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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 229 - Khand 5, Adhyaya 229

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निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा

नारदजी कहते हैं- राजन् यह बात सुनकर शिवशमकि मनमें बड़ा सन्देह हुआ और उन्होंने अपने सत्यवादी पुत्र विष्णुशर्मासे पूछा- 'बेटा में कैसे सम कि तुम पूर्वजन्ममें देवताओंके राजा इन्द्र थे और तुमने यह करके रत्नोंके द्वारा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया था। हमारी कही हुई बातें जिस प्रकार मेरी समझमें आजायँ, वह करो। पूर्वजन्ममें किये हुए कार्योंका ज्ञान इस समय तुम्हें कैसे हो रहा है?

विष्णुशर्माने कहा – पिताजी! मुझे ऋषियोंने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहनेका वरदान दिया है। उन्हींके मुँहसे इस तीर्थ के विषयमें ऐसी महिमा सुनी थी। आप यहाँ निगमोद्बोध तीर्थमें स्नान कीजिये। इससे आपको भीपूर्वजन्मकी स्मृति प्रदान करनेवाला दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होगा।

यह सुनकर विप्रवर शिवशमनि पूर्वजन्मकी स्मृति प्राप्त करनेके लिये भगवान् श्रीहरि, श्रीगंगाजी एवं अयोध्या आदि सात पुरियोंका स्मरण करके और भगवान् गोविन्दमें चित्त लगाकर निगमोद्बोध तीर्थमें बार-बार डुबकियाँ लगाकर स्नान किया। उसके बाद सन्ध्या-तर्पण किया। तदनन्तर सूर्यको सादर अर्घ्य देकर विविध उपचारोंसे भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस तरह नित्यकर्म पूरा करके वे सुखपूर्वक बैठे और अपने सुयोग्य पुत्र विष्णुशर्मासे बोले ।

शिवशर्माने कहा – विष्णुशर्मन् यहाँ स्नान करनेसे मुझे भी पहलेके जन्म- कर्मोंका स्मरण हो आया है। महाभाग ! मैं उन्हें तुम्हारे सामने कहता हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मैं धनवान् वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। मेरे पिताका नाम शरभ था। वे कान्यकुब्जपुरमें निवास करते थे। वहाँ व्यापारके द्वारा उन्होंने बहुत धन कमाया; परन्तु रात-दिन उन्हें यही चिन्ता घेरे रहती थी कि पुत्रके बिना मेरी संचित की हुई यह सारी धनराशि व्यर्थ ही है। इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए वैश्यके घर एक दिन परोक्ष विषयोंका ज्ञान रखनेवाले मुनिवर देवलजी पधारे। उन्हें आया देख मेरे पिता आसनसे उठकर खड़े हो गये। उन्होंने पाद्य और अर्घ्य देकर मुनिको प्रणाम किया, उत्तम आसनपर बैठाया और सम्मानपूर्वक कुशलप्रश्न पूछते हुए कहा- 'मुनिश्रेष्ठ ! आपका इस पृथ्वीपर विचरना हम जैसे गृहस्थोंको सुख देनेके लिये ही होता है; अन्यथा यदि आप कृपा करके स्वतः न पधारें, तो घरकी चिन्तामें डूबे हुए मनुष्योंको आप जैसे महात्माका दर्शन कहाँ हो सकता है? जिनकी बुद्धि भगवान्‌की चरण-रजके चिन्तनमें लगी हुई है, उन्हें कहीं भी कोई कामना नहीं हो सकती। तथापि यहाँ आपके पधारनेका क्या कारण है ? यह शीघ्र बतानेकी कृपा करें।'

वैश्यके ऐसा कहने पर देवल मुनिने उनके मनोभावको जाननेके लिये पूछा- वैश्यप्रवर! तुमने धर्मपूर्वक बहुत धनका संचय कर लिया है और उसीसेतुम नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका भलीभांति अनुष्ठान करते हो फिर भी तुम्हारा शरीर सूखा क्यों जा रहा है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो मुझे अवश्य बताओ।'

वैश्यने कहा – मुनिश्रेष्ठ! आपसे छिपानेयोग्य कौन-सी बात हो सकती है? आपकी कृपासे मुझे सब प्रकारका सुख है। दुःख केवल एक ही बातका है कि बुढ़ापा आ जानेपर भी अबतक मेरे कोई पुत्र नहीं हुआ। आप कृपा करके ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं भी पुत्रवान् हो सकूँ। आप जैसे महात्माओंके लिये इस पृथ्वीपर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है।

वैश्यश्रेष्ठ शरभके ये वचन सुनकर परोक्षज्ञानी देवलजीने आँखें बंद कर मनको स्थिर करके क्षणभर ध्यान किया और मेरे पिताको सन्तानकी प्राप्ति होनेमें जो रुकावट थी, उसका कारण जानकर उन्हें पुरानी बातोंकी याद दिलाते हुए कहा- "वैश्य! पहलेकी बात हैं, एक दिन तुम्हारी धर्मपत्नीने अपने मनमें जो कामना की थी, उसे बतलाता है सुनो। इसने पार्वतीजी से प्रार्थना की- 'शिवप्रिया गौरीदेवी। यदि मैं गर्भवती हो जाऊँ तो तुम्हें परस भोजनसे सन्तुष्ट करूंगी। इस प्रार्थनाके बाद उसी महीने में तुम्हारी पत्नीके गर्भ रह गया तब सखियोंके अनुरोधसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नीने तुम्हारे पास आकर विनयपूर्वक कहा- 'नाथ! मैं सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली पार्वती देवीको पूजा करना चाहती हूँ, क्योंकि उन्होंकी कृपासे इस समय मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है।'

"वैश्यप्रवर! अपनी पत्नीके ये शुभ वचन सुनकर तुम बहुत प्रसन्न हुए और तुमने मधु, अन्न, द्राक्षा और गन्ध आदि सब सामग्रियोंको मंगवाकर अपनी पत्नीके हवाले कर दिया। तब तुम्हारी पत्नीने सखियोंको बुलाकर कहा- 'सहेलियो ! पूजनकी सारी सामग्री मैंने मँगा ली है। यह सब लेकर तुमलोग मन्दिरमें जाओ और विधिवत् पूजा करके देवीको सन्तुष्ट करो हमारे कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती; इसलिये मैं नहीं चल सकूँगी। तुम्हीं लोग देवीकी पूजाके लिये जाओ।'"तुम्हारी पत्नीकी आज्ञा पाकर सखियाँ पूजाकी सामग्री ले अम्बिकाके मन्दिरमें गयीं। वहाँ उन्होंने पार्वतीजीको प्रणाम और प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक कहा- 'जगदम्बे ! तुम्हें नमस्कार है। शिवप्रिये ! हमारा कल्याण करो। शरभ नामक वैश्यकी पत्नी ललिताको तुम्हारी कृपासे गर्भ प्राप्त हो गया, अतः उसने तुम्हारी पूजाके लिये यह सब सामग्री हमारे हाथ भेजी है। उसके कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती, इसीलिये वह स्वयं नहीं आ सकी है। देवि! तुम प्रसन्न होकर इस पूजनको ग्रहण करो।'

"ऐसा कहकर सखियोंने माता पार्वतीका चन्दन आदिसे विधिपूर्वक पूजन किया; परन्तु भगवती गौरीकी ओरसे उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। सखियाँ घर लौट आयीं और तुम्हारी पत्नीसे बोलीं कि इस पूजासे पार्वतीजी प्रसन्न नहीं हैं। सखियोंकी बात सुनकर तुम्हारी स्त्रीके मनमें बड़ी व्याकुलता हुई। वह मन ही मन चिन्ता करने लगी कि 'उनके सुन्दर मन्दिरमें पूजाके समय मैं स्वयं नहीं जा सकी, यही मेरा अपराध है। इसके सिवा दूसरी कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती, जो उनकी अप्रसन्नताका कारण हो जो बात बीत गयी, उसको तो बदलना असम्भव है; किन्तु मैं गर्भसे छुटकारा पानेपर स्वयं भगवतीकी पूजाके लिये उनके मन्दिरमें जाऊँगी। महादेवजीकी पत्नी भगवती उमाको नमस्कार है। वे मेरा कल्याण करें।'

वैश्यने पूछा- मुने! मेरी पत्नीने जैसी प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार उसने पार्वतीजीका पूजन किया; फिर उनकी अप्रसन्नताका क्या कारण है, यह बतानेकीकृपा करें।

देवलजीने कहा- वैश्यवर! इसका कारण सुनो; जब तुम्हारी पत्नीकी सखियाँ स्कन्दमाता पार्वतीका पूजन करके लौट आयीं तब विजयाने कौतूहलवश पार्वतीजीसे पूछा- 'गिरिजे! ललिताकी सखियोंने तुम्हारी श्रद्धापूर्वक पूजा की है; फिर तुम प्रसन्न क्यों नहीं हुईं।'

पार्वतीजीने कहा- सखी विजया! मैं जानती हूँ, वैश्य - पत्नी घरसे बाहर निकलनेमें असमर्थ थी; | इसीलिये उसकी सखियाँ आयी थीं। किन्तु मेरी-जैसी देवियाँ दूसरेके हाथकी पूजा स्वीकार नहीं कर सकतीं। उसका पति आ जाता, तो भी उसका कल्याण होता । पत्नी जिस व्रत और पूजनको करनेमें असमर्थ हो, उसे अपने पतिसे ही करा सकती है। इससे उसकी वह पूजा भंग नहीं होती। अथवा अनन्यभावसे पतिसे पूछकर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणके द्वारा भी वह पूजा करा सकती थी। पर उसने न तो स्वयं पूजन किया और न पतिसे करवाया। इसलिये उसका गर्भ निष्फल हो जायगा। यदि दोनों पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक यहाँ आकर मेरी पूजा करेंगे, तो उन्हें पुत्रकी प्राप्ति होगी।"

वैश्य! तुम्हारे सन्तान न होनेमें यही कारण है, जो तुम्हें बता दिया। जैसे पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने महाराज दिलीपको सन्तान प्राप्तिके लिये नन्दिनीकी सेवा बतलायी थी, उसे सुनकर राजाने नन्दिनीको सन्तुष्ट किया था और राजाकी सेवासे प्रसन्न हुई नन्दिनीने उन्हें पुत्र प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी पत्नीसहित जाकर भगवती पार्वतीकी आराधना करो। इससे वे तुम्हें पुत्र प्रदान करेंगी l

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार