वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! मैं सतियोंके उत्तम व्रतका वर्णन करता हूँ, सुनो। पति कुरूप हो या दुराचारी, अच्छे स्वभावका हो या बुरे स्वभावका, रोगी, पिशाच, क्रोधी, बूढ़ा, चालाक, अंधा, बहरा, भयंकर स्वभावका दरिद्र, कंजूस, घृणित, कायर, धूर्त अथवा परस्त्रीलम्पट ही क्यों न हो, सती-साध्वी स्त्रीके लिये वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा देवताकी भाँति पूजनीय है। स्त्रीको कभी किसी प्रकार भी अपने स्वामीके साथ अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये स्त्री बालिका हो या युवती अथवा वृद्धा ही क्यों न हो, उसे अपने घरपरभी कोई काम स्वतन्त्रतासे नहीं करना चाहिये । अहंकार और काम-क्रोधका सदा ही परित्याग करके केवल अपने पतिका ही मनोरंजन करना उचित है, दूसरे पुरुषका नहीं। परपुरुषोंके कामभावसे देखनेपर, प्रिय लगनेवाले वचनद्वारा प्रलोभनमें डालनेपर अथवा जनसमूहमें दूसरोंके शरीरसे छू जानेपर भी जिसके मनमें कोई विकार नहीं होता तथा जो परपुरुषद्वारा धनका लोभ दिखाकर लुभायी जानेपर भी मन, वाणी, शरीर और क्रियासे कभी पराये पुरुषका सेवन नहीं करती, वही सती है। वह सम्पूर्ण लोकोंकी शोभा है। सती स्त्री दूतमुखसे प्रार्थना करनेपर, बलपूर्वक पकड़ी जानेपर भी व दूसरे पुरुषका सेवन नहीं करती। जो पराये पुरुषोंके देखनेपर भी स्वयं उनकी ओर नहीं देखती, हँसनेपर भी नहीं हँसती तथा औरोंके बोलनेपर भी स्वयं उनसे नहीं बोलती, वह उत्तम लक्षणोंवाली स्त्री साध्वी- पतिव्रता है। रूप और यौवनसे सम्पन्न तथा संगीतकी कलामें निपुण सती-साध्वी स्त्री अपने ही जैसे योग्य पुरुषको देखकर भी कभी मनमें विकार नहीं लाती। जो सुन्दर, तरुण, रमणीय और कामिनियोंको प्रिय लगनेवाले परपुरुषकी भी कभी इच्छा नहीं करती, उसे महासती जानना चाहिये। पराया पुरुष देवता, मनुष्य अथवा गन्धर्व कोई भी क्यों न हो, वह सती स्त्रियोंको प्रिय नहीं होता। पत्नीको कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो पतिको अप्रिय जान पड़े। जो पतिके भोजन कर लेनेपर भोजन करती, उनके दुःखी होनेपर दुःखित होती, पतिके आनन्दमें ही आनन्द मानती उनके परदेश चले जानेपर मलिन वस्त्र धारण करती, पतिके सो जानेपर सोती और पहले ही जग जाती, पतिकी मृत्यु हो जानेपर उनके शरीरके साथ ही चितामें जल जाती और दूसरे पुरुषको कभी भी अपने मनमें स्थान नहीं देती, उस स्त्रीको पतिव्रता जानना चाहिये।
पतिव्रता स्त्रीको अपने सास-ससुर तथा पतिमें विशेष भक्ति रखनी चाहिये: वह धर्मके कार्यमें सदा पतिके अनुकूल रहे, धन खर्च करनेमें संयमसे काम ले, सम्भोगकालमें संकोच न रखे और अपने शरीरको सदा पवित्र बनाये रखे । पतिकी मंगल कामना करे, उनसे सदा प्रिय वचन बोले, मांगलिक कार्यमें संलग्न रहे, घरको सजाती रहे और घरकी प्रत्येक वस्तुको प्रतिदिन साफ-सुथरी रखनेकी चेष्टा करे। खेतसे, वनसे अथवा गाँवसे लौटकर जब पतिदेव घरपर आवे तो उठकर उनका स्वागत करे। आसन और जल देकर अभिनन्दन करे। वर्तन और अन्न साफ रखे। समयपर भोजन बनाकर दे। संयमसे रहे अनाजको छिपाकर रखे। घरको झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाये रखे। गुरुजन, पुत्र, मित्र, भाई-बन्धु, काम करनेवाले सेवक, अपने आश्रयमें रहनेवाले भृत्य, दास-दासी, अतिथि-अभ्यागत, संन्यासी तथा ब्रह्मचारी लोगोंको आसन और भोजन देने, सम्मानकरने और प्रिय वचन बोलनेमें तत्पर रहे। मुख्य गृहिणीको सदा ही समय-समयपर उपर्युक्त व्यक्तियोंकी यथोचित सेवाके कार्यमें दक्ष होना चाहिये। पति घरका खर्च चलानेके लिये अपनी पत्नीके हाथमें जो द्रव्य दे, उससे घरकी सारी आवश्यकता पूर्ण करके पत्नी अपनी बुद्धिके द्वारा उसमेंसे कुछ बचा ले। पतिने दान करनेके लिये जो धन दिया हो, उसमेंसे लोभवश कुछ बचाकर न रखे। स्वामीकी आज्ञा लिये बिना अपने बन्धुओंको धन न दे। दूसरे पुरुषसे वार्तालाप, असन्तोष, पराये कार्योंकी चर्चा अधिक हँसी, अधिक रोष और क्रोध उत्पन्न होनेके अवसरका सर्वथा त्याग करे। पतिदेव जो-जो पदार्थ न खायें, न पीयें और न मुँहमें डालें, यह सब पतिव्रता स्त्रीको भी छोड़ देना चाहिये। स्वामी परदेशमें हों तो स्त्रीके लिये तेल लगाकर नहाना, शरीरमें उबटन लगाना, दाँतोंमें मंजन लगाकर धोना, केशोंको संवारना, उत्तम पदार्थ भोजन करना, अधिक समयतक कहीं बैठना, नये-नये वस्त्रोंको पहनना और श्रृंगार करना निषिद्ध है। राजन् त्रेतासे लेकर प्रत्येक युगमें स्त्रियोंको प्रतिमास ऋतुधर्म होता है। उस समय पहले दिन चाण्डाल जातिकी स्त्रीके समान पत्नीका स्पर्श वर्जित है। दूसरे दिन वह ब्राह्मणकी हत्या करनेवाली स्त्रीके तुल्य अपवित्र मानी गयी है। तीसरे दिन उसे धोबिनके तुल्य बताया गया है। चौथे दिन स्नान करके वह शुद्ध होती है। रजस्वला स्त्री स्नान, शौच- जलसे होनेवाली शुद्धि, गाना, रोना, हँसना, यात्रा करना, अंगराग लगाना, उबटन लगाना, दिनमें सोना, दाँतन करना, मन या वाणीके द्वारा भी मैथुन करना तथा देवताओंका पूजन और नमस्कार करना छोड़ दे। पुरुषको भी चाहिये कि वह रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श और वार्तालाप न करे तथा पूर्ण प्रयत्न करके उसके वस्त्रोंका भी संयोग न होने दे।
रजस्वला स्त्री स्नान करनेके पश्चात् पराये पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। सर्वप्रथम वह सूर्यदेवका दर्शन करे। उसके बाद अपने अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ब्रह्मकूर्च - पंचगव्यका अथवा केवल दूधका पान करे। साध्वी स्त्री नियमपूर्वक शास्त्रोक्त विधिके अनुसार जीवन व्यतीत करे। आभूषणोंसे विभूषित होकर परमपवित्र भावसे स्वामीके प्रिय तथा हित साधनमें संलग्न रहे। यदि स्त्री गर्भवती हो तो उसे नीचे लिखे हुए नियमोंसे रहना चाहिये। वह आत्मरक्षापूर्वक सुन्दर आभूषण धारण करके वास्तुपूजनमें तत्पर रहे। उसके मुखपर प्रसन्नता छायी रहे। बुरे आचार-विचारकी स्त्रियोंसे बातचीत न करे सूपकी हवासे बचकर रहे जिसके बच्चे हो होकर मर जाते हों अथवा जो वन्ध्या हो, ऐसी स्त्रीके साथ संसर्ग न करे गर्भिणी स्त्री दूसरेके घरका भोजन न करे। मनमें घृणा पैदा करनेवाली कोई वस्तु न देखे डरावनी कथा न सुने। भारी और अत्यन्त " गरम भोजन न करे। पहलेका किया हुआ भोजन जबतक अच्छी तरह पच न जाय, दुबारा भोजन न करे। इस विधिसे रहनेपर साध्वी स्त्री उत्तम पुत्र प्राप्त करती है; अन्यथा या तो गर्भ गिर जाता है, या उसका निरोध हो जाता है पतिदेव जब किसी कार्यवश घरके भीतर प्रवेश करें, तो पतिव्रता स्त्री अंगराग आदिसे युक्त हो शुद्ध हृदयसे उनके पास जाय तरुणी, सुन्दरी, पुत्रवती, ज्येष्ठा अथवा कनिष्ठा-कोई भी क्यों न हो, परोक्षमें या सामने अपनी किसी सौतकी गुणहीन होनेपर भी निन्दा न करे। मनमें राग-द्वेषजनित मत्सरता रहनेपर भी सौतोंको परस्पर एक दूसरीका अप्रिय नहीं करना चाहिये। स्त्री पराये पुरुषके नामोंका गान और पराये पुरुषके गुणोंका वर्णन न करे। पतिसे दूर न रहे सदा अपने स्वामीके समीप ही निवास करे। निर्दिष्ट भूभागमें बैठकर सदा प्रियतमकी ओर ही मुख किये रहे। स्वच्छन्दतापूर्वक चारों दिशाओंकी ओर दृष्टि न डाले। पराये पुरुषका अवलोकन न करे। केवल पतिके मुखकमलको ही हावभावसे देखे पतिदेव यदि कोई | कथा करते हों तो स्त्री उसे बड़े आदरके साथ सुने पति बातचीत करते हों तो स्वयं दूसरेसे बात न करे। यदि स्वामी बुलायें तो शीघ्र ही उनके पास चली जाय। पतिदेव उत्साहपूर्वक गीत गाते हों तो प्रसन्नचित्त होकर सुने अपने प्रियतमके नृत्य करते समय उन्हें हर्षभरे नेत्रोंसे देखे पतिको शास्त्र आदिमें चतुरता, विद्या और कलामें प्रवीणता दिखलाते देख पत्नी आनन्दमें निमग्न हो जाय। पतिके समीप उद्वेग और व्यग्रतापूर्ण हृदय लेकर न ठहरे। उनके साथ प्रेमशून्य कलह न करे।स्वामी कलह करनेके योग्य नहीं हैं-ऐसा जानकर स्त्री कभी अपने लिये, अपने भाईके लिये या अपनी सौतके लिये क्रोधमें आकर उनसे कलह न करे। फटकारने, निन्दा करने और अत्यन्त ताड़ना देनेके कारण व्यथित होनेपर भी पत्नी अपने प्रियतमको भय छोड़कर गले लगाये। स्त्री जोर-जोर से विलाप न करे दूसरे लोगोंको न पुकारे और अपने घर से बाहर न भागे। पतिसे कोई विरक्तिसूचक वचन न कहे सती स्त्री उत्सव आदिके समय यदि भाई-बन्धुओंके घर जाना चाहे तो पतिकी आज्ञा लेकर किसी अध्यक्षके संरक्षणमें रहकर जाय । वहाँ अधिक कालतक निवास न करे। शीघ्र ही अपने घर लौट आये। यदि पति कहींकी यात्रा करते हों तो उस समय मंगलसूचक वचन बोले। 'न जाइये' कहकर पतिको न तो रोके और न यात्राके समय रोये ही।
पतिके परदेश जानेपर स्त्री कभी अंगराग न लगाये। केवल जीवन निर्वाहके लिये प्रतिदिन कोई उत्तम कार्य करे। यदि स्वामी जीविकाका प्रबन्ध करके परदेशमें जायें तो उनकी निश्चित की हुई जीविकासे ही गृहिणीको जीवन निर्वाह करना चाहिये। पतिके न रहनेपर स्त्री सास-ससुरके समीप ही शयन करे और किसीके नहीं। वह प्रतिदिन प्रयत्न करके पतिके कुशल समाचारका पता लगाती रहे। स्वामीकी कुशल जाननेके लिये दूत भेजे तथा प्रसिद्ध देवताओंसे याचना करे। इस प्रकार जिसके पति परदेश गये हों, उस पतिव्रता स्त्रीको ऐसे ही नियमोंका पालन करना चाहिये। वह अपने अंगोंको न धोये। मैले कपड़े पहनकर रहे। बेंदी और अंजन न लगाये। गन्ध और मालाका भी त्याग करे। नख और केशोंका श्रृंगार न करे। दाँतोंको न धोये। प्रोषितभर्तृका स्त्रीके लिये पान चबाना और आलस्यके वशीभूत होना बड़ी निन्दाकी बात है। अधिक आलस्य करना, सदा नींद लेना, सर्वदा कलहमें रुचि रखना, जोर-जोर से हँसना, दूसरोंसे हँसी परिहास करना, पराये पुरुषोंकी चेष्टाका चिन्तन करना, इच्छानुसार घूमना, पर-पुरुषके शरीरको दबाना, एक वस्त्र पहनकर बाहर घूमना, निर्लज्जताका बर्ताव करना और बिना किसी आवश्यकताके व्यर्थ ही दूसरेके घरजाना - ये सब युवती स्त्रीके लिये पाप बताये गये हैं, जो पतिको दुःख देनेवाले होते हैं।
सती स्त्री घरके सब कार्य पूर्ण करके शरीरमें हल्दीकी उबटन लगाये। फिर शुद्ध जलसे सब अंगों को धोकर सुन्दर श्रृंगार करे। उसके बाद अपने मुखकमलको प्रसन्न करके प्रियतमके समीप जाय। मन, वाणी और शरीरको संयममें रखनेवाली नारी ऐसे बर्ताव से इस लोकमें उत्तम कीर्ति पाती और परलोकमें पतिका सायुज्य प्राप्त करती है। देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकों में पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं है। जब पतिदेवतासन्तुष्ट होते हैं, तो इच्छानुसार सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं और कुपित होनेपर सब कुछ हर लेते हैं। सन्तान, नाना प्रकारके भोग, शय्या, आसन, अद्भुत वस्त्र, माला, गन्ध, स्वर्गलोक तथा भाँति-भाँतिकी कीर्ति – ये सब पतिसे ही प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार मुनिवर मृगशृंग धर्म, नय, नीति एवं गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ सुवृत्ता आदि चारों पत्नियोंके साथ चिरकालतक अतिरात्र और वाजपेय आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहे। वे नियमपूर्वक संसारी सुख भोगते थे, तथापि उनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था।