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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 239 - Khand 5, Adhyaya 239

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पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! मैं सतियोंके उत्तम व्रतका वर्णन करता हूँ, सुनो। पति कुरूप हो या दुराचारी, अच्छे स्वभावका हो या बुरे स्वभावका, रोगी, पिशाच, क्रोधी, बूढ़ा, चालाक, अंधा, बहरा, भयंकर स्वभावका दरिद्र, कंजूस, घृणित, कायर, धूर्त अथवा परस्त्रीलम्पट ही क्यों न हो, सती-साध्वी स्त्रीके लिये वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा देवताकी भाँति पूजनीय है। स्त्रीको कभी किसी प्रकार भी अपने स्वामीके साथ अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये स्त्री बालिका हो या युवती अथवा वृद्धा ही क्यों न हो, उसे अपने घरपरभी कोई काम स्वतन्त्रतासे नहीं करना चाहिये । अहंकार और काम-क्रोधका सदा ही परित्याग करके केवल अपने पतिका ही मनोरंजन करना उचित है, दूसरे पुरुषका नहीं। परपुरुषोंके कामभावसे देखनेपर, प्रिय लगनेवाले वचनद्वारा प्रलोभनमें डालनेपर अथवा जनसमूहमें दूसरोंके शरीरसे छू जानेपर भी जिसके मनमें कोई विकार नहीं होता तथा जो परपुरुषद्वारा धनका लोभ दिखाकर लुभायी जानेपर भी मन, वाणी, शरीर और क्रियासे कभी पराये पुरुषका सेवन नहीं करती, वही सती है। वह सम्पूर्ण लोकोंकी शोभा है। सती स्त्री दूतमुखसे प्रार्थना करनेपर, बलपूर्वक पकड़ी जानेपर भी व दूसरे पुरुषका सेवन नहीं करती। जो पराये पुरुषोंके देखनेपर भी स्वयं उनकी ओर नहीं देखती, हँसनेपर भी नहीं हँसती तथा औरोंके बोलनेपर भी स्वयं उनसे नहीं बोलती, वह उत्तम लक्षणोंवाली स्त्री साध्वी- पतिव्रता है। रूप और यौवनसे सम्पन्न तथा संगीतकी कलामें निपुण सती-साध्वी स्त्री अपने ही जैसे योग्य पुरुषको देखकर भी कभी मनमें विकार नहीं लाती। जो सुन्दर, तरुण, रमणीय और कामिनियोंको प्रिय लगनेवाले परपुरुषकी भी कभी इच्छा नहीं करती, उसे महासती जानना चाहिये। पराया पुरुष देवता, मनुष्य अथवा गन्धर्व कोई भी क्यों न हो, वह सती स्त्रियोंको प्रिय नहीं होता। पत्नीको कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो पतिको अप्रिय जान पड़े। जो पतिके भोजन कर लेनेपर भोजन करती, उनके दुःखी होनेपर दुःखित होती, पतिके आनन्दमें ही आनन्द मानती उनके परदेश चले जानेपर मलिन वस्त्र धारण करती, पतिके सो जानेपर सोती और पहले ही जग जाती, पतिकी मृत्यु हो जानेपर उनके शरीरके साथ ही चितामें जल जाती और दूसरे पुरुषको कभी भी अपने मनमें स्थान नहीं देती, उस स्त्रीको पतिव्रता जानना चाहिये।

पतिव्रता स्त्रीको अपने सास-ससुर तथा पतिमें विशेष भक्ति रखनी चाहिये: वह धर्मके कार्यमें सदा पतिके अनुकूल रहे, धन खर्च करनेमें संयमसे काम ले, सम्भोगकालमें संकोच न रखे और अपने शरीरको सदा पवित्र बनाये रखे । पतिकी मंगल कामना करे, उनसे सदा प्रिय वचन बोले, मांगलिक कार्यमें संलग्न रहे, घरको सजाती रहे और घरकी प्रत्येक वस्तुको प्रतिदिन साफ-सुथरी रखनेकी चेष्टा करे। खेतसे, वनसे अथवा गाँवसे लौटकर जब पतिदेव घरपर आवे तो उठकर उनका स्वागत करे। आसन और जल देकर अभिनन्दन करे। वर्तन और अन्न साफ रखे। समयपर भोजन बनाकर दे। संयमसे रहे अनाजको छिपाकर रखे। घरको झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाये रखे। गुरुजन, पुत्र, मित्र, भाई-बन्धु, काम करनेवाले सेवक, अपने आश्रयमें रहनेवाले भृत्य, दास-दासी, अतिथि-अभ्यागत, संन्यासी तथा ब्रह्मचारी लोगोंको आसन और भोजन देने, सम्मानकरने और प्रिय वचन बोलनेमें तत्पर रहे। मुख्य गृहिणीको सदा ही समय-समयपर उपर्युक्त व्यक्तियोंकी यथोचित सेवाके कार्यमें दक्ष होना चाहिये। पति घरका खर्च चलानेके लिये अपनी पत्नीके हाथमें जो द्रव्य दे, उससे घरकी सारी आवश्यकता पूर्ण करके पत्नी अपनी बुद्धिके द्वारा उसमेंसे कुछ बचा ले। पतिने दान करनेके लिये जो धन दिया हो, उसमेंसे लोभवश कुछ बचाकर न रखे। स्वामीकी आज्ञा लिये बिना अपने बन्धुओंको धन न दे। दूसरे पुरुषसे वार्तालाप, असन्तोष, पराये कार्योंकी चर्चा अधिक हँसी, अधिक रोष और क्रोध उत्पन्न होनेके अवसरका सर्वथा त्याग करे। पतिदेव जो-जो पदार्थ न खायें, न पीयें और न मुँहमें डालें, यह सब पतिव्रता स्त्रीको भी छोड़ देना चाहिये। स्वामी परदेशमें हों तो स्त्रीके लिये तेल लगाकर नहाना, शरीरमें उबटन लगाना, दाँतोंमें मंजन लगाकर धोना, केशोंको संवारना, उत्तम पदार्थ भोजन करना, अधिक समयतक कहीं बैठना, नये-नये वस्त्रोंको पहनना और श्रृंगार करना निषिद्ध है। राजन् त्रेतासे लेकर प्रत्येक युगमें स्त्रियोंको प्रतिमास ऋतुधर्म होता है। उस समय पहले दिन चाण्डाल जातिकी स्त्रीके समान पत्नीका स्पर्श वर्जित है। दूसरे दिन वह ब्राह्मणकी हत्या करनेवाली स्त्रीके तुल्य अपवित्र मानी गयी है। तीसरे दिन उसे धोबिनके तुल्य बताया गया है। चौथे दिन स्नान करके वह शुद्ध होती है। रजस्वला स्त्री स्नान, शौच- जलसे होनेवाली शुद्धि, गाना, रोना, हँसना, यात्रा करना, अंगराग लगाना, उबटन लगाना, दिनमें सोना, दाँतन करना, मन या वाणीके द्वारा भी मैथुन करना तथा देवताओंका पूजन और नमस्कार करना छोड़ दे। पुरुषको भी चाहिये कि वह रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श और वार्तालाप न करे तथा पूर्ण प्रयत्न करके उसके वस्त्रोंका भी संयोग न होने दे।

रजस्वला स्त्री स्नान करनेके पश्चात् पराये पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। सर्वप्रथम वह सूर्यदेवका दर्शन करे। उसके बाद अपने अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ब्रह्मकूर्च - पंचगव्यका अथवा केवल दूधका पान करे। साध्वी स्त्री नियमपूर्वक शास्त्रोक्त विधिके अनुसार जीवन व्यतीत करे। आभूषणोंसे विभूषित होकर परमपवित्र भावसे स्वामीके प्रिय तथा हित साधनमें संलग्न रहे। यदि स्त्री गर्भवती हो तो उसे नीचे लिखे हुए नियमोंसे रहना चाहिये। वह आत्मरक्षापूर्वक सुन्दर आभूषण धारण करके वास्तुपूजनमें तत्पर रहे। उसके मुखपर प्रसन्नता छायी रहे। बुरे आचार-विचारकी स्त्रियोंसे बातचीत न करे सूपकी हवासे बचकर रहे जिसके बच्चे हो होकर मर जाते हों अथवा जो वन्ध्या हो, ऐसी स्त्रीके साथ संसर्ग न करे गर्भिणी स्त्री दूसरेके घरका भोजन न करे। मनमें घृणा पैदा करनेवाली कोई वस्तु न देखे डरावनी कथा न सुने। भारी और अत्यन्त " गरम भोजन न करे। पहलेका किया हुआ भोजन जबतक अच्छी तरह पच न जाय, दुबारा भोजन न करे। इस विधिसे रहनेपर साध्वी स्त्री उत्तम पुत्र प्राप्त करती है; अन्यथा या तो गर्भ गिर जाता है, या उसका निरोध हो जाता है पतिदेव जब किसी कार्यवश घरके भीतर प्रवेश करें, तो पतिव्रता स्त्री अंगराग आदिसे युक्त हो शुद्ध हृदयसे उनके पास जाय तरुणी, सुन्दरी, पुत्रवती, ज्येष्ठा अथवा कनिष्ठा-कोई भी क्यों न हो, परोक्षमें या सामने अपनी किसी सौतकी गुणहीन होनेपर भी निन्दा न करे। मनमें राग-द्वेषजनित मत्सरता रहनेपर भी सौतोंको परस्पर एक दूसरीका अप्रिय नहीं करना चाहिये। स्त्री पराये पुरुषके नामोंका गान और पराये पुरुषके गुणोंका वर्णन न करे। पतिसे दूर न रहे सदा अपने स्वामीके समीप ही निवास करे। निर्दिष्ट भूभागमें बैठकर सदा प्रियतमकी ओर ही मुख किये रहे। स्वच्छन्दतापूर्वक चारों दिशाओंकी ओर दृष्टि न डाले। पराये पुरुषका अवलोकन न करे। केवल पतिके मुखकमलको ही हावभावसे देखे पतिदेव यदि कोई | कथा करते हों तो स्त्री उसे बड़े आदरके साथ सुने पति बातचीत करते हों तो स्वयं दूसरेसे बात न करे। यदि स्वामी बुलायें तो शीघ्र ही उनके पास चली जाय। पतिदेव उत्साहपूर्वक गीत गाते हों तो प्रसन्नचित्त होकर सुने अपने प्रियतमके नृत्य करते समय उन्हें हर्षभरे नेत्रोंसे देखे पतिको शास्त्र आदिमें चतुरता, विद्या और कलामें प्रवीणता दिखलाते देख पत्नी आनन्दमें निमग्न हो जाय। पतिके समीप उद्वेग और व्यग्रतापूर्ण हृदय लेकर न ठहरे। उनके साथ प्रेमशून्य कलह न करे।स्वामी कलह करनेके योग्य नहीं हैं-ऐसा जानकर स्त्री कभी अपने लिये, अपने भाईके लिये या अपनी सौतके लिये क्रोधमें आकर उनसे कलह न करे। फटकारने, निन्दा करने और अत्यन्त ताड़ना देनेके कारण व्यथित होनेपर भी पत्नी अपने प्रियतमको भय छोड़कर गले लगाये। स्त्री जोर-जोर से विलाप न करे दूसरे लोगोंको न पुकारे और अपने घर से बाहर न भागे। पतिसे कोई विरक्तिसूचक वचन न कहे सती स्त्री उत्सव आदिके समय यदि भाई-बन्धुओंके घर जाना चाहे तो पतिकी आज्ञा लेकर किसी अध्यक्षके संरक्षणमें रहकर जाय । वहाँ अधिक कालतक निवास न करे। शीघ्र ही अपने घर लौट आये। यदि पति कहींकी यात्रा करते हों तो उस समय मंगलसूचक वचन बोले। 'न जाइये' कहकर पतिको न तो रोके और न यात्राके समय रोये ही।

पतिके परदेश जानेपर स्त्री कभी अंगराग न लगाये। केवल जीवन निर्वाहके लिये प्रतिदिन कोई उत्तम कार्य करे। यदि स्वामी जीविकाका प्रबन्ध करके परदेशमें जायें तो उनकी निश्चित की हुई जीविकासे ही गृहिणीको जीवन निर्वाह करना चाहिये। पतिके न रहनेपर स्त्री सास-ससुरके समीप ही शयन करे और किसीके नहीं। वह प्रतिदिन प्रयत्न करके पतिके कुशल समाचारका पता लगाती रहे। स्वामीकी कुशल जाननेके लिये दूत भेजे तथा प्रसिद्ध देवताओंसे याचना करे। इस प्रकार जिसके पति परदेश गये हों, उस पतिव्रता स्त्रीको ऐसे ही नियमोंका पालन करना चाहिये। वह अपने अंगोंको न धोये। मैले कपड़े पहनकर रहे। बेंदी और अंजन न लगाये। गन्ध और मालाका भी त्याग करे। नख और केशोंका श्रृंगार न करे। दाँतोंको न धोये। प्रोषितभर्तृका स्त्रीके लिये पान चबाना और आलस्यके वशीभूत होना बड़ी निन्दाकी बात है। अधिक आलस्य करना, सदा नींद लेना, सर्वदा कलहमें रुचि रखना, जोर-जोर से हँसना, दूसरोंसे हँसी परिहास करना, पराये पुरुषोंकी चेष्टाका चिन्तन करना, इच्छानुसार घूमना, पर-पुरुषके शरीरको दबाना, एक वस्त्र पहनकर बाहर घूमना, निर्लज्जताका बर्ताव करना और बिना किसी आवश्यकताके व्यर्थ ही दूसरेके घरजाना - ये सब युवती स्त्रीके लिये पाप बताये गये हैं, जो पतिको दुःख देनेवाले होते हैं।

सती स्त्री घरके सब कार्य पूर्ण करके शरीरमें हल्दीकी उबटन लगाये। फिर शुद्ध जलसे सब अंगों को धोकर सुन्दर श्रृंगार करे। उसके बाद अपने मुखकमलको प्रसन्न करके प्रियतमके समीप जाय। मन, वाणी और शरीरको संयममें रखनेवाली नारी ऐसे बर्ताव से इस लोकमें उत्तम कीर्ति पाती और परलोकमें पतिका सायुज्य प्राप्त करती है। देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकों में पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं है। जब पतिदेवतासन्तुष्ट होते हैं, तो इच्छानुसार सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं और कुपित होनेपर सब कुछ हर लेते हैं। सन्तान, नाना प्रकारके भोग, शय्या, आसन, अद्भुत वस्त्र, माला, गन्ध, स्वर्गलोक तथा भाँति-भाँतिकी कीर्ति – ये सब पतिसे ही प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार मुनिवर मृगशृंग धर्म, नय, नीति एवं गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ सुवृत्ता आदि चारों पत्नियोंके साथ चिरकालतक अतिरात्र और वाजपेय आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहे। वे नियमपूर्वक संसारी सुख भोगते थे, तथापि उनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार