नारदजी कहते हैं- राजन् यह बात सुनकर शिवशमकि मनमें बड़ा सन्देह हुआ और उन्होंने अपने सत्यवादी पुत्र विष्णुशर्मासे पूछा- 'बेटा में कैसे सम कि तुम पूर्वजन्ममें देवताओंके राजा इन्द्र थे और तुमने यह करके रत्नोंके द्वारा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया था। हमारी कही हुई बातें जिस प्रकार मेरी समझमें आजायँ, वह करो। पूर्वजन्ममें किये हुए कार्योंका ज्ञान इस समय तुम्हें कैसे हो रहा है?
विष्णुशर्माने कहा – पिताजी! मुझे ऋषियोंने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहनेका वरदान दिया है। उन्हींके मुँहसे इस तीर्थ के विषयमें ऐसी महिमा सुनी थी। आप यहाँ निगमोद्बोध तीर्थमें स्नान कीजिये। इससे आपको भीपूर्वजन्मकी स्मृति प्रदान करनेवाला दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होगा।
यह सुनकर विप्रवर शिवशमनि पूर्वजन्मकी स्मृति प्राप्त करनेके लिये भगवान् श्रीहरि, श्रीगंगाजी एवं अयोध्या आदि सात पुरियोंका स्मरण करके और भगवान् गोविन्दमें चित्त लगाकर निगमोद्बोध तीर्थमें बार-बार डुबकियाँ लगाकर स्नान किया। उसके बाद सन्ध्या-तर्पण किया। तदनन्तर सूर्यको सादर अर्घ्य देकर विविध उपचारोंसे भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस तरह नित्यकर्म पूरा करके वे सुखपूर्वक बैठे और अपने सुयोग्य पुत्र विष्णुशर्मासे बोले ।
शिवशर्माने कहा – विष्णुशर्मन् यहाँ स्नान करनेसे मुझे भी पहलेके जन्म- कर्मोंका स्मरण हो आया है। महाभाग ! मैं उन्हें तुम्हारे सामने कहता हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मैं धनवान् वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। मेरे पिताका नाम शरभ था। वे कान्यकुब्जपुरमें निवास करते थे। वहाँ व्यापारके द्वारा उन्होंने बहुत धन कमाया; परन्तु रात-दिन उन्हें यही चिन्ता घेरे रहती थी कि पुत्रके बिना मेरी संचित की हुई यह सारी धनराशि व्यर्थ ही है। इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए वैश्यके घर एक दिन परोक्ष विषयोंका ज्ञान रखनेवाले मुनिवर देवलजी पधारे। उन्हें आया देख मेरे पिता आसनसे उठकर खड़े हो गये। उन्होंने पाद्य और अर्घ्य देकर मुनिको प्रणाम किया, उत्तम आसनपर बैठाया और सम्मानपूर्वक कुशलप्रश्न पूछते हुए कहा- 'मुनिश्रेष्ठ ! आपका इस पृथ्वीपर विचरना हम जैसे गृहस्थोंको सुख देनेके लिये ही होता है; अन्यथा यदि आप कृपा करके स्वतः न पधारें, तो घरकी चिन्तामें डूबे हुए मनुष्योंको आप जैसे महात्माका दर्शन कहाँ हो सकता है? जिनकी बुद्धि भगवान्की चरण-रजके चिन्तनमें लगी हुई है, उन्हें कहीं भी कोई कामना नहीं हो सकती। तथापि यहाँ आपके पधारनेका क्या कारण है ? यह शीघ्र बतानेकी कृपा करें।'
वैश्यके ऐसा कहने पर देवल मुनिने उनके मनोभावको जाननेके लिये पूछा- वैश्यप्रवर! तुमने धर्मपूर्वक बहुत धनका संचय कर लिया है और उसीसेतुम नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका भलीभांति अनुष्ठान करते हो फिर भी तुम्हारा शरीर सूखा क्यों जा रहा है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो मुझे अवश्य बताओ।'
वैश्यने कहा – मुनिश्रेष्ठ! आपसे छिपानेयोग्य कौन-सी बात हो सकती है? आपकी कृपासे मुझे सब प्रकारका सुख है। दुःख केवल एक ही बातका है कि बुढ़ापा आ जानेपर भी अबतक मेरे कोई पुत्र नहीं हुआ। आप कृपा करके ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं भी पुत्रवान् हो सकूँ। आप जैसे महात्माओंके लिये इस पृथ्वीपर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है।
वैश्यश्रेष्ठ शरभके ये वचन सुनकर परोक्षज्ञानी देवलजीने आँखें बंद कर मनको स्थिर करके क्षणभर ध्यान किया और मेरे पिताको सन्तानकी प्राप्ति होनेमें जो रुकावट थी, उसका कारण जानकर उन्हें पुरानी बातोंकी याद दिलाते हुए कहा- "वैश्य! पहलेकी बात हैं, एक दिन तुम्हारी धर्मपत्नीने अपने मनमें जो कामना की थी, उसे बतलाता है सुनो। इसने पार्वतीजी से प्रार्थना की- 'शिवप्रिया गौरीदेवी। यदि मैं गर्भवती हो जाऊँ तो तुम्हें परस भोजनसे सन्तुष्ट करूंगी। इस प्रार्थनाके बाद उसी महीने में तुम्हारी पत्नीके गर्भ रह गया तब सखियोंके अनुरोधसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नीने तुम्हारे पास आकर विनयपूर्वक कहा- 'नाथ! मैं सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली पार्वती देवीको पूजा करना चाहती हूँ, क्योंकि उन्होंकी कृपासे इस समय मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है।'
"वैश्यप्रवर! अपनी पत्नीके ये शुभ वचन सुनकर तुम बहुत प्रसन्न हुए और तुमने मधु, अन्न, द्राक्षा और गन्ध आदि सब सामग्रियोंको मंगवाकर अपनी पत्नीके हवाले कर दिया। तब तुम्हारी पत्नीने सखियोंको बुलाकर कहा- 'सहेलियो ! पूजनकी सारी सामग्री मैंने मँगा ली है। यह सब लेकर तुमलोग मन्दिरमें जाओ और विधिवत् पूजा करके देवीको सन्तुष्ट करो हमारे कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती; इसलिये मैं नहीं चल सकूँगी। तुम्हीं लोग देवीकी पूजाके लिये जाओ।'"तुम्हारी पत्नीकी आज्ञा पाकर सखियाँ पूजाकी सामग्री ले अम्बिकाके मन्दिरमें गयीं। वहाँ उन्होंने पार्वतीजीको प्रणाम और प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक कहा- 'जगदम्बे ! तुम्हें नमस्कार है। शिवप्रिये ! हमारा कल्याण करो। शरभ नामक वैश्यकी पत्नी ललिताको तुम्हारी कृपासे गर्भ प्राप्त हो गया, अतः उसने तुम्हारी पूजाके लिये यह सब सामग्री हमारे हाथ भेजी है। उसके कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती, इसीलिये वह स्वयं नहीं आ सकी है। देवि! तुम प्रसन्न होकर इस पूजनको ग्रहण करो।'
"ऐसा कहकर सखियोंने माता पार्वतीका चन्दन आदिसे विधिपूर्वक पूजन किया; परन्तु भगवती गौरीकी ओरसे उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। सखियाँ घर लौट आयीं और तुम्हारी पत्नीसे बोलीं कि इस पूजासे पार्वतीजी प्रसन्न नहीं हैं। सखियोंकी बात सुनकर तुम्हारी स्त्रीके मनमें बड़ी व्याकुलता हुई। वह मन ही मन चिन्ता करने लगी कि 'उनके सुन्दर मन्दिरमें पूजाके समय मैं स्वयं नहीं जा सकी, यही मेरा अपराध है। इसके सिवा दूसरी कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती, जो उनकी अप्रसन्नताका कारण हो जो बात बीत गयी, उसको तो बदलना असम्भव है; किन्तु मैं गर्भसे छुटकारा पानेपर स्वयं भगवतीकी पूजाके लिये उनके मन्दिरमें जाऊँगी। महादेवजीकी पत्नी भगवती उमाको नमस्कार है। वे मेरा कल्याण करें।'
वैश्यने पूछा- मुने! मेरी पत्नीने जैसी प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार उसने पार्वतीजीका पूजन किया; फिर उनकी अप्रसन्नताका क्या कारण है, यह बतानेकीकृपा करें।
देवलजीने कहा- वैश्यवर! इसका कारण सुनो; जब तुम्हारी पत्नीकी सखियाँ स्कन्दमाता पार्वतीका पूजन करके लौट आयीं तब विजयाने कौतूहलवश पार्वतीजीसे पूछा- 'गिरिजे! ललिताकी सखियोंने तुम्हारी श्रद्धापूर्वक पूजा की है; फिर तुम प्रसन्न क्यों नहीं हुईं।'
पार्वतीजीने कहा- सखी विजया! मैं जानती हूँ, वैश्य - पत्नी घरसे बाहर निकलनेमें असमर्थ थी; | इसीलिये उसकी सखियाँ आयी थीं। किन्तु मेरी-जैसी देवियाँ दूसरेके हाथकी पूजा स्वीकार नहीं कर सकतीं। उसका पति आ जाता, तो भी उसका कल्याण होता । पत्नी जिस व्रत और पूजनको करनेमें असमर्थ हो, उसे अपने पतिसे ही करा सकती है। इससे उसकी वह पूजा भंग नहीं होती। अथवा अनन्यभावसे पतिसे पूछकर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणके द्वारा भी वह पूजा करा सकती थी। पर उसने न तो स्वयं पूजन किया और न पतिसे करवाया। इसलिये उसका गर्भ निष्फल हो जायगा। यदि दोनों पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक यहाँ आकर मेरी पूजा करेंगे, तो उन्हें पुत्रकी प्राप्ति होगी।"
वैश्य! तुम्हारे सन्तान न होनेमें यही कारण है, जो तुम्हें बता दिया। जैसे पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने महाराज दिलीपको सन्तान प्राप्तिके लिये नन्दिनीकी सेवा बतलायी थी, उसे सुनकर राजाने नन्दिनीको सन्तुष्ट किया था और राजाकी सेवासे प्रसन्न हुई नन्दिनीने उन्हें पुत्र प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी पत्नीसहित जाकर भगवती पार्वतीकी आराधना करो। इससे वे तुम्हें पुत्र प्रदान करेंगी l