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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 181 - Khand 5, Adhyaya 181

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न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा

पार्वती बोलीं- भगवन् ! सभी प्राणी विष और रोग आदिके उपद्रवसे ग्रस्त तथा दुष्ट ग्रहोंसे हर समय पीड़ित रहते हैं। सुरश्रेष्ठ! जिस उपायका अवलम्बन करनेसे मनुष्योंको अभिचार (मारण उच्चाटन आदि) तथा कृत्या आदिसे उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके भयंकर रोगोंका शिकार न होना पड़े, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले- पार्वती। जिन लोगोंने व्रत उपवास और नियमोंके पालनद्वारा भगवान् विष्णुकोसंतुष्ट कर लिया है, वे कभी रोगसे पीड़ित नहीं होते। जिन्होंने कभी व्रत, पुण्य, दान, तप, तीर्थ सेवन, देव पूजन तथा अधिक मात्रामें अन्न-दान नहीं किया है, उन्हीं लोगोंको सदा रोग और दोषसे पीड़ित समझना चाहिये। मनुष्य अपने मनसे आरोग्य तथा उत्तम समृद्धि आदि जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब भगवान् विष्णुकी सेवासे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है । श्रीमधुसूदनके संतुष्ट हो जानेपर न कभी मानसिक चिन्ता सताती है, न रोग होता है, न विष तथा ग्रहोंके कष्टमेंबंधना पड़ता है और न कृत्याके ही स्पर्शका भय रहता है। श्रीजनार्दनके प्रसन्न होनेपर समस्त दोषका नाश हो जाता है। सभी ग्रह सदाके लिये शुभ हो जाते हैं तथा वह मनुष्य देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष बन जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समानभाव रखता है और अपने प्रति जैसा बर्ताव चाहता है वैसा ही दूसरोंके प्रति भी करता है, उसने मानो उपवास आदि करके भगवान् मधुसूदनको संतुष्ट कर लिया। ऐसे लोगोंके पास शत्रु नहीं आते, उन्हें रोग या आभिचारिक कष्ट नहीं होता तथा उनके द्वारा कभी पापका कार्य भी नहीं बनता। जिसने भगवान् विष्णुकी उपासना की है, उसे भगवानके चक्र आदि अमोघ अस्त्र सदा सब आपत्तियोंसे बचाते रहते हैं।

पार्वती बोलीं- भगवन्! जो लोग भगवान् गोविन्दकी आराधना न करनेके कारण दुःख भोग रहे हैं, उन दुःखी मनुष्योंके प्रति सब प्राणियों में सनातन वासुदेवको स्थित देखनेवाले समदर्शी एवं दयालु पुरुषोंका जो कर्तव्य हो, वह मुझे विशेषरूपसे बताइये। महादेवजी बोले- देवेश्वरि बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। यह उपाय रोग, दोष एवं अशुभको हरनेवाला तथा शत्रुजनित आपत्तिका नाश करनेवाला है। विद्वान् पुरुष शिखामें श्रीधरका, शिखाके निचले भाग में भगवान् श्रीकरका, केशोंमें हृषीकेशका, मस्तकमें परम पुरुष नारायणका, कानके ऊपरी भागमें श्रीविष्णुका, ललाटमें जलशायीका, दोनों भौहोंमें श्रीविष्णुका, भौंहोंके मध्यभागमें श्रीहरिका, नासिकाकेअग्रभागमें नरसिंहका, दोनों कानोंमें अर्णवेशय (समुद्रमें शयन करनेवाले भगवान्) -का, दोनों नेत्रोंमें पुण्डरीकाक्षका, नेत्रोंके नीचे भूधर (धरणीधर) का, दोनों गालोंमें कल्किनाथका, कानोंके मूल भागमें वामनका, गलेकी दोनों हँसलियोंमें शंखधारीका, मुखमें गोविन्दका, दाँतोंकी पंक्ति में मुकुन्दका, जिह्वामें वाणीपतिका, ठोढ़ीमें श्रीरामका, कण्ठमें वैकुण्ठका, बाहुमूलके निचले भाग (काँख) में बलघ्न (बल नामक दैत्यके मारनेवाले) - का, कंधोंमें कंसघातीका, दोनों भुजाओंमें अज (जन्मरहित) - का, दोनों हाथोंमें शार्ङ्गपाणिका, हाथके अँगूठेमें संकर्षणका, अँगुलियोंमें गोपालका, वक्ष:स्थलमें अधोक्षजका, छातीके बीचमें श्रीवत्सका, दोनों स्तनोंमें अनिरुद्धका, उदरमें दामोदरका, नाभिमें पद्मनाभका, नाभिके नीचे केशवका, लिंगमें धराधरका, गुदामें गदाग्रजका, कटिमें पीताम्बरधारीका, दोनों जाँघोंमें मधुद्विट् (मधुसूदन) - का, पिंडलियोंमें मुरारिका, दोनों घुटनोंमें जनार्दनका, दोनों घुट्ठियोंमें फणीशका, दोनों पैरोंकी गतिमें त्रिविक्रमका, पैरके अँगूठेमें श्रीपतिका, पैरके तलवोंमें धरणीधरका, समस्त रोमकूपोंमें विष्वक्सेनका, शरीरके मांसमें मत्स्यावतारका, मेदेमें कूर्मावतारका, वसामें वाराहका, सम्पूर्ण हड्डियोंमें अच्युतका, मज्जामें द्विजप्रिय (ब्राह्मणोंके प्रेमी) का, शुक्र (वीर्य) में श्वेतपतिका, सर्वांगमें यज्ञपुरुषका तथा आत्मामें परमात्माका न्यास करे। इस प्रकार न्यास करके मनुष्य साक्षात् नारायण हो जाता है; वह जबतक मुँहसे कुछ बोलता नहीं, तबतक विष्णुरूपसे ही स्थित रहता है। *शान्ति करनेवाला पुरुष मूलसहित शुद्ध कुशको लेकर एकाग्रचित्त हो रोगीके सब अंगोंको झाड़े विशेषतः विष्णुभक्त पुरुष रोग, ग्रह और विषसे पीड़ित मनुष्यकी अथवा केवल विषसे ही कष्ट पानेवाले रोगियोंकी इस प्रकार शुभ शान्ति करे। पार्वती! कुशसे झाड़ते समय सब रोगोंका नाश करनेवाले इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये।

ॐ परमार्थस्वरूप, अन्तर्यामी, महात्मा, रूपहीन होते हुए भी अनेक रूपधारी तथा व्यापक परमात्माको नमस्कार है। वाराह, नरसिंह और सुखदायी वामन भगवान्का ध्यान एवं नमस्कार करके श्रीविष्णुके उपर्युक्त नामोंका अपने अंगोंमें न्यास करे। न्यासके पश्चात् इस प्रकार कहे- 'मैं पापके स्पर्शसे रहित, शुद्ध, व्याधि और पापका और अपहरण करनेवाले गोविन्द, पद्मनाभ, वासुदेव और भूधर नामसे प्रसिद्ध भगवान्‌को नमस्कार करके जो कुछ कहूँ, वह मेरा सारा वचन सिद्ध हो। तीन पगोंसे त्रिलोकीको नापनेवाले भगवान् त्रिविक्रम, सबके हृदयमें रमण करनेवाले राम, वैकुण्ठधामके अधिपति, बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले भगवान् नर, वाराह, नृसिंह, वामन और उज्ज्वल रूपधारी हयग्रीवको नमस्कार है। हृषीकेश! आप सारे अमंगलको हर लीजिये। सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। नन्दक नामक खड्ग धारण करनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्णको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले आदि चक्रधारी श्रीकेशवको नमस्कार है। कमल केसरके समान वर्णवाले भगवान्को नमस्कार है। पीले रंगके निर्मल वस्त्र धारण करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। अपनी एक दाड़पर समूची पृथ्वीको उठा लेनेवाले त्रिमूर्तिपतिभगवान् वाराहको नमस्कार है। जिसके नखका स्पर्श वज्रसे भी अधिक तीक्ष्ण और कठोर है, ऐसे दिव्य सिंहका रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह। आपको नमस्कार है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदसे लक्षित होनेवाले परमात्मन्! अत्यन्त लघु शरीरवाले कश्यपपुत्र वामनका रूप धारण करके भी समूची पृथ्वीको एक ही पगमें नाप लेनेवाले! आपको बारंबार नमस्कार है। बहुत बड़ी दाढ़वाले भगवान् वाराह ! सम्पूर्ण दुःखों और समस्त पापके फलोंको रौंद डालिये, रौंट डालिये। पापके फलको नष्ट कर डालिये, नष्ट कर डालिये। विकराल मुख और दाँतोंवाले, नखोंसे उद्दीप्त दिखायी देनेवाले, पीड़ाओंके नाशक भगवान् नृसिंह। आप अपनी गर्जनासे इस रोगीके दुःखोंका भंजन कीजिये, भंजन कीजिये। इच्छानुसार रूप ग्रहण करके पृथ्वी आदिको धारण करनेवाले भगवान् जनार्दन अपनी ऋक्, यजुः और साममयी वाणीद्वारा इस रोगीके सब दुःखोंकी शान्ति कर दें। एक, दो, तीन या चार दिनका अन्तर देकर आनेवाले हलके या भारी ज्वरको, सदा बने रहनेवाले ज्वरको, किसी दोषके कारण उत्पन्न हुए ज्वरको सन्निपातसे होनेवाले तथा आगन्तुक ज्वरको विदीर्ण कर उसकी वेदनाका नाश करके भगवान् गोविन्द उसे सदाके लिये शान्त कर दें। नेक कष्ट, मस्तकका कष्ट, उदररोगका कष्ट अनुच्छ्वास (साँसका रुकना), महाश्वास (साँसका तेज चलना-दमा), परिताप, (ज्वर), वेपथु (कम्प या जूड़ी), गुदारोग, नासिकारोग, पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, कमला आदि रोग, प्रमेह आदि भयंकर रोग, बातरोग, मकड़ी और चेचक आदि समस्त रोग भगवान् विष्णुके चक्रकी चोट खाकर नष्ट हो जायें। अच्युत, अनन्त और गोविन्द नामोंके उच्चारणरूपौओषधिसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं-यह बात मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। स्थावर, जंगम अथवा कृत्रिम विष हो या दाँत, नख, आकाश तथा भूत आदिसे प्रकट होनेवाला अत्यन्त दुस्सह विष हो; वह सारा का सारा श्रीजनार्दनका नाम-कीर्तन करनेपर इस रोगीके शरीरमें शान्त हो जाय। बालकके शरीरमें ग्रह, प्रेतग्रह अथवा अन्यान्य शाकिनी-ग्रहोंका उपद्रव हो या मुखपर चकत्ते निकल आये हों अथवा रेवती, वृद्ध रेवती तथा वृद्धिका नामके भयंकर ग्रह मातृग्रह एवं बालग्रह पीड़ा दे रहे हों; भगवान् श्रीविष्णुका चरित्र उन सबका नाश कर देता है। वृद्धों अथवा बालकोंपर जो कोई भी ग्रह लगे हों, वे श्रीनृसिंहके दर्शनमात्रसे तत्काल शान्त हो जाते हैं। भयानक दाढ़ोंके कारण विकराल मुखवाले भगवान् नृसिंह दैत्योंको भयभीत करनेवाले हैं। उन्हें देखकर सभी ग्रह बहुत दूर भाग जाते हैं। ज्वालाओंसे देदीप्यमान मुखवाले महासिंहरूपधारी नृसिंह! सुन्दर मुख और नेत्रोंवाले सर्वेश्वर! आप समस्त दुष्ट ग्रहोंको दूर कीजिये। जो-जो रोग, महान् उत्पात, विष, महान् ग्रह, क्रूरस्वभाववाले भूत, भयंकर ग्रह पीड़ाएँ, हथियारसे कटे हुए घावोंपर होनेवाले रोग, चेचक आदि फोड़े और शरीर के भीतर स्थित रहनेवाले ग्रह हाँ, उन सबको हे त्रिभुवनकी रक्षा करनेवाले ! दुष्ट दानवोंके विनाशक महातेजस्वी सुदर्शन! आप काट डालिये, काट डालिये महान् ज्वर, वातरोग, लूतारोग तथा भयानक महाविषको भी आप नष्ट कर दीजिये, नष्ट कर दीजिये। असाध्य अमरशूल विषकी ज्वाला और गर्दभ रोग-ये सब के-सब शत्रु हैं, ॐ ह्रां ह्रां हूं हूं' इस बीजमन्त्रके साथ तीखी धारवाले कुठारसे आप इन शत्रुओंको मार डालें। दूसरोंका दुःख दूर करनेके लिये शरीर धारण करनेवाले परमेश्वर! आप भगवान्‌को नमस्कार है। इनके सिवा और भी जो प्राणियोंको पीड़ा देनेवाले दुष्ट ग्रह और रोग हों, उन सबको सबके आत्मा परमात्मा जनार्दन दूर करें। वासुदेव! आपको नमस्कार है। आप कोई रूप धारण करके ज्वालाओंके कारण अत्यन्त भयानक सुदर्शन नामक चक्र चलाकर सबदुष्टोंको नष्ट कर दीजिये। देववर! अच्युत! आप दुष्टोंका संहार कीजिये।

महाचक्र सुदर्शन! भगवान् गोविन्दके श्रेष्ठ आयुध । तीखी धार और महान् वेगवाले शस्त्र! कोटि सूर्यके समान तेज धारण करनेवाले महाज्वालामय सुदर्शन! भारी आवाजसे सबको भयभीत करनेवाले चक्र ! आप समस्त दुःखों और सम्पूर्ण राक्षसोंका उच्छेद कर डालिये, उच्छेद कर डालिये। हे सुदर्शनदेव! आप पापका नाश और आरोग्य प्रदान कीजिये। महात्मा नृसिंह अपनी गर्जनाओंसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर- सब ओर रक्षा करें। अनेक रूप धारण करनेवाले भगवान् जनार्दन भूमिपर और आकाशमें, पीछे-आगे तथा पार्श्वभागमें रक्षा करें। देवता, असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण विश्व श्रीविष्णुमय है। योगेश्वर श्रीविष्णु ही सब वेदोंमें गाये जाते हैं, इस सत्यके प्रभावसे इस रोगीका सारा दुःख दूर हो जाय। समस्त वेदांगोंमें भी परमात्मा श्रीविष्णुका ही गान किया जाता है। इस सत्यके प्रभावसे विश्वात्मा केशव इसको सुख देनेवाले हों भगवान् वासुदेवके शरीरसे प्रकट हुए कुशोंके द्वारा मैंने इस मनुष्यका मार्जन किया है। इससे शान्ति हो, कल्याण हो और इसके दुःखका नाश हो जाय। जिसने गोविन्दके अपामार्जनस्तोत्रसे मार्जन किया है, वह भी यद्यपि साक्षात् श्रीनारायणका ही स्वरूप है; तथापि सब दुःखोंकी शान्ति श्रीहरिके वचनसे ही होती है। श्रीमधुसूदनका स्मरण करनेपर सम्पूर्ण दोष, समस्त ग्रह सभी विष और सारे भूत शान्त हो जाते हैं। अब यह श्रीहरिके वचनानुसार पूर्ण स्वस्थ हो जाय। शान्ति हो, कल्याण हो और दुःख नष्ट हो जायें। भगवान् इषीकेशके नाम कीर्तनके प्रभावसे सदा ही इसके स्वास्थ्यकी रक्षा रहे। जो पाप जहाँसे इसके शरीरमें आये हों, वे वहीं चले जायें।

यह परम उत्तम 'अपामार्जन' नामक स्तोत्र प्राणियोंका कल्याण चाहनेवाले श्रीविष्णुभक्त पुरुषोंको रोग और पीड़ाओंके इसका प्रयोग करना चाहिये। इससे समस्त दुःखौका पूर्णतया नाश हो जाता है। यहसब पापकी शुद्धिका साधन है। श्रीविष्णुके 'अपामार्जन स्तोत्र' से आई शुष्क' लघु-स्थूल (छोटे-बड़े) एवं ब्रह्महत्या आदि जितने भी पाप हैं, वे सब उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्यके दर्शनसे अन्धकार दूर हो जाता है। जिस प्रकार सिंहके भयसे छोटे मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस स्तोत्रसे सारे रोग और दोष नष्ट हो जाते हैं इसके श्रवणमात्र से ही ग्रह, भूत और पिशाच आदिका नाश हो जाता है। लोभी पुरुष धन कमानेके लिये कभी इसका उपयोग न करें। अपामार्जन स्तोत्रका उपयोग करके किसीसे कुछ भी नहीं लेना चाहिये, इसीमें अपना हित है। आदि, मध्य और अन्तका ज्ञान रखनेवाले शान्तचित्त श्रीविष्णुभक्तोंको निःस्वार्थभावसे इस स्तोत्रका प्रयोग करना उचित है; अन्यथा यह सिद्धिदायक नहीं होता। भगवान् विष्णुका जो अपामार्जन नामक स्तोत्र है, यह मनुष्योंके लिये अनुपम सिद्धि है, रक्षाका परम साधन है और सर्वोत्तम औषधि है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने अपने पुत्र पुलस्त्य मुनिको इसका उपदेश किया था फिर पुलस्त्य मुनिने दाल्भ्यको सुनाया। दाल्भ्यने समस्त प्राणियोंका हित करनेके लिये इसे लोकमें प्रकाशित किया; तबसे श्रीविष्णुका यह अपामार्जनस्तोत्र तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गया। यह सब प्रसंग भक्तिपूर्वक श्रवण करनेसे मनुष्य अपने रोग और दोषका नाश करता है।

'अपामार्जन' नामक स्तोत्र परम अद्भुत और दिव्य है। मनुष्यको चाहिये कि पुत्र काम और अर्थकी सिद्धिके लिये इसका विशेषरूपसे पाठ करे। जो द्विज एक या दो समय बराबर इसका पाठ करते हैं, उनकी आयु लक्ष्मी और बलकी दिन-दिन वृद्धि होती है ब्राह्मण विद्या, क्षत्रिय राज्य वैश्व धन-सम्पत्ति और शूद्र भक्ति प्राप्त करता है। दूसरे लोग भी इसके पाठ, श्रवणऔर जपसे भक्ति प्राप्त करते हैं। पार्वती! जो इसका पाठ करता है, उसे सामवेदका फल होता है; उसकी सारी पाप-राशि तत्काल नष्ट हो जाती है। देवि! ऐसा जानकर एकाग्रचित्तसे इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इससे पुत्रकी प्राप्ति होती है और घरमें निश्चय ही लक्ष्मी परिपूर्ण हो जाती हैं। जो वैष्णव इस स्तोत्रको भोजपत्र पर लिखकर सदा धारण किये रहता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। जो इसका एक-एक श्लोक पढ़कर भगवान्‌को तुलसीदल समर्पित करता है, वह तुलसीसे पूजन करनेपर सम्पूर्ण तीर्थोंके सेवनका फल पा लेता है। यह भगवान् विष्णुका स्तोत्र परम उत्तम और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। सम्पूर्ण पृथ्वीका दान करनेसे मनुष्य श्रीविष्णुलोकमें जाता है; किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हो, वह श्रीविष्णुलोककी प्राप्तिके लिये विशेषरूपसे इस स्तोत्रका जप करे। यह रोग और ग्रहोंसे पीड़ित बालकोंके दुःखकी शान्ति करनेवाला है। इसके पाठमात्रसे भूत, ग्रह और विष नष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण कण्ठमें तुलसीकी माला पहनकर इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे वैष्णव जानना चाहिये; वह निश्चय ही श्रीविष्णुधाममें जाता है। इस लोकका परित्याग करनेपर उसे श्रीविष्णुधामकी प्राप्ति होती है। जो मोह-मायासे दूर हो दम्भ और तृष्णाका त्याग करके इस दिव्य स्तोत्रका पाठ करता है, वह परम मोक्षको प्राप्त होता है। इस भूमण्डलमें जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य माने गये हैं; उन्होंने कुलसहित अपने आत्माका उद्धार कर लिया- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जिन्होंने भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण कर ली है, संसारमें वे परम धन्य हैं। उनकी सदा भक्ति करनी चाहिये, क्योंकि वे भागवत (भगवद्भक्त) पुरुष हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार