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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 19 - Khand 1, Adhyaya 19

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नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा

पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! ज्येष्ठ पुष्करमें दो मध्यम पुष्करमें भूमि और कनिष्ठ पुष्करमें सुवर्ण देना चाहिये। यही वहाँके लिये दक्षिणा है। प्रथम करके देवता श्रीब्रह्माजी, दूसरेके भगवान् श्रीविष्णु तथा तीसरेके श्रीरुद्र हैं। इस प्रकार तीनों देवता वहाँ पृथक्-पृथक् स्थित हैं। अब मैं सब व्रतोंमें उत्तम महापातकनाशन नामक व्रतका वर्णन करता हूँ। यह भगवान् शंकरका बताया हुआ व्रत है। रात्रिको अन्न तैयार करके कुटुम्बवाले ब्राह्मणको बुलावे और उसे भोजन कराकर एक गौ, सुवर्णमय चक्रसे युक्त त्रिशूल तथा दो वस्त्र धोती और चद्दर दान करे। जो मनुष्य इस प्रकार पुण्य करता है, वह शिवलोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करता है। यही महापातकनाशन व्रत है। जो एक दिन एकभक्तव्रती रहकर एक ही अन्नका भोजन कर दूसरे दिन तिलमयी धेनु और वृषभका दान करता है, वह भगवान् शंकरके पदको प्राप्त होता है। यह पाप और शोकोंका नाश करनेवाला 'रुद्रव्रत' है। जो एक वर्षतक एक दिनका अन्तर दे रात्रिमें भोजन करता है तथा वर्ष पूरा होनेपर नील कमल, सुवर्णमय कमल और चीनीसे भरा हुआ पात्र एवं बैल दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'नीलव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार महीनोंतक तेलकी मालिश छोड़ देता है और भोजनकी सामग्री दान करता है, वह भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है। यह मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाला होनेके कारण 'प्रीतिव्रत'कहलाता है। जो चैत्रके महीनेमें दही, दूध, घी और गुड़का त्याग करता और गौरीकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें महीन वस्त्र और रससे भरे पात्र दान करता है, उसपर गौरीदेवी प्रसन्न होती हैं। यह 'गौरीव्रत' भवानीका लोक प्रदान करनेवाला है। जो आषाढ़ आदि चातुर्मास्यमें कोई भी फल नहीं खाता तथा चौमासा बीतनेपर घी और गुड़के साथ एक घड़ा एवं कार्तिककी पूर्णिमाको पुन: कुछ सुवर्ण ब्राह्मणको दान देता है, वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। यह 'शिवव्रत' कहलाता है।

जो मनुष्य हेमन्त और शिशिरमें पुष्पोंका सेवन छोड़ देता है तथा अपनी शक्तिके अनुसार सोनेके तीन फूल बनवाकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको भगवान् श्रीशिव और श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनका दान करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता है। जो फाल्गुनसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको नमक छोड़ देता है और वर्ष पूर्ण होनेपर भवानीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें शय्या और आवश्यक सामग्रियोंसहित गृह दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है। इसे 'सौभाग्यव्रत' कहते हैं। जो द्विज एक वर्षतक मौनभावसे सन्ध्या करता है और वर्षके अन्तमें घीका घड़ा, दो वस्त्र धोती और चद्दर, तिल और घण्टा ब्राह्मणको दान करता है, वह सारस्वतलोकको प्राप्त होता है, जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता।यह रूप और विद्या प्रदान करनेवाला 'सारस्वत' नामक व्रत है। प्रतिदिन गोबरका मण्डल बनाकर उसमें अक्षतोंद्वारा कमल बनाये। उसके ऊपर भगवान् श्रीशिव या श्रीविष्णुकी प्रतिमा रखकर उसे घीसे स्नान कराये; फिर विधिवत् पूजन करे। इस प्रकार जब एक वर्ष बीत जाय, तब साम-गान करनेवाले ब्राह्मणको शुद्ध सोनेका बना हुआ आठ अंगुलका कमल और तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह 'सामव्रत' कहा गया है।

