वेनने कहा- भगवन्! आपने सब तीर्थोंमें उत्तम भार्या तीर्थका वर्णन तो किया, अब पितरोंको तारनेवाले पितृतीर्थका वर्णन कीजिये।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें कुण्डल नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनके सुयोग्य पुत्रका नाम सुकर्मा था। सुकमकि माता और पिता दोनों ही अत्यन्त वृद्ध, धर्मज्ञ और शास्त्रवेत्ता थे। मुकर्माको भी धर्मका पूर्ण ज्ञान था। वे श्रद्धायुक्त होकर बड़ी भक्तिके साथ दिन-रात माता-पिताको सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने पितासे ही सम्पूर्ण वेद और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन किया। वे पूर्णरूपसे सदाचारका पालन करनेवाले, जितेन्द्रिय और सत्यवादी थे। अपने हो हाथ माता-पिताका शरीर दबाते, पैर धोते और उन्हें स्नान-भोजन आदि कराते थे। राजेन्द्र सुकर्मा स्वभावसे ही भक्तिपूर्वक माता-पिताकी परिचर्या करते और सदा उन्होंके ध्यानमें लीन रहते थे।उन्हीं दिनों कश्यप-कुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे, जो पिप्पल नामसे प्रसिद्ध थे। वे सदा धर्म-कर्ममें लगे रहते थे और इन्द्रिय-संयम, पवित्रता तथा मनोनिग्रहसे सम्पन्न थे। एक समयकी बात है, वे महामना बुद्धिमान् ब्राह्मण दशारण्यमें जाकर ज्ञान और शान्तिके साधनमें तत्पर हो तपस्या करने लगे। उनकी तपस्याके प्रभावसे आस-पासके समस्त प्राणियोंका पारस्परिक वैर-विरोध शान्त हो गया। वे सब वहाँ एक पेटसे पैदा हुए भाइयोंकी तरह हिल-मिलकर रहते थे। पिप्पलकी तपस्या देख मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।
देवता कहने लगे-'अहो! इस ब्राह्मणकी कितनी तीव्र तपस्या है। कैसा मनोनिग्रह है और कितना इन्द्रियसंयम है ! मनमें विकार नहीं। चित्तमें उद्वेग नहीं।' काम-क्रोधसे रहित हो, सर्दी-गर्मी और हवाका झोंका सहते हुए वे तपस्वी ब्राह्मण पर्वतकी भाँति अविचलभावसे स्थित रहे। ऐसी अवस्थामें पहुँचकर उनका चित एकाग्र हो गया। वे ब्रह्मके ध्यानमें तन्मय थे। उनका मुख- कमल प्रसन्नतासे खिल उठा था। वे पत्थर और काठकी भाँति निश्चेष्ट एवं सुस्थिर दिखायी देते थे। धर्ममें उनका अनुराग था। तपसे शरीर दुर्बल हो गया था और हृदयमें पूर्ण श्रद्धा थी। इस प्रकार उन बुद्धिमान् ब्राह्मणको तपस्या करते एक हजार वर्ष बीत गये।
यहाँ बहुत सी चीटियोंने मिलकर मिट्टीका ढेर लगा दिया। उनके ऊपर बाँबीका विशाल मन्दिर-सा बन गया। काले साँपोंने आकर उनके शरीरको लपेट लिया। भयंकर विषवाले सर्प उन उग्र तेजस्वी ब्राह्मणको डेंस लेते थे; किन्तु जहर उनके शरीरपर गिर जाता था, उनकी त्वचाको भेदकर भीतर नहीं फैलने पाता था। उनके सम्पर्क में आकर साँप स्वयं ही शान्त हो जाते थे। उनकी देहसे नाना प्रकारकी तेजोमयी लपटें निकलती दिखायी देती थीं। पिप्पल तीनों काल तपमें प्रवृत्त रहते थे। वे तीन हजार वर्षोंतक केवल वायु पीकर रह गये। तब देवताओंने उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की और कहा-'महाभाग ! तुम जिस जिस वस्तुको प्राप्त करना चाहते हो, वह सब निश्चय ही प्राप्त होगी। तुम्हें समस्त अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो जायगी।'
यह वाक्य सुनकर महामना पिप्पलने भक्तिपूर्वक मस्तक झुका समस्त देवताओंको प्रणाम किया और बड़े हर्षमें भरकर कहा- 'देवताओ! यह सारा जगत् मेरे वशमें हो जाय ऐसा वरदान दीजिये मैं विद्याधर होना चाहता हूँ।' 'एवमस्तु' कहकर देवताओंने उन ब्राह्मणको अभीष्ट वरदान दिया और अपने-अपने स्थानको चले गये। राजेन्द्र तबसे द्विजश्रेष्ठ पिप्पल विद्याधरका पद पा गये और इच्छानुसार विचरते हुए सर्वत्र सम्मानित होने लगे। एक दिन महातेजस्वी पिप्पलने विचार किया- 'देवताओंने मुझे वर दिया है कि सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे वशमें हो जायगा। अतः उसकी परीक्षा करनी चाहिये।' यह सोचकर वे उसे आजमाने को तैयार हुए। जिस-जिस व्यक्तिका व मनसे चिन्तन करते, वही वहीउनके वशमें हो जाता था। इस प्रकार जब उन्हें देवताओंकी बातपर विश्वास हो गया, तब वे [ अहंकारके वशीभूत हो] सोचने लगे मेरे समान श्रेष्ठ पुरुष इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है।'
पिप्पल जब इस प्रकारकी भावना करने लगे, तब उनके मनका भाव जानकर एक सारसने कहा "ब्राह्मण! तुम ऐसा अहंकार क्यों कर रहे हो कि 'मैं ही सबसे बड़ा हूँ।' मैं तो ऐसा नहीं मानता कि सबको वशमें करनेकी सिद्धि केवल तुम्हींको प्राप्त हुई है। पिप्पल मेरी समझमें तुम्हारी बुद्धि मूढ़ है, तुम पराचीन तत्त्वको नहीं जानते। तुमने तीन हजार वर्षोंतक तप किया है, इसीका तुम्हें गर्व है फिर भी तुम यहाँ मुद मूढ़ ही रह गये। कुण्डलके जो सुकर्मा नामक पुत्र हैं, वे विद्वान् पुरुष हैं; उनकी बुद्धि उत्तम है। वे अर्वाचीन तथा पराचीन तत्त्वको जानते हैं। पिप्पल! तुम कान खोलकर सुन लो, संसारमें सुकर्माके समान महाज्ञानी दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने दान नहीं दिया; ध्यान, होम और यज्ञ आदि कर्म भी कभी नहीं किया। न तीर्थ करने गये, न गुरुकी उपासना ही की। वे केवल माता पिताके हितैषी हैं, वेदाध्ययनसम्पन्न हैं तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता हैं। यद्यपि सुकर्मा अभी बालक हैं, तो भी उन्हें जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुम्हें अबतक नहीं हुआ। ऐसी दशामें तुम व्यर्थ ही यह गर्वका बोझ ढो रहे हो।
पिप्पल बोले-आप कौन हैं, जो पक्षीके रूपमें आकर इस प्रकार मेरी निन्दा कर रहे हैं? इस समय मुझे अर्वाचीन और पराचीनका स्वरूप पूर्णतया समझाइये।
सामने का दिखेष्ठ! कुण्डलके बालक पुत्रको जैसा ज्ञान प्राप्त है, वैसा तुममें नहीं है । यहाँसे जाओ और अर्वाचीन एवं पराचीनका स्वरूप तथा मेरा परिचय भी उन्हींसे पूछो। वे धर्मात्मा हैं, तुम्हें सारा ज्ञान बतलायेंगे। सारसकी यह बात सुनकर विप्रवर पिप्पल बड़े वेगसे कुण्डलके आश्रमको ओर गये। वहाँ पहुंचकर उन्होंने देखा, सुकर्मा माता-पिताकी सेवामें लगे हैं। वे सत्यपराक्रमी महात्मा अपने माता-पिताके चरणोंकेनिकट बैठे थे। उनके भीतर बड़ी भक्ति थी। वे परम शान्त और सम्पूर्ण ज्ञानकी महान् निधि जान पड़ते थे। कुण्डलकुमार सुकमनि जब पिप्पलको अपने द्वारपर आया देखा, तब वे आसन छोड़कर तुरंत खड़े हो गये और आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। फिर उनको आसन, पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके पूछा 'महाप्राज्ञ ! आप कुशलसे तो हैं न? मार्गमें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? जिस कारणसे आपका यहाँ आना हुआ है, वह सब मैं बताता हूँ। महाभाग ! आपने तीन हजार वर्षोंतक तपस्या करके देवताओंसे वरदान प्राप्त किया सबको वशमें करनेकी शक्ति और इच्छानुसार गति पायी है। इससे उन्मत्त हो जानेके कारण आपके -
मनमें गर्व हो आया। तब महात्मा सारसने आपकी सारी चेष्टा देखकर आपको मेरा नाम बताया और मेरे उत्तम ज्ञानका परिचय दिया।
पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! नदीके तीरपर जो सारस मिला था, जिसने मुझे यह कहकर आपके पास भेजा कि वे सब ज्ञान बता सकते हैं, ' वह कौन था ? सुकर्माने कहा – विप्रवर! सरिताके तटपर जिन्होंने सारसके रूपमें आपसे बात की थी, वे साक्षात् महात्मा ब्रह्माजी थे।
[ यह सुनकर धर्मात्मा] पिप्पलने कहा ब्रह्मन् ! मैंने सुना है, सारा जगत् आपके अधीन है; इस बातको देखनेके लिये मेरे मनमें उत्कण्ठा हो रही है। आप यत्न करके मुझे अपनी यह शक्ति दिखाइये। तब सुकर्माने पिप्पलको विश्वास दिलानेके लिये देवताओंका स्मरण किया। उनके आवाहन करनेपर सम्पूर्ण देवता वहाँ आये और सुकर्मासे इस प्रकार बोले—'ब्रह्मन् ! तुमने किसलिये हमें याद किया है, इसका कारण बताओ।'
सुकर्माने कहा – देवगण! विद्याधर पिप्पल आज मेरे अतिथि हुए हैं, ये इस बातका प्रमाण चाहतेहैं कि सम्पूर्ण विश्व मेरे वशमें कैसे है। इन्हें विश्वास दिलाने के लिये ही मैंने आपलोगोंका आवाहन किया है। अब आप अपने-अपने स्थानको पधारें।'
तब देवताओंने कहा- 'ब्रह्मन् ! हमारा दर्शन निष्फल नहीं होता। तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनको जो रुचिकर प्रतीत हो, वही वरदान हमसे माँग लो।' तब द्विजश्रेष्ठ सुकमने देवताओंको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके यह वरदान माँगा 'देवेश्वरो माता-पिताके चरणोंमें मेरी उत्तम भक्ति सदा सुस्थिर रहे तथा मेरे माता-पिता भगवान् श्रीविष्णुके धाममें पधारें। '
देवता बोले- विप्रवर! तुम माता-पिताके भक्त तो हो ही, तुम्हारी उत्तम भक्ति और भी बढ़े।
यों कहकर सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोगको चले गये। पिप्पलने भी वह महान् और अद्भुत कौतुक प्रत्यक्ष देखा। तत्पश्चात् उन्होंने कुण्डलपुत्र सुकर्मासे कहा-'वक्ताओंमें श्रेष्ठ! श्रेष्ठ! परमात्माका अर्वाचीन और पराचीन रूप कैसा होता है, दोनोंका प्रभाव क्या है? यह बताइये।'
सुकर्माने का - ब्रह्मन् ! मैं पहले आपको पराचीन रूपकी पहचान बताता हूँ, उसीसे इन्द्र आदि देवता तथा चराचर जगत् मोहित होते हैं। ये जो जगत्के स्वामी परमात्मा हैं, वे सबमें मौजूद और सर्वव्यापक हैं। उनके रूपको किसी योगीने भी नहीं देखा है। श्रुति भी ऐसा कहती है कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनके न हाथ हैं न पैर, न नाक है न कान और न मुख ही है। फिर भी वे तीनों लोकोंके निवासियोंके सारे कर्म देखा करते हैं। कान न होनेपर भी सबकी कही हुई बातों को सुनते हैं। वे परम शान्ति प्रदान करनेवाले हैं। हाथ न होनेपर भी काम करते और पैरोंसे रहित होकर भी सब ओर दौड़ते हैं। वे व्यापक, निर्मल, सिद्ध, सिद्धिदायक और सबके नायक हैं। आकाशस्वरूप और अनन्तहैं। व्यास तथा मार्कण्डेय उनके स्वरूपको जानते हैं। अब मैं भगवान्के अर्वाचीन रूपका वर्णन करूँगा, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। 'जिस समय सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा प्रजापति ब्रह्माजी स्वयं ही सबका संहार करके श्रीभगवान्के स्वरूपमें स्थित होते हैं और भगवान् श्रीजनार्दन उन्हें अपनेमें लीन करके पानीके भीतर शेषनागकी शय्यापर दीर्घकालतक अकेले सोये रहते हैं, उस समयकी बात है। महामुनि मार्कण्डेयजी जल और अन्धकारसे व्याकुल हो इधर-उधर भटक रहे थे। उन्होंने देखा सर्वव्यापी ईश्वर शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं। उनका तेज करोड़ों सूर्योंके समान जान पड़ता है। वे दिव्य आभूषण, दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये योगनिद्रामें स्थित हैं। उनका श्रीविग्रह बड़ा ही कमनीय है। उनके हाथोंमें शंख, चक्र और गदा विराजमान हैं। उनके पास ही उन्होंने एक विशालकाय स्त्री देखी, जो काली अंजन-राशिके समान थी। उसका रूप बड़ा भयंकर था। उसने मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयसे कहा 'महामुने! डरो मत।' तब उन योगीश्वरने पूछा- 'देवि तुम कौन हो ?' मुनिके इस प्रकार पूछनेपर देवीने बड़े आदरके साथ कहा- 'ब्रह्मन्! जो शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु हैं। मैं उन्हींकी वैष्णवी शक्ति कालरात्रि हूँ ।
पिप्पलजी ! यों कहकर वह देवी अन्तर्धान हो गयी। उसके चले जानेपर मार्कण्डेयजीने देखा भगवान्की नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ, जिसकी कान्ति सुवर्णके समान थी। उसीसे महातेजस्वी लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। फिर ब्रह्माजीसे समस्तचराचर प्राणी, इन्द्रादि लोकपाल तथा अग्नि आदि देवताओंका जन्म हुआ। इस प्रकार मैंने यह अर्वाचीनका स्वरूप बतलाया है। अर्वाचीन रूप शरीरधारी है और पराचीन रूप शरीररहित है, अतः ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता अर्वाचीन हैं। ये लोक भी, जो तीनों भुवनोंमें स्थित हैं, अर्वाचीन ही माने गये हैं। विद्याधर ! मोक्षरूप जो परम स्थान है; जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो अव्यक्त, अक्षर, हंसस्वरूप, शुद्ध और सिद्धियुक्त है, वही पराचीन है। इस प्रकार तुम्हारे सामने पराचीन स्वरूपका वर्णन किया गया।
विद्याधरने पूछा- सुव्रत ! आप अर्वाचीन और पराचीन स्वरूपके विद्वान् हैं। तीनों लोकोंका उत्तम ज्ञान आपमें वर्तमान है। फिर भी मैं आपमें तपस्याकी पराकाष्ठा नहीं देखता। ऐसी दशामें आपके इस प्रभावका क्या कारण है? कैसे आपको सब बातोंका ज्ञान प्राप्त हुआ ?
सुकर्माने कहा – ब्रह्मन् ! मैंने यजनयाजन, धर्मानुष्ठान ज्ञानोपार्जन और तीर्थ सेवन- कुछ भी नहीं किया। इनके सिवा और भी किसी शुभकर्मजनित पुण्यका अर्जन मेरे द्वारा नहीं हुआ। मैं तो स्पष्टरूपसे एक ही बात जानता हूँ-वह है पिता और माताकी सेवा-पूजा। पिप्पल ! मैं स्वयं ही अपने हाथसे माता-पिताके चरण धोनेका पुण्यकार्य करता हूँ। उनके शरीरकी सेवा करता तथा उन्हें स्नान और भोजन आदि कराता हूँ। प्रतिदिन तीनों समय माता-पिताकी सेवामें ही लगा रहता हूँ। जबतक मेरे माँ-बाप जीवित हैं, तबतक मुझे यह अतुलनीय लाभ मिल रहा है कि तीनों समयमैं शुद्धभावसे मन लगाकर इन दोनोंकी पूजा करता हूँ। पिप्पल ! मुझे दूसरी तपस्यासे क्या लेना है। तीर्थयात्रा तथा अन्य पुण्यकर्मोसे क्या प्रयोजन है। विद्वान् पुरुष सम्पूर्ण यहाँका अनुष्ठान करके जिस फलको प्राप्त करते हैं, वही मैंने पिता-माताकी सेवासे पा लिया है जहाँ माता-पिता रहते हों, वही पुत्रके लिये गंगा, गया और पुष्करतीर्थ है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता-पिताकी सेवासे पुत्रके पास अन्यान्य पवित्र तीर्थ भी स्वयं ही पहुँच जाते हैं। जो पुत्र माता-पिताके जीते जी उनकी सेवा करता है, उसके ऊपर देवता तथा पुण्यात्मा महर्षि प्रसन्न होते हैं। पिताकी सेवासे तीनों लोक संतुष्ट हो जाते हैं। जो पुत्र प्रतिदिन माता-पिताके चरण पखारता है, उसे नित्यप्रप्ति गंगास्नानका फल मिलता है। जिस पुत्रने ताम्बूल, वस्त्र, खान-पानकी विविध सामग्री तथा पवित्र अन्नके द्वारा भक्तिपूर्वक माता-पिताका पूजन किया है, वह सर्वज्ञ होता है।
द्विजश्रेष्ठ ! माता-पिताको स्नान कराते समय जब उनके शरीरसे जलके छींटे उछटकर पुत्रके सम्पूर्ण अंगोंपर पड़ते हैं, उस समय उसे सम्पूर्ण स्नान करनेका फल होता है। यदि पिता पतित, भूखसे व्याकुल, सब कार्यों में वृद्ध, असमर्थ, रोगी और कोढ़ी हो गये हों तथा माताकी भी वही अवस्था हो, उस समयमें भी जोपुत्र उनकी सेवा करता है, उसपर निस्सन्देह भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है जो किसी अंगसे हीन, दीन, वृद्ध, दुःखी तथा महान् रोगसे पीड़ित माता-पिताको त्याग देता है, वह पापात्मा पुत्र कीड़ोंसे भरे हुए दारुण नरकमें पड़ता है। जो पुत्र बूढ़े माँ-बापके बुलानेपर भी उनके पास नहीं जाता, वह मूर्ख विष्ठा खानेवाला कीड़ा होता है तथा हजार जन्मोंतक उसे कुत्तेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। वृद्ध माता-पिता जब घरमें मौजूद हों, उस समय जो पुत्र पहले उन्हें भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण करता है, वह घृणित कोड़ा होता है और हजार जन्मोंतक मल-मूत्र भोजन करता है। इसके सिवा वह पापी तीन सौ जन्मोंतक काला नाग होता है। जो पुत्र कटु वचनोंद्वारा माता-पिताकी निन्दा करता है, वह पापी बाघकी योनिमें जन्म लेता हैं तथा और भी बहुत दुःख उठाता है। जो पापात्मा पुत्र माता-पिताको प्रणाम नहीं करता, वह हजार युगोंतक कुम्भीपाक नरकमें निवास करता है। पुत्रके लिये माता-पितासे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। माता-पिता इस लोक और परलोकमें भी नारायणके समान हैं। इसलिये महाप्राज्ञ! मैं प्रतिदिन माता पिताकी पूजा करता और उनके योग क्षेमकी चिन्तामें लगा रहता हूँ। इसीसे तीनों लोक मेरे वश होगये हैं। माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे पराचीन तथा वासुदेवस्वरूप अर्वाचीन तत्त्वका उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। मेरी सर्वज्ञतामें माता-पिताकी सेवा ही कारण है। भला, कौन ऐसा विद्वान् पुरुष होगा, जो पिता-माताकी पूजा नहीं करेगा। ब्रह्मन् ! श्रुति (उपनिषद्) और शास्त्रोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके सांगोपांग अध्ययनसे ही क्यालाभ हुआ, यदि उसने माता-पिताका पूजन नहीं किया। उसका वेदाध्ययन व्यर्थ है। उसके यज्ञ, तप, दान और पूजनसे भी कोई लाभ नहीं। जिसने माँ-बापका आदर नहीं किया, उसके सभी शुभकर्म निष्फल होते हैं। माता-पिता ही पुत्रके लिये धर्म, तीर्थ, मोक्ष, जन्मके उत्तम फल, यज्ञ और दान आदि सब कुछ हैं।