तदनन्तर जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाली गिरिराज हिमालयकी पत्नी मेनाने परम सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें एक कन्याको जन्म दिया। उसके जन्म लेते ही समस्त लोकोंमें निवास करनेवाले स्थावर जंगम - सभी प्राणी सुखी हो गये। आकाशमें भगवान् श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, वायु और अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर बैठकर हिमालय पर्वतके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। गन्धर्व गाने लगे। उस समय संसारमें हिमालय पर्वत समस्त चराचर भूतोंके लिये सेव्य तथा आश्रय लेनेके योग्य हो गया-सब लोग वहाँ निवास और वहाँकी यात्रा करने लगे। उत्सवका आनन्द ले देवता अपने-अपने स्थानको चले गये। गिरिराजकुमारी उमाको रूप, सौभाग्य और ज्ञान आदि गुणोंने विभूषित किया। इस प्रकार वह तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी और समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न हो गयी। इसी बीचमें कार्य-साधन परायण देवराज इन्द्रने देवताओंद्वारा सम्मानित देवर्षि नारदका स्मरण किया। इन्द्रका अभिप्राय जानकर देवर्षि नारद बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके भवनमें आये। उन्हें देखकर इन्द्र सिंहासनसे उठ खड़े हुए और यथायोग्य पाद्य आदिके द्वारा उन्होंने नारदजीका पूजन किया। फिर नारदजीने जब उनकी कुशल पूछी तो इन्द्रने कहा - 'मुने! त्रिभुवनमें हमारी कुशलका अंकुर तो जम चुका है, अब उसमें फल लगनेका साधन उपस्थित करनेके लिये मैंने आपकी याद की है। ये सारी बातें आप जानते ही हैं; फिर भी आपने प्रश्न किया है इसलिये मैं बता रहा हूँ। विशेषतः अपने सुहृदोंके निकट अपना प्रयोजन बताकर प्रत्येक पुरुष बड़ी शान्तिका अनुभव करता है। अतः जिस प्रकारभी पार्वतीदेवीका पिनाकधारी भगवान् शंकरके साथ संयोग हो, उसके लिये हमारे पक्षके सब लोगोंको शीघ्र उद्योग करना चाहिये।'
इन्द्रसे उनका सारा कार्य समझ लेनेके पश्चात् नारदजीने उनसे विदा ली और शीघ्र ही गिरिराज हिमालयके भवनके लिये प्रस्थान किया। गिरिराजके द्वारपर, जो विचित्र बैतकी लताओंसे हरा-भरा था, पहुँचनेपर हिमवान्ने पहले ही बाहर निकलकर मुनिको प्रणाम किया। उनका भवन पृथ्वीका भूषण था। उसमें प्रवेश करके अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारदजी एक बहुमूल्य आसनपर विराजमान हुए। फिर हिमवान्ने उन्हें यथायोग्य अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया और बड़ी मधुर वाणीमें नारदजीके तपकी कुशल पूछी। उस समय गिरिराजका मुखकमल प्रफुल्लित हो रहा था। मुनिने भी गिरिराजकी कुशल पूछते हुए कहा- 'पर्वतराज! तुम्हारा कलेवर अद्भुत है। तुम्हारा स्थान धर्मानुष्ठानके लिये बहुत ही उपयोगी है। तुम्हारी कन्दराओंका विस्तार विशाल है। इन कन्दराओंमें अनेकों पावन एवं तपस्वी पुनियाने आश्रय ले तुम्हें पवित्र बनाया है। गिरिराज!तुम धन्य हो, जिसकी गुफामें लोकनाथ भगवान् शंकर शान्तिपूर्वक ध्यान लगाये बैठे रहते हैं।'
पुलस्त्यजी कहते हैं— देवर्षि नारदकी यह बात समाप्त होनेपर गिरिराज हिमालयको रानी मेना मुनिका दर्शन करनेकी इच्छासे उस भवनमें आयीं। वे लज्जा और प्रेमके भारसे झुकी हुई थीं। उनके पीछे-पीछे उनकी कन्या भी आ रही थी। देवर्षि नारद तेजकी राशि जान पड़ते थे, उन्हें देखकर शैलपत्नीने प्रणाम किया। उस समय उनका मुख अंचलसे ढका था और कमलके समान शोभा पानेवाले दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अमिततेजस्वी देवर्षिने महाभागा मेनाको देखकर अपने अमृतमय आशीर्वादोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उस समय गिरिराजकुमारी उमा अद्भुत रूपवाले नारद मुनिकी ओर चकित चित्तसे देख रही थी देवर्षिने स्नेहमयी वाणीमें कहा- 'बेटी! यहाँ आओ।' उनके इस प्रकार बुलानेपर उमा पिताके गलेमें बाँहें डालकर उनकी गोदमें बैठ गयी। तब उसकी माताने कहा- 'बेटी! देवर्षिको प्रणाम करो' उमाने ऐसा ही किया। उसके प्रणाम कर लेनेपर माताने कौतूहलवश पुत्रीके शारीरिक लक्षणोंको जानने के लिये अपनी सखीके मुँहसे धीरेसे कहलाया- 'मुने! इस कन्याके सौभाग्यसूचक चिह्नोंको देखनेकी कृपा करें।' मेनाकी सखीसे प्रेरित होकर महाभाग मुनिवर नारदजी मुसकराते हुए बोले- 'भद्रे ! इस कन्याके पतिका जन्म नहीं हुआ है, यह लक्षणोंसे रहित है। इसका एक हाथ सदा उत्तान (सीधा ) रहेगा। इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; किन्तु उनकी कान्ति बड़ी सुन्दर होगी। यही इसका भविष्यफल है।'
नारदजीकी यह बात सुनकर हिमवान् भयसे घबरा उठे, उनका धैर्य जाता रहा, वे आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठसे बोले-'अत्यन्त दोषोंसे भरे हुए संसारकी गति दुर्विज्ञेय है-उसका ज्ञान होना कठिन है। शास्त्रकारोंने शास्त्रोंमें पुत्रको नरकसे त्राण देनेवाला बनाकर सदा पुत्रप्राप्तिकी ही प्रशंसा की है; किन्तु यह बात प्राणियोंको मोहमें डालनेके लिये है। क्योंकि स्त्रीके बिना किसी जीवकी सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु स्त्री जातिस्वभावसे ही दीन एवं दयनीय है। शास्त्रोंमें यह महान् फलदायक वचन अनेकों बार निःसन्देहरूपसे दुहराया गया है कि शुभलक्षणोंसे सम्पन्न सुशीला कन्या दस पुत्रोंके समान है। किन्तु आपने मेरी कन्याके शरीर में केवल दोषोंका ही संग्रह बताया है। ओह! यह सुनकर मुझपर मोह छा गया है, मैं सूख गया हूँ, मुझे बड़ी भारी ग्लानि और विषाद हो रहा है। मुने! मुझपर अनुग्रह करके इस कन्यासम्बन्धी दुःखका निवारण कीजिये। देवर्षे ! आपने कहा है कि इसके पतिका जन्म ही नहीं हुआ है।' यह ऐसा दुर्भाग्य है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। यह अपार और दुःसह दुःख है। हाथों और पैरोंमें जो रेखाएँ बनी होती हैं, वे मनुष्य अथवा देवजातिके लोगोंको शुभ और अशुभ फलकी सूचना देनेवाली हैं; सो आपने इसे लक्षणहीन बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि 'इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा। परन्तु उत्तान हाथ तो सदा याचकोंका ही होता है-वे ही सबके सामने हाथ फैलाकर माँगते देखे जाते हैं। जिनके शुभका उदय हुआ है, जो धन्य तथा दानशील हैं, उनका हाथ उत्तान नहीं देखा जाता। आपने इसकी उत्तम कान्ति बतानेके साथ ही यह भी कहा है कि इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; अतः मुने! उस चिह्नसे भी मुझे कल्याणकी आशा नहीं जान पड़ती।'
नारदजी बोले - गिरिराज! तुम तो अपार हर्षके स्थानमें दुःखकी बात कर रहे हो। अब मेरी यह बात सुनो। मैंने पहले जो कुछ कहा था, वह रहस्यपूर्ण था। इस समय उसका स्पष्टीकरण करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो। हिमाचल ! मैंने जो कहा था कि इस देवीके पतिका जन्म नहीं हुआ है, सो ठीक ही है। इसके पति महादेवजी हैं। उनका वास्तवमें जन्म नहीं हुआ है-वे अजन्मा हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान जगत्की उत्पत्तिके कारण ये ही हैं। वे सबको शरण देनेवाले एवं शासक, सनातन, कल्याणकारी और परमेश्वर हैं। यह ब्रह्माण्ड उन्हींके संकल्पसे उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माजीसे लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार है, वह जन्म, मृत्यु आदिके दुःखसे पीड़ित होकर निरन्तर परिवर्तित होतारहता है। किन्तु महादेवजी अचल और स्थिर हैं। जात नहीं, जनक हैं- पुत्र नहीं, पिता हैं उनपर बुढ़ापेका आक्रमण नहीं होता। वे जगत्के स्वामी और आधि-व्याधिसे रहित हैं। इसके सिवा जो मैंने तुम्हारी कन्याको लक्षणोंसे रहित बताया है, उस वाक्पका ठीक-ठीक विचारपूर्ण तात्पर्य सुनो शरीरके अवयवोंमें । जो चिह्न या रेखाएँ होती हैं, वे सीमित आयु, धन और सौभाग्यको व्यक्त करनेवाली होती हैं; परन्तु जो अनन्त और अप्रमेय है, उसके अमित सौभाग्यको सूचित करनेवाला कोई चिह्न या लक्षण शरीरमें नहीं होता। महामते। इसीसे मैंने बतलाया है कि इसके शरीरमें कोई लक्षण नहीं है। इसके अतिरिक्त जो यह कहा गया है कि इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा, उसका आशय यह है-वर देनेवाला हाथ उत्तान होता है देवीका यह हाथ वरद मुद्रासे युक्त होगा। यह देवता, असुर और मुनियोंके समुदायको वर देनेवाली होगी तथा जो मैंने इसके चरणोंको उत्तम कान्ति और व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त बताया है, उसकी व्याख्या भी मेरे मुँह से सुनो- 'गिरिश्रेष्ठ! इस कन्याके चरण कमलके समान अरुण रंगके हैं। इनपर नखोंकी उज्ज्वल कान्ति पड़नेसे स्वच्छता (श्वेत कान्ति) आ गयी है। देवता और असुर जब इसे प्रणाम करेंगे, तब उनके किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी कान्ति इसके चरणों में प्रतिबिम्बित होगी। उस समय ये चरण अपना स्वाभाविक रंग छोड़कर विचित्र रंगके दिखायी देंगे। उनके इस परिवर्तन और विचित्रताको ही व्यभिचार कहा गया है [अत: तुम्हें कोई विपरीत आशंका नहीं करनी चाहिये]। महीधर! यह जगत्का भरण-पोषण करनेवाले वृषभध्वज महादेवजीकी पत्नी है यह सम्पूर्ण लोकोंकी जननी तथा भूतोंको उत्पन्न करनेवाली है। इसकी कान्ति परम पवित्र है। यह साक्षात् शिवा है और तुम्हारे कुलको पवित्र करनेके लिये ही इसने तुम्हारी पत्नीके गर्भ से जन्म लिया है। अतः जिस प्रकार यह शीघ्र ही पिनाकधारी भगवान् शंकरका संयोग प्राप्त करे, उसी उपायका तुम्हें विधिपूर्वक अनुष्ठान चाहिये। ऐसा करनेसे देवताओंका एक महान् कार्य सिद्ध होगा।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्। नारदजीके मुँहसे ये सारी बातें सुनकर मैनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने अपना नया जन्म हुआ माना। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर बोले- 'प्रभो! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा उद्धार कर दिया। मुने! आप जैसे संतोंका दर्शन निश्चय ही अमोघ फल देनेवाला होता है। इसलिये इस कार्य में मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धमें आप समय-समयपर योग्य आदेश देते रहें [ जिससे यह कार्य निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो सके] ।'
गिरिराजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर बोले- 'शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें तुम्हारा भी महान् लाभ है।' यों कहकर नारदजी देवलोकमें जाकर इन्द्रसे मिले और बोले- 'देवराज । आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया; किन्तु अब कामदेवके बाणसे सिद्ध होने योग्य कार्य उपस्थित हुआ है।' कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मंजरीको ही अस्त्रके रूपमें प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा 'रतिवल्लभ! तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो संकल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके मनकी बात जानते हो। स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो। मनोभव! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् शंकरका शीघ्र संयोग कराओ। इस मधुमास चैत्रको भी साथ लेते जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे सहायता लो।'
कामदेव बोला- देव! यह सामग्री मुनियों और दानवोंके लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान् शंकरको वशमें करना कठिन है।
इन्द्रने कहा – 'रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं जानता हूँ, तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है।'
मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरंत ही हिमालयके इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा शिखरपर गया। वहाँ पहुँचकर उसने कार्यके उपायकाविचार करते हुए सोचा कि 'महात्मा पुरुष निष्कम्प अविचल होते हैं। उनके मनको वशमें करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय समुदायको व्याप्त कर रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करूँगा।' यह सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया। वह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी। कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा रहा था, धीरे-धीरे आगे बढ़कर देखा भगवान् शंकर ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्ध-विकसित कमलदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है। शरीरपर उत्तरीयके रूपमें अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म लटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सर्पोंके फनसे निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिंगल वर्णका हो रहा है हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी जटाएँ उनके कपोल-प्रान्तका चुम्बन कर रही हैं। वासुकि नागका यज्ञोपवीत धारण करनेसे उनकी नाभिके मूल भागमें वासुकिका मुख और पूँछ सटे हुए दिखायी देते हैं। वे अंजलि बाँधे ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे हैं और सपके आभूषण धारण किये हुए हैं।
तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार करते हुए कामदेवने भगवान् शंकरके कानमें होकर हृदयमें प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर झंकार सुनकर शंकरजीके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत् हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका स्मरण किया। तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी निर्मल समाधि भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही लक्ष्य स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें उपस्थित सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विघ्नने उनके अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वरशिव क्षणभरके लिये कामजनित विकारको प्राप्त हो गये। किन्तु यह अवस्था अधिक देरतक न रही, कामदेवका कुचक्र समझकर उनके हृदयमें कुछ क्रोधका संचार हो आया। उन्होंने धैर्यका आश्रय लेकर कामदेवके प्रभावको दूर किया और स्वयं योगमायासे आवृत होकर दृढ़तापूर्वक समाधिमें स्थित हो गये।
उस योगमायासे आविष्ट होनेपर कामदेव जलने लगा, अतः वह वासनामय व्यसनका रूप धारण करके उनके हृदयसे बाहर निकल आया बाहर आकर वह एक स्थानपर खड़ा हुआ। उस समय उसकी सहायिका रति और सखा वसन्त- इन दोनोंने भी उसका अनुसरण किया। फिर मदनने आमकी मौरका मनोहर गुच्छ लेकर उसमें मोहनास्त्रका आधान किया और उसे अपने पुष्पमय धनुषपर रखकर तुरंत ही महादेवजीकी छाती में मारा । इन्द्रियोंके समुदायरूप हृदयके बिंध जानेपर
भगवान् शिवने कामदेवकी ओर दृष्टिपात किया। फिर तो उनका मुख क्रोधके आवेगसे निकलते हुए घोर हुंकारके कारण अत्यन्त भयानक हो उठा। उनके तीसरे नेत्रमें आगकी ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। रौद्र शरीरधारीभगवान् रुद्रका वह नेत्र ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, मानो संसारका संहार करनेके लिये खुला हो । मदन पास ही खड़ा था। महादेवजीने उस नेत्रको फैलाकर मदनको ही उसका लक्ष्य बनाया। देवतालोग 'त्राहि-त्राहि' कहकर चिल्लाते ही रह गये और मदन उस नेत्रसे निकली हुई चिनगारियोंमें पड़कर भस्म हो गया। कामदेवको दग्ध करके वह आग समस्त जगत्को जलानेके लिये बढ़ने लगी। यह जानकर भगवान् शिवने उस कामाग्निको आमके वृक्ष, वसन्त, चन्द्रमा, पुष्पसमूह, भ्रमर तथा कोयलके मुखमें बाँट दिया। महादेवजी बाहर और भीतर भी कामदेवके बाणोंसे विद्ध थे, इसलिये उपर्युक्त स्थानोंमें उस अग्निका विभाग करके वे उनमेंसे प्रत्येकको प्रज्वलित कामाग्निके ही रूपमें देखने लगे। वह कामाग्नि सम्पूर्ण लोकको क्षोभमें डालनेवाली है; उसके प्रसारको रोकना कठिन होता है।
कामदेवको भगवान् शिवके हुंकारकी ज्वालासे भस्म हुआ देख रति उसके सखा वसन्तके साथ जोर-जोरसे रोने लगी। फिर वह त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें गयी और धरतीपर घुटने टेककर स्तुति करने लगी। रति बोली- जो सबके मन हैं, यह जगत् जिनका
स्वरूप है और जो अद्भुत मार्गसे चलनेवाले हैं, उन कल्याणमय शिवको नमस्कार है। जो सबको शरण देनेवाले तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है। नाना लोकोंमें समृद्धिका विस्तार करनेवाले शिवको नमस्कार है। भक्तोंको मनोवांछित वस्तु देनेवाले महादेवजीको प्रणाम है। कर्मोंको उत्पन्न करनेवाले महेश्वरको नमस्कार है। प्रभो! आपका स्वरूप अनन्त है; आपको सदा ही नमस्कार है। देव! आप ललाटमें चन्द्रमाका चिह्न धारण करते हैं; आपको नमस्कार है। आपकी लीलाएँ असीम हैं। उनके द्वारा आपकी उत्तम स्तुति होती रहती है वृषभराज नन्दी आपका वाहन है। आप दानवोंके दोनों पुरोका अन्त करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और नाना प्रकारके रूप धारण किया करते हैं आपकोनमस्कार है। कालस्वरूप आपको नमस्कार है। कलसंख्यरूप आपको नमस्कार है तथा काल और कल दोनोंसे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप चराचर प्राणियोंके आचारका विचार करनेवालों में सबसे बड़े आचार्य हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपके ही संकल्पसे हुई हैं। आपके ललाटमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। मैं अपने प्रियतमकी प्राप्तिके लिये सहसा आप महेश्वरकी शरण में आयी हूँ। भगवन्! मेरी कामनाको पूर्ण करनेवाले और यशको बढ़ानेवाले मेरे पतिको मुझे दे दीजिये। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। पुरुषेश्वर! प्रियाके लिये प्रियतम ही नित्य सेव्य है, उससे बढ़कर संसारमें दूसरा कौन है। आप सबके प्रभु, प्रभावशाली तथा प्रिय वस्तुओंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आप ही इस भुवनके स्वामी और रक्षक हैं। आप परम दयालु और भक्तोंका भय दूर करनेवाले हैं। पुलस्त्यजी कहते हैं— कामदेवकी पत्नी रतिके इस प्रकार स्तुति करनेपर मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले भगवान् शंकर उसकी ओर देखकर मधुर वाणीमें बोले— 'सुन्दरी! समय आनेपर यह कामदेव शीघ्र ही उत्पन्न होगा। संसारमें इसको अनंगके नामसे प्रसिद्धि होगी। भगवान् शिवके ऐसा
कहनेपर कामवल्लभा रति उनके चरणोंमें मस्तक
झुकाकर हिमालयके दूसरे उपवनमें चली गयी।
उधर नारदजीके कथनानुसार हिमवान् अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके उसकी दो सखियोंके साथ भगवान् शंकरके समीप ले आ रहे थे। मार्ग में रतिके मुखसे मदन दहनका समाचार सुनकर उनके मनमें कुछ भय हुआ। उन्होंने कन्याको लेकर अपनी पुरीमें लौट जानेका विचार किया। यह देख संकोचशीला पार्वतीने अपनी सखियोंके मुखसे पिताको कहलाया 'तपस्यासे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। तप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। संसारमें तपस्या जैसे साधनके रहते लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार ढोते ग
हैं। अतः अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छासे मैं तपस्या ही करूंगी।' यह सुनकर हिमवान्नेकहा- 'बेटी । 'उ' 'मा' - ऐसा न करो। तुम अभी चपल बालिका हो। तुम्हारा शरीर तपस्याका कष्ट सहन करनेमें समर्थ नहीं है। बाले! जो बात होनेवाली होती है, वह होकर ही रहती है। इसलिये तुम्हें तपस्या करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अब घरको हो चलूँगा और वहीं इस कार्यकी सिद्धिके लिये कोई उपाय सोचूँगा।' पिताके ऐसा कहनेपर भी जब पार्वती घर जानेको तैयार नहीं हुई, तब हिमवान्ने मन-ही-मन अपनी पुत्रीके दृढ़ निश्चयकी प्रशंसा की। इसी समय आकाशमें दिव्य वाणी प्रकट हुई, जो तीनों लोकोंमें सुनायी पड़ी। वह इस प्रकार थी- गिरिराज! तुमने 'उ' 'मा' कहकर अपनी पुत्रीको तपस्या करनेसे रोका है; इसलिये संसारमें इसका नाम उमा होगा। यह मूर्तिमती सिद्धि है। अपनी अभिलषित वस्तुको अवश्य प्राप्त करेगी।' यह आकाशवाणी सुनकर हिमवान्ने पुत्रीको तप करनेकी आज्ञा दे दी और स्वयं अपने भवनको चले गये।
पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ हिमालयके उस प्रदेशमें गयी, जहाँ देवताओंका भी पहुँचना कठिन था वहाँका शिखर परम पवित्र और नाना प्रकारकी धातुओंसे विभूषित था। सब ओर दिव्य पुष्प और लताएँ फैली थीं, वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे वहाँ पार्वतीने अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर दिव्य वल्कल धारण कर लिये कटिमें कुशोंकी मेखला पहन ली। वह प्रतिदिन तीन बार स्नान करती और गुलाब के फूल चबाकर रह जाती थी। इस प्रकार उसने सौ वर्षोंतक तपस्या की। तत्पश्चात् सौ वर्षोंतक हिमवान् कुमारी प्रतिदिन एक पत्ता खाकर रही। तदनन्तर पुनः सौ वर्षोंतक उसने आहारका सर्वथा परित्याग कर दिया। इस तरह वह तपस्याकी निधि बन गयी। उसके तपकी आँचसे समस्त प्राणी उद्विग्न हो उठे। तब इन्द्रने सप्तर्षियोंका स्मरण किया। वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ एक ही समय वहाँ उपस्थित हुए। इन्द्रने उनका स्वागत सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने अपने बुलाये जानेका प्रयोजन पूछा तब इन्द्रने कहा-महात्माओ! आपलोगोंके आवाहनका प्रयोजन सुनिये। हिमालयपरपार्वतीदेवी घोर तपस्या कर रही हैं आपलोग संसारके हितके लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ जाकर उन्हें अभिमत वस्तुकी प्राप्तिका विश्वास दिला तपस्या बंद करा दीजिये।' 'बहुत अच्छा!' कहकर सप्तर्षिगण उस सिद्धसेवित शैलपर आये और पार्वतीदेवीसे मधुर वाणीमें बोले-'बेटी तुम किस उद्देश्यसे यहाँ तप कर रही हो?' पार्वतीदेवीने मुनियोंके गौरवका ध्यान रखकर आदरपूर्वक कहा-'महात्माओ आपलोग समस्त प्राणियों के मनोरथको जानते हैं। प्रायः सभी देहधारी ऐसी ही वस्तुकी अभिलाषा करते हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ होती है। मैं भगवान् शंकरको पतिरूपमें प्राप्त करनेका उद्योग कर रही हूँ। वे स्वभावसे ही दुराराध्य हैं। देवता और असुर भी जिनके स्वरूपको निश्चित रूपसे नहीं जानते, जो पारमार्थिक क्रियाओंके एकमात्र आधार हैं, जिन वीतराग महात्माने कामदेवको जलाकर भस्म कर डाला है, ऐसे महामहिम शिवको मेरी जैसी तुच्छ अबला किस प्रकार आराधनाद्वारा प्रसन्न कर सकती है।'
पार्वतीके यों कहनेपर मुनियोंने उनके मनकी दृढ़ता जाननेके लिये कहा - 'बेटी! संसारमें दो तरहका सुख देखा जाता है- एक तो वह है, जिसका शरीरसे सम्बन्ध होता है और दूसरा वह, जो मनको शान्ति एवं आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। यदि तुम अपने शरीर के लिये नित्य सुखकी इच्छा करती हो तो तुम्हें घृणित वेषमें रहनेवाले भूत-प्रेतोंके संगी महादेवसे वह सुख कैसे मिल सकता है। अरी वे फुफकारते हुए भयंकर भुजंगोंको आभूषणरूपमें धारण करते हैं, श्मशानभूमिमें रहते हैं और रौद्ररूपधारी प्रमथगण सदा उनके साथ लगे रहते हैं। उनसे तो लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु कहीं अच्छे हैं। वे इस जगत्के पालक हैं। उनके स्वरूपका कहीं ओर-छोर नहीं है तथा वे यज्ञभोगी देवताओंके स्वामी हैं। तुम उन्हें पानेकी इच्छा क्यों नहीं करतीं? अथवा दूसरे किसी देवताको पानेसे भी तुम्हें मानसिक सुखकी प्राप्ति हो सकती है। जिस वरको तुम चाहती हो, उसके पानेमें ही बहुत क्लेश है; यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गया तो वह निष्फल वृक्षके समान है-उससे तुम्हेंसुख नहीं मिल सकता।' उन श्रेष्ठ मुनियोंके ऐसा कहनेपर पार्वतीदेवी कुपित हो उठीं, उनके ओठ फड़कने लगे और वे क्रोधसे लाल आँखें करके बोलीं- 'महर्षियो! दुराग्रहीके लिये कौन-सी नीति है। जिनकी समझ उलटी है, उन्हें आजतक किसने राहपर लगाया है। मुझे भी ऐसी ही जानिये। अतः मेरे विषय में अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप सब लोग प्रजापतिके समान हैं, सब कुछ देखने और समझनेवाले हैं; फिर भी यह निश्चय है कि आप उन जगत्प्रभु सनातन देव भगवान् शंकरको नहीं जानते। वे अजन्मा, ईश्वर और अव्यक्त हैं। उनकी महिमाका माप-तौल नहीं है। उनके अलौकिक कर्मोंका उत्तम रहस्य समझना तो दूर रहा, उनके स्वरूपका बोध भी आवृत है। श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी उन्हें यथार्थरूपसे नहीं जानते। ब्रह्मर्षियो! उनका आत्म-वैभव समस्त भुवनोंमें फैला हुआ है, सम्पूर्ण प्राणियोंके सामने प्रकट है; क्या उसे भी आपलोग नहीं जानते ? बताइये तो, यह आकाश किसका स्वरूप है? यह अग्नि, यह वायु किसकी मूर्ति हैं? पृथ्वी और जल किसके विग्रह हैं ? तथा ये चन्द्रमा और सूर्य किसके नेत्र हैं?'
पार्वतीदेवीकी बात सुनकर सप्तर्षिगण वहाँसे उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शिव विराजमान थे। उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भगवान्से कहा - 'स्वर्गके अधीश्वर महादेव! आप दयालु देवता हैं। गिरिराज हिमालयकी पुत्री आपके लिये तपस्या कर रही है। हमलोग उसका मनोरथ जानकर आपके पास आये हैं। आप योगमाया, महिमा और गुणोंके आश्रय हैं। आपको अपने निर्मल ऐश्वर्यपर गर्व नहीं है। शरीरधारियोंमें हमलोग अधिक पुण्यवान् हैं जो कि ऐसे महिमाशाली आपका दर्शन कर रहे हैं।' ऋषियोंके रमणीय एवं हितकर वचन सुनकर वागीश्वरोंमें श्रेष्ठ भगवान् शंकर मुसकराते हुए बोले- 'मुनिवरो! मैं जानता हूँ लोक न रक्षाकी दृष्टिसे वास्तवमें यह कार्य बहुत उत्तम है; म्हें किन्तु इस विषयमें मुझे हिमवान् पर्वतसे ही आशंकाहै- शायद वे मेरे साथ अपनी कन्याके विवाहकी बात स्वीकार न करें। इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग कार्यसिद्धिके लिये उद्यत होते हैं, वे सभी उत्कण्ठित रहा करते हैं। उत्कण्ठा होनेपर बड़े-बड़े महात्माओंके चित्तमें भी उतावली पड़ जाती है। तथापि विशिष्ट व्यक्तियोंको लोक मर्यादाका अनुसरण करना ही चाहिये। क्योंकि इससे धर्मकी वृद्धि होती है और परवर्ती लोगोंके लिये भी आदर्श उपस्थित होता है।'
भगवान् के ऐसा कहनेपर सप्तर्षिगण तुरंत हिमालयके भवनमें गये। वहाँ हिमवान्ने बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया। उससे प्रसन्न होकर वे मुनिश्रेष्ठ उतावलीके कारण संक्षेपसे बोले-'गिरिराज तुम्हारी पुत्रीके लिये साक्षात् पिनाकधारी भगवान् शंकर तुमसे याचना करते हैं। अत: तुम अपनी पुत्री भगवान् श्रीशंकरको समर्पित करके अपनेको पावन बनाओ। यह देवताओंका कार्य है। जगत्का उद्धार करनेके लिये ही यह उद्योग किया जा रहा है।' उनके ऐसा कहनेपर हिमवान् आनन्द विभोर हो गये। तब वे हिमवान्को साथ ले पार्वतीके आश्रमपर गये। उमा तपस्याके कारण तेजोमयी दिखायी दे रही थी उसने अपने तेजसे सूर्य और अग्निकी ज्वालाको भी परास्त कर दिया था। मुनियोंने जब स्नेहपूर्वक उसका मनोगत भाव पूछा तो उस मानिनीने यह सारगर्भित वचन कहा- 'मैं पिनाकधारी भगवान् रुद्रके सिवा दूसरे किसीको नहीं चाहती। वे ही छोटे बड़े सब प्राणियों में [आत्मारूपसे] स्थित हैं, वे ही सबको समृद्धि प्रदान करनेवाले हैं। धीरता और ऐश्वर्य आदि गुण उन्होंमें शोभा पाते हैं; वे तुलनारहित महान् प्रमाण हैं, उनके सिवा दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। यह सारा जगत् उन्हींसे उत्पन्न होता है। जिनका ऐश्वर्य आदि, अन्तसे रहित है, उन्हीं भगवान् शंकरकी शरणमें मैं आयी हूँ।'
पार्वतीदेवीके ये वचन सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए उनके नेत्रोंमें आनन्द के आँसू उमड़ आये और उन्होंने तपस्विनी गिरिजाको प्रशंसा करते हुए मधुर वाणीमें कहा-'अहो ! बड़ी अद्भुत बात है। बेटी!तुम निर्मल ज्ञानकी मूर्ति सी जान पड़ती हो और श्रीशंकरजीमें दृढ़ अनुराग रखनेके कारण हमारे अन्तःकरणको अत्यन्त प्रसन्न कर रही हो। हम भगवान् शिवके अद्भुत ऐश्वर्यको जानते हैं, केवल तुम्हारे निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये थे अब तुम्हारी यह कामना शीघ्र ही पूरी होगी अपने इस मनोहर रूपको | तपस्याकी आगमें न जलाओ। कल प्रातःकाल भगवान् शंकर स्वयं आकर तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। हमलोग पहले आकर तुम्हारे पिताजीसे भी प्रार्थना कर चुके हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर जाओ, हम भी अपने आश्रमको जाते हैं।' उनके इस प्रकार कहने पर पार्वती यह सोचकर कि तपस्याका यथार्थ फल प्राप्त हो गया, तुरंत ही पिताके शोभासम्पन्न दिव्य भवनमें चली गयीं। वहाँ जानेपर गिरिजाके हृदयमें भगवान् शंकरके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग्रत हुई। अतः उसे वह रात एक हजार वर्षोंके समान जान पड़ी। तदनन्तर ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर सखियोंने पार्वतीका मांगलिक कार्य करना आरम्भ किया। क्रमशः नाना प्रकारके मंगल विधान यथार्थरूपसे सम्पन्न किये गये। सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गिरिराज हिमालयकी उपासना करने लगीं। सुखदायिनी वायु झाड़ने बुहारनेके काममें लगी थी। चिन्तामणि आदि रत्न, तरह-तरहकी लताएँ तथा कल्पतरु आदि बड़े-बड़े वृक्ष भी वहाँ सब ओर उपस्थित थे। दिव्य ओषधियोंके साथ साधारण ओषधियाँ भी दिव्य देह धारण करके सेवामें संलग्न थीं। रस और धातुएँ भी वहाँ दास-दासीका काम करती थीं। नदियाँ, समुद्र तथा स्थावर-जंगम सभी प्राणी मूर्तिमान् होकर हिमवान्की महिमा बढ़ा रहे थे।
दूसरी ओर निर्मल शरीरवाले देवता, मुनि, नाग, यक्ष, गन्धर्व और किन्नरगण श्रीशंकरजीके श्रृंगारकी सारी सामग्री सजाये गन्धमादन पर्वतपर उपस्थित हुए। ब्रह्माजीने श्रीशंकरजीके जटाजूटमें चन्द्रमाकी कला सजायी। भगवान् श्रीविष्णु रत्नके बने कर्णभूषण, उज्वल कण्ठहार और भुजंगमय आभूषण लेकरश्रीशंकरजी के सामने उपस्थित हुए अन्य देवताओंने मनके समान वेगवाले शिववाहन नन्दीको भी विभूषित किया। भीति-भौतिकी श्रृंगार सामग्रियोंसे श्रीशंकरजीको सुसज्जित करके उन्हें सुन्दर आभूषण पहनाकर भी देवताओंकी व्यग्रता अभी दूर नहीं हुई-वे शीघ्र-से शीघ्र वैवाहिक कार्य सम्पन्न कराना चाहते थे। पृथ्वीदेवी भी सर्वथा व्यग्र थीं। वे मनोरम रूप धारण करके उपस्थित हुई और नूतन तथा सुन्दर रस और ओषधियाँ प्रदान करने लगीं। साक्षात् वरुण रत्न, आभूषण तथा भाँति-भाँति के रत्नोंके बने हुए विचित्र-विचित्र पुष्प लेकर उपस्थित हुए। समस्त देहधारियोंके भीतर रहकर सब कुछ जाननेवाले अग्निदेव भी परम पवित्र सोनेके दिव्य आभूषण लेकर विनीत भावसे सामने आये। वायु सुगन्ध बिखेरती हुई मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होने लगी, जिससे उसका स्पर्श भगवान् शंकरको सुखद प्रतीत हो वज्रसे सुसज्जित देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने हाथोंमें भगवान् शिवका छत्र ग्रहण किया। वह छत्र अपने उज्ज्वल प्रकाशसे चन्द्रमाकी किरणावलियोंका उपहास कर रहा था। गन्धर्व और किन्नर अत्यन्त मधुर बाजोंकी ध्वनि करते हुए गान करने लगे। मुहूर्त और ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गान और नृत्य करने लगीं। भगवान् शंकर हिमवान्के नगरमें पहुँचे। उनके चंचल प्रमचगण हिमालयका आलोडन करते हुए वहाँ स्थित हुए। तत्पश्चात् विश्वविधाता ब्रह्माजी तथा भगवान् शंकर क्रमशः विवाहमण्डपमें विराजमान हुए। शिवने अपनीपत्नी उमाके साथ शास्त्रोक्त रीतिसे वैवाहिक कार्य सम्पन्न किया। गिरिराजने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओंने विनोदके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। शिवने पत्नीके साथ वह रात्रि वहीं व्यतीत की। सबेरे देवताओंके स्तवन करनेपर वे उठे और गिरिराजसे विदा ले वायुके समान वेगशाली नन्दीपर सवार हो पत्नीसहित मन्दराचलको चले गये। उमाके साथ भगवान् नीललोहितके चले जानेपर हिमवान्का मन कुछ उदास हो गया। क्यों न हो, कन्याकी विदाई हो जानेपर भला, किस पिताका हृदय व्याकुल नहीं होता ।