्टीके ठेले, पत्थर और सुवर्णमें समान भाव रखते थे। जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेते थे। जो कुछ भी खाकर पेट भर लेते थे जहाँ साँझ हुई, वहीं ठहर जाते थे। वे नित्य भगवान्का ध्यान किया करते थे। उन्होंने निद्रा और आहारको जीत लिया था। वे बात और शीतका कष्ट सहन करनेमें पूर्ण समर्थ थे। तथा समस्त चराचर जगत्को विष्णुरूप देखते हुए लीलापूर्वक पृथ्वीपर विचरते रहते थे। उन्होंने परस्पर मौनव्रत धारण कर लिया था। वे स्वल्प मात्रामें भी कभी किसी क्रियाका अनुष्ठान नहीं करते थे। उन्हें तत्त्वज्ञानका साक्षात्कार हो गया था। उनके सारे संशय दूर हो चुके थे और वे चिन्मय तत्त्वके विचारमें अत्यन्त प्रवीण थे।
वैश्य! उन दिनों तुम अपने पूर्ववर्ती आठवें जन्ममें एक गृहस्थ ब्राह्मणके रूपमें थे। तुम्हारा निवास मध्यप्रदेशमें था। एक दिन उपर्युक्त चारों ब्राह्मण संन्यासी किसी प्रकार घूमते-घामते मध्याहनके समय तुम्हारे घरपर आये। उस समय उन्हें भूख और प्यास सता रही थी। बलिवैश्वदेवके पश्चात् तुमने उन्हें अपने घरके आँगनमें उपस्थित देखा उनपर दृष्टि पड़ते ही तुम्हारे नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये। तुम्हारी वाणी गद्गद हो गयी, तुमने बड़े वेगसे दौड़कर उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणाम किया। फिर बड़े आदर भावके साथ दोनों हाथ जोड़कर मधुर वाणीसे उन सबका अभिनन्दन करते हुए कहा- महानुभाव! आज मेरा जन्म और जीवन सफल हो गया। आज मुझपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हैं। मैं सनाथ और पवित्र हो गया। आज मैं, मेरा घर तथा मेरे सभी कुटुम्बी धन्य हो गये। आज मेरे पितर धन्य हैं, मेरी गौएँ धन्य हैं, मेरा शास्त्राध्ययनतथा धन भी धन्य है; क्योंकि इस समय आपलोगोंके इन चरणोंका दर्शन हुआ, जो तीनों तापका विनाश करनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भाँति आपलोगोंका दर्शन भी किसी धन्य व्यक्तिको ही होता है।'
इस प्रकार उनका पूजन करके तुमने अतिथियों के पाँव पखारे और चरणोदक लेकर बड़ी श्रद्धाके साथ अपने मस्तकपर चढ़ाया। फिर चन्दन, फूल, अक्षत, धूप और दीप आदिके द्वारा भक्ति भावके साथ उन यतियोंकी पूजा करके उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया। वे चारों परमहंस तृप्त होकर रातको तुम्हारे भवनमें विश्राम और सूर्य आदिके भी प्रकाशक परब्रह्मका ध्यान करते रहे। उनका आतिथ्य सत्कार करनेसे जो पुण्य तुम्हें प्राप्त हुआ है, उसका एक हजार मुखोंसे भी वर्णन करनेमें में असमर्थ हूँ। भूतोंमें प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवियोंमें भी मनुष्य और मनुष्योंमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं ब्राह्मणोंमें विद्वान् विद्वानोंमें पवित्र बुद्धिवाले पुरुष, उनमें भी कर्म करनेवाले व्यक्ति तथा उनमें भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष सबसे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं, अतः सबके परमपूज्य हैं। उनका संग महान् पातकका नाशकरनेवाला है। यदि कभी किसी गृहस्थके घरपर ब्रह्म ज्ञानी महात्मा आकर संतोषपूर्वक विश्राम करें तो वे उसके जन्मभरके पापोंका अपने दृष्टिपातमात्रसे नाश कर डालते हैं। * एक रात गृहस्थके घरपर विश्राम करनेवाला संन्यासी उसके जीवनभरके सारे पापोंको भस्म कर देता है। वैश्य! वही पुण्य तुम अपने भाईको दे दो, जिसके द्वारा उसका नरकसे उद्धार हो जाय ।
देवदूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलने तत्काल ही वह पुण्य अपने भाईको दे दिया। तब उसका भाई भी प्रसन्न होकर नरकसे निकल आया। फिर तो देवताओंने उन दोनोंपर पुष्पोंकी वृष्टि करते हुए उनका पूजन किया तथा वे दोनों भाई स्वर्गलोकमें चले गये। तदनन्तर दोनोंसे सम्मानित होकर देवदूत यमलोकमें लौट आया।
नारदजी कहते हैं- राजन्! देवदूतका वचन वेद-वाक्यके समान था, उसमें सम्पूर्ण लोकका ज्ञान भरा था, उसे वैश्यपुत्र विकुण्डलने सुना और अपने किये हुए पुण्यका दान देकर अपने भाईको भी तार दिया। तत्पश्चात् वह भाईके साथ ही देवराज इन्द्रके श्रेष्ठ लोकमें गया। जो इस इतिहासको पढ़ेगा या सुनेगा, वह शोकरहित होकर सहस्र गोदानका फल प्राप्त करेगा।