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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 3, अध्याय 80 - Khand 3, Adhyaya 80

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नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! नर्मदाके उत्तर 'तटपर 'पत्रेश्वर' नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जिसका विस्तार चार कोसका है। वह सब पापका नाश करनेवाला उत्तम तीर्थ है। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। वहाँसे 'गर्जन' नामक तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ [रावणका पुत्र] मेघनाद गया था; उसी तीर्थके प्रभावसे उसको 'इन्द्रजित्' नाम प्राप्त हुआ था वहाँसे 'मेघराव' तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ मेघनादने मेघके समान गर्जना की थी तथा अपने परिकरोंसहित उसने अभीष्ट वर प्राप्त किये थे। राजा युधिष्ठिर! उस स्थानसे 'ब्रह्मावर्त' नामक तीर्थको जाना चाहिये, जहाँ ब्रह्माजी सदा निवास करते हैं। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।

तदनन्तर अंगारेश्वर तीर्थमें जाकर नियमित आहार ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहे। ऐसा करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाता है। वहाँसे परम उत्तम कपिला तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको गोदानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् कुण्डलेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ भगवान् शंकर पार्वतीजीके साथ निवास करते हैं। राजेन्द्र वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य देवताओंके लिये भी अवध्य हो जाता है।वहाँसे पिप्पलेश्वर तीर्थकी यात्रा करे, वह सब पापका नाश करनेवाला तीर्थ है। वहाँ जानेसे रुद्रलोकमें सम्मानपूर्वक निवास प्राप्त होता है। इसके बाद विमलेश्वर तीर्थमें जाय; वह बड़ा निर्मल तीर्थ है; उस तीर्थमें मृत्यु होनेपर रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। तदनन्तर पुष्करिणीमें जाकर स्नान करना चाहिये; वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य इन्द्रके आधे सिंहासनका अधिकारी हो जाता है। नर्मदा समस्त सरिताओंमें श्रेष्ठ है, वह स्थावर जंगम समस्त प्राणियोंका उद्धार कर देती है। मुनि भी इस श्रेष्ठ नदी नर्मदाका स्तवन करते हैं। यह समस्त लोकोंका हित करनेकी इच्छासे भगवान् रुद्रके शरीरसे निकली है। यह सदा सब पापका अपहरण करनेवाली और सब लोगोंके द्वारा अभिवन्दित है। देवता, गन्धर्व और अप्सरा- सभी इसकी स्तुति करते रहते हैं- 'पुण्यसलिला नर्मदा ! तुम सब नदियोंमें प्रधान हो, तुम्हें नमस्कार है। सागरगामिनी! तुमको प्रणाम है। ऋषिगणोंसे पूजित तथा भगवान् शंकरके श्रीविग्रहसे प्रकट हुई नर्मदे ! तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं। सुमुखि तुम धर्मको धारण करनेवाली हो, तुम्हें प्रणाम है। देवताओंका समुदाय तुम्हारे चरणोंमें मस्तक झुकाता है तुम्हें नमस्कार है। देवि! तुम समस्त पवित्र वस्तुओंको भी परम पावन बनानेवाली हो, सम्पूर्ण संसार तुम्हारी पूजा करता है; तुम्हें बारंबार नमस्कार है।"जो मनुष्य प्रतिदिन शुद्धभावसे इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह ब्राह्मण हो तो वेदका विद्वान् होता है, क्षत्रिय हो तो युद्धमें विजय प्राप्त करता है, वैश्य हो। तो [ व्यापारमें] लाभ उठाता है और शूद्र हो तो उत्तम गतिको प्राप्त होता है। साक्षात् भगवान् शंकर भी नर्मदा नदीका नित्य सेवन करते हैं; अतः इस नदीको परम पावन समझना चाहिये। यह ब्रह्महत्याको भी दूर करनेवाली है।

शूलभद्र नामसे विख्यात एक परम पवित्र तीर्थ हैं। वहाँ स्नान करके भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। इससे एक हजार गोदानका फल मिलता है। राजन्! जो उस तीर्थमें महादेवजीको पूजा करते हुए तीन राततक निवास करता है, उसका इस संसारमें फिर जन्म नहीं होता । तदनन्तर क्रमशः भीमेश्वर, परम उत्तम नर्मदेश्वर तथा महापुण्यमय आदित्येश्वरकी यात्रा कानी चाहिये। आदित्येश्वर तीर्थमें स्नान के पश्चात् भी और मधुसे शिवजीका पूजन करना उचित है। मल्लिकेश्वर तीर्थमें जाकर उसकी परिक्रमा करनेसे जन्मका पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है। वहाँसे वरुणेश्वरमें तथा वरुणेश्वरसे परम उत्तम नीराजेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। नीराजेश्वरके पंचायतन (पंचदेवमन्दिर) का दर्शन करनेसे सब तीर्थोंका फल प्राप्त हो जाता है। राजेन्द्र वहाँसे कोटितीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; वह तीर्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। वहाँ भगवान् शिवने करोड़ों दानवोंका वध किया था; इसीलिये उन्हें कोटीश्वर कहा गया है। उस तीर्थका दर्शन करनेसे मनुष्य सशरीर स्वर्गको चला जाता है। वहाँ त्रयोदशीको महादेवजीकी उपासना करके स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात् परम शोभायमान और उत्तम तीर्थ अगस्त्येश्वरकी यात्रा करे, वह पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्यको ब्रह्महत्यासे कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको छुटकारा मिल जाता है। जो कार्तिक मासके उस तीर्थमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एकाग्रचित्त हो घृतसे भगवान् शिवको स्नान कराता है, वह इक्कीस पीड़ियोतक शिव-धानकी प्राप्तिसे वंचित नहीं होता जोवहाँ सवारी, जूते, छाता, घृतपूर्ण सुवर्णपात्र तथा भोजन-सामग्री ब्राह्मणोंको दान करता है, उसका वह सारा दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। राजेन्द्र ! अगस्त्येश्वर तीर्थसे चलकर रविस्तव नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य राजा होता है। नर्मदाके दक्षिण किनारे एक इन्द्र तीर्थ है, जो सर्वत्र प्रसिद्ध है; वहाँ एक रात उपवास करके स्नान करना चाहिये। स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक भगवान् जनार्दनका पूजन करे। ऐसा करनेसे उसे एक हजार गोदानका फल मिलता है तथा अन्तमें वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है। इसके बाद ऋषितीर्थमें जाना चाहिये; वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहीं परम कल्याणमय नारदतीर्थ भी है; वहाँ नहानेमात्रसे एक हजार गोदानका फल मिलता है। तदनन्तर देवतीर्थकी यात्रा करे, जिसे पूर्वकालमें साक्षात् ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था; वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है।

महाराज! इसके बाद परम उत्तम वामनेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये; वहाँके मन्दिरका दर्शन करनेसे ब्रह्महत्याका पाप छूट जाता है। वहाँसे मनुष्यको निश्चय ही ईशानेश्वरकी यात्रा करनी चाहिये। तत्पश्चात् वटेश्वरमें जाकर भगवान् शिवका दर्शन करनेसे जन्म लेनेका सारा फल मिल जाता है। वहाँसे भीमेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये, वह सब प्रकारकी व्याधियोंका नाश करनेवाला है। उस तीर्थमें स्नानमात्र करके मनुष्य सब दुःखोंसे छुटकारा पा जाता है। तत्पश्चात् वारणेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे, वहाँ स्नान करनेसे भी सब दुःख छूट जाते हैं। उसके बाद सोमतीर्थ में जाकर चन्द्रमाका दर्शन करना चाहिये; वहाँ परम भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्य तत्काल दिव्य देह धारण करके शिवलोकको चला जाता है और वहाँ भगवान् शिवकी ही भाँति चिरकालतक आनन्दका अनुभव करता है। शिवलोकमें वह साठ हजार वर्षोंतक सम्मानपूर्वक निवास करता है। वहाँसे परम उत्तम पिंगलेश्वर तीर्थको जाय। वहाँ एक दिन रातके उपवाससे त्रिरात्र व्रतका फल मिलता है।राजन्! जो उस तीर्थमें कपिला गौका दान करता है, वह उस गौके तथा उससे होनेवाले गोवंशके शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक रुद्रलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है।

तदनन्तर नन्दितीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करे; इससे उसपर नन्दीश्वर प्रसन्न होते हैं और वह सोमलोक में सम्मानपूर्वक निवास करता है। इसके बाद व्यासतीर्थकी यात्रा करे व्यासतीर्थ एक तपोवनके रूपमें है। पूर्वकालमें वहाँ महानदी नर्मदाको व्यासजीके भयसे लौटना पड़ा था व्यासजीने हुंकार किया, जिससे नर्मदा उनके स्थानसे दक्षिण दिशाकी ओर होकर बहने लगी। राजन्! जो उस तीर्थकी परिक्रमा करता है, उसपर व्यासजी संतुष्ट होते और उसे मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। जो मनुष्य परम तेजस्वी भगवान् व्यासकी प्रतिमाको वेदीसहित सूत्रसे आवेष्टित करता है, वह शंकरजीकी भाँति अनन्त कालतक शिवलोकमें विहार करता है। इसके बाद एरण्डीतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, वह एक उत्तम तीर्थ है। वहाँ नर्मदा-एरण्डी संगमके जलमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है। एरण्डी नदी तीनों लोकोंमें विख्यात और सब पापोंका नाश करनेवाली है। आश्विन मासमें शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको यहाँ पवित्र भावसे स्नान करके उपवास करनेवाला मनुष्य यदि एक ब्राह्मणको भी भोजन करा दे तो उसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य भक्तिभावसे युक्त होकर नर्मदा एरण्डी संगममें स्नान करता है अथवा मस्तकपर नर्मदेश्वरकी मूर्ति रखकर नर्मदा के जलसे मिले हुए एरण्डीके जलमें गोता लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। राजन्! जो उस तीर्थकी परिक्रमा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीकी परिक्रमा हो जाती है।

तदनन्तर सुवर्णतिलक नामक तीर्थमें स्नान करके सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सोनेके विमानपर बैठकर रुद्रलोक में जाता और सम्मानपूर्वक वहाँ निवास करता है उसके बाद नर्मदा और इनदीके संगममेंजाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य गणपति पदको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् स्कन्दतीर्थकी यात्रा करे। वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करनेमात्रसे जन्मभरका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। पुनः वहाँके आंगिरस तीर्थमें जाकर स्नान करे, इससे एक हजार गोदानका फल मिलता है तथा रुद्रलोकमें सम्मान प्राप्त होता है। आंगिरस तीर्थसे लांगल तीर्थमें जाना चाहिये। वह भी सब पापका नाश करनेवाला है। महाराज! वहाँ जाकर यदि मनुष्य स्नान करे तो सात जन्मके किये हुए पापोंसे छुटकारा पा जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे वटेश्वर तीर्थ और सर्वतीर्थकी यात्रा करे। सर्वतीर्थ अत्युत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। उसके बाद संगमेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। वह सब पापका अपहरण करनेवाला उत्तम तीर्थ है। वहाँसे भद्रतीर्थमें जाकर जो मनुष्य दान करता है, उसका वह सारा दान कोटिगुना अधिक हो जाता है। तत्पश्चात् अंगारेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करे। वहीं नहाने मनुष्य स्वलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जो अंगारक चतुर्थीको वहाँ स्नान करता है, वह भगवान् विष्णुके शासनमें रहकर अनन्त कालतक आनन्दका अनुभव करता है। अयोनिसंगम तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य गर्भमें नहीं आता। जो पाण्डवेश्वर तीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करता है, वह अनन्त कालतक सुखी तथा देवता और असुरोंके लिये अवध्य होता है। उत्तरायण आनेपर कम्बोजकेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेसे मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वही उसे प्राप्त हो जाती है। तदनन्तर चन्द्रभागामें जाकर स्नान करे। वहाँ नहानेमात्रसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद शक्रतीर्थकी यात्रा करे। वह सर्वत्र विख्यात, देवराज इन्द्रद्वारा सम्मानित तथा सम्पूर्ण देवताओंसे भी अभिवन्दित है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके सुवर्ण दान करता है अथवा नीले रंगका साँड़ छोड़ता है, वह उस साँड़के तथा उससे उत्पन्न होनेवाले गोवंशके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं; उतने हजार वर्षोंतकभगवान् शिवके धाममें निवास करता है। 6। शक्रतीर्थसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी राजेन्द्र ! चाहिये। वह बड़ा ही उत्तम तीर्थ है। जो यहाँ स्नानके पश्चात् कपिला गौका दान करता है, उसे सम्पूर्ण पृथ्वीके दानका फल प्राप्त होता है। नर्मदेश्वर नामक हर्थ सबसे श्रेष्ठ है ऐसा तीर्थ आजतक न हुआ है न होगा। वहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा मनुष्य इस पृथ्वीपर सर्वत्र प्रसिद्ध राजाके रूपमें जन्म ग्रहण करता है। वह सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा समस्त व्याधियोंसे रहित होता है। नर्मदाके उत्तर तटपर एक बहुत ही सुन्दर तथा रमणीय तीर्थ है, उसका नाम है-आदित्यायतन उसे साक्षात् भगवान् शंकरने प्रकट किया है वहाँ स्नान करके यथाशक्ति दिया हुआ दान उस तीर्थके प्रभावसे अक्षय हो जाता है। दरिद्र, रोगी तथा पापी मनुष्य भी वहाँ स्नान करके सब पापोंसे मुक्त होते और भगवान् सूर्यके लोकमें जाते हैं वहाँसे मासेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये वहाँके जलमें डुबकी लगाने मात्रसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है तथा जबतक चौदह इन्द्रोंकी आयु व्यतीत नहीं होती, तबतक मनुष्य स्वर्गलोक में निवास करता है। तदनन्तर मासेश्वर तीर्थके पास ही जो नागेश्वर नामका तपोवन है, उसमें निवास करे और वहाँ एकाग्रचित्त हो स्नान करके पवित्र हो जाय। जो ऐसा करता है, वह अनन्त कालतक नाग कन्याओंके साथ विहार करता है। तत्पश्चात् कुबेरभवन नामक तीर्थकी यात्रा करे । वहाँसे कालेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ महादेवजीने कुबेरको वर देकर संतुष्ट किया था। महाराज यहाँ स्नान करनेसे सब प्रकारकी सम्पत्ति प्राप्त होती है। उसके बाद पश्चिम दिशाकी ओर मारुतालय नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे और वहाँ स्नान करके पवित्र एवं एकाग्रचित होकर बुद्धिमान् पुरुष यथाशक्ति सुवर्ण और अन्नका दान करे ऐसा करनेसे वह पुष्पक विमानके द्वारा वायुलोकमें जाता है। युधिष्ठिर। माघ मासमें यमतीर्थकी यात्रा करनीचाहिये। माघकृष्ण चतुर्दशीको जो वहाँ स्नान करता और दिनमें उपवास करके रातमें भोजन करता है, उसे गर्भवासकी पीड़ा नहीं भोगनी पड़ती।

तदनन्तर सोमतीर्थ में जाकर स्नान करे। वहाँ गोता लगानेमात्र से मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। महाराज! जो उस तीर्थमें चान्द्रायण व्रत करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर सोमलोकमें जाता है। सोमतीर्थसे स्तम्भतीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद विष्णुतीर्थकी यात्रा करे। वह बहुत ही उत्तम तीर्थ है। और योधनीपुरके नामसे विख्यात है। वहाँ भगवान् वासुदेवने करोड़ों असुरोंके साथ युद्ध किया था। युद्धभूमिमें उस तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। वहाँ स्नान करनेसे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। जो वहाँ एक दिन-रात उपवास करता है, उसका ब्रह्महत्या जैसा पाप भी दूर हो जाता है। तत्पश्चात् तापसेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये; वह अमोहक तीर्थके नामसे विख्यात है। वहाँ पितरोंका तर्पण तथा पूर्णिमा और अमावास्याको विधिपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ स्नानके पश्चात् पितरोंको पिण्डदान करना आवश्यक है। उस तीर्थमें जलके भीतर हाथीके समान आकारवाली बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं। उनके ऊपर विशेषतः वैशाख मासमें पिण्डदान करना चाहिये। ऐसा करनेसे जबतक यह पृथ्वी कायम रहती है, तबतक पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। महाराज ! वहाँसे सिद्धेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य गणेशजीके निकट जाता है। उस तीर्थमें जहाँ जनार्दन नामसे प्रसिद्ध लिंग है, वहाँ स्नान करनेसे विष्णुलोक में प्रतिष्ठा होती है। सिद्धेश्वरमें अन्धोन तीर्थके समीप स्नान, दान, ब्राह्मण भोजन तथा पिण्डदान करना उचित है। उसके आधे योजनके भीतर जिसकी मृत्यु होती है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। अन्धोनमें विधिपूर्वक विधिपूर्वक पिण्डदान देनेसे पितरोंको तबतक तृप्ति बनी रहती है, जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है। उत्तरायण प्राप्तहोनेपर जो स्त्री या पुरुष वहाँ स्नान करते और पवित्रभावसे भगवान् सिद्धेश्वरके मन्दिरमें रहकर प्रातःकाल उनकी पूजा करते हैं, उन्हें सत्पुरुषोंकी गति प्राप्त होती है। वैसी गति सम्पूर्ण महायज्ञोंके अनुष्ठानसे भी दुर्लभ है।

नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर! तदनन्तर भक्तिपूर्वक भार्गवेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुनन्दन ! अब शुक्लतीर्थकी उत्पत्तिका प्रसंग श्रवण करो। एक समयकी बात है, हिमालयके रमणीय शिखरपर भगवान् शंकर अपनी पत्नी उमा तथा पार्षदगणोंके साथ बैठे थे। उस समय मार्कण्डेयजीने उनसे -'देवदेव पूछा - " महादेव! मैं संसारके भयसे डरा हुआ हूँ। आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे सुख प्राप्त हो सके। महेश्वर ! जो तीर्थ सम्पूर्ण तीर्थोंमें श्रेष्ठ हो, उसका मुझे परिचय दीजिये ।

भगवान् शिव बोले- ब्रह्मन् ! तुम महान् पण्डित और सम्पूर्ण शास्त्रोंमें कुशल हो; मेरी बात सुनो। दिनमें या रातमें- किसी भी समय शुक्लतीर्थका सेवन किया जाय तो वह महान फलदायक होता है। उसके दर्शन और स्पर्शसे तथा वहाँ स्नान, ध्यान, तपस्या, होम एवं उपवास करनेसे शुक्लतीर्थ महान् फलका साधक होता है। नर्मदा नदीके तटपर स्थित शुक्लतीर्थ महान् पुण्यदायक है। चाणिक्य नामके राजर्षिने वहीं सिद्धि प्राप्त की थी। यह क्षेत्र चार कोसके घेरेमें प्रकट हुआ है। शुक्लतीर्थ परम पुण्यमय तथा सब पापका नाशक है। वहाँके वृक्षोंकी शिखाका भी दर्शन हो जाय तो ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। मुनिश्रेष्ठ! इसीलिये मैं यहाँ निवास करता हूँ। परम निर्मल वैशाख मासके कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको तो मैं कैलाससे भी निकलकर यहाँ आ जाता हूँ। जैसे धोबीके द्वारा जलसे धोया हुआ वस्त्र सफेद हो जाता है, उसी प्रकार शुक्लतीर्थ भी जन्मभरके संचित पापको दूर कर देता है। मुनिवर मार्कण्डेय! वहाँका स्नान और दान अत्यन्त पुण्यदायक है। शुक्लतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न तो हुआ है और न होगा ही ।मनुष्य अपनी पूर्वावस्थायें जो-जो पाप किये होता है, उन्हें वह शुक्लतीर्थमें एक दिन रातके उपवाससे नष्ट कर डालता है। वहाँ मेरे निमित्त दान देनेसे जो होता है, वह सैकड़ों यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो सकता। जो मनुष्य कार्तिक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ उपवास करके घीसे मुझे स्नान कराता है, यह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ मेरे लोकमें रहकर कभी वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता। शुक्लतीर्थ अत्यन्त श्रेष्ठ है। ऋषि और सिद्धगण उसका सेवन करते हैं। वहाँ स्नान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता जिस दिन उत्तरायण या दक्षिणायनका प्रारम्भ हो, चतुर्दशी हो, संक्रान्ति हो अथवा विषुव नामक योग हो, उस दिन ने स्नान करके उपवासपूर्वक मनको वशमें रखकर समाहितचित्त हो यथाशक्ति वहाँ दान दे तो भगवान् विष्णु तथा हम प्रसन्न होते हैं। शुक्लतीर्थके प्रभावसे वह सब दान अक्षय पुण्यका देनेवाला होता है। जो अनाथ, दुर्दशाग्रस्त अथवा सनाथ ब्राह्मणका भी उस तीर्थमें विवाह कराता है, उस ब्राह्मणके तथा उसकी संतानोंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार तक वह मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है।

नारदजी कहते हैं-राजा युधिष्ठिर। शुक्लतीर्थसे गोतीर्थमें जाना चाहिये। उसका दर्शन करने मात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है। वहाँसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह एक उत्तम तीर्थ है। राजन्! वहाँ स्नान करके मानव सहस्र गो-दानका फल प्राप्त करता है। ज्येष्ठ मास आनेपर विशेषतः चतुर्दशी तिथिको उस तीर्थमें उपवास करके जो मनुष्य भक्तिपूर्वक मौका दीपक जलाता भृतसे भगवान् शंकरको स्नान कराता, घीसहित श्रीफलका दान करता तथा अन्तर्गे प्रदक्षिणा करके घण्टा और आभूषणोंके सहित कपिला गौको दानमें देता है, वह साक्षात् भगवान् शिवके समान होता है तथा इस लोकमें पुनः जन्म नहीं लेता। राजेन्द्र वहाँसे परम उत्तम ऋषितीर्थकी यात्रा करे, उस तीर्थके प्रभावसे द्विज पापमुक्त हो जाता है।

अपितीर्थसे गणेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। वह बहुतउत्तम तीर्थ है। श्रावण मासके कृष्णपक्षको चतुर्दशीको वहीं स्नान करनेमात्रसे मनुष्य रुद्रलोकमें सम्मानित होता है। वहीं पितरोंका तर्पण करनेपर तीनों ऋणोंसे छुटकारा मिल जाता है। गयेश्वरके पास ही गंगावदन नामक उत्तम तीर्थ है; वहाँ निष्काम या सकामभावसे भी स्नान करनेवाला मानव जन्मभरके पापोंसे मुक्त हो जाता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वके दिन वहाँ सदा स्नान करना चाहिये। उस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेपर मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त होता है। उसके पश्चिम और थोड़ी ही दूरपर दशाश्वमेधिक तीर्थ है: वहाँ भादोंके महीनेमें एक रात उपवास करके जो अमावास्याको स्नान करता है, वह भगवान् शंकरके धामको जाता है। वहाँ भी पर्वके दिनोंमें सदा ही स्नान करना चाहिये। उस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है।

दशाश्वमेधसे पश्चिम भृगुतीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणश्रेष्ठ भृगुने एक हजार दिव्य वर्षोंतक भगवान् शंकरकी उपासना की थी। तभीसे ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता और किन्नर भृगुतीर्थका सेवन करते हैं। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान् महेश्वर भृगुजीपर प्रसन्न हुए थे। उस तीर्थका दर्शन होनेपर तत्काल पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। जिन प्राणियोंकी वहीं मृत्यु होती है, उन्हें गुद्धातिगुह्य गतिकी प्राप्ति होती है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यह क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत तथा सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, ये फिर संसारमें जन्म नहीं लेते मुक्त हो जाते हैं। उस तीर्थमें अन्न, सुवर्ण, जूता और यथाशक्ति भोजन देना चाहिये। इसका पुण्य अक्षय होता है जो सूर्यग्रहणके समय वहाँ स्नान करके इच्छानुसार दान करता है, उसके तीर्थस्नान और दानका पुण्य अक्षय होता है। जो मनुष्य एक बार भृगुतीर्थका माहात्म्य श्रवण कर लेता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर रुद्रलोक में जाता है। राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम गौतमेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। जो मनुष्य वहाँ नहाकर उपवास करता है, वह सुवर्णमय विमानपरबैठकर ब्रह्मलोकमें जाता है। तदनन्तर धौतपाप नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे ब्रह्महत्या दूर होती है। इसके बाद हिरण्यद्वीप नामसे विख्यात तीर्थ में जाय वह सब पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य धनी तथा रूपवान् होता है। वहाँसे कनखलकी यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ गरुड़ने तपस्या की थी। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसकी रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा होती है। तदनन्तर सिद्धजनार्दन तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ परमेश्वर श्रीविष्णु वाराहरूप धारण करके प्रकट हुए थे। इसीलिये उसे वाराहतीर्थ भी कहते हैं। उस तीर्थमें विशेषतः द्वादशीको स्नान करनेसे विष्णुलोकको प्राप्ति होती है।

राजेन्द्र ! तदनन्तर देवतीर्थमें जाना चाहिये, जो सम्पूर्ण देवताओंद्वारा अभिवन्दित है वहाँ स्नान करके मनुष्य देवताओंके साथ आनन्द भोगता है। तत्पश्चात् शिखितीर्थकी यात्रा करे, वह बहुत ही उत्तम तीर्थ है। वहाँ जो कुछ दान किया जाता है, वह सब का सब कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है जो कृष्णपक्ष अमावास्याको वहाँ स्नान करता और एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसे कोटि ब्राह्मणोंके भोजन करानेका फल प्राप्त होता है।

राजा युधिष्ठिर। तदनन्तर नर्मदेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह भी उत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद पितामह - तीर्थमें जाना चाहिये, जिसे पूर्वकालमें साक्षात् ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था। मनुष्यको उचित है कि वहाँ स्नान करके भक्तिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान दे तथा तिल और कुशमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करे। उस तीर्थके प्रभावसे वह सब कुछ अक्षय हो जाता है। जो सावित्री - तीर्थमें जाकर स्नान करता है, वह सब पापको धोकर ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है। वहाँसे मानस नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् क्रतुतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह बहुत ही उत्तम, तीनों लोकोंमें विख्यात और सम्पूर्ण पापका नाशकरनेवाला तीर्थ है। इसके बाद स्वर्गबिन्दु नामसे प्रसिद्ध तीर्थमें जाना उचित है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको कभी दुर्गति नहीं देखनी पड़ती। वहाँसे भारभूत नामक तीर्थकी यात्रा करे और वहाँ पहुँचकर उपवासपूर्वक भगवान् विरूपाक्षकी पूजा करे। ऐसा करनेसे वह रुद्रलोकमें सम्मानित होता है। राजन्! जो उस तीर्थमें उपवास करता है, वह पुनः गर्भमें नहीं आता । वहाँसे परम उत्तम अटवी तीर्थमें जाय। वहाँ स्नान करके मनुष्य इन्द्रका आधा सिंहासन प्राप्त करता है। तदनन्तर सब पापका नाश करनेवाले शृंगतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेमात्रसे निश्चय ही गणेशपदकी प्राप्ति होती है। पश्चिम समुद्रके साथ जो नर्मदाका संगम है, वह तो मुक्तिका दरवाजा ही खोल देता है। वहाँ देवता, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण तीनों सन्ध्याओंके समय उपस्थित होकर देवताओंके स्वामी भगवान् विमलेश्वरकी आराधना करते हैं। विमलेश्वरसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है न होगा। जो लोग वहाँ उपवास करके विमलेश्वरका दर्शन करते हैं, वे सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाते हैं।

राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम केशिनी तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके एक रात उपवास करता है तथा मन और इन्द्रियोंको वशमें करकेआहारपर भी संयम रखता है, वह उस तीर्थके प्रभावसे ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। जो सागरेश्वरका दर्शन करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेका फल मिल जाता है। केशिनी - तीर्थसे एक योजनके भीतर समुद्रके भँवरमें साक्षात् भगवान् शिव विराजमान हैं। उनको देखनेसे सब तीर्थोंके दर्शनका फल प्राप्त हो जाता है। तथा दर्शन करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो रुद्रलोकमें जाता है। महाराज! अमरकण्टकसे लेकर नर्मदा और समुद्रके संगमतक जितनी दूरी है, उसके भीतर दस करोड़ तीर्थ विद्यमान हैं। एक तीर्थसे दूसरे तीर्थको जानेके जो मार्ग हैं, उनका करोड़ों ऋषियोंने सेवन किया है। अग्निहोत्री, दिव्यज्ञानसम्पन्न तथा ज्ञानी - सब प्रकारके मनुष्योंने तीर्थयात्राएँ की हैं। इससे तीर्थयात्रा मनोवांछित फलको देनेवाली मानी गयी है। पाण्डुनन्दन ! जो पुरुष प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस अध्यायका पाठ या श्रवण करता है, वह समस्त तीर्थोंमें स्नानके पुण्यका भागी होता है। साथ ही नर्मदा उसके ऊपर सदा प्रसन्न रहती है। इतना ही नहीं, भगवान् रुद्र तथा महामुनि मार्कण्डेयजी भी उसके ऊपर प्रसन्न होते हैं। जो तीनों सन्ध्याओंके समय इस प्रसंगका पाठ करता है, उसे कभी नरकका दर्शन नहीं होता तथा वह किसी कुत्सित योनिमें भी नहीं पड़ता ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार