ययाति बोले- मातले । मर्त्यलोकके मानव बड़े भयानक पाप करते हैं; उन्हें उन कर्मोंका क्या फल
मिलता है? इस समय यही बात बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो लोग वेदोंकी निन्दा और वेदोक्त सदाचारकी गर्हणा करते हैं तथा जो अपने कुलके आचारका त्याग करके दूसरोंका आचार ग्रहण करते हैं, जो सब साधुओंको पीड़ा देते हैं, वे सब पातकी हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने इन दुष्कर्मोको पातक नाम दिया है। जो माता-पिताकी निन्दा करते, बहिनको सदा मारते और उसकी गर्हणा करते हैं, उनका यह कार्य निश्चय ही पातक है। जो श्राद्धकाल आनेपर भी काम, क्रोध अथवा भयसे, पाँच कोसके भीतर रहनेवाले दामाद, भांजे तथा बहिनको नहीं बुलाता और सदा दूसरोंको ही भोजन कराता हैं, उसके श्राद्धमें पितर अन्न ग्रहण नहीं करते, उसमें विघ्न पड़ जाता है। दामाद आदिकी उपेक्षा श्राद्धकर्ता पुरुषके लिये हत्या के समान है, उसे बहुत बड़ा पातक माना गया है। इसी प्रकार यदि दान देते समय बहुत से ब्राह्मण आ जायें तथा उनमेंसे एकको तो दान दिया जाय और दूसरोंको न दिया जाय तो यह दानके फलको नष्ट करनेवाला बहुत बड़ा पातक मानागया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रको उचित है कि वह प्रत्येक पुण्यपर्वके अवसरपर निर्धन ब्राह्मणकी पूजा करें तथा जहाँतक हो सके, उसे धनकी प्राप्ति करायें। श्राद्धके समय निमन्त्रित ब्राह्मणके अतिरिक्त यदि दूसरा कोई ब्राह्मण आ जाय तो उन दोनोंकी ही भोजन, वस्त्र, ताम्बूल और दक्षिणाके द्वारा पूजा करनी चाहिये; इससे श्राद्धकर्ताके पितरोंको बड़ा हर्ष होता है। यदि श्राद्धकर्ता धनहीन हो तो वह एककी ही पूजा कर सकता है। जो श्राद्धमें ब्राह्मणको भोजन कराकर आदरपूर्वक दक्षिणा नहीं देता, उसे गोहत्या आदिके समान पाप लगता है। महाराज! व्यतीपात और वैधृति योग आनेपर अथवा अमावास्या तिथिको या पिताकी क्षयाह-तिथि प्राप्त होनेपर अपराह्नकालमें ब्राह्मण आदि वर्णोंको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये।
विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह अपरिचित ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित न करे। अपरिचितोंमें भी यदि कोई वेद-वेदांगोंका पारगामी विद्वान् हो तो उस ब्राह्मणको श्राद्ध में निमन्त्रित करना और दान देना उचित है। राजन् ! निमन्त्रित ब्राह्मणका अपूर्व आतिथ्य सत्कार करना चाहिये। जो पापी इसके विपरीतआचरण करता है, उसे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ता है इसलिये दान, श्राद्ध तथा पर्वके अवसरपर ब्राह्मणको निमन्त्रित करना आवश्यक है। पहले ब्राह्मणकी भलीभाँति जाँच और परख कर लेनी चाहिये, उसके बाद उसे श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करना उचित है। जो बिना ब्राह्मणके श्राद्ध करता है, उसके घरमें पितर भोजन नहीं करते शाप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मणहीन श्राद्ध करनेसे मनुष्य महापापी होता है तथा ब्राह्मणघाती कहलाता है। राजन्! जो पितृकुलके आचारका परित्याग करके स्वेच्छानुसार बर्ताव करता है, उसे महापापी समझना चाहिये; वह सब धर्मोसे बहिष्कृत है। जो पापी मनुष्य शिवकी परिचर्या छोड़कर शिवभक्तोंसे द्वेष रखते हैं तथा जो ब्राह्मणोंसे द्रोह करते हुए सदा भगवान् श्रीविष्णुकी निन्दा करते हैं, वे महापापी हैं, सदाचारकी निन्दा करनेवाले पुरुषोंकी गणना भी इसी श्रेणीमें है। सर्वप्रथम उत्तम ज्ञानस्वरूप पुण्यमय भागवत
पुराणकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् विष्णुपुराण, हरिवंश, मत्स्यपुराण और कूर्मपुराणका पूजन करना उचित है जो पद्मपुराणकी पूजा करते हैं, उनके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी प्रत्यक्ष पूजा हो जाती है। जो श्रीभगवान्के ज्ञानस्वरूप पुराणकी पूजा किये बिना ही उसे पढ़ते और लिखते हैं, लोभमें आकर बेच देते हैं, अपवित्र स्थानमें मनमाने ढंगसे रख देते हैं तथा स्वयं अशुद्ध रहकर अशुद्ध स्थानमें पुराणकी कथा कहते और सुनते हैं, उनका यह सब कार्य गुरुनिन्दाके समान माना गया है। जो गुरुकी पूजा किये बिना हो उनसे शास्त्र श्रवण करना चाहता है, गुरुकी सेवा नहीं करता, उनकी विचार रखता है, उनकी बातका अभिनन्दन नहीं करता, आज्ञा भंग करनेका अपितु प्रतिवाद कर देता है, गुरुके कार्यकी, करनेयोग्य होनेपर भी उपेक्षा करता है तथा जो गुरुको पीड़ित असमर्थ, विदेशको ओर प्रस्थित और शत्रुओंद्वारा अपमानित देखकर भी उनका साथ छोड़ देता है, वह पापी तबतक कुम्भीपाक नरक में निवास करता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकीआयु पूरी नहीं हो जाती। जो स्त्री, पुत्र और मित्रोंकी अवहेलना करता है, उसके इस कार्यको भी गुरुनिन्दाके समान महान् पातक समझना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी, गुरुकी शय्यापर सोनेवाला तथा इनका सहयोगी ये पाँच प्रकारके मनुष्य महापातकी माने गये हैं जो क्रोध, द्वेष, भय अथवा लोभसे विशेषत: ब्राह्मणके मर्म आदिका उच्छेद करता है, दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मणको द्वारपर बुलाकर पीछे कोरा जवाब दे देता है, जो विद्याके अभिमानमें आकर सभामें उदासीन भावसे बैठे हुए ब्राह्मणोंको भी निस्तेज कर देता है तथा जो मिथ्या गुर्णोद्वारा अपनेको जबर्दस्ती ऊँचा सिद्ध करता है और गुरुको ही उपदेश करने लगता है-इन सबको ब्राह्मणघाती माना गया है।
जिनका शरीर भूख और प्याससे पीड़ित है, जो अन्न खाना चाहते हैं, उनके कार्यमें विघ्न खड़ा करनेवाला मनुष्य भी ब्राह्मणघाती ही है। जो चुगलखोर, सब लोगोंके दोष ढूँढनेमें तत्पर सबको उद्वेगमें डालनेवाला और क्रूर है तथा जो देवताओं, ब्राह्मणों और गौओंके निमित्त पहलेकी दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे ब्रह्मपाती कहते हैं। दूसरोंके द्वारा उपार्जित द्रव्यका और ब्राह्मणके धनका अपहरण भी ब्रह्महत्या के समान ही भारी पातक है। जो अग्निहोत्र तथा पंचयज्ञादि कर्मोंका परित्याग करके माता, पिता और गुरुका अनादर करता है, झूठी गवाही देता है, शिवभक्तोंकी बुराई और अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करता है, वनमें जाकर निरपराध प्राणियोंको मारता है तथा गोशाला, देवमन्दिर, गाँव और नगरमें आग लगाता है, उसके ये भयंकर पाप पूर्वोक्त पापके ही समान हैं।
दीनौका सर्वस्वा छीन लेना, परायी स्त्री, दूसरे के हाथी, घोड़े, गौ, पृथ्वी, चाँदी, रत्न, अनाज, रस, चन्दन, अरगजा, कपूर, कस्तूरी, मालपूआ और वस्त्रको चुरा लेना तथा परायी धरोहरको हड़प लेना-ये सब पाप सुवर्णकी चोरीके समान माने गये हैं। विवाह करनेयोग्य कन्याका योग्य वरके साथ विवाह न करना, पुत्र एवं मित्रकी भार्याओं और अपनी बहिनोंके साथ समागमकरना, कुमारी कन्याके साथ बलात्कार करना, अन्त्यज जातिकी स्त्रीका सेवन तथा सवर्णा स्त्रीके साथ सम्भोग - ये पाप गुरु-पत्नी-गमनके समान बताये गये हैं। जो ब्राह्मणको धन देनेकी प्रतिज्ञा करके न तो उसे देता है और न फिर उसको याद ही रखता है, उसका यह कार्य उपपातकोंकी श्रेणीमें रखा गया है। ब्राह्मणके धनका अपहरण, मर्यादाका उल्लंघन, अत्यन्त मान, अधिक क्रोध, दम्भ, कृतघ्नता, अत्यन्त विषयासक्ति, कृपणता, शठता, मात्सर्य, परस्त्री गमन और साध्वी कन्याको कलंकित करना; परिवित्ति *, परिवेत्ता तथा उसकी पत्नी – इनसे सम्पर्क रखना, इन्हें कन्या देना अथवा इनका यज्ञ कराना; धनके अभावमें पुत्र, मित्र और पत्नीका परित्याग करना; बिना किसी कारणके ही स्त्रीको छोड़ देना, साधु और तपस्वियोंकी उपेक्षा करना; गौ, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री तथा शूद्रोंके प्राण लेना; शिवमन्दिर, वृक्ष और फुलवाड़ीको नष्ट करना; आश्रमवासियोंको थोड़ा-सा भी कष्ट पहुँचाना, भृत्यवर्गको दुःख देना; अन्न, वस्त्र और पशुओंकी चोरी करना; जिनसे माँगना उचित नहीं है, ऐसे लोगोंसे याचना करना; यज्ञ, बगीचा, पोखरा, स्त्री और सन्तानका विक्रय करना; तीर्थयात्रा, उपवास, व्रत और शुभ कर्मोंका फल बेचना, स्त्रियोंके धनसे जीविका चलाना, स्त्रीद्वारा उपार्जित अन्नसे जीवन निर्वाह करना तथा किसीके छिपे हुए अधर्मको लोगोंके सामने खोलकर रख देना- इन सब पापोंमें जो लोग रचे-पचे रहते हैं, जो दूसरोंके दोष बताते, पराये छिद्रपर दृष्टि रखते, औरोंका धन हड़पना चाहते और परस्त्रियोंपर कुदृष्टि रखते हैं- इन सभी पापियोंको गोघातकके तुल्य समझना चाहिये।
जो मनुष्य झूठ बोलता, स्वामी, मित्र और गुरुसे द्रोह रखता, माया रचता और शठता करता है; जो स्त्री, पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, दुर्बल मनुष्य, भृत्य, अतिथि और बन्धुबान्धवोंको भूखे छोड़, अकेले भोजन कर लेता है; जो अपने तो खूब मिठाई उड़ाते और दूसरोंकोअन्न भी नहीं देते, उन सबको पृथक्-पाकी समझना चाहिये। वेदज्ञ पुरुषोंमें उनकी बड़ी निन्दा की गयी है। जो स्वयं ही नियम लेकर फिर उन्हें छोड़ देते हैं जिन्होंने दूसरोंके साथ धोखा किया है, जो मदिरा पीनेवालोंसे संसर्ग रखते और घाव एवं रोगसे पीड़ित तथा भूख-प्यास से व्याकुल गौका यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे गो-हत्यारे माने गये हैं; उन्हें नरककी यातना भोगनी पड़ती है। जो सब प्रकारके पापोंमें डूबे रहते साधु, ब्राह्मण, गुरु और गौको मारते तथा सन्मार्गमें स्थित निर्दोष स्त्रीको पीटते हैं जिनका सारा शरीर आलस्यसे व्याप्त रहता है, अतएव जो बार-बार सोया करते हैं, जो दुर्बल पशुओंको काममें लगाते, बलपूर्वक हाँकते, अधिक भार लादकर कष्ट देते और घायल होनेपर भी उन्हें जोतते रहते हैं, जो दुरात्मा मनुष्य वैलोंको बधिया करते हैं तथा गायके बछड़ोंको नाथते हैं, वे सभी महापापी हैं। उनके ये कार्य महापातकोंके तुल्य हैं।
जो भूख-प्यास और परिश्रमसे पीड़ित एवं आशा लगाकर घरपर आये हुए अतिथिका अनादर करते हैं, ये नरकगामी होते हैं जो मूर्ख, अनाथ, विकल, दीन, बालक, वृद्ध और सुधातुर व्यक्तिपर दया नहीं करते, उन्हें नरकके समुद्रमें गिरना पड़ता है। जो नीतिशास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करके प्रजासे मनमाना कर वसूल करते हैं और अकारण ही दण्ड देते हैं, उन्हें नरकमें पकाया जाता है। जिस राजाके राज्यमें प्रजा सूदखोरों, अधिकारियों और चोरोंद्वारा पीड़ित होती है, उसे नरकोंमें पकना पड़ता है। जो ब्राह्मण अन्यायी राजासे दान लेते हैं, उन्हें भी घोर नरकोंमें जाना पड़ता है। पापाचारी पुरवासियोंका पाप राजाका ही समझा जाता है। अतः राजाको उस पापसे डरकर प्रजाको शासनमें रखना चाहिये। जो राजा भलीभाँति विचार न करके, जो चोर नहीं है उसे भी चोरके समान दण्ड देता और चोरको भी साधु समझकर छोड़ देता है, वह नरकमें जाता है। जो मनुष्य दूसरोंके घी, तेल, मधु, गुड़ ईख, दूध,साग, दही, मूल, फल, घास, लकड़ी, फूल, पत्ती, काँसा, चाँदी, जूता, छाता, बैलगाड़ी, पालकी, मुलायम आसन, ताँबा, सीसा, गंगा, शंख, वंशी आदि बाजा, धरकी सामग्री, ऊन, कपास, रेशम, रंग, पत्र आदि तथा महीन वस्त्र चुराते हैं या इसी तरहके दूसरे दूसरे इल्योंका अपहरण करते हैं, वे सदा नरकमें पड़ते हैं। दूसरेकी वस्तु थोड़ी हो या बहुत-जो उसपर ममता करके उसे चुराता है, वह निस्सन्देह नरकमें गिरता है। इस तरहके पाप करनेवाले मनुष्य मृत्युके पश्चात् यमराजकी आज्ञासे यमलोकमें जाते हैं। यमराजके महाभयंकर दूत उन्हें ले जाते हैं। उस समय उनको बहुत दुःख उठाना पड़ता है। देवता, मनुष्य तथा पशु पक्षी इनमेंसे जो भी अधर्ममें मन लगाते हैं, उनके शासक धर्मराज माने गये हैं। वे भाँति-भाँतिके भयानक दण्ड देकर पापका भोग कराते हैं। विनय और सदाचारसे युक्त मनुष्य यदि भूलसे मलिन आचारमें लिप्त हो जायँ तो उनके लिये गुरु ही शासक माने गये हैं; वे कोई प्रायश्चित्त कराकर उनके पाप धो सकते हैं। ऐसे लोगोंको यमराजके पास नहीं जाना पड़ता परस्त्रीलम्पट, चोर तथा अन्यायपूर्ण बर्ताव करनेवाले पुरुषोंपर राजाका शासन होता है-राजा ही उनके दण्ड-विधाता माने गये हैं; परन्तु जो पाप छिपकर किये जाते हैं, उनके लिये धर्मराज हो दण्डका निर्णय करते हैं। इसलिये अपने किये हुए पापोंके लिये प्रायश्चित करना चाहिये। अन्यथा वे करोड़ों कल्पोंमें भी [फल भोग कराये बिना] नष्ट नहीं होते। मनुष्य मन, वाणी तथा शरीरसे जो कर्म करता है, उसका फल उसे स्वयं भोगना पड़ता है; कमोंके अनुसार उसकी सद्गति या अधोगति होती है। राजन्! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने तुम्हें पापके भेद बताये हैं; बोलो, अब और क्या सुनाऊँ ? ययातिने कहा – मातले। अधर्मके सारे फलका वर्णन तो मैंने सुन लिया; अब धर्मका फल बताओ। मातलिने कहा- राजन्! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको जूता और खड़ाऊँ दान करता है, वह बहुत बड़े विमानपर बैठकर सुखसे परलोककी यात्रा करता है,वस्त्र दान करनेवाले मनुष्य दिव्य वस्त्र धारण करके परलोकमें जाते हैं। पालकी दान करनेसे भी जीव विमानद्वारा सुखपूर्वक यात्रा करता है। सुखासन (गद्दे, कुर्सी आदि) के दानसे भी वह सुखपूर्वक जाता है। बगीचा लगानेवाला पुरुष शीतल छायामें सुखसे परलोककी यात्रा करता है। फूल-माला दान करनेवाले पुरुष पुष्पक विमानसे जाते हैं। जो देवताओंके लिये मन्दिर, संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथों और रोगियोंके लिये घर बनवाते हैं वे परलोकमें उत्तम महलोंके भीतर रहकर विहार करते हैं। जो देवता, अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, माता और पिताकी पूजा करता है तथा गुणवानों और दीनोंको रहनेके लिये घर देता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। राजन्! जिसने श्रद्धाके साथ ब्राह्मणको एक कौड़ीका भी दान किया है, वह स्वर्गलोक में देवताओंका अतिथि होता है तथा उसकी कीर्ति बढ़ती है। अतः श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये। उसका फल अवश्य होता है।
अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इन्द्रिय संयम, दान, यज्ञ, ध्यान [और ज्ञान] ये धर्मके दस साधन हैं। अन्न देनेवालेको प्राणदाता कहा गया है और जो प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः अन्न-दान करनेसे सब दानोंका फल मिल जाता है। अन्नसे पुष्ट होकर ही मनुष्य पुण्यका संचय करता है; अतः पुण्यका आधा अंश अन्न-दाताको और आधा भाग पुण्यकर्ताको प्राप्त होता- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका सबसे बड़ा साधन है शरीर और शरीर स्थिर रहता है अन्न तथा जलसे; अतः अन्न और जल ही सब पुरुषार्थोके साधन हैं। अन्न-दानके समान दान न हुआ है न होगा। जल तीनों लोकोंका जीवन माना गया है। वह परम पवित्र, दिव्य, शुद्ध तथा सब रसोंका आश्रय है।
अन्न, पानी, घोड़ा, गौ, वस्त्र, शय्या, सूत और आसन- इन आठ वस्तुओंका दान प्रेतलोकके लिये बहुत उत्तम है। इस प्रकार दानविशेषसे मनुष्यधर्मराजके नगरमें सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। राजन्! जो लोग क्रूर कर्म करते और दान नहीं देते हैं, उन्हें नरकमें दुःसह दुःख भोगना पड़ता है। दान करके मनुष्य अनुपम सुख भोगते हैं।
जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करता है, वह भी शिवलोकको प्राप्त होता है; फिर जो अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर औरश्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव वैकुण्ठधाममें चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके समीप जाते हैं। श्रीविष्णुका उत्तम लोक श्रीशंकरजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले वैष्णव मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ करानेवाले, सुनीतियुक्त और विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्मलोकको जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियों को इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी पुण्यलोकोंमें गमन करते हैं।