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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 159 - Khand 5, Adhyaya 159

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पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य

नारदजीने पूछा- महादेव! 'पक्षवर्धिनी' नामवाली तिथि कैसी होती है, जिसका व्रत करनेसे मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है ?

श्रीमहादेवजी बोले- यदि अमावास्या अथवा पूर्णिमा साठ दण्डकी होकर दिन-रात अविकल रूपसे रहे और दूसरे दिन प्रतिपदायें भी उसका कुछ अंश चला गया हो तो वह 'पक्षवर्धिनी' मानी जाती है। उस पक्षकी एकादशीका भी यही नाम है, वह दस हजार अश्वमेध यज्ञोंके समान फल देनेवाली होती है। अब उस दिन की जानेवाली पूजाविधिका वर्णन करता हूँ, जिससे भगवान् लक्ष्मीपतिको संतोष प्राप्त होता है। सबसे पहले जलसे भरे हुए कलशकी स्थापना करनी चाहिये। कलश नवीन हो-फूटा टूटा न हो और चन्दनसे चर्चित किया गया हो। उसके भीतर पंचरत्न डाले गये हों तथा वह कलश फूलकी मालाओंसे आवृत हो । उसके ऊपर एक ताँबेका पात्र रखकर उसमें गेहूं भर देना चाहिये। उस पात्रमें भगवान्के सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। जिस मासमें पक्षवर्धिनी तिथि पड़ी हो, उसीका नाम भगवद्विग्रहका भी नाम समझना चाहिये। जगत् के स्वामी देवेश्वर जगन्नाथका स्वरूप अत्यन्त मनोहर बनवाना चाहिये। फिर विधिपूर्वक पंचामृतसे भगवान्‌को नहलाना तथा कुंकुम, अगरजा और चन्दनसे अनुलेप करना चाहिये। फिर दो वस्त्र अर्पण करने चाहिये उनके साथ छत्र और जूते भी हों। इसके बाद कलशपर विराजमान देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करे। 'पद्मनाभाय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी, 'विश्वमूर्तये नमः' बोलकर दोनोंघुटनोंकी, 'ज्ञानगम्याय नमः' से दोनों जाँघोंकी, 'ज्ञानप्रदाय नमः' से कटिभागकी, 'विश्वनाथाय नमः' से उदरकी, 'श्रीधराय नमः' से हृदयकी 'कौस्तुभ कण्ठाय नमः' से कण्ठकी, 'क्षत्रान्तकारिणे 'नमः' से दोनों बाँहोंकी, 'व्योममूर्ते नमः' से ललाटकी तथा 'सर्वरूपिणे नमः' से सिरकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न अस्त्रोंका भी उनके नाममन्त्रद्वारा पूजन करना उचित है। अन्तमें 'दिव्यरूपिणे नमः' कहकर भगवान्‌के सम्पूर्ण अंगोंकी पूजा करनी चाहिये।

इस तरह विधिवत् पूजन करके विद्वान् पुरुष सुन्दर नारियलके द्वारा चक्रधारी देवदेव श्रीहरिको अर्घ्य प्रदान करे। इस अर्घ्यदानसे ही व्रत पूर्ण होता है। अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है

संसारार्णवमग्नं भो मामुद्धर जगत्पते ॥

त्वमीशः सर्वलोकानां त्वं साक्षाच्च जगत्पतिः l

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं पद्मनाभ नमोऽस्तु ते ॥


(38।14-15) ‘जगदीश्वर! मेँ संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। आप सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर तथा साक्षात् जगत्पति परमेश्वर हैं। पद्मनाभ! आपको नमस्कार है। मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये।'

तत्पश्चात् भगवान् केशवको भक्तिपूर्वक भाँति भाँतिके नैवेद्य अर्पण करे, जो मनको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले और मधुर आदि छहों रसोंसे युक्त हों। इसके बाद भगवान्‌को भक्तिके साथ कपूरयुक्त ताम्बूल निवेदन करे। घी. अथवा तिलके तेलसे दीपक जलाकर रखे।यह सब करनेके पश्चात् गुरुकी पूजा करे। उन्हें वस्त्र, पगड़ी तथा जामा दे अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा भी दें। फिर भोजन और ताम्बूल निवेदन करके आचार्यको संतुष्ट करे। निर्धन पुरुषोंको भी यथाशक्ति प्रयत्नपूर्वक पक्षवर्धिनी एकादशीका व्रत करना चाहिये। तदनन्तर गीत, नृत्य, पुराण पाठ तथा हर्षके साथ रात्रिमें जागरण करे।

जो मनीषी पुरुष पक्षवर्धिनी एकादशीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनके द्वारा सम्पूर्ण व्रतका अनुष्ठान हो जाता है। पंचाग्निसेवन तथा तीथोंमें साधना करनेसे जो पुण्य होता है, वह श्रीविष्णुके समीप जागरण करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। पक्षवर्धिनी एकादशी परम पुण्यमयी तथा सब पापों का नाश करनेवाली है। ब्रह्मन्! यह उपवास करनेवाले मनुष्योंकी करोड़ों हत्याओंका भी विनाश कर डालती है मुने पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठ, भरद्वाज, ध्रुव तथा राजा अम्बरीषने भी इसका व्रत किया था। यह तिथि श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय है। यह काशी तथा द्वारकापुरीके समान पवित्र है। भक्त पुरुषके उपवास करनेपर यह उसे मनोवांछित फल प्रदान करती है। जैसे सूर्योदय होनेपर तत्काल अन्धकारका नाश हो जाता है, उसी प्रकार पक्षवर्धिनीका व्रत करनेसे पापराशि नष्ट हो जाती है।

नारद! अब मैं एकादशीकी रातमें जागरण करनेका माहात्म्य बतलाऊँगा, ध्यान देकर सुनो भक्त पुरुषको चाहिये कि एकादशी तिथिको रात्रिके समय भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करके वैष्णवोंके साथ उनके सामने जागरण करे। जो गीत, वाद्य, नृत्य, पुराण-पाठ, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दनानुलेप, फल, अर्घ्य, श्रद्धा, दान, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण तथा शुभकर्मके अनुष्ठानपूर्वक प्रसन्नताके साथ श्रीहरिके समक्ष जागरण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्का प्रिय होता है। जो विद्वान् मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप जागरण करते, श्रीकृष्णकी भावना करते हुए कभी नींद नहीं लेते तथा मन-ही-मन बारम्बार श्रीकृष्णका नामोच्चारण करते हैं, उन्हें परम धन्य समझना चाहिये। विशेषतः एकादशीकी रातमें जागनेपरतो वे और भी धन्यवादके पात्र हैं। जागरणके समय एक क्षण गोविन्दका नाम लेनेसे व्रतका चौगुना फल होता है, एक पहरतक नामोच्चारणसे कोटिगुना फल मिलता है और चार पहरतक नामकीर्तन करनेसे असीम फलकी प्राप्ति होती है। श्रीविष्णुके आगे आधे निमेष भी जागनेपर कोटिगुना फल होता है, उसकी संख्या नहीं है। जो नरश्रेष्ठ भगवान् केशवके आगे नृत्य करता है, उसके पुण्यका फल जन्मसे लेकर मृत्युकालतक कभी क्षीण नहीं होता। महाभाग ! प्रत्येक पहरमें विस्मय और उत्साहसे युक्त हो पाप तथा आलस्य आदि छोड़कर निर्वेदशून्य हृदयसे श्रीहरिके समक्ष नमस्कार और नीराजनासे युक्त आरती उतारनी चाहिये जो मनुष्य एकादशीको भक्तिपूर्वक अनेक गुणोंसे युक्त जागरण करता है, वह फिर इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो धनकी कंजूसी छोड़कर पूर्वोक्त प्रकारसे एकादशीको भक्तिसहित जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन होता है।

जो भगवान् विष्णुके लिये जागरणका अवसर प्राप्त होनेपर उसका उपहास करता है, वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है। प्रतिदिन वेद शास्त्रमें परायण तथा यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला ही क्यों न हो, यदि एकादशीकी रातमें जागरणका समय आनेपर उसकी निन्दा करता है तो उसका अधःपतन होता है जो मेरी (शिवकी) पूजा करते हुए विष्णुकी निन्दामै तत्पर रहता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ नरकमें पड़ता है। विष्णु ही शिव हैं और शिव ही विष्णु हैं। दोनों एक ही मूर्तिकी दो झाँकियोंके समान स्थित हैं, अतः किसी प्रकार भी इनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि जागरणके समय पुराणकी कथा बाँचनेवाला कोई न हो तो नाच-गान कराना चाहिये। यदि कथावाचक मौजूद हों तो पहले पुराणका ही पाठ होना चाहिये। वत्स! श्रीविष्णुके लिये जागरण करनेपर एक हजार अश्वमेध तथा दस हजार वाजपेय यज्ञोंसे भी करोड़गुना पुण्य प्राप्त होता है। श्रीहरिकी प्रसन्नताके लिये जागरण करके मनुष्य पिता, माता तथा पत्नी- तीनोंके कुलोंका उद्धार कर देता है। यदि एकादशीके व्रतका दिन दशमीसे विद्ध हो तोश्रीहरिका पूजन, जागरण और दान आदि सब व्यर्थ होता है-ठीक उसी तरह, जैसे कृतघ्न मनुष्योंके साथ किया हुआ नेकीका बर्ताव व्यर्थ हो जाता है। जो वेधरहित एकादशीको जागरण करते हैं, उनके बीचमें साक्षात् श्रीहरि संतुष्ट होकर नृत्य करते हैं। जो श्रीहरिके लिये नृत्य, गीत और जागरण करता है, उसके लिये ब्रह्माजीका लोक, मेरा कैलासधाम तथा भगवान् श्रीविष्णुका वैकुण्ठधाम-सब-के-सब निश्चय ही सुलभ हैं जो स्वयं श्रीहरिके लिये जागरण करते और लोगोंको भी जगाये रखता है, वह विष्णुभक्त हुए पुरुष अपने पितरोंके साथ वैकुण्ठलोकमें निवास करता है। जो श्रीहरिके लिये जागरण करनेकी लोगोंको सलाह देता है, वह मनुष्य साठ हजार वर्षोंतक श्वेतद्वीपमें निवास करता है। नारद! मनुष्य करोड़ों जन्मोंमें जो पाप संचित करता है, वह सब श्रीहरिके लिये एक रात जागरण करनेपर नष्ट हो जाता है। जो शालग्राम-शिलाके समक्ष जागरण करते हैं, उन्हें एक एक पहरमें कोटि-कोटि तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त होता है जागरणके लिये भगवान्‌के मन्दिरमें जाते समय मनुष्य जितने पग चलता है, वे सभी अश्वमेध यज्ञके समान फल देनेवाले होते हैं। पृथ्वीपर चलते समय दोनों चरणोंपर जितने धूलिकण गिरते हैं, उतने हजार वर्षोंतक जागरण करनेवाला पुरुष दिव्यलोकमें निवास करता है।

इसलिये प्रत्येक द्वादशीको जागरणके लिये अपने घरसे भगवान् विष्णुके मन्दिरमें जाना चाहिये। इससे कलिमलका विनाश होता है। दूसरोंकी निन्दामें संलग्न होना, मनका प्रसन्न न रहना, शास्त्रचर्चाका न होना, संगीतका अभाव, दीपक न जलाना, शक्तिके अनुसार पूजाके उपचारोंका न होना, उदासीनता, निन्दा तथा कलह-इन दोषोंसे युक्त नौ प्रकारका जागरण अधममाना गया है। जिस जागरणमें शास्त्रकी चर्चा, सात्त्विक नृत्य, संगीत, वाद्य, ताल, तैलयुक्त दीपक, कीर्तन, भक्तिभावना, प्रसन्नता, संतोषजनकता, समुदायकी उपस्थिति तथा लोगोंके मनोरंजनका सात्त्विक साधन हो, वह उक्त बारह गुणोंसे युक्त जागरण भगवान्‌को बहुत प्रिय है। शुक्ल और कृष्ण दोनों ही पक्षोंकी एकादशीको प्रयत्नपूर्वक जागरण करना चाहिये । 2 नारद! परदेशमें जानेपर मार्गका थका-माँदा होनेपर भी जो द्वादशीको भगवान् वासुदेवके निमित्त किये जानेवाले जागरणका नियम नहीं छोड़ता, वह मुझे विशेष प्रिय है। जो एकादशीके दिन भोजन कर लेता है, उसे पशुसे भी गया- बीता समझना चाहिये; वह न तो शिवका उपासक है न सूर्यका, न देवीका भक्त है और न गणेशजीका। जो एकादशीको जागरण करते हैं, उनका बाहर-भीतर यदि करोड़ों पापोंसे घिरा हो तो भी वे मुक्त हो जाते हैं। वेधरहित द्वादशीका व्रत और श्रीविष्णुके लिये किया जानेवाला जागरण यमदूतोंका मानमर्दन करनेवाला है। मुनिश्रेष्ठ! एकादशीको जागरण करनेवाले मनुष्य अवश्य मुक्त हो जाते हैं।

जो रातको भगवान् वासुदेवके समक्ष जागरणमें प्रवृत्त होनेपर प्रसन्नचित्त हो ताली बजाते हुए नृत्य करता, नाना प्रकारके कौतुक दिखाते हुए मुखसे गीत गाता, वैष्णवजनोंका मनोरंजन करते हुए श्रीकृष्ण चरितका पाठ करता, रोमांचित होकर मुखसे बाजा बजाता तथा स्वेच्छानुसार धार्मिक आलाप करते हुए भाँति-भाँतिके नृत्यका प्रदर्शन करता है, वह भगवान्का प्रिय है। इन भावोंके साथ जो श्रीहरिके लिये जागरण करता है, उसे नैमिष तथा कोटितीर्थका फल प्राप्त होता है। जो शान्तचित्तसे श्रीहरिको धूप आरती दिखाते हुए रातमें जागरण करता है, वह सात द्वीपोंका अधिपति होता है।ब्रह्महत्या के समान भी जो कोई पाप हों, वे सब श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये जागरण करनेपर नष्ट हो जाते हैं। एक ओर उत्तम दक्षिणाके साथ समाप्त होनेवाले सम्पूर्ण यज्ञ और दूसरी ओर देवाधिदेव श्रीकृष्णको प्रिय लगनेवाला एकादशीका जागरण दोनों समान हैं।

जहाँ भगवान् के लिये जागरण किया जाता है वहाँ काशी, पुष्कर, प्रयाग, नैमिषारण्य, शालग्राम नामक महाक्षेत्र, अर्बुदारण्य (आबू), शूकरक्षेत्र (सोरों), मथुरा तथा सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। समस्त यज्ञ और चारों वेद भी श्रीहरिके निमित्त किये जानेवाले जागरणके स्थानपर उपस्थित होते हैं। गंगा, सरस्वती, तापी, यमुना, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा तथा वितस्ता आदि सम्पूर्ण नदियाँ भी वहाँ जाती हैं। द्विजश्रेष्ठ सरोवर, कुण्ड और समस्त समुद्र भी एकादशीको जागरणस्थानपर जाते हैं। जो मनुष्य श्रीकृष्णप्रीतिके लिये होनेवाले जागरणके समय वीणा आदि बाजोंसे हर्षमें भरकर नृत्य करते और पद गाते हैं, वे देवताओंके लिये भी आदरणीय होते हैं। इस प्रकार जागरण करके श्रीमहाविष्णुकी पूजा करे और द्वादशीको अपनी शक्तिके अनुसार कुछ वैष्णव पुरुषोंको निमन्त्रित करके उनके साथ बैठकर पारण करे।

द्वादशीको सदा पवित्र और मोक्षदायिनी समझना चाहिये। उस दिन प्रातः स्नान करके श्रीहरिकी पूजा करे और उन्हें निम्नांकित मन्त्र पढ़कर अपना व्रत समर्पण करे

अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन

प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।

(39।81-82)

'केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा हूँ,आप इस व्रतसे प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।' इसके बाद यथासम्भव पारण करना चाहिये। पारण समाप्त होनेपर इच्छानुसार विहित कर्मोका अनुष्ठान करे। नारद! यदि दिनमें पारणके समय थोड़ी भी द्वादशी न हो तो मुक्तिकामी पुरुषको रातको ही [पिछले पहरमें] पारण कर लेना चाहिये। ऐसे समय में रात्रिको भोजन करनेका दोष नहीं लगता। रात्रिके पहले और पिछले पहर में दिनकी भाँति कर्म करने चाहिये। यदि पारणके दिन बहुत थोड़ी द्वादशी हो तो उषःकालमें ही प्रातः काल तथा मध्याहनकालकी भी संध्या कर लेनी चाहिये। इस पृथ्वीपर जिस मनुष्यने द्वादशी व्रतको सिद्ध कर लिया है, उसका पुण्य फल बतलानेमें मैं भी समर्थ नहीं हूँ। एकादशी देवी सब पुण्योंसे अधिक है तथा यह सर्वदा मोक्ष देनेवाली है। यह द्वादशी नामक व्रत महान् पुण्यदायक है जो इसका साधन कर लेते हैं, वे महापुरुष समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं। अम्बरीष आदि सभी भक्त, जो इस भूमण्डलमें विख्यात हैं, द्वादशी व्रतका साधन करके ही विष्णुधामको प्राप्त हुए हैं। यह माहात्म्य जो मैंने तुम्हें बताया है, सत्य है। सत्य है!! सत्य है !!! श्रीविष्णुके समान कोई देवता नहीं है और द्वादशीके समान कोई तिथि नहीं है। इस तिथिको जो कुछ दान किया जाता, भोगा जाता तथा पूजन आदि किया जाता है, वह सब भगवान् माधवके पूजित होनेपर पूर्णताको प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, भक्तवल्लभ श्रीहरि द्वादशी व्रत करनेवाले पुरुषोंकी कामना कल्पान्ततक पूर्ण करते रहते हैं। द्वादशीको किया हुआ सारा दान सफल होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार