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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 136 - Khand 4, Adhyaya 136

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नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन

पार्वतीजीने पूछा- कृपानिधे! विषयरूपी ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर कलियुगके आनेपर संसारके सभी मनुष्य पुत्र, स्त्री और धन आदिकी चिन्तासे व्याकुल रहेंगे, ऐसी दशामें उनके उद्धारका क्या उपाय है? यह बताने की कृपा कीजिये ।

महादेवजीने कहा- देवि! कलियुग केवल हरिनाम ही संसारसमुद्रसे पार लगानेवाला है। जो लोग प्रतिदिन 'हरे राम हरे कृष्ण' आदि प्रभुके मंगलमय नामोंका उच्चारण करते हैं, उन्हें कलियुग बाधा नहींपहुँचाता, अतः बीच-बीचमें जो आवश्यक कर्म प्राप्त हाँ, उन्हें करते-करते भगवान्‌के नामका भी स्मरण करते रहना चाहिये। जो बारम्बार 'कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण की रट लगाता रहता है तथा मेरे और तुम्हारे नामका भी व्यतिक्रमपूर्वक अर्थात् गौरीशंकर आदि कहकर जप किया करता है, वह भी जैसे आग रूईकी ढेरीको जला डालती है उसी प्रकार अपनी पाप राशिको 'भस्म करके उससे मुक्त हो जाता है। जय अथवा श्रीशब्दपूर्वक जो तुम्हारा, मेरा या श्रीकृष्णका मंगलमय नाम है, उसकाजप करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है दिन, रात और सन्ध्या-सभी समय नाम स्मरण करना चाहिये। दिन-रात हरि नामका जप करनेवाला पुरुष श्रीकृष्णका प्रत्यक्ष दर्शन पाता है। अपवित्र हो या पवित्र, सब समय, निरन्तर भगवन्नामका स्मरण करनेसे वह क्षणभरमै भव-बन्धनसे छुटकारा पा जाता है। भगवान्का नाम नाना प्रकारके अपराधोंसे युक्त मनुष्यका पाप भी हर लेता है। कलियुगमें यज्ञ, व्रत, तप और दान कोई भी कर्म सब अंगोंसे पूर्ण नहीं उतरता; केवल गंगाका स्नान और हरि नामका कीर्तन-ये ही दो साधन विघ्न-बाधाओंसे रहित हैं। कल्याणी! हत्याजनित हजारों भयंकर पाप तथा दूसरे दूसरे पातक भी भगवान् के गोविन्द नामका उच्चारण करनेसे नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी दशमें क्यों न स्थित हो, जो पुण्डरीकाक्ष (कमल नयन) भगवान् विष्णुका स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर सब ओरसे पवित्र हो जाता है। केवल भगवन्नामोंके स्मरणसे तथा भगवान्के चरणोंका चिन्तन करनेसे शुद्धि होती है। सोने, चाँदी, भिगोये हुए आटे अथवा पुष्प मालाके द्वारा भगवान्‌के चरणोंकी आकृति बनाकर उसे चक्र आदि चिह्नोंसे अंकित कर ले, उसके बाद पूजन आरम्भ करे। पूजनके समय भगवच्चरणोंका इस प्रकार ध्यान करे-भगवान् अपने दाहिने पैर के अंगूठेकी जहमें प्रणतजनोंके संसार बन्धनका उच्छेद करनेके लिये चक्रका चिह्न धारण करते हैं। मध्यमा अँगुलीके मध्यभागमें अच्युतने अत्यन्त सुन्दर कमलका चिह्न धारण कर रखा है; उसका उद्देश्य है- ध्यान करनेवाले भक्तोंके चितरूपी भ्रमरको लुभाना। कमलके नीचे वे ध्वजका चिह्न धारण करते हैं, जो मानो समस्त अनर्थोको परास्त करके फहरानेवाली विजय ध्वजा है। कनिष्ठिका अँगुलीकी जड़में वज्रका चिह्न है, जो भक्तोंकी पापराशिको विदीर्ण करनेवाला है। पैरके पार्श्व भागमेंबीचको और अंकुशका चिह्न है, जो भलो चित हाथीका दमन करनेवाला है। श्रीहरि अपने अंगुष्ठके पर्वमें भोग-सम्पत्तिके प्रतीकभूत यवका चिह्न धारण करते हैं तथा मूल-भागमें गदाकी रेखा है, जो समस्त देहधारियोंके पापरूपी पर्वतको चूर्ण कर डालनेवाली है। इतना ही नहीं, वे अजन्मा भगवान् सम्पूर्ण विद्याओंको प्रकाशित करनेके लिये भी पद्म आदि चिह्नको धारण करते हैं। दाहिने पैरमें जो-जो चिह्न हैं, उन्हीं उन्हीं चिह्नोंको करुणानिधान प्रभु अपने बायें पैरमें भी धारण करते हैं; इसलिये गोविन्दके माहात्म्यका, जो आनन्दमय रसके कारण अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, सदा श्रवण और कीर्तन करना चाहिये। ऐसा करनेवाले मनुष्यकी मुक्ति होने में तनिक भी सन्देह नहीं है।

अब मैं प्रत्येक मासका वह कृत्य बतला रहा हूँ, जो भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाला है। जेष्ठके महीनेमें पूर्णिमा तिथिको स्नान आदिसे पवित्र होकर यत्नपूर्वक श्रीहरिका स्नानोत्सव मनाना चाहिये, इससे दिन, पक्ष, मास, ऋतु और वर्षभरके पाप नष्ट हो जाते हैं। कोटि-कोटि सहस्र जो पातक और उपपातक होते हैं, उन सबका नाश हो जाता है। स्नानके समय कलशमें जल लेकर भगवान्‌के मस्तकपर धीरे-धीरे गिराना चाहिये और पुरुषसूक्तके मन्त्रों तथा पावमानी ऋचाओंका क्रमशः पाठ करते रहना चाहिये। नारियल युक्त जल, तालफलसे युक्त जल, रत्नमिश्रित जल, चन्दनमिश्रित जल तथा पुष्पयुक्त जल-इन पाँच उपचारोंसे स्नान कराकर अपने वैभव विस्तारके अनुसार भगवान्की आराधना करे। तत्पश्चात् 'घं घण्टायै नम:' इस मन्त्रको पढ़कर घण्टा बजावे और इस प्रकार प्रार्थना करे–'अपनी ऊँची आवाज पतितोंकी पातकराशिका निवारण करनेवाली घण्टे ! घोर संसारसागरमें पड़े हुए मुझ पापीकी रक्षा करो।' जो श्रोत्रिय विद्वान् ब्राह्मण पवित्रभावसे इस प्रकार भगवान्कीआराधना करता है, वह सब पापसि मुक्त होकर विष्णुलोक जाता है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीयाको भगवान्‌की सवारी निकालकर रथयात्रा सम्बन्धी उत्सव करना चाहिये। आषाढ़ शुक्ल एकादशीको भगवान्के शयनका उत्सव मनाना चाहिये। फिर श्रावणके महीनेमें श्रावणीकी विधिका पालन करना उचित है। भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको भगवान् श्रीकृष्ण के जन्मका दिन है, उस दिन व्रत रखना चाहिये। तत्पश्चात् आश्विनके महीने में सोये हुए भगवान्‌के करवट बदलनेका उत्सव मनाना उचित है। उसके बाद समयानुसार श्रीहरिके शयनसे उठनेका उत्सव करे, अन्यथा वह मनुष्य विष्णुका द्रोह करनेवाला माना जाता है। आश्विनके शुक्लपक्षमें भगवती महामायाका भी पूजन करना कर्तव्य है। उस समय विष्णुरूपा भगवतीकी सोने या चाँदीकी प्रतिमा बना लेनी चाहिये। हिंसा और द्वेषका परित्याग करना चाहिये क्योंकि विष्णुकी पूजा करनेवाला पुरुष धर्मात्मा होता है [और हिंसा, द्वेष आदि महान् अधर्म हैं ] । कार्तिक पुण्यमास है; उसमें इच्छानुसार पुण्य करे । भगवान् दामोदरके लिये प्रतिदिन किसी ऊँचे स्थानपर दीपदान करना उचित है। दीपक चार अंगुलका चौड़ा हो और उसमें सात बत्तियाँ जलायी जायें। फिर पक्षके अन्तमें अमावास्याको सुन्दर दीपावलीका उत्सव मनाया जाय। मार्गशीर्षके शुक्लपक्षमें षष्ठी तिथिको सफेद वस्त्रोंके द्वारा भगवान् जगदीशकी और विशेषतः ब्रह्माजीकी पूजा करे। पौष मासमें भगवान्का पुष्पमिश्रित जलसे अभिषेक तथा तरल चन्दन वर्जित है। मकरसंक्रान्तिके दिन तथा मापके महीने में अधिवासित तण्डुलका भगवान्‌के लिये नैवेद्य लगावे और 'ॐ विष्णवे नमः' इस मन्त्रका उच्चारण करे। फिर ब्राह्मणोंको देवाधिदेव भगवान् के सामने बिठाकर भक्तिपूर्वक भोजन करावे तथा उन भगवद्भक्त द्विजोंकी भगवदबुद्धिसे पूजा करे। एक भगवद्भक्त पुरुषके भोजन करा देनेपर करोड़ों मनुष्योंके भोजन करानेका फल होता है। यदि पूजामें किसी अंगकी कमी रह गयी हो तो वह ब्राह्मण भोजनकरानेसे अवश्य पूर्ण हो जाती है। माघके शुक्लपक्षमें वसन्त पंचमीको भगवान् केशवको नहलाकर आमके पल्लव तथा भाँति-भाँतिके सुगन्धित चूर्ण आदिके द्वारा विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् 'जय कृष्ण' कहकर भगवान्‌का स्मरण करते हुए उन्हें एक मनोहर उपवनमें प्रदक्षिणभावसे ले जाय और वहाँ दोलोत्सव मनावे। उक्त उपवनको प्रज्वलित दीपकोंके द्वारा प्रकाशित किया जाय। उसमें ऐसे-ऐसे वृक्ष हों, जो सभी ऋतुओंमें फूलोंसे भरे रहें। फल-फूलोंसे सुशोभित नाना प्रकारके वृक्ष, पुष्पनिर्मित चंदोवे, जलसे भरे हुए घट, आमकी छोटी-बड़ी शाखाएँ तथा छत्र और चँवर आदि वस्तुएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही हों। कलियुगमें विशेषरूपसे दोलोत्सवका विधान है। फाल्गुनकी चतुर्दशीको आठवें पहरमें अथवा पूर्णिमा या प्रतिपदाकी सन्धिमें भगवान्‌की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करे। उस समय श्वेत, लाल, गौर तथा पीले-इन चार प्रकारके चूर्णोंका उपयोग करे, उनमें कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले होने चाहिये। हल्दीका रंग मिला देनेसे उन चूर्णोंके रंग तथा रूप और भी मनोहर हो जाते हैं। इनके सिवा, अन्य प्रकारके रंग-रूपवाले चूर्णोद्वारा भी परमेश्वरको प्रसन्न करे। एकादशीसे लेकर पंचमीतक इस उत्सवको पूरा करे अथवा पाँच या तीन दिनतक दोलोत्सव करना उचित है। यदि मनुष्य एक बार भी झूलेमें झूलते हुए दक्षिणाभिमुख श्रीकृष्णका दर्शन कर लें तो वे पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