नवमी तिथिको एकभुक्त रहकर एक ही अन्नका भोजन करके कुमारी कन्याओंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये तथा गौ सुवर्ण, सिला हुआ अंगा, धोती, चहर तथा सोनेका सिंहासन ब्राह्मणको दान करे; इससे वह शिवलोकको जाता है। अरबों जन्मतक सुरूपवान् होता है। शत्रु उसे कभी परास्त नहीं कर पाते। यह मनुष्योंको सुख देनेवाला 'वीरव्रत' नामका व्रत है। चैत्रसे आरम्भ कर चार महीनोंतक प्रतिदिन लोगोंको बिना माँगे जल पिलाये और इस व्रतकी समाप्ति होनेपर अन्न-वस्त्रसहित जलसे भरा हुआ माट, तिलसे पूर्ण पात्र तथा सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है। यह उत्तम 'आनन्दव्रत' है। जो पुरुष मांसका बिलकुल परित्याग करके व्रतका आचरण करे और उसकी पूर्तिके निमित्त गौ तथा सोनेका मृग दान करे, वह अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। इसका नाम 'अहिंसाव्रत' है। एक कल्पतक इसका फल भोगकर अन्तमें मनुष्य राजा होता है। माघके महीने में सूर्योदयके पहले स्नान करके द्विज-दम्पतीका पूजन करे तथा उन्हें भोजन कराकर यथाशक्ति वस्त्र और आभूषण दान दे। यह 'सूर्यव्रत' है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष एक कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। आषाढ़ आदि चार महीनों में प्रतिदिन प्रातः स्नान करे और फिर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर गोदान दे तो वह मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'विष्णुव्रत' है जो एक अयनसे दूसरे अयनतक पुष्प और घृतका सेवन छोड़ देता है औरव्रतके अन्तमें फूलोंका हार, घी और मृतमिश्रित खीर ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है। इसका नाम 'शीलव्रत' है। जो [नियत कालतक] प्रतिदिन सन्ध्याके समय दीप दान करता है तथा घी और तेलका सेवन नहीं करता, फिर व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको दीपक चक्र, शूल, सोना, धोती और चद्दर दान करता है, वह इस संसारमें तेजस्वी होता है - तथा अन्तमें रुद्रलोकको जाता है। यह 'दीप्तिव्रत' है। जो कार्तिकसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको रातके समय गोमूत्रमें पकायी हुई जौको लप्सी खाकर रहता है और वर्ष समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है तथा उसके बाद इस लोकमें राजा होता है। इसका नाम 'रुद्रव्रत' है। यह सदा कल्याण करनेवाला है। जो चार महीनोंतक चन्दन लगाना छोड़ देता है तथा अन्तमें सीपी, चन्दन, अक्षत और दो श्वेत वस्त्र- धोती और चद्दर ब्राह्मणको दान करता है, वह वरुणलोकमें जाता है। यह 'दृढव्रत' कहलाता है।

सोनेका ब्रह्माण्ड बनाकर उसे तिलकी ढेरीमें रखे तथा 'मैं अहंकाररूपी तिलका दान करनेवाला हैं' ऐसी भावना करके घीसे अग्निको तथा दक्षिणासे ब्राह्मणको तृप्त करे फिर माला, वस्त्र तथा आभूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके विश्वात्माकी तृप्तिके उद्देश्यसे किसी शुभ दिनको अपनी शक्तिके अनुसार तीन तोलेसे अधिक सोना तथा तिलसहित ब्रह्माण्ड ब्राह्मणको दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुनर्जन्मसे रहित ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। इसका नाम 'ब्रह्मव्रत' है। यह मनुष्योंको मोक्ष देनेवाला है। जो तीन दिन केवल दूध पोकर रहता है और अपनी शक्तिके अनुसार एक तोलेसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे एक सेर चावलके साथ ब्राह्मणको दान करता है, वह भी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। यह 'कल्पवृक्षव्रत' है जो एक महीनेतक उपवास करके ब्राह्मणको सुन्दर गौ दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है इसका नाम 'भीमव्रत' है। जो बीस तोलेसे अधिक सोनेकीपृथ्वी बनवाकर दान करता है और दिनभर दूध पीकर जाता है, वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह 'धनप्रद' नामक व्रत है। यह सात सौ कल्पांतक अपना फल देता रहता है। माथ अथवा चैत्रको गुड़की गौ बनाकर दान करे। इसका नाम 'गुडव्रत' है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष गौरलोकमे सम्मान पाता है।

अब परम आनन्द प्रदान करनेवाले महाव्रतका वर्णन करता हूँ। जो पंद्रह दिन उपवास करके ब्राह्मणको दो कपिला गौएँ दान करता है, वह देवता और असुरोंसे पूजित हो ब्रह्मलोकमें जाता है तथा कल्पके अन्तमें सबका सम्राट् होता है। इसका नाम 'प्रभावत' भी है जो एक वर्षतक केवल एक ही अन्नका भोजन करता है और भक्ष्य पदार्थोंके साथ जलका घड़ा दान करता है, वह कल्पपर्यन्त शिवलोकमें निवास करता है। इसे 'प्राप्तिव्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक अष्टमीको रात्रिमें एक बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। इसे 'सुगतिव्रत' कहते हैं जो वर्षा आदि चार ऋतुओं में ब्राह्मणको ईंधन देता है और अन्तमें भी तथा गौका दान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है। यह सब पापोंका नाश करनेवाला 'वैश्वानरव्रत' है।

जो एक वर्षतक प्रतिदिन खीर खाकर रहता है और व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको एक गाय और एक बैल दान करता है, वह एक कल्पतक लक्ष्मीलोक में निवास करता है। इसका नाम 'देवीव्रत' है। जो प्रत्येक सप्तमीको एक बार रात्रिमें भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'भानुव्रत' है। जो प्रत्येक चतुर्थीको एक बार रात्रिमें भोजन करता और वर्षके अन्तमें सोनेका हाथी दान करता है, उसे शिवलोककी प्राप्ति होती है। यह 'वैनायकव्रत' है। जो चौमासेभर बड़े-बड़े फलोंका परित्याग करके कार्तिकमें सोनेके फलका दान करता हवन कराकर उसके अन्तमें ब्राह्मणको गाय-बैल देता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'सौरव्रत' है। जो बारह द्वादशियोंको उपवासकरके अपनी शक्तिके अनुसार गौ, वस्त्र और सुवर्णके द्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'विष्णुव्रत' है जो प्रत्येक चतुर्दशीको एक बार रातमें भोजन करता और वर्षकी समाप्ति होनेपर एक गाय और एक बैल दान करता है, उसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। इसे 'त्र्यम्बकव्रत' कहते हैं। जो सात रात उपवास करके ब्राह्मणको घीसे भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। इसका नाम 'वरव्रत' है। जो काशी जाकर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह एक कल्पतक इन्द्रलोकमें निवास करता है। यह 'मित्रव्रत' है जो एक वर्षतक ताम्बूलका सेवन छोड़कर अन्तमें गोदान करता है, वह वरुणलोकको जाता है। इसका नाम 'वारुणव्रत' है। जो चान्द्रायणव्रत करके सोनेका चन्द्रमा बनवाकर दान देता है, उसे चन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। यह 'चन्द्रव्रत' कहलाता है। जो ज्येष्ठ मासमें पंचाग्नि तपकर अन्तमें अष्टमी या चतुर्दशीको सोनेकी गौका दान करता है, वह स्वर्गको जाता है। यह 'रुद्रव्रत' कहलाता है। जो प्रत्येक तृतीयाको शिवमन्दिरमें जाकर एक बार हाथ जोड़ता हैं और वर्ष पूर्ण होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे देवीलोककी प्राप्ति होती है। इसका नाम 'भवानीव्रत' है।

जो माघभर गीला वस्त्र पहनता और सप्तमीको गोदान करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास करके अन्तमें इस पृथ्वीपर राजा होता है। इसे 'तापकव्रत' कहते हैं। जो तीन रात उपवास करके फाल्गुनकी पूर्णिमाको घरका दान करता है, उसे आदित्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'धामव्रत' है। जो व्रत रहकर तीनों सन्ध्याओंमें- प्रातः, मध्याहन एवं सायंकालमें भूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीकी पूजा करता है, उसे मोक्ष मिलता है। यह 'मोक्षव्रत' है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीयाके दिन ब्राह्मणको नमकसे भरा हुआ पात्र, वस्त्रसे ढका हुआ काँसेका बर्तन तथा दक्षिणा देता है और व्रत समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह भगवान् श्रीशिवके लोकमें जाता है तथा एक कल्पके बाद राजाओंका भी राजा होता है। इसका नाम 'सोमव्रत' है। जो हर प्रतिपदाकोएक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर कमलका दान करता है, वह वैश्वानरलोकमें जाता है। इसे 'अग्निव्रत' कहते हैं जो प्रत्येक दशमीको एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माण्डका स्वामी होता है। इसका नाम 'विश्वव्रत' है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। जो स्वयं कन्यादान करता तथा दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्यादानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। विशेषतः पुष्करमें और वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाको, जो कन्या दान करेंगे, उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा। जो मनुष्य जलमें खड़े होकर तिलकी पीठीके बने हुए हाथीको रत्नोंसे विभूषित करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम व्रतोंका वर्णन पढ़ता और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी होता है।

स्नानके बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी शुद्धिके लिये सबसे पहले स्नानका विधान है। घरमें रखे हुए अथवा तुरंतके निकाले हुए जलसे स्नान करना चाहिये। [किसी जलाशय या नदीका स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है। ] मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी कल्पना कर लेनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय' - यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमें कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नांकित वाक्योंद्वारा भगवती गंगाका आवाहन करे-गंगे! तुम भगवान् श्रीविष्णु के चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु हीतुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा करो! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता जाह्नवी! वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोकप्रसादिनी, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम हैं। * जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गंगा उपस्थित हो जाती हैं। क्षेमा,

सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले । तीन, चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अंगोंमें लगाये। अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥

उद्घृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।

नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥

(20 । 155, 157)

'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक पैरसे नापा था मृत्तिके! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन सब पापोंको तुम हर लो। देवि! भगवान् श्रीविष्णुने सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो । सुव्रते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है।'इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करे। फिर विधिवत् आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं चद्दर धारण कर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये वर्पण करे। सबसे पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और प्रजापतिका तर्पण करे। तत्पश्चात् देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराएँ, क्रूर सर्प, गरुड़ पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, विद्याधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं जल देता हूँ-यह कहकर उन सबको जलांजलि दे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर डाले रहे. तत्पश्चात् उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और मनुष्यों, ऋषियों तथा ऋषिपुत्रों का भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पंचशिखये सभी मेरे दिये जलसे सदा तृप्त हो।' ऐसी भावना करके जल दे। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता वसिष्ठ, भृगु, नारद तथा सम्पूर्ण देवर्षियों एवं ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित जलके द्वारा तर्पण करे। इसके बाद यज्ञोपवीतको दायें कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे; फिर अग्निष्वात्त, सौम्य हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, बर्हिषद् तथा आज्यप नामके पितरोंका तिल और चन्दनयुक्त जलसे भक्तिपूर्वक तर्पण करे। इसी प्रकार हाथोंमें कुश लेकर पवित्रभावसे परलोकवासी पिता, पितामह आदि और मातामह आदिका, नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए तर्पण करे। इस क्रमसे विधि और भक्तिके साथ सबका तर्पण करके निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे

ये बान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ॥

ते तृप्तिमखिला यान्तु येऽप्यस्मत्तोयकांक्षिणः ।

(20169-170)

'जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा जो दूसरे किसी जन्ममें मेरे बान्धव रहे हों, वे सब मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हों। उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों, वे भी तृप्ति लाभ करें।' [ऐसा कहकर उनके उद्देश्यसे जल गिराये।]तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आगे पुष्प और अक्षतोंसे कमलकी आकृति बनाये। फिर यत्नपूर्वक सूर्यदेवके नामोंका उच्चारण करते हुए अक्षत, पुष्प और रक्तचन्दनमिश्रित जलसे अर्घ्य दे । अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-

नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे

सहस्त्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ॥

नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल ।

पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलांगदभूषित ॥

नमस्ते सर्वलोकेषु सुप्तांस्तान् प्रतिबुध्यसे ।

सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्वं पश्यसि सर्वदा ॥

सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद ममभास्कर ।

दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

(20 । 172 - 175)

'भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्त्रों किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा नमस्कार है। भक्तवत्सल ! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अंगद आदि आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। भगवन्! आप सम्पूर्ण लोकोंके सोये हुए जीवोंको जगाते हैं, आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके पाप-पुण्यको देखा करते हैं। सत्यदेव आपको नमस्कार है। भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये। दिवाकर! आपको नमस्कार है। प्रभाकर! आपको नमस्कार है।'इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके तीन बार उनकी प्रदक्षिणा करे फिर दिन गौ और सुवर्णका स्पर्श करके अपने घरमें जाय और वहाँ भगवान्की पावन प्रतिमाका पूजन करे। [तदनन्तर भगवान्को भोग लगाकर बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात् ] पहले ब्राह्मणोंको भोजन करा पीछे स्वयं भोजन करे। इस विधिसे नित्य कर्म करके समस्त ऋषियोंने सिद्धि प्राप्त की है।

पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकालकी बात है— बृहत् नामक कल्पमें धर्ममूर्ति नामके एक राजा थे, जिनकी इन्द्रके साथ मित्रता थी। उन्होंने सहस्रों दैत्योंका वध किया था। सूर्य और चन्द्रमा भी उनके तेजके सामने प्रभाहीन जान पड़ते थे। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओंको परास्त किया था। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे मनुष्योंसे उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी। उनकी पत्नीका नाम था भानुमती वह त्रिभुवनमें सबसे सुन्दरी थी। उसने लक्ष्मीकी भाँति अपने रूपसे देवसुन्दरियों को भी मात कर दिया था। भानुमती ही राजाको पटरानी भी वे उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे। एक दिन राजसभायें बैठे हुए महाराज धर्ममूर्ति विस्मय-विमुग्ध हो अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम करके पूछा- 'भगवन्! किस धर्मके प्रभावसे मुझे सर्वोत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है? मेरे शरीरमें जो सदा उत्तम और विपुल तेज भरा रहता है-इसका क्या कारण है?'

वसिष्ठजीने कहा- राजन्! प्राचीन कालमें एक लीलावती नामकी वेश्या थी, जो सदा भगवान् शंकरके भजनमें तत्पर रहती थी। एक बार उसने पुष्करमें चतुर्दशीको नमकका पहाड़ बनाकर सोनेकी बनी देवप्रतिमाके साथ विधिपूर्वक दान किया था। शुद्ध नामका एक सुनार था, जो लीलावतीके घरमें नौकरका काम करता था। उसीने बड़ी श्रद्धाके साथ मुख्य-मुख्य देवताओंकी सुवर्णमयी प्रतिमाएँ बनायी थीं, जो देखने मेंअत्यन्त सुन्दर तथा शोभासम्पन्न थीं। धर्मका काम समझकर उसने उन प्रतिमाओंके बनानेकी मजदूरी नहीं ली थी। उस नमक के पर्वतपर जो सोनेके वृक्ष लगाये गये थे, उन्हें उस सुनारकी स्त्रीने तपाकर देदीप्यमान बना दिया था। [सुनारकी पत्नी भी लीलावतीके घर परिचारिकाका काम करती थी।] उन्हीं दोनोंने ब्राह्मणोंकी सेवासे लेकर सारा कार्य सम्पन्न किया था। तदनन्तर दीर्घ कालके पश्चात् लीलावती वेश्या सब पापोंसे मुक्त होकर शिवजीके धामको चली गयी तथा वह सुनार, जो दरिद्र होनेपर भी अत्यन्त सात्त्विक था और जिसने वेश्यासे मजदूरी नहीं ली थी, आप ही हैं। उसी पुण्यके प्रभावसे आप सातों द्वीपोंके स्वामी तथा हजारों सूर्योके समान तेजस्वी हुए हैं। सुनारकी ही भाँति उसकी पत्नीने भी सोनेके वृक्षों और देवमूर्तियोंको कान्तिमान् बनाया था, इसलिये वही आपकी महारानी भानुमती हुई है। प्रतिमाओंको जगमग बनानेके कारण महारानीका रूप अत्यन्त सुन्दर हुआ है और उसी पुण्यके प्रभावसे आप मनुष्यलोकमें अपराजित हुए हैं तथा आपको आरोग्य और सौभाग्यसे युक्त राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है; इसलिये आप भी विधिपूर्वक धान्य पर्वत आदि दस प्रकारके पर्वत बनाकर उनका दान कीजिये।

पुलस्त्यजी कहते हैं— राजा धर्ममूर्तिने 'बहुत 'अच्छा' कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और अनाज आदिके पर्वत बनाकर उन सबका विधिपूर्वक दान किया। तत्पश्चात् वे देवताओंसे पूजित होकर महादेवजीके परम धामको चले गये। जो मनुष्य इस प्रसंगका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह भी पापरहित हो स्वर्गलोक में जाता है। राजन्! अन्नादि पर्वतोंके दानका पाठमात्र करनेसे दुःस्वप्नोंका नाश हो जाता है; फिर जो इस पुष्कर क्षेत्रमें शान्तचित्त होकर सब प्रकारके पर्वतोंका स्वयं दान करता है, उसको मिलनेवाले फलका क्या वर्णन हो सकता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार