पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! ज्येष्ठ पुष्करमें दो मध्यम पुष्करमें भूमि और कनिष्ठ पुष्करमें सुवर्ण देना चाहिये। यही वहाँके लिये दक्षिणा है। प्रथम करके देवता श्रीब्रह्माजी, दूसरेके भगवान् श्रीविष्णु तथा तीसरेके श्रीरुद्र हैं। इस प्रकार तीनों देवता वहाँ पृथक्-पृथक् स्थित हैं। अब मैं सब व्रतोंमें उत्तम महापातकनाशन नामक व्रतका वर्णन करता हूँ। यह भगवान् शंकरका बताया हुआ व्रत है। रात्रिको अन्न तैयार करके कुटुम्बवाले ब्राह्मणको बुलावे और उसे भोजन कराकर एक गौ, सुवर्णमय चक्रसे युक्त त्रिशूल तथा दो वस्त्र धोती और चद्दर दान करे। जो मनुष्य इस प्रकार पुण्य करता है, वह शिवलोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करता है। यही महापातकनाशन व्रत है। जो एक दिन एकभक्तव्रती रहकर एक ही अन्नका भोजन कर दूसरे दिन तिलमयी धेनु और वृषभका दान करता है, वह भगवान् शंकरके पदको प्राप्त होता है। यह पाप और शोकोंका नाश करनेवाला 'रुद्रव्रत' है। जो एक वर्षतक एक दिनका अन्तर दे रात्रिमें भोजन करता है तथा वर्ष पूरा होनेपर नील कमल, सुवर्णमय कमल और चीनीसे भरा हुआ पात्र एवं बैल दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'नीलव्रत' कहलाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार महीनोंतक तेलकी मालिश छोड़ देता है और भोजनकी सामग्री दान करता है, वह भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है। यह मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाला होनेके कारण 'प्रीतिव्रत'कहलाता है। जो चैत्रके महीनेमें दही, दूध, घी और गुड़का त्याग करता और गौरीकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें महीन वस्त्र और रससे भरे पात्र दान करता है, उसपर गौरीदेवी प्रसन्न होती हैं। यह 'गौरीव्रत' भवानीका लोक प्रदान करनेवाला है। जो आषाढ़ आदि चातुर्मास्यमें कोई भी फल नहीं खाता तथा चौमासा बीतनेपर घी और गुड़के साथ एक घड़ा एवं कार्तिककी पूर्णिमाको पुन: कुछ सुवर्ण ब्राह्मणको दान देता है, वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। यह 'शिवव्रत' कहलाता है।
जो मनुष्य हेमन्त और शिशिरमें पुष्पोंका सेवन छोड़ देता है तथा अपनी शक्तिके अनुसार सोनेके तीन फूल बनवाकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको भगवान् श्रीशिव और श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनका दान करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'सौम्यव्रत' कहलाता है। जो फाल्गुनसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको नमक छोड़ देता है और वर्ष पूर्ण होनेपर भवानीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें शय्या और आवश्यक सामग्रियोंसहित गृह दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है। इसे 'सौभाग्यव्रत' कहते हैं। जो द्विज एक वर्षतक मौनभावसे सन्ध्या करता है और वर्षके अन्तमें घीका घड़ा, दो वस्त्र धोती और चद्दर, तिल और घण्टा ब्राह्मणको दान करता है, वह सारस्वतलोकको प्राप्त होता है, जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता।यह रूप और विद्या प्रदान करनेवाला 'सारस्वत' नामक व्रत है। प्रतिदिन गोबरका मण्डल बनाकर उसमें अक्षतोंद्वारा कमल बनाये। उसके ऊपर भगवान् श्रीशिव या श्रीविष्णुकी प्रतिमा रखकर उसे घीसे स्नान कराये; फिर विधिवत् पूजन करे। इस प्रकार जब एक वर्ष बीत जाय, तब साम-गान करनेवाले ब्राह्मणको शुद्ध सोनेका बना हुआ आठ अंगुलका कमल और तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह 'सामव्रत' कहा गया है।
नवमी तिथिको एकभुक्त रहकर एक ही अन्नका भोजन करके कुमारी कन्याओंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये तथा गौ सुवर्ण, सिला हुआ अंगा, धोती, चहर तथा सोनेका सिंहासन ब्राह्मणको दान करे; इससे वह शिवलोकको जाता है। अरबों जन्मतक सुरूपवान् होता है। शत्रु उसे कभी परास्त नहीं कर पाते। यह मनुष्योंको सुख देनेवाला 'वीरव्रत' नामका व्रत है। चैत्रसे आरम्भ कर चार महीनोंतक प्रतिदिन लोगोंको बिना माँगे जल पिलाये और इस व्रतकी समाप्ति होनेपर अन्न-वस्त्रसहित जलसे भरा हुआ माट, तिलसे पूर्ण पात्र तथा सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है। यह उत्तम 'आनन्दव्रत' है। जो पुरुष मांसका बिलकुल परित्याग करके व्रतका आचरण करे और उसकी पूर्तिके निमित्त गौ तथा सोनेका मृग दान करे, वह अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। इसका नाम 'अहिंसाव्रत' है। एक कल्पतक इसका फल भोगकर अन्तमें मनुष्य राजा होता है। माघके महीने में सूर्योदयके पहले स्नान करके द्विज-दम्पतीका पूजन करे तथा उन्हें भोजन कराकर यथाशक्ति वस्त्र और आभूषण दान दे। यह 'सूर्यव्रत' है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष एक कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। आषाढ़ आदि चार महीनों में प्रतिदिन प्रातः स्नान करे और फिर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर गोदान दे तो वह मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह 'विष्णुव्रत' है जो एक अयनसे दूसरे अयनतक पुष्प और घृतका सेवन छोड़ देता है औरव्रतके अन्तमें फूलोंका हार, घी और मृतमिश्रित खीर ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है। इसका नाम 'शीलव्रत' है। जो [नियत कालतक] प्रतिदिन सन्ध्याके समय दीप दान करता है तथा घी और तेलका सेवन नहीं करता, फिर व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको दीपक चक्र, शूल, सोना, धोती और चद्दर दान करता है, वह इस संसारमें तेजस्वी होता है - तथा अन्तमें रुद्रलोकको जाता है। यह 'दीप्तिव्रत' है। जो कार्तिकसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको रातके समय गोमूत्रमें पकायी हुई जौको लप्सी खाकर रहता है और वर्ष समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है तथा उसके बाद इस लोकमें राजा होता है। इसका नाम 'रुद्रव्रत' है। यह सदा कल्याण करनेवाला है। जो चार महीनोंतक चन्दन लगाना छोड़ देता है तथा अन्तमें सीपी, चन्दन, अक्षत और दो श्वेत वस्त्र- धोती और चद्दर ब्राह्मणको दान करता है, वह वरुणलोकमें जाता है। यह 'दृढव्रत' कहलाता है।
सोनेका ब्रह्माण्ड बनाकर उसे तिलकी ढेरीमें रखे तथा 'मैं अहंकाररूपी तिलका दान करनेवाला हैं' ऐसी भावना करके घीसे अग्निको तथा दक्षिणासे ब्राह्मणको तृप्त करे फिर माला, वस्त्र तथा आभूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके विश्वात्माकी तृप्तिके उद्देश्यसे किसी शुभ दिनको अपनी शक्तिके अनुसार तीन तोलेसे अधिक सोना तथा तिलसहित ब्रह्माण्ड ब्राह्मणको दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुनर्जन्मसे रहित ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। इसका नाम 'ब्रह्मव्रत' है। यह मनुष्योंको मोक्ष देनेवाला है। जो तीन दिन केवल दूध पोकर रहता है और अपनी शक्तिके अनुसार एक तोलेसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे एक सेर चावलके साथ ब्राह्मणको दान करता है, वह भी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। यह 'कल्पवृक्षव्रत' है जो एक महीनेतक उपवास करके ब्राह्मणको सुन्दर गौ दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है इसका नाम 'भीमव्रत' है। जो बीस तोलेसे अधिक सोनेकीपृथ्वी बनवाकर दान करता है और दिनभर दूध पीकर जाता है, वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह 'धनप्रद' नामक व्रत है। यह सात सौ कल्पांतक अपना फल देता रहता है। माथ अथवा चैत्रको गुड़की गौ बनाकर दान करे। इसका नाम 'गुडव्रत' है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष गौरलोकमे सम्मान पाता है।
अब परम आनन्द प्रदान करनेवाले महाव्रतका वर्णन करता हूँ। जो पंद्रह दिन उपवास करके ब्राह्मणको दो कपिला गौएँ दान करता है, वह देवता और असुरोंसे पूजित हो ब्रह्मलोकमें जाता है तथा कल्पके अन्तमें सबका सम्राट् होता है। इसका नाम 'प्रभावत' भी है जो एक वर्षतक केवल एक ही अन्नका भोजन करता है और भक्ष्य पदार्थोंके साथ जलका घड़ा दान करता है, वह कल्पपर्यन्त शिवलोकमें निवास करता है। इसे 'प्राप्तिव्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक अष्टमीको रात्रिमें एक बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। इसे 'सुगतिव्रत' कहते हैं जो वर्षा आदि चार ऋतुओं में ब्राह्मणको ईंधन देता है और अन्तमें भी तथा गौका दान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है। यह सब पापोंका नाश करनेवाला 'वैश्वानरव्रत' है।
जो एक वर्षतक प्रतिदिन खीर खाकर रहता है और व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको एक गाय और एक बैल दान करता है, वह एक कल्पतक लक्ष्मीलोक में निवास करता है। इसका नाम 'देवीव्रत' है। जो प्रत्येक सप्तमीको एक बार रात्रिमें भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'भानुव्रत' है। जो प्रत्येक चतुर्थीको एक बार रात्रिमें भोजन करता और वर्षके अन्तमें सोनेका हाथी दान करता है, उसे शिवलोककी प्राप्ति होती है। यह 'वैनायकव्रत' है। जो चौमासेभर बड़े-बड़े फलोंका परित्याग करके कार्तिकमें सोनेके फलका दान करता हवन कराकर उसके अन्तमें ब्राह्मणको गाय-बैल देता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'सौरव्रत' है। जो बारह द्वादशियोंको उपवासकरके अपनी शक्तिके अनुसार गौ, वस्त्र और सुवर्णके द्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह 'विष्णुव्रत' है जो प्रत्येक चतुर्दशीको एक बार रातमें भोजन करता और वर्षकी समाप्ति होनेपर एक गाय और एक बैल दान करता है, उसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। इसे 'त्र्यम्बकव्रत' कहते हैं। जो सात रात उपवास करके ब्राह्मणको घीसे भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। इसका नाम 'वरव्रत' है। जो काशी जाकर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह एक कल्पतक इन्द्रलोकमें निवास करता है। यह 'मित्रव्रत' है जो एक वर्षतक ताम्बूलका सेवन छोड़कर अन्तमें गोदान करता है, वह वरुणलोकको जाता है। इसका नाम 'वारुणव्रत' है। जो चान्द्रायणव्रत करके सोनेका चन्द्रमा बनवाकर दान देता है, उसे चन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। यह 'चन्द्रव्रत' कहलाता है। जो ज्येष्ठ मासमें पंचाग्नि तपकर अन्तमें अष्टमी या चतुर्दशीको सोनेकी गौका दान करता है, वह स्वर्गको जाता है। यह 'रुद्रव्रत' कहलाता है। जो प्रत्येक तृतीयाको शिवमन्दिरमें जाकर एक बार हाथ जोड़ता हैं और वर्ष पूर्ण होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे देवीलोककी प्राप्ति होती है। इसका नाम 'भवानीव्रत' है।
जो माघभर गीला वस्त्र पहनता और सप्तमीको गोदान करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास करके अन्तमें इस पृथ्वीपर राजा होता है। इसे 'तापकव्रत' कहते हैं। जो तीन रात उपवास करके फाल्गुनकी पूर्णिमाको घरका दान करता है, उसे आदित्यलोककी प्राप्ति होती है। यह 'धामव्रत' है। जो व्रत रहकर तीनों सन्ध्याओंमें- प्रातः, मध्याहन एवं सायंकालमें भूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीकी पूजा करता है, उसे मोक्ष मिलता है। यह 'मोक्षव्रत' है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीयाके दिन ब्राह्मणको नमकसे भरा हुआ पात्र, वस्त्रसे ढका हुआ काँसेका बर्तन तथा दक्षिणा देता है और व्रत समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह भगवान् श्रीशिवके लोकमें जाता है तथा एक कल्पके बाद राजाओंका भी राजा होता है। इसका नाम 'सोमव्रत' है। जो हर प्रतिपदाकोएक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर कमलका दान करता है, वह वैश्वानरलोकमें जाता है। इसे 'अग्निव्रत' कहते हैं जो प्रत्येक दशमीको एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माण्डका स्वामी होता है। इसका नाम 'विश्वव्रत' है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। जो स्वयं कन्यादान करता तथा दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्यादानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। विशेषतः पुष्करमें और वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाको, जो कन्या दान करेंगे, उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा। जो मनुष्य जलमें खड़े होकर तिलकी पीठीके बने हुए हाथीको रत्नोंसे विभूषित करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम व्रतोंका वर्णन पढ़ता और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी होता है।
स्नानके बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी शुद्धिके लिये सबसे पहले स्नानका विधान है। घरमें रखे हुए अथवा तुरंतके निकाले हुए जलसे स्नान करना चाहिये। [किसी जलाशय या नदीका स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है। ] मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी कल्पना कर लेनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय' - यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमें कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नांकित वाक्योंद्वारा भगवती गंगाका आवाहन करे-गंगे! तुम भगवान् श्रीविष्णु के चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु हीतुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा करो! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता जाह्नवी! वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोकप्रसादिनी, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम हैं। * जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गंगा उपस्थित हो जाती हैं। क्षेमा,
सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले । तीन, चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अंगोंमें लगाये। अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
उद्घृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।
नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥
(20 । 155, 157)
'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक पैरसे नापा था मृत्तिके! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन सब पापोंको तुम हर लो। देवि! भगवान् श्रीविष्णुने सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो । सुव्रते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है।'इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करे। फिर विधिवत् आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं चद्दर धारण कर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये वर्पण करे। सबसे पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और प्रजापतिका तर्पण करे। तत्पश्चात् देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराएँ, क्रूर सर्प, गरुड़ पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, विद्याधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं जल देता हूँ-यह कहकर उन सबको जलांजलि दे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर डाले रहे. तत्पश्चात् उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और मनुष्यों, ऋषियों तथा ऋषिपुत्रों का भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पंचशिखये सभी मेरे दिये जलसे सदा तृप्त हो।' ऐसी भावना करके जल दे। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता वसिष्ठ, भृगु, नारद तथा सम्पूर्ण देवर्षियों एवं ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित जलके द्वारा तर्पण करे। इसके बाद यज्ञोपवीतको दायें कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे; फिर अग्निष्वात्त, सौम्य हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, बर्हिषद् तथा आज्यप नामके पितरोंका तिल और चन्दनयुक्त जलसे भक्तिपूर्वक तर्पण करे। इसी प्रकार हाथोंमें कुश लेकर पवित्रभावसे परलोकवासी पिता, पितामह आदि और मातामह आदिका, नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए तर्पण करे। इस क्रमसे विधि और भक्तिके साथ सबका तर्पण करके निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे
ये बान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ॥
ते तृप्तिमखिला यान्तु येऽप्यस्मत्तोयकांक्षिणः ।
(20169-170)
'जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा जो दूसरे किसी जन्ममें मेरे बान्धव रहे हों, वे सब मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हों। उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों, वे भी तृप्ति लाभ करें।' [ऐसा कहकर उनके उद्देश्यसे जल गिराये।]तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आगे पुष्प और अक्षतोंसे कमलकी आकृति बनाये। फिर यत्नपूर्वक सूर्यदेवके नामोंका उच्चारण करते हुए अक्षत, पुष्प और रक्तचन्दनमिश्रित जलसे अर्घ्य दे । अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-
नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे
सहस्त्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ॥
नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल ।
पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलांगदभूषित ॥
नमस्ते सर्वलोकेषु सुप्तांस्तान् प्रतिबुध्यसे ।
सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्वं पश्यसि सर्वदा ॥
सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद ममभास्कर ।
दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥
(20 । 172 - 175)
'भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्त्रों किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा नमस्कार है। भक्तवत्सल ! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अंगद आदि आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। भगवन्! आप सम्पूर्ण लोकोंके सोये हुए जीवोंको जगाते हैं, आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके पाप-पुण्यको देखा करते हैं। सत्यदेव आपको नमस्कार है। भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये। दिवाकर! आपको नमस्कार है। प्रभाकर! आपको नमस्कार है।'इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके तीन बार उनकी प्रदक्षिणा करे फिर दिन गौ और सुवर्णका स्पर्श करके अपने घरमें जाय और वहाँ भगवान्की पावन प्रतिमाका पूजन करे। [तदनन्तर भगवान्को भोग लगाकर बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात् ] पहले ब्राह्मणोंको भोजन करा पीछे स्वयं भोजन करे। इस विधिसे नित्य कर्म करके समस्त ऋषियोंने सिद्धि प्राप्त की है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकालकी बात है— बृहत् नामक कल्पमें धर्ममूर्ति नामके एक राजा थे, जिनकी इन्द्रके साथ मित्रता थी। उन्होंने सहस्रों दैत्योंका वध किया था। सूर्य और चन्द्रमा भी उनके तेजके सामने प्रभाहीन जान पड़ते थे। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओंको परास्त किया था। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे मनुष्योंसे उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी। उनकी पत्नीका नाम था भानुमती वह त्रिभुवनमें सबसे सुन्दरी थी। उसने लक्ष्मीकी भाँति अपने रूपसे देवसुन्दरियों को भी मात कर दिया था। भानुमती ही राजाको पटरानी भी वे उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे। एक दिन राजसभायें बैठे हुए महाराज धर्ममूर्ति विस्मय-विमुग्ध हो अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम करके पूछा- 'भगवन्! किस धर्मके प्रभावसे मुझे सर्वोत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है? मेरे शरीरमें जो सदा उत्तम और विपुल तेज भरा रहता है-इसका क्या कारण है?'
वसिष्ठजीने कहा- राजन्! प्राचीन कालमें एक लीलावती नामकी वेश्या थी, जो सदा भगवान् शंकरके भजनमें तत्पर रहती थी। एक बार उसने पुष्करमें चतुर्दशीको नमकका पहाड़ बनाकर सोनेकी बनी देवप्रतिमाके साथ विधिपूर्वक दान किया था। शुद्ध नामका एक सुनार था, जो लीलावतीके घरमें नौकरका काम करता था। उसीने बड़ी श्रद्धाके साथ मुख्य-मुख्य देवताओंकी सुवर्णमयी प्रतिमाएँ बनायी थीं, जो देखने मेंअत्यन्त सुन्दर तथा शोभासम्पन्न थीं। धर्मका काम समझकर उसने उन प्रतिमाओंके बनानेकी मजदूरी नहीं ली थी। उस नमक के पर्वतपर जो सोनेके वृक्ष लगाये गये थे, उन्हें उस सुनारकी स्त्रीने तपाकर देदीप्यमान बना दिया था। [सुनारकी पत्नी भी लीलावतीके घर परिचारिकाका काम करती थी।] उन्हीं दोनोंने ब्राह्मणोंकी सेवासे लेकर सारा कार्य सम्पन्न किया था। तदनन्तर दीर्घ कालके पश्चात् लीलावती वेश्या सब पापोंसे मुक्त होकर शिवजीके धामको चली गयी तथा वह सुनार, जो दरिद्र होनेपर भी अत्यन्त सात्त्विक था और जिसने वेश्यासे मजदूरी नहीं ली थी, आप ही हैं। उसी पुण्यके प्रभावसे आप सातों द्वीपोंके स्वामी तथा हजारों सूर्योके समान तेजस्वी हुए हैं। सुनारकी ही भाँति उसकी पत्नीने भी सोनेके वृक्षों और देवमूर्तियोंको कान्तिमान् बनाया था, इसलिये वही आपकी महारानी भानुमती हुई है। प्रतिमाओंको जगमग बनानेके कारण महारानीका रूप अत्यन्त सुन्दर हुआ है और उसी पुण्यके प्रभावसे आप मनुष्यलोकमें अपराजित हुए हैं तथा आपको आरोग्य और सौभाग्यसे युक्त राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है; इसलिये आप भी विधिपूर्वक धान्य पर्वत आदि दस प्रकारके पर्वत बनाकर उनका दान कीजिये।
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजा धर्ममूर्तिने 'बहुत 'अच्छा' कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और अनाज आदिके पर्वत बनाकर उन सबका विधिपूर्वक दान किया। तत्पश्चात् वे देवताओंसे पूजित होकर महादेवजीके परम धामको चले गये। जो मनुष्य इस प्रसंगका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह भी पापरहित हो स्वर्गलोक में जाता है। राजन्! अन्नादि पर्वतोंके दानका पाठमात्र करनेसे दुःस्वप्नोंका नाश हो जाता है; फिर जो इस पुष्कर क्षेत्रमें शान्तचित्त होकर सब प्रकारके पर्वतोंका स्वयं दान करता है, उसको मिलनेवाले फलका क्या वर्णन हो सकता है।