भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपके मुखसे यह सब प्रसंग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्माजीका यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका श्रवण करनेसे मेरे शरीर [ और मन] की शुद्धि होगी। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! भगवान् ब्रह्माजीपुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो बातें हुईं उन्हें बतलाता हूँ सुनो। पितामहका यज्ञ आदि कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अंगिरा, मैं, पुलह, ऋतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,सविता, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा, मित्र और पर्जन्य- आदि बारहों आदित्य भी वहाँ उपस्थित हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। इन देवेश्वरोंने भी पितामहको प्रणाम किया। मृगव्याध, शर्व, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, विश्वेश्वर भव, कपर्दी, स्थाणु और भगवान् भग- ये ग्यारह रुद्र भी उस यज्ञमें उपस्थित थे। दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव और साध्य नामक देवता ब्रह्माजीके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े थे। शेषजीके वंशज वासुकि आदि बड़े-बड़े नाग भी विद्यमान थे। तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, महाबली गरुड़, वारुणि तथा आरुणि-ये सभी विनताकुमार वहाँ पधारे थे। लोकपालक भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु ब्रह्माजीसे कहा - 'जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हींने इसकी सृष्टि की है; इसलिये तुम सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर हो। यहाँ हमलोगोंके करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें आज्ञा दो।' देवर्षियोंके साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया।
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम परम पवित्र है। वे सर्वसमर्थ हैं, उनका वक्षःस्थल विशाल तथा श्रीविग्रह सम्पूर्ण तेजोंका पुंज जान पड़ता है। [देवताओं और ऋषियोंने उनकी इस प्रकार स्तुति की- ] जो पुण्यात्माओंको उत्तम गति और पापियोंको दुर्गति प्रदान करनेवाले हैं; योगसिद्ध महात्मा पुरुष जिन्हें उत्तम योगस्वरूप मानते हैं; जिनको अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य नित्य प्राप्त हैं; जिन्हें देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ कहा जाता है; मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले संयमी ब्राह्मण योगसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके जिन सनातन पुरुषको पाकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं; चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं तथा अनन्त आकाशजिनका विग्रह है; उन भगवान्की हम शरण लेते हैं। जो भगवान् सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले हैं, जो ऋषियों और लोकोंके स्रष्टा तथा देवताओंके ईश्वर हैं, जिन्होंने देवताओंका प्रिय और समस्त जगत्का पालन करनेके लिये चिरकालसे पितरोंको कव्य तथा देवताओंको उत्तम हविष्य अर्पण करनेका नियम प्रवर्तित किया हूँ उन देवश्रेष्ठ परमेश्वरको हम सादर प्रणाम करते हैं।
तदनन्तर वृद्ध एवं बुद्धिमान् देवता भगवान् श्रीब्