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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 33 - Khand 1, Adhyaya 33

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पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह

तदनन्तर जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाली गिरिराज हिमालयकी पत्नी मेनाने परम सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें एक कन्याको जन्म दिया। उसके जन्म लेते ही समस्त लोकोंमें निवास करनेवाले स्थावर जंगम - सभी प्राणी सुखी हो गये। आकाशमें भगवान् श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, वायु और अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर बैठकर हिमालय पर्वतके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। गन्धर्व गाने लगे। उस समय संसारमें हिमालय पर्वत समस्त चराचर भूतोंके लिये सेव्य तथा आश्रय लेनेके योग्य हो गया-सब लोग वहाँ निवास और वहाँकी यात्रा करने लगे। उत्सवका आनन्द ले देवता अपने-अपने स्थानको चले गये। गिरिराजकुमारी उमाको रूप, सौभाग्य और ज्ञान आदि गुणोंने विभूषित किया। इस प्रकार वह तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी और समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न हो गयी। इसी बीचमें कार्य-साधन परायण देवराज इन्द्रने देवताओंद्वारा सम्मानित देवर्षि नारदका स्मरण किया। इन्द्रका अभिप्राय जानकर देवर्षि नारद बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके भवनमें आये। उन्हें देखकर इन्द्र सिंहासनसे उठ खड़े हुए और यथायोग्य पाद्य आदिके द्वारा उन्होंने नारदजीका पूजन किया। फिर नारदजीने जब उनकी कुशल पूछी तो इन्द्रने कहा - 'मुने! त्रिभुवनमें हमारी कुशलका अंकुर तो जम चुका है, अब उसमें फल लगनेका साधन उपस्थित करनेके लिये मैंने आपकी याद की है। ये सारी बातें आप जानते ही हैं; फिर भी आपने प्रश्न किया है इसलिये मैं बता रहा हूँ। विशेषतः अपने सुहृदोंके निकट अपना प्रयोजन बताकर प्रत्येक पुरुष बड़ी शान्तिका अनुभव करता है। अतः जिस प्रकारभी पार्वतीदेवीका पिनाकधारी भगवान् शंकरके साथ संयोग हो, उसके लिये हमारे पक्षके सब लोगोंको शीघ्र उद्योग करना चाहिये।'

इन्द्रसे उनका सारा कार्य समझ लेनेके पश्चात् नारदजीने उनसे विदा ली और शीघ्र ही गिरिराज हिमालयके भवनके लिये प्रस्थान किया। गिरिराजके द्वारपर, जो विचित्र बैतकी लताओंसे हरा-भरा था, पहुँचनेपर हिमवान्ने पहले ही बाहर निकलकर मुनिको प्रणाम किया। उनका भवन पृथ्वीका भूषण था। उसमें प्रवेश करके अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारदजी एक बहुमूल्य आसनपर विराजमान हुए। फिर हिमवान्ने उन्हें यथायोग्य अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया और बड़ी मधुर वाणीमें नारदजीके तपकी कुशल पूछी। उस समय गिरिराजका मुखकमल प्रफुल्लित हो रहा था। मुनिने भी गिरिराजकी कुशल पूछते हुए कहा- 'पर्वतराज! तुम्हारा कलेवर अद्भुत है। तुम्हारा स्थान धर्मानुष्ठानके लिये बहुत ही उपयोगी है। तुम्हारी कन्दराओंका विस्तार विशाल है। इन कन्दराओंमें अनेकों पावन एवं तपस्वी पुनियाने आश्रय ले तुम्हें पवित्र बनाया है। गिरिराज!तुम धन्य हो, जिसकी गुफामें लोकनाथ भगवान् शंकर शान्तिपूर्वक ध्यान लगाये बैठे रहते हैं।'

पुलस्त्यजी कहते हैं— देवर्षि नारदकी यह बात समाप्त होनेपर गिरिराज हिमालयको रानी मेना मुनिका दर्शन करनेकी इच्छासे उस भवनमें आयीं। वे लज्जा और प्रेमके भारसे झुकी हुई थीं। उनके पीछे-पीछे उनकी कन्या भी आ रही थी। देवर्षि नारद तेजकी राशि जान पड़ते थे, उन्हें देखकर शैलपत्नीने प्रणाम किया। उस समय उनका मुख अंचलसे ढका था और कमलके समान शोभा पानेवाले दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अमिततेजस्वी देवर्षिने महाभागा मेनाको देखकर अपने अमृतमय आशीर्वादोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उस समय गिरिराजकुमारी उमा अद्भुत रूपवाले नारद मुनिकी ओर चकित चित्तसे देख रही थी देवर्षिने स्नेहमयी वाणीमें कहा- 'बेटी! यहाँ आओ।' उनके इस प्रकार बुलानेपर उमा पिताके गलेमें बाँहें डालकर उनकी गोदमें बैठ गयी। तब उसकी माताने कहा- 'बेटी! देवर्षिको प्रणाम करो' उमाने ऐसा ही किया। उसके प्रणाम कर लेनेपर माताने कौतूहलवश पुत्रीके शारीरिक लक्षणोंको जानने के लिये अपनी सखीके मुँहसे धीरेसे कहलाया- 'मुने! इस कन्याके सौभाग्यसूचक चिह्नोंको देखनेकी कृपा करें।' मेनाकी सखीसे प्रेरित होकर महाभाग मुनिवर नारदजी मुसकराते हुए बोले- 'भद्रे ! इस कन्याके पतिका जन्म नहीं हुआ है, यह लक्षणोंसे रहित है। इसका एक हाथ सदा उत्तान (सीधा ) रहेगा। इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; किन्तु उनकी कान्ति बड़ी सुन्दर होगी। यही इसका भविष्यफल है।'

नारदजीकी यह बात सुनकर हिमवान् भयसे घबरा उठे, उनका धैर्य जाता रहा, वे आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठसे बोले-'अत्यन्त दोषोंसे भरे हुए संसारकी गति दुर्विज्ञेय है-उसका ज्ञान होना कठिन है। शास्त्रकारोंने शास्त्रोंमें पुत्रको नरकसे त्राण देनेवाला बनाकर सदा पुत्रप्राप्तिकी ही प्रशंसा की है; किन्तु यह बात प्राणियोंको मोहमें डालनेके लिये है। क्योंकि स्त्रीके बिना किसी जीवकी सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु स्त्री जातिस्वभावसे ही दीन एवं दयनीय है। शास्त्रोंमें यह महान् फलदायक वचन अनेकों बार निःसन्देहरूपसे दुहराया गया है कि शुभलक्षणोंसे सम्पन्न सुशीला कन्या दस पुत्रोंके समान है। किन्तु आपने मेरी कन्याके शरीर में केवल दोषोंका ही संग्रह बताया है। ओह! यह सुनकर मुझपर मोह छा गया है, मैं सूख गया हूँ, मुझे बड़ी भारी ग्लानि और विषाद हो रहा है। मुने! मुझपर अनुग्रह करके इस कन्यासम्बन्धी दुःखका निवारण कीजिये। देवर्षे ! आपने कहा है कि इसके पतिका जन्म ही नहीं हुआ है।' यह ऐसा दुर्भाग्य है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। यह अपार और दुःसह दुःख है। हाथों और पैरोंमें जो रेखाएँ बनी होती हैं, वे मनुष्य अथवा देवजातिके लोगोंको शुभ और अशुभ फलकी सूचना देनेवाली हैं; सो आपने इसे लक्षणहीन बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि 'इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा। परन्तु उत्तान हाथ तो सदा याचकोंका ही होता है-वे ही सबके सामने हाथ फैलाकर माँगते देखे जाते हैं। जिनके शुभका उदय हुआ है, जो धन्य तथा दानशील हैं, उनका हाथ उत्तान नहीं देखा जाता। आपने इसकी उत्तम कान्ति बतानेके साथ ही यह भी कहा है कि इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; अतः मुने! उस चिह्नसे भी मुझे कल्याणकी आशा नहीं जान पड़ती।'