महाभागे ! जो मनुष्य वैशाख मासमें जलसे भरे हुए सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके पात्रमें श्रीशालग्रामको या भगवान्की प्रतिमाको पधराकर जलमें ही उसका पूजन करता है, उसके पुण्यकी गणना नहीं हो सकती। 'दमन' (दौना) नामक पुष्पका आरोपण करके उसे श्रीविष्णुको अर्पित करना चाहिये। वैशाख, श्रावण अथवा भाद्रपद मासमें 'दमनार्पण' करना उचित है। पूर्वी हवा चलनेपर ही दमनार्पण आदि कर्म होते हैं; उस समय विधिपूर्वक भगवान्‌का पूजनकरना चाहिये; अन्यथा सब कुछ निष्फल हो जाता है। वैशाखकी तृतीयाको विशेषतः जलमें अथवा मण्डल, मण्डप या बहुत बड़े वनमें यह कार्य सम्पन्न करना चाहिये। वैशाख मासमें प्रतिदिन भगवान्के अंगको सुगन्धित चन्दन आदि लगाकर परिपुष्ट करे। प्रयत्नपूर्वक ऐसा कार्य करे, जो भगवान्‌के कृश शरीरके लिये पुष्टिकारक जान पड़े। चन्दन, अगुरु, ह्रीवेर, कालागरु, कुंकुम, रोचना, जटामांसी और मुरा-ये विष्णुके उपयोगमें आनेवाले आठ गन्ध माने गये हैं। उन सुगन्धित पदार्थोंका भगवान् विष्णुके अंगोंपर लेप करे । तुलसीके काष्ठको चन्दनकी भाँति घिसकर उसमें कर्पूर और अगरु मिला दे अथवा केसर ही मिलावे तो वह भगवान्‌के लिये 'हरिचन्दन' हो जाता है। जो मनुष्य यात्राके समय भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती। जो लोग सुगन्धमिश्रित जलसे भगवान्‌को नहलाते हैं; उनके लिये भी यही फल है अथवा वैशाख मासमें भगवान्‌को फूलोंके भीतर रखना चाहिये । वृन्दावनमें जाकर तरह- तरहके फल जुटावे और भगवान्‌को भोग लगाकर किसी सुयोग्य भगवद्भक्तको सब खिला दे ।नारियलका फल अर्पण करे अथवा उसे फोड़कर उसकी गरी निकाल कर दे। बेरका फल निवेदन करे। कटहलका कोया निकालकर भोग लगावे तथा दहीयुक्त अन्नको घीसे तर करके भगवान्‌के आगे रखे। कहाँतक कहा जाय? जो-जो वस्तु अपनेको विशेष प्रिय हो, वह सब भगवान्‌को अर्पण करे। नैवेद्य और वस्त्र आदि भगवान्‌को अर्पण करें। पुनः उसे स्वयं उपयोगमें न लावे। विष्णुके उद्देश्यसे दी हुई वस्तु विशेषतः उनके भक्तोंको ही देनी चाहिये। महेश्वरि ! इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने तुम्हारे सामने ये कुछ बातें बतायी हैं। जिन शास्त्रोंमें श्रीकृष्णके रूप और गुणोंका वर्णन है, उन्हें समझनेकी शक्ति हो जाय तो और कोई शास्त्र पढ़नेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है। भगवान्के प्रेम, भाव, रस, भक्ति, विलास, नाम तथा हारोंमें यदि मन लग गया तो कामिनियोंसे क्या लेना है ? अतः व्रज-बालकोंके स्वामी श्रीकृष्णको, उनके क्रीडा-निकेतन वृन्दावनको, व्रजभूमिको तथा यमुना-जलको मन लगाकर भजो । यदि इस शरीरमें त्रिभुवनके स्वामी भगवान् गोविन्दके चरणारविन्दोंकी धूलि लिपटी हो तो इसमें अगरु और चन्दन आदि लगाना व्यर्थ है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान