View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 69 - Khand 2, Adhyaya 69

Previous Page 69 of 266 Next

पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन

ययाति बोले- मातले । मर्त्यलोकके मानव बड़े भयानक पाप करते हैं; उन्हें उन कर्मोंका क्या फल

मिलता है? इस समय यही बात बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो लोग वेदोंकी निन्दा और वेदोक्त सदाचारकी गर्हणा करते हैं तथा जो अपने कुलके आचारका त्याग करके दूसरोंका आचार ग्रहण करते हैं, जो सब साधुओंको पीड़ा देते हैं, वे सब पातकी हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने इन दुष्कर्मोको पातक नाम दिया है। जो माता-पिताकी निन्दा करते, बहिनको सदा मारते और उसकी गर्हणा करते हैं, उनका यह कार्य निश्चय ही पातक है। जो श्राद्धकाल आनेपर भी काम, क्रोध अथवा भयसे, पाँच कोसके भीतर रहनेवाले दामाद, भांजे तथा बहिनको नहीं बुलाता और सदा दूसरोंको ही भोजन कराता हैं, उसके श्राद्धमें पितर अन्न ग्रहण नहीं करते, उसमें विघ्न पड़ जाता है। दामाद आदिकी उपेक्षा श्राद्धकर्ता पुरुषके लिये हत्या के समान है, उसे बहुत बड़ा पातक माना गया है। इसी प्रकार यदि दान देते समय बहुत से ब्राह्मण आ जायें तथा उनमेंसे एकको तो दान दिया जाय और दूसरोंको न दिया जाय तो यह दानके फलको नष्ट करनेवाला बहुत बड़ा पातक मानागया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको उचित है कि वह प्रत्येक पुण्यपर्वके अवसरपर निर्धन ब्राह्मणकी पूजा करें तथा जहाँतक हो सके, उसे धनकी प्राप्ति करायें। श्राद्धके समय निमन्त्रित ब्राह्मणके अतिरिक्त यदि दूसरा कोई ब्राह्मण आ जाय तो उन दोनोंकी ही भोजन, वस्त्र, ताम्बूल और दक्षिणाके द्वारा पूजा करनी चाहिये; इससे श्राद्धकर्ताके पितरोंको बड़ा हर्ष होता है। यदि श्राद्धकर्ता धनहीन हो तो वह एककी ही पूजा कर सकता है। जो श्राद्धमें ब्राह्मणको भोजन कराकर आदरपूर्वक दक्षिणा नहीं देता, उसे गोहत्या आदिके समान पाप लगता है। महाराज! व्यतीपात और वैधृति योग आनेपर अथवा अमावास्या तिथिको या पिताकी क्षयाह-तिथि प्राप्त होनेपर अपराह्नकालमें ब्राह्मण आदि वर्णोंको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये।

विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह अपरिचित ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित न करे। अपरिचितोंमें भी यदि कोई वेद-वेदांगोंका पारगामी विद्वान् हो तो उस ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित करना और दान देना उचित है। राजन् ! निमन्त्रित ब्राह्मणका अपूर्व आतिथ्य सत्कार करना चाहिये। जो पापी इसके विपरीतआचरण करता है, उसे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ता है इसलिये दान, श्राद्ध तथा पर्वके अवसरपर ब्राह्मणको निमन्त्रित करना आवश्यक है। पहले ब्राह्मणकी भलीभाँति जाँच और परख कर लेनी चाहिये, उसके बाद उसे श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करना उचित है। जो बिना ब्राह्मणके श्राद्ध करता है, उसके घरमें पितर भोजन नहीं करते शाप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मणहीन श्राद्ध करनेसे मनुष्य महापापी होता है तथा ब्राह्मणघाती कहलाता है। राजन्! जो पितृकुलके आचारका परित्याग करके स्वेच्छानुसार बर्ताव करता है, उसे महापापी समझना चाहिये; वह सब धर्मोसे बहिष्कृत है। जो पापी मनुष्य शिवकी परिचर्या छोड़कर शिवभक्तोंसे द्वेष रखते हैं तथा जो ब्राह्मणोंसे द्रोह करते हुए सदा भगवान् श्रीविष्णुकी निन्दा करते हैं, वे महापापी हैं, सदाचारकी निन्दा करनेवाले पुरुषोंकी गणना भी इसी श्रेणीमें है। सर्वप्रथम उत्तम ज्ञानस्वरूप पुण्यमय भागवत

पुराणकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् विष्णुपुराण, हरिवंश, मत्स्यपुराण और कूर्मपुराणका पूजन करना उचित है जो पद्मपुराणकी पूजा करते हैं, उनके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी प्रत्यक्ष पूजा हो जाती है। जो श्रीभगवान्के ज्ञानस्वरूप पुराणकी पूजा किये बिना ही उसे पढ़ते और लिखते हैं, लोभमें आकर बेच देते हैं, अपवित्र स्थानमें मनमाने ढंगसे रख देते हैं तथा स्वयं अशुद्ध रहकर अशुद्ध स्थानमें पुराणकी कथा कहते और सुनते हैं, उनका यह सब कार्य गुरुनिन्दाके समान माना गया है। जो गुरुकी पूजा किये बिना हो उनसे शास्त्र श्रवण करना चाहता है, गुरुकी सेवा नहीं करता, उनकी विचार रखता है, उनकी बातका अभिनन्दन नहीं करता, आज्ञा भंग करनेका अपितु प्रतिवाद कर देता है, गुरुके कार्यकी, करनेयोग्य होनेपर भी उपेक्षा करता है तथा जो गुरुको पीड़ित असमर्थ, विदेशको ओर प्रस्थित और शत्रुओंद्वारा अपमानित देखकर भी उनका साथ छोड़ देता है, वह पापी तबतक कुम्भीपाक नरक में निवास करता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकीआयु पूरी नहीं हो जाती। जो स्त्री, पुत्र और मित्रोंकी अवहेलना करता है, उसके इस कार्यको भी गुरुनिन्दाके समान महान् पातक समझना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी, गुरुकी शय्यापर सोनेवाला तथा इनका सहयोगी ये पाँच प्रकारके मनुष्य महापातकी माने गये हैं जो क्रोध, द्वेष, भय अथवा लोभसे विशेषत: ब्राह्मणके मर्म आदिका उच्छेद करता है, दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मणको द्वारपर बुलाकर पीछे कोरा जवाब दे देता है, जो विद्याके अभिमानमें आकर सभामें उदासीन भावसे बैठे हुए ब्राह्मणोंको भी निस्तेज कर देता है तथा जो मिथ्या गुर्णोद्वारा अपनेको जबर्दस्ती ऊँचा सिद्ध करता है और गुरुको ही उपदेश करने लगता है-इन सबको ब्राह्मणघाती माना गया है।

जिनका शरीर भूख और प्याससे पीड़ित है, जो अन्न खाना चाहते हैं, उनके कार्यमें विघ्न खड़ा करनेवाला मनुष्य भी ब्राह्मणघाती ही है। जो चुगलखोर, सब लोगोंके दोष ढूँढनेमें तत्पर सबको उद्वेगमें डालनेवाला और क्रूर है तथा जो देवताओं, ब्राह्मणों और गौओंके निमित्त पहलेकी दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे ब्रह्मपाती कहते हैं। दूसरोंके द्वारा उपार्जित द्रव्यका और ब्राह्मणके धनका अपहरण भी ब्रह्महत्या के समान ही भारी पातक है। जो अग्निहोत्र तथा पंचयज्ञादि कर्मोंका परित्याग करके माता, पिता और गुरुका अनादर करता है, झूठी गवाही देता है, शिवभक्तोंकी बुराई और अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करता है, वनमें जाकर निरपराध प्राणियोंको मारता है तथा गोशाला, देवमन्दिर, गाँव और नगरमें आग लगाता है, उसके ये भयंकर पाप पूर्वोक्त पापके ही समान हैं।

दीनौका सर्वस्वा छीन लेना, परायी स्त्री, दूसरे के हाथी, घोड़े, गौ, पृथ्वी, चाँदी, रत्न, अनाज, रस, चन्दन, अरगजा, कपूर, कस्तूरी, मालपूआ और वस्त्रको चुरा लेना तथा परायी धरोहरको हड़प लेना-ये सब पाप सुवर्णकी चोरीके समान माने गये हैं। विवाह करनेयोग्य कन्याका योग्य वरके साथ विवाह न करना, पुत्र एवं मित्रकी भार्याओं और अपनी बहिनोंके साथ समागमकरना, कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करना, अन्त्यज जातिकी स्त्रीका सेवन तथा सवर्णा स्त्रीके साथ सम्भोग - ये पाप गुरु-पत्नी-गमनके समान बताये गये हैं। जो ब्राह्मणको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके न तो उसे देता है और न फिर उसको याद ही रखता है, उसका यह कार्य उपपातकोंकी श्रेणीमें रखा गया है। ब्राह्मणके धनका अपहरण, मर्यादाका उल्लंघन, अत्यन्त मान, अधिक क्रोध, दम्भ, कृतघ्नता, अत्यन्त विषयासक्ति, कृपणता, शठता, मात्सर्य, परस्त्री गमन और साध्वी कन्याको कलंकित करना; परिवित्ति *, परिवेत्ता तथा उसकी पत्नी – इनसे सम्पर्क रखना, इन्हें कन्या देना अथवा इनका यज्ञ कराना; धनके अभावमें पुत्र, मित्र और पत्नीका परित्याग करना; बिना किसी कारणके ही स्त्रीको छोड़ देना, साधु और तपस्वियोंकी उपेक्षा करना; गौ, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा शूद्रोंके प्राण लेना; शिवमन्दिर, वृक्ष और फुलवाड़ीको नष्ट करना; आश्रमवासियोंको थोड़ा-सा भी कष्ट पहुँचाना, भृत्यवर्गको दुःख देना; अन्न, वस्त्र और पशुओंकी चोरी करना; जिनसे माँगना उचित नहीं है, ऐसे लोगोंसे याचना करना; यज्ञ, बगीचा, पोखरा, स्त्री और सन्तानका विक्रय करना; तीर्थयात्रा, उपवास, व्रत और शुभ कर्मोंका फल बेचना, स्त्रियोंके धनसे जीविका चलाना, स्त्रीद्वारा उपार्जित अन्नसे जीवन निर्वाह करना तथा किसीके छिपे हुए अधर्मको लोगोंके सामने खोलकर रख देना- इन सब पापोंमें जो लोग रचे-पचे रहते हैं, जो दूसरोंके दोष बताते, पराये छिद्रपर दृष्टि रखते, औरोंका धन हड़पना चाहते और परस्त्रियोंपर कुदृष्टि रखते हैं- इन सभी पापियोंको गोघातकके तुल्य समझना चाहिये।

जो मनुष्य झूठ बोलता, स्वामी, मित्र और गुरुसे द्रोह रखता, माया रचता और शठता करता है; जो स्त्री, पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, भृत्य, अतिथि और बन्धुबान्धवोंको भूखे छोड़, अकेले भोजन कर लेता है; जो अपने तो खूब मिठाई उड़ाते और दूसरोंकोअन्न भी नहीं देते, उन सबको पृथक्-पाकी समझना चाहिये। वेदज्ञ पुरुषोंमें उनकी बड़ी निन्दा की गयी है। जो स्वयं ही नियम लेकर फिर उन्हें छोड़ देते हैं जिन्होंने दूसरोंके साथ धोखा किया है, जो मदिरा पीनेवालोंसे संसर्ग रखते और घाव एवं रोगसे पीड़ित तथा भूख-प्यास से व्याकुल गौका यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे गो-हत्यारे माने गये हैं; उन्हें नरककी यातना भोगनी पड़ती है। जो सब प्रकारके पापोंमें डूबे रहते साधु, ब्राह्मण, गुरु और गौको मारते तथा सन्मार्गमें स्थित निर्दोष स्त्रीको पीटते हैं जिनका सारा शरीर आलस्यसे व्याप्त रहता है, अतएव जो बार-बार सोया करते हैं, जो दुर्बल पशुओंको काममें लगाते, बलपूर्वक हाँकते, अधिक भार लादकर कष्ट देते और घायल होनेपर भी उन्हें जोतते रहते हैं, जो दुरात्मा मनुष्य वैलोंको बधिया करते हैं तथा गायके बछड़ोंको नाथते हैं, वे सभी महापापी हैं। उनके ये कार्य महापातकोंके तुल्य हैं।

जो भूख-प्यास और परिश्रमसे पीड़ित एवं आशा लगाकर घरपर आये हुए अतिथिका अनादर करते हैं, ये नरकगामी होते हैं जो मूर्ख, अनाथ, विकल, दीन, बालक, वृद्ध और सुधातुर व्यक्तिपर दया नहीं करते, उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है। जो नीतिशास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करके प्रजासे मनमाना कर वसूल करते हैं और अकारण ही दण्ड देते हैं, उन्हें नरकमें पकाया जाता है। जिस राजाके राज्यमें प्रजा सूदखोरों, अधिकारियों और चोरोंद्वारा पीड़ित होती है, उसे नरकोंमें पकना पड़ता है। जो ब्राह्मण अन्यायी राजासे दान लेते हैं, उन्हें भी घोर नरकोंमें जाना पड़ता है। पापाचारी पुरवासियोंका पाप राजाका ही समझा जाता है। अतः राजाको उस पापसे डरकर प्रजाको शासनमें रखना चाहिये। जो राजा भलीभाँति विचार न करके, जो चोर नहीं है उसे भी चोरके समान दण्ड देता और चोरको भी साधु समझकर छोड़ देता है, वह नरकमें जाता है। जो मनुष्य दूसरोंके घी, तेल, मधु, गुड़ ईख, दूध,साग, दही, मूल, फल, घास, लकड़ी, फूल, पत्ती, काँसा, चाँदी, जूता, छाता, बैलगाड़ी, पालकी, मुलायम आसन, ताँबा, सीसा, गंगा, शंख, वंशी आदि बाजा, धरकी सामग्री, ऊन, कपास, रेशम, रंग, पत्र आदि तथा महीन वस्त्र चुराते हैं या इसी तरहके दूसरे दूसरे इल्योंका अपहरण करते हैं, वे सदा नरकमें पड़ते हैं। दूसरेकी वस्तु थोड़ी हो या बहुत-जो उसपर ममता करके उसे चुराता है, वह निस्सन्देह नरकमें गिरता है। इस तरहके पाप करनेवाले मनुष्य मृत्युके पश्चात् यमराजकी आज्ञासे यमलोकमें जाते हैं। यमराजके महाभयंकर दूत उन्हें ले जाते हैं। उस समय उनको बहुत दुःख उठाना पड़ता है। देवता, मनुष्य तथा पशु पक्षी इनमेंसे जो भी अधर्ममें मन लगाते हैं, उनके शासक धर्मराज माने गये हैं। वे भाँति-भाँतिके भयानक दण्ड देकर पापका भोग कराते हैं। विनय और सदाचारसे युक्त मनुष्य यदि भूलसे मलिन आचारमें लिप्त हो जायँ तो उनके लिये गुरु ही शासक माने गये हैं; वे कोई प्रायश्चित्त कराकर उनके पाप धो सकते हैं। ऐसे लोगोंको यमराजके पास नहीं जाना पड़ता परस्त्रीलम्पट, चोर तथा अन्यायपूर्ण बर्ताव करनेवाले पुरुषोंपर राजाका शासन होता है-राजा ही उनके दण्ड-विधाता माने गये हैं; परन्तु जो पाप छिपकर किये जाते हैं, उनके लिये धर्मराज हो दण्डका निर्णय करते हैं। इसलिये अपने किये हुए पापोंके लिये प्रायश्चित करना चाहिये। अन्यथा वे करोड़ों कल्पोंमें भी [फल भोग कराये बिना] नष्ट नहीं होते। मनुष्य मन, वाणी तथा शरीरसे जो कर्म करता है, उसका फल उसे स्वयं भोगना पड़ता है; कमोंके अनुसार उसकी सद्गति या अधोगति होती है। राजन्! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने तुम्हें पापके भेद बताये हैं; बोलो, अब और क्या सुनाऊँ ? ययातिने कहा – मातले। अधर्मके सारे फलका वर्णन तो मैंने सुन लिया; अब धर्मका फल बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको जूता और खड़ाऊँ दान करता है, वह बहुत बड़े विमानपर बैठकर सुखसे परलोककी यात्रा करता है,वस्त्र दान करनेवाले मनुष्य दिव्य वस्त्र धारण करके परलोकमें जाते हैं। पालकी दान करनेसे भी जीव विमानद्वारा सुखपूर्वक यात्रा करता है। सुखासन (गद्दे, कुर्सी आदि) के दानसे भी वह सुखपूर्वक जाता है। बगीचा लगानेवाला पुरुष शीतल छायामें सुखसे परलोककी यात्रा करता है। फूल-माला दान करनेवाले पुरुष पुष्पक विमानसे जाते हैं। जो देवताओंके लिये मन्दिर, संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथों और रोगियोंके लिये घर बनवाते हैं वे परलोकमें उत्तम महलोंके भीतर रहकर विहार करते हैं। जो देवता, अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, माता और पिताकी पूजा करता है तथा गुणवानों और दीनोंको रहनेके लिये घर देता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। राजन्! जिसने श्रद्धाके साथ ब्राह्मणको एक कौड़ीका भी दान किया है, वह स्वर्गलोक में देवताओंका अतिथि होता है तथा उसकी कीर्ति बढ़ती है। अतः श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये। उसका फल अवश्य होता है।

अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इन्द्रिय संयम, दान, यज्ञ, ध्यान [और ज्ञान] ये धर्मके दस साधन हैं। अन्न देनेवालेको प्राणदाता कहा गया है और जो प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः अन्न-दान करनेसे सब दानोंका फल मिल जाता है। अन्नसे पुष्ट होकर ही मनुष्य पुण्यका संचय करता है; अतः पुण्यका आधा अंश अन्न-दाताको और आधा भाग पुण्यकर्ताको प्राप्त होता- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका सबसे बड़ा साधन है शरीर और शरीर स्थिर रहता है अन्न तथा जलसे; अतः अन्न और जल ही सब पुरुषार्थोके साधन हैं। अन्न-दानके समान दान न हुआ है न होगा। जल तीनों लोकोंका जीवन माना गया है। वह परम पवित्र, दिव्य, शुद्ध तथा सब रसोंका आश्रय है।

अन्न, पानी, घोड़ा, गौ, वस्त्र, शय्या, सूत और आसन- इन आठ वस्तुओंका दान प्रेतलोकके लिये बहुत उत्तम है। इस प्रकार दानविशेषसे मनुष्यधर्मराजके नगरमें सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। राजन्! जो लोग क्रूर कर्म करते और दान नहीं देते हैं, उन्हें नरकमें दुःसह दुःख भोगना पड़ता है। दान करके मनुष्य अनुपम सुख भोगते हैं।

जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करता है, वह भी शिवलोकको प्राप्त होता है; फिर जो अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर औरश्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव वैकुण्ठधाममें चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके समीप जाते हैं। श्रीविष्णुका उत्तम लोक श्रीशंकरजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले वैष्णव मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ करानेवाले, सुनीतियुक्त और विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्मलोकको जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियों को इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी पुण्यलोकोंमें गमन करते हैं।

Previous Page 69 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार