अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
ऋषियोंने कहा – वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! आपके द्वारा वर्णित नाना प्रकारके उपाख्यानोंसे युक्त परमानन्ददायक पातालखण्डका हमलोगोंने श्रवण किया; अब भगवद्भक्तिको बढ़ानेवाला जो पद्मपुराणका शेष अंश है, उसे हम सुनना चाहते हैं। गुरुदेव ! कृपा करके उस अंशका वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले- मुनियो ! भगवान् शंकरने देवर्षि नारदके प्रश्न करनेपर जिस पापनाशक विज्ञानकाश्रवण कराया था, उसीको मैं कहता हूँ; आप सब लोग सुनें। एक समयकी बात है, भगवान्के प्रिय भक्त देवर्षि नारदजी लोक-लोकान्तरोंमें भ्रमण करते हुए मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ भगवान् शंकरसे अपनी कुछ मनोगत बातोंको पूछना ही उनकी यात्राका उद्देश्य था। भगवान् उमानाथ उस पर्वतपर विराजमान थे। नारदजीने उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञासे उन्हींके सामने वे एक आसनपर बैठ गये। महात्माओ ! उस समय उन्होंने भगवान् शिवसे यही प्रश्न किया, जिसे आपलोग मुझसे पूछ रहे हैं।
नारदजीने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर ! पार्वतीपते ! जगद्गुरो ! जिससे भगवत्तत्त्वका ज्ञान हो, उस विषयका आप मुझे उपदेश कीजिये
महादेवजी बोले- नारद! सुनो मैं वेदोंकी समानता करनेवाले पुराणका वर्णन आरम्भ करता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। इस पृथ्वीपर एक लाख पचीस हजार पर्वत हैं, उन सबमें बदरिकाश्रम महान् पुण्यदायक एवं उत्तम है, जहाँ भगवान् नर-नारायण विराजमान हैं। नारदजी! मैं इस समय उन्हींके तेज और स्वरूपका वर्णन करूँगा। ब्रह्मन्! हिमालय पर्वतपर दो पुरुष हैं, जो क्रमशः नर नारायणके नामसे विख्यात हैं; उनमें एक तो गौर वर्णके हैं और दूसरे श्याम वर्णके । श्याम वर्णवाले पुरुष ही 'नारायण' हैं; ये इस जगत्के आदि कारण और महान् प्रभु हैं। इनके चार भुजाएँ हैं। ये बड़े ही शोभासम्पन्न हैं। इनके दो रूप हैं-व्यक्त और अव्यक्त (साकारऔर निराकार)। ये सनातन पुरुष हैं। सुव्रत । उत्तरायण में ही इनकी महती पूजा होती है । प्रायः छ: महीनोंतक इनकी पूजा नहीं होती; क्योंकि जबतक दक्षिणायन रहता है, इनका स्थान हिमसे आच्छादित रहा करता है। अतः इनके जैसा देवता न अबतक हुआ है और न आगे होगा। बदरिकाश्रममें देवगण निवास करते हैं। वहाँ ऋषियोंके भी आश्रम हैं। अग्निहोत्र और वेदपाठकी ध्वनि वहाँ सदा श्रवण-गोचर होती रहती है। भगवान् नारायणका दर्शन करना चाहिये। उनका दर्शन करोड़ों हत्याओंका नाश करनेवाला है। वहाँ 'अलकनन्दा' नामवाली गंगा बहती हैं, उनमें स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य महान् पापसे मुक्त हो जाता है। उस तीर्थमें सम्पूर्ण जगत्के स्वामीभगवान् नारायण सदा ही विराजमान रहते हैं।
एक समयकी बात है, मैंने एक वर्षतक वहाँ बड़ी कठोर तपस्या की थी। उस समय भक्तोंपर कृपा करनेवाले भगवान् नारायण, जो अविनाशी, अन्तर्यामी, साक्षात् परमेश्वर तथा गरुड़के से चिह्नवाली ध्वजासे युक्त हैं, बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे बोले - 'सुव्रत ! कोई वर माँगो; देव! तुम जो-जो चाहोगे, वह सभी मनोरथ मैं पूर्ण करूँगा; तुम कैलासके स्वामी, साक्षात् रुद्र तथा विश्वके पालक हो ।
तब मैंने कहा- जनार्दन ! यदि आप वर देना चाहते हैं तो मुझे दो वर प्रदान कीजिये – मेरे हृदयमें सदा ही आपके प्रति भक्ति बनी रहे और देवेश्वर ! मैं आपके प्रसादसे मुक्तिदाता होऊँ ।