नारदजी बोले - गिरिराज! तुम तो अपार हर्षके स्थानमें दुःखकी बात कर रहे हो। अब मेरी यह बात सुनो। मैंने पहले जो कुछ कहा था, वह रहस्यपूर्ण था। इस समय उसका स्पष्टीकरण करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो। हिमाचल ! मैंने जो कहा था कि इस देवीके पतिका जन्म नहीं हुआ है, सो ठीक ही है। इसके पति महादेवजी हैं। उनका वास्तवमें जन्म नहीं हुआ है-वे अजन्मा हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान जगत्की उत्पत्तिके कारण ये ही हैं। वे सबको शरण देनेवाले एवं शासक, सनातन, कल्याणकारी और परमेश्वर हैं। यह ब्रह्माण्ड उन्हींके संकल्पसे उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माजीसे लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार है, वह जन्म, मृत्यु आदिके दुःखसे पीड़ित होकर निरन्तर परिवर्तित होतारहता है। किन्तु महादेवजी अचल और स्थिर हैं। जात नहीं, जनक हैं- पुत्र नहीं, पिता हैं उनपर बुढ़ापेका आक्रमण नहीं होता। वे जगत्के स्वामी और आधि-व्याधिसे रहित हैं। इसके सिवा जो मैंने तुम्हारी कन्याको लक्षणोंसे रहित बताया है, उस वाक्पका ठीक-ठीक विचारपूर्ण तात्पर्य सुनो शरीरके अवयवोंमें । जो चिह्न या रेखाएँ होती हैं, वे सीमित आयु, धन और सौभाग्यको व्यक्त करनेवाली होती हैं; परन्तु जो अनन्त और अप्रमेय है, उसके अमित सौभाग्यको सूचित करनेवाला कोई चिह्न या लक्षण शरीरमें नहीं होता। महामते। इसीसे मैंने बतलाया है कि इसके शरीरमें कोई लक्षण नहीं है। इसके अतिरिक्त जो यह कहा गया है कि इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा, उसका आशय यह है-वर देनेवाला हाथ उत्तान होता है देवीका यह हाथ वरद मुद्रासे युक्त होगा। यह देवता, असुर और मुनियोंके समुदायको वर देनेवाली होगी तथा जो मैंने इसके चरणोंको उत्तम कान्ति और व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त बताया है, उसकी व्याख्या भी मेरे मुँह से सुनो- 'गिरिश्रेष्ठ! इस कन्याके चरण कमलके समान अरुण रंगके हैं। इनपर नखोंकी उज्ज्वल कान्ति पड़नेसे स्वच्छता (श्वेत कान्ति) आ गयी है। देवता और असुर जब इसे प्रणाम करेंगे, तब उनके किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी कान्ति इसके चरणों में प्रतिबिम्बित होगी। उस समय ये चरण अपना स्वाभाविक रंग छोड़कर विचित्र रंगके दिखायी देंगे। उनके इस परिवर्तन और विचित्रताको ही व्यभिचार कहा गया है [अत: तुम्हें कोई विपरीत आशंका नहीं करनी चाहिये]। महीधर! यह जगत्का भरण-पोषण करनेवाले वृषभध्वज महादेवजीकी पत्नी है यह सम्पूर्ण लोकोंकी जननी तथा भूतोंको उत्पन्न करनेवाली है। इसकी कान्ति परम पवित्र है। यह साक्षात् शिवा है और तुम्हारे कुलको पवित्र करनेके लिये ही इसने तुम्हारी पत्नीके गर्भ से जन्म लिया है। अतः जिस प्रकार यह शीघ्र ही पिनाकधारी भगवान् शंकरका संयोग प्राप्त करे, उसी उपायका तुम्हें विधिपूर्वक अनुष्ठान चाहिये। ऐसा करनेसे देवताओंका एक महान् कार्य सिद्ध होगा।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्। नारदजीके मुँहसे ये सारी बातें सुनकर मैनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने अपना नया जन्म हुआ माना। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर बोले- 'प्रभो! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा उद्धार कर दिया। मुने! आप जैसे संतोंका दर्शन निश्चय ही अमोघ फल देनेवाला होता है। इसलिये इस कार्य में मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धमें आप समय-समयपर योग्य आदेश देते रहें [ जिससे यह कार्य निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो सके] ।'

गिरिराजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर बोले- 'शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें तुम्हारा भी महान् लाभ है।' यों कहकर नारदजी देवलोकमें जाकर इन्द्रसे मिले और बोले- 'देवराज । आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया; किन्तु अब कामदेवके बाणसे सिद्ध होने योग्य कार्य उपस्थित हुआ है।' कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मंजरीको ही अस्त्रके रूपमें प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा 'रतिवल्लभ! तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो संकल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके मनकी बात जानते हो। स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो। मनोभव! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् शंकरका शीघ्र संयोग कराओ। इस मधुमास चैत्रको भी साथ लेते जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे सहायता लो।'

कामदेव बोला- देव! यह सामग्री मुनियों और दानवोंके लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान् शंकरको वशमें करना कठिन है।

इन्द्रने कहा – 'रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं जानता हूँ, तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है।'

मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरंत ही हिमालयके इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा शिखरपर गया। वहाँ पहुँचकर उसने कार्यके उपायकाविचार करते हुए सोचा कि 'महात्मा पुरुष निष्कम्प अविचल होते हैं। उनके मनको वशमें करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय समुदायको व्याप्त कर रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करूँगा।' यह सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया। वह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी। कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा रहा था, धीरे-धीरे आगे बढ़कर देखा भगवान् शंकर ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्ध-विकसित कमलदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है। शरीरपर उत्तरीयके रूपमें अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म लटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सर्पोंके फनसे निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिंगल वर्णका हो रहा है हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी जटाएँ उनके कपोल-प्रान्तका चुम्बन कर रही हैं। वासुकि नागका यज्ञोपवीत धारण करनेसे उनकी नाभिके मूल भागमें वासुकिका मुख और पूँछ सटे हुए दिखायी देते हैं। वे अंजलि बाँधे ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे हैं और सपके आभूषण धारण किये हुए हैं।

तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार करते हुए कामदेवने भगवान् शंकरके कानमें होकर हृदयमें प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर झंकार सुनकर शंकरजीके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत् हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका स्मरण किया। तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी निर्मल समाधि भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही लक्ष्य स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें उपस्थित सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विघ्नने उनके अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वरशिव क्षणभरके लिये कामजनित विकारको प्राप्त हो गये। किन्तु यह अवस्था अधिक देरतक न रही, कामदेवका कुचक्र समझकर उनके हृदयमें कुछ क्रोधका संचार हो आया। उन्होंने धैर्यका आश्रय लेकर कामदेवके प्रभावको दूर किया और स्वयं योगमायासे आवृत होकर दृढ़तापूर्वक समाधिमें स्थित हो गये।

उस योगमायासे आविष्ट होनेपर कामदेव जलने लगा, अतः वह वासनामय व्यसनका रूप धारण करके उनके हृदयसे बाहर निकल आया बाहर आकर वह एक स्थानपर खड़ा हुआ। उस समय उसकी सहायिका रति और सखा वसन्त- इन दोनोंने भी उसका अनुसरण किया। फिर मदनने आमकी मौरका मनोहर गुच्छ लेकर उसमें मोहनास्त्रका आधान किया और उसे अपने पुष्पमय धनुषपर रखकर तुरंत ही महादेवजीकी छाती में मारा । इन्द्रियोंके समुदायरूप हृदयके बिंध जानेपर

भगवान् शिवने कामदेवकी ओर दृष्टिपात किया। फिर तो उनका मुख क्रोधके आवेगसे निकलते हुए घोर हुंकारके कारण अत्यन्त भयानक हो उठा। उनके तीसरे नेत्रमें आगकी ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। रौद्र शरीरधारीभगवान् रुद्रका वह नेत्र ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, मानो संसारका संहार करनेके लिये खुला हो । मदन पास ही खड़ा था। महादेवजीने उस नेत्रको फैलाकर मदनको ही उसका लक्ष्य बनाया। देवतालोग 'त्राहि-त्राहि' कहकर चिल्लाते ही रह गये और मदन उस नेत्रसे निकली हुई चिनगारियोंमें पड़कर भस्म हो गया। कामदेवको दग्ध करके वह आग समस्त जगत्‌को जलानेके लिये बढ़ने लगी। यह जानकर भगवान् शिवने उस कामाग्निको आमके वृक्ष, वसन्त, चन्द्रमा, पुष्पसमूह, भ्रमर तथा कोयलके मुखमें बाँट दिया। महादेवजी बाहर और भीतर भी कामदेवके बाणोंसे विद्ध थे, इसलिये उपर्युक्त स्थानोंमें उस अग्निका विभाग करके वे उनमेंसे प्रत्येकको प्रज्वलित कामाग्निके ही रूपमें देखने लगे। वह कामाग्नि सम्पूर्ण लोकको क्षोभमें डालनेवाली है; उसके प्रसारको रोकना कठिन होता है।

कामदेवको भगवान् शिवके हुंकारकी ज्वालासे भस्म हुआ देख रति उसके सखा वसन्तके साथ जोर-जोरसे रोने लगी। फिर वह त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें गयी और धरतीपर घुटने टेककर स्तुति करने लगी। रति बोली- जो सबके मन हैं, यह जगत् जिनका

स्वरूप है और जो अद्भुत मार्गसे चलनेवाले हैं, उन कल्याणमय शिवको नमस्कार है। जो सबको शरण देनेवाले तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है। नाना लोकोंमें समृद्धिका विस्तार करनेवाले शिवको नमस्कार है। भक्तोंको मनोवांछित वस्तु देनेवाले महादेवजीको प्रणाम है। कर्मोंको उत्पन्न करनेवाले महेश्वरको नमस्कार है। प्रभो! आपका स्वरूप अनन्त है; आपको सदा ही नमस्कार है। देव! आप ललाटमें चन्द्रमाका चिह्न धारण करते हैं; आपको नमस्कार है। आपकी लीलाएँ असीम हैं। उनके द्वारा आपकी उत्तम स्तुति होती रहती है वृषभराज नन्दी आपका वाहन है। आप दानवोंके दोनों पुरोका अन्त करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और नाना प्रकारके रूप धारण किया करते हैं आपकोनमस्कार है। कालस्वरूप आपको नमस्कार है। कलसंख्यरूप आपको नमस्कार है तथा काल और कल दोनोंसे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप चराचर प्राणियोंके आचारका विचार करनेवालों में सबसे बड़े आचार्य हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपके ही संकल्पसे हुई हैं। आपके ललाटमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। मैं अपने प्रियतमकी प्राप्तिके लिये सहसा आप महेश्वरकी शरण में आयी हूँ। भगवन्! मेरी कामनाको पूर्ण करनेवाले और यशको बढ़ानेवाले मेरे पतिको मुझे दे दीजिये। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। पुरुषेश्वर! प्रियाके लिये प्रियतम ही नित्य सेव्य है, उससे बढ़कर संसारमें दूसरा कौन है। आप सबके प्रभु, प्रभावशाली तथा प्रिय वस्तुओंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आप ही इस भुवनके स्वामी और रक्षक हैं। आप परम दयालु और भक्तोंका भय दूर करनेवाले हैं। पुलस्त्यजी कहते हैं— कामदेवकी पत्नी रतिके इस प्रकार स्तुति करनेपर मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले भगवान् शंकर उसकी ओर देखकर मधुर वाणीमें बोले— 'सुन्दरी! समय आनेपर यह कामदेव शीघ्र ही उत्पन्न होगा। संसारमें इसको अनंगके नामसे प्रसिद्धि होगी। भगवान् शिवके ऐसा
कहनेपर कामवल्लभा रति उनके चरणोंमें मस्तक
झुकाकर हिमालयके दूसरे उपवनमें चली गयी।

उधर नारदजीके कथनानुसार हिमवान् अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके उसकी दो सखियोंके साथ भगवान् शंकरके समीप ले आ रहे थे। मार्ग में रतिके मुखसे मदन दहनका समाचार सुनकर उनके मनमें कुछ भय हुआ। उन्होंने कन्याको लेकर अपनी पुरीमें लौट जानेका विचार किया। यह देख संकोचशीला पार्वतीने अपनी सखियोंके मुखसे पिताको कहलाया 'तपस्यासे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। तप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। संसारमें तपस्या जैसे साधनके रहते लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार ढोते ग
हैं। अतः अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छासे मैं तपस्या ही करूंगी।' यह सुनकर हिमवान्नेकहा- 'बेटी । 'उ' 'मा' - ऐसा न करो। तुम अभी चपल बालिका हो। तुम्हारा शरीर तपस्याका कष्ट सहन करनेमें समर्थ नहीं है। बाले! जो बात होनेवाली होती है, वह होकर ही रहती है। इसलिये तुम्हें तपस्या करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अब घरको हो चलूँगा और वहीं इस कार्यकी सिद्धिके लिये कोई उपाय सोचूँगा।' पिताके ऐसा कहनेपर भी जब पार्वती घर जानेको तैयार नहीं हुई, तब हिमवान्ने मन-ही-मन अपनी पुत्रीके दृढ़ निश्चयकी प्रशंसा की। इसी समय आकाशमें दिव्य वाणी प्रकट हुई, जो तीनों लोकोंमें सुनायी पड़ी। वह इस प्रकार थी- गिरिराज! तुमने 'उ' 'मा' कहकर अपनी पुत्रीको तपस्या करनेसे रोका है; इसलिये संसारमें इसका नाम उमा होगा। यह मूर्तिमती सिद्धि है। अपनी अभिलषित वस्तुको अवश्य प्राप्त करेगी।' यह आकाशवाणी सुनकर हिमवान्ने पुत्रीको तप करनेकी आज्ञा दे दी और स्वयं अपने भवनको चले गये।

पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ हिमालयके उस प्रदेशमें गयी, जहाँ देवताओंका भी पहुँचना कठिन था वहाँका शिखर परम पवित्र और नाना प्रकारकी धातुओंसे विभूषित था। सब ओर दिव्य पुष्प और लताएँ फैली थीं, वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे वहाँ पार्वतीने अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर दिव्य वल्कल धारण कर लिये कटिमें कुशोंकी मेखला पहन ली। वह प्रतिदिन तीन बार स्नान करती और गुलाब के फूल चबाकर रह जाती थी। इस प्रकार उसने सौ वर्षोंतक तपस्या की। तत्पश्चात् सौ वर्षोंतक हिमवान् कुमारी प्रतिदिन एक पत्ता खाकर रही। तदनन्तर पुनः सौ वर्षोंतक उसने आहारका सर्वथा परित्याग कर दिया। इस तरह वह तपस्याकी निधि बन गयी। उसके तपकी आँचसे समस्त प्राणी उद्विग्न हो उठे। तब इन्द्रने सप्तर्षियोंका स्मरण किया। वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ एक ही समय वहाँ उपस्थित हुए। इन्द्रने उनका स्वागत सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने अपने बुलाये जानेका प्रयोजन पूछा तब इन्द्रने कहा-महात्माओ! आपलोगोंके आवाहनका प्रयोजन सुनिये। हिमालयपरपार्वतीदेवी घोर तपस्या कर रही हैं आपलोग संसारके हितके लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ जाकर उन्हें अभिमत वस्तुकी प्राप्तिका विश्वास दिला तपस्या बंद करा दीजिये।' 'बहुत अच्छा!' कहकर सप्तर्षिगण उस सिद्धसेवित शैलपर आये और पार्वतीदेवीसे मधुर वाणीमें बोले-'बेटी तुम किस उद्देश्यसे यहाँ तप कर रही हो?' पार्वतीदेवीने मुनियोंके गौरवका ध्यान रखकर आदरपूर्वक कहा-'महात्माओ आपलोग समस्त प्राणियों के मनोरथको जानते हैं। प्रायः सभी देहधारी ऐसी ही वस्तुकी अभिलाषा करते हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ होती है। मैं भगवान् शंकरको पतिरूपमें प्राप्त करनेका उद्योग कर रही हूँ। वे स्वभावसे ही दुराराध्य हैं। देवता और असुर भी जिनके स्वरूपको निश्चित रूपसे नहीं जानते, जो पारमार्थिक क्रियाओंके एकमात्र आधार हैं, जिन वीतराग महात्माने कामदेवको जलाकर भस्म कर डाला है, ऐसे महामहिम शिवको मेरी जैसी तुच्छ अबला किस प्रकार आराधनाद्वारा प्रसन्न कर सकती है।'

पार्वतीके यों कहनेपर मुनियोंने उनके मनकी दृढ़ता जाननेके लिये कहा - 'बेटी! संसारमें दो तरहका सुख देखा जाता है- एक तो वह है, जिसका शरीरसे सम्बन्ध होता है और दूसरा वह, जो मनको शान्ति एवं आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। यदि तुम अपने शरीर के लिये नित्य सुखकी इच्छा करती हो तो तुम्हें घृणित वेषमें रहनेवाले भूत-प्रेतोंके संगी महादेवसे वह सुख कैसे मिल सकता है। अरी वे फुफकारते हुए भयंकर भुजंगोंको आभूषणरूपमें धारण करते हैं, श्मशानभूमिमें रहते हैं और रौद्ररूपधारी प्रमथगण सदा उनके साथ लगे रहते हैं। उनसे तो लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु कहीं अच्छे हैं। वे इस जगत्के पालक हैं। उनके स्वरूपका कहीं ओर-छोर नहीं है तथा वे यज्ञभोगी देवताओंके स्वामी हैं। तुम उन्हें पानेकी इच्छा क्यों नहीं करतीं? अथवा दूसरे किसी देवताको पानेसे भी तुम्हें मानसिक सुखकी प्राप्ति हो सकती है। जिस वरको तुम चाहती हो, उसके पानेमें ही बहुत क्लेश है; यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गया तो वह निष्फल वृक्षके समान है-उससे तुम्हेंसुख नहीं मिल सकता।' उन श्रेष्ठ मुनियोंके ऐसा कहनेपर पार्वतीदेवी कुपित हो उठीं, उनके ओठ फड़कने लगे और वे क्रोधसे लाल आँखें करके बोलीं- 'महर्षियो! दुराग्रहीके लिये कौन-सी नीति है। जिनकी समझ उलटी है, उन्हें आजतक किसने राहपर लगाया है। मुझे भी ऐसी ही जानिये। अतः मेरे विषय में अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप सब लोग प्रजापतिके समान हैं, सब कुछ देखने और समझनेवाले हैं; फिर भी यह निश्चय है कि आप उन जगत्प्रभु सनातन देव भगवान् शंकरको नहीं जानते। वे अजन्मा, ईश्वर और अव्यक्त हैं। उनकी महिमाका माप-तौल नहीं है। उनके अलौकिक कर्मोंका उत्तम रहस्य समझना तो दूर रहा, उनके स्वरूपका बोध भी आवृत है। श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी उन्हें यथार्थरूपसे नहीं जानते। ब्रह्मर्षियो! उनका आत्म-वैभव समस्त भुवनोंमें फैला हुआ है, सम्पूर्ण प्राणियोंके सामने प्रकट है; क्या उसे भी आपलोग नहीं जानते ? बताइये तो, यह आकाश किसका स्वरूप है? यह अग्नि, यह वायु किसकी मूर्ति हैं? पृथ्वी और जल किसके विग्रह हैं ? तथा ये चन्द्रमा और सूर्य किसके नेत्र हैं?'

पार्वतीदेवीकी बात सुनकर सप्तर्षिगण वहाँसे उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शिव विराजमान थे। उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भगवान्से कहा - 'स्वर्गके अधीश्वर महादेव! आप दयालु देवता हैं। गिरिराज हिमालयकी पुत्री आपके लिये तपस्या कर रही है। हमलोग उसका मनोरथ जानकर आपके पास आये हैं। आप योगमाया, महिमा और गुणोंके आश्रय हैं। आपको अपने निर्मल ऐश्वर्यपर गर्व नहीं है। शरीरधारियोंमें हमलोग अधिक पुण्यवान् हैं जो कि ऐसे महिमाशाली आपका दर्शन कर रहे हैं।' ऋषियोंके रमणीय एवं हितकर वचन सुनकर वागीश्वरोंमें श्रेष्ठ भगवान् शंकर मुसकराते हुए बोले- 'मुनिवरो! मैं जानता हूँ लोक न रक्षाकी दृष्टिसे वास्तवमें यह कार्य बहुत उत्तम है; म्हें किन्तु इस विषयमें मुझे हिमवान् पर्वतसे ही आशंकाहै- शायद वे मेरे साथ अपनी कन्याके विवाहकी बात स्वीकार न करें। इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग कार्यसिद्धिके लिये उद्यत होते हैं, वे सभी उत्कण्ठित रहा करते हैं। उत्कण्ठा होनेपर बड़े-बड़े महात्माओंके चित्तमें भी उतावली पड़ जाती है। तथापि विशिष्ट व्यक्तियोंको लोक मर्यादाका अनुसरण करना ही चाहिये। क्योंकि इससे धर्मकी वृद्धि होती है और परवर्ती लोगोंके लिये भी आदर्श उपस्थित होता है।'

भगवान् के ऐसा कहनेपर सप्तर्षिगण तुरंत हिमालयके भवनमें गये। वहाँ हिमवान्ने बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया। उससे प्रसन्न होकर वे मुनिश्रेष्ठ उतावलीके कारण संक्षेपसे बोले-'गिरिराज तुम्हारी पुत्रीके लिये साक्षात् पिनाकधारी भगवान् शंकर तुमसे याचना करते हैं। अत: तुम अपनी पुत्री भगवान् श्रीशंकरको समर्पित करके अपनेको पावन बनाओ। यह देवताओंका कार्य है। जगत्का उद्धार करनेके लिये ही यह उद्योग किया जा रहा है।' उनके ऐसा कहनेपर हिमवान् आनन्द विभोर हो गये। तब वे हिमवान्को साथ ले पार्वतीके आश्रमपर गये। उमा तपस्याके कारण तेजोमयी दिखायी दे रही थी उसने अपने तेजसे सूर्य और अग्निकी ज्वालाको भी परास्त कर दिया था। मुनियोंने जब स्नेहपूर्वक उसका मनोगत भाव पूछा तो उस मानिनीने यह सारगर्भित वचन कहा- 'मैं पिनाकधारी भगवान् रुद्रके सिवा दूसरे किसीको नहीं चाहती। वे ही छोटे बड़े सब प्राणियों में [आत्मारूपसे] स्थित हैं, वे ही सबको समृद्धि प्रदान करनेवाले हैं। धीरता और ऐश्वर्य आदि गुण उन्होंमें शोभा पाते हैं; वे तुलनारहित महान् प्रमाण हैं, उनके सिवा दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। यह सारा जगत् उन्हींसे उत्पन्न होता है। जिनका ऐश्वर्य आदि, अन्तसे रहित है, उन्हीं भगवान् शंकरकी शरणमें मैं आयी हूँ।'

पार्वतीदेवीके ये वचन सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए उनके नेत्रोंमें आनन्द के आँसू उमड़ आये और उन्होंने तपस्विनी गिरिजाको प्रशंसा करते हुए मधुर वाणीमें कहा-'अहो ! बड़ी अद्भुत बात है। बेटी!तुम निर्मल ज्ञानकी मूर्ति सी जान पड़ती हो और श्रीशंकरजीमें दृढ़ अनुराग रखनेके कारण हमारे अन्तःकरणको अत्यन्त प्रसन्न कर रही हो। हम भगवान् शिवके अद्भुत ऐश्वर्यको जानते हैं, केवल तुम्हारे निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये थे अब तुम्हारी यह कामना शीघ्र ही पूरी होगी अपने इस मनोहर रूपको | तपस्याकी आगमें न जलाओ। कल प्रातःकाल भगवान् शंकर स्वयं आकर तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। हमलोग पहले आकर तुम्हारे पिताजीसे भी प्रार्थना कर चुके हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर जाओ, हम भी अपने आश्रमको जाते हैं।' उनके इस प्रकार कहने पर पार्वती यह सोचकर कि तपस्याका यथार्थ फल प्राप्त हो गया, तुरंत ही पिताके शोभासम्पन्न दिव्य भवनमें चली गयीं। वहाँ जानेपर गिरिजाके हृदयमें भगवान् शंकरके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग्रत हुई। अतः उसे वह रात एक हजार वर्षोंके समान जान पड़ी। तदनन्तर ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर सखियोंने पार्वतीका मांगलिक कार्य करना आरम्भ किया। क्रमशः नाना प्रकारके मंगल विधान यथार्थरूपसे सम्पन्न किये गये। सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गिरिराज हिमालयकी उपासना करने लगीं। सुखदायिनी वायु झाड़ने बुहारनेके काममें लगी थी। चिन्तामणि आदि रत्न, तरह-तरहकी लताएँ तथा कल्पतरु आदि बड़े-बड़े वृक्ष भी वहाँ सब ओर उपस्थित थे। दिव्य ओषधियोंके साथ साधारण ओषधियाँ भी दिव्य देह धारण करके सेवामें संलग्न थीं। रस और धातुएँ भी वहाँ दास-दासीका काम करती थीं। नदियाँ, समुद्र तथा स्थावर-जंगम सभी प्राणी मूर्तिमान् होकर हिमवान्‌की महिमा बढ़ा रहे थे।

दूसरी ओर निर्मल शरीरवाले देवता, मुनि, नाग, यक्ष, गन्धर्व और किन्नरगण श्रीशंकरजीके श्रृंगारकी सारी सामग्री सजाये गन्धमादन पर्वतपर उपस्थित हुए। ब्रह्माजीने श्रीशंकरजीके जटाजूटमें चन्द्रमाकी कला सजायी। भगवान् श्रीविष्णु रत्नके बने कर्णभूषण, उज्वल कण्ठहार और भुजंगमय आभूषण लेकरश्रीशंकरजी के सामने उपस्थित हुए अन्य देवताओंने मनके समान वेगवाले शिववाहन नन्दीको भी विभूषित किया। भीति-भौतिकी श्रृंगार सामग्रियोंसे श्रीशंकरजीको सुसज्जित करके उन्हें सुन्दर आभूषण पहनाकर भी देवताओंकी व्यग्रता अभी दूर नहीं हुई-वे शीघ्र-से शीघ्र वैवाहिक कार्य सम्पन्न कराना चाहते थे। पृथ्वीदेवी भी सर्वथा व्यग्र थीं। वे मनोरम रूप धारण करके उपस्थित हुई और नूतन तथा सुन्दर रस और ओषधियाँ प्रदान करने लगीं। साक्षात् वरुण रत्न, आभूषण तथा भाँति-भाँति के रत्नोंके बने हुए विचित्र-विचित्र पुष्प लेकर उपस्थित हुए। समस्त देहधारियोंके भीतर रहकर सब कुछ जाननेवाले अग्निदेव भी परम पवित्र सोनेके दिव्य आभूषण लेकर विनीत भावसे सामने आये। वायु सुगन्ध बिखेरती हुई मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होने लगी, जिससे उसका स्पर्श भगवान् शंकरको सुखद प्रतीत हो वज्रसे सुसज्जित देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने हाथोंमें भगवान् शिवका छत्र ग्रहण किया। वह छत्र अपने उज्ज्वल प्रकाशसे चन्द्रमाकी किरणावलियोंका उपहास कर रहा था। गन्धर्व और किन्नर अत्यन्त मधुर बाजोंकी ध्वनि करते हुए गान करने लगे। मुहूर्त और ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गान और नृत्य करने लगीं। भगवान् शंकर हिमवान्के नगरमें पहुँचे। उनके चंचल प्रमचगण हिमालयका आलोडन करते हुए वहाँ स्थित हुए। तत्पश्चात् विश्वविधाता ब्रह्माजी तथा भगवान् शंकर क्रमशः विवाहमण्डपमें विराजमान हुए। शिवने अपनीपत्नी उमाके साथ शास्त्रोक्त रीतिसे वैवाहिक कार्य सम्पन्न किया। गिरिराजने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओंने विनोदके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। शिवने पत्नीके साथ वह रात्रि वहीं व्यतीत की। सबेरे देवताओंके स्तवन करनेपर वे उठे और गिरिराजसे विदा ले वायुके समान वेगशाली नन्दीपर सवार हो पत्नीसहित मन्दराचलको चले गये। उमाके साथ भगवान् नीललोहितके चले जानेपर हिमवान्का मन कुछ उदास हो गया। क्यों न हो, कन्याकी विदाई हो जानेपर भला, किस पिताका हृदय व्याकुल नहीं होता ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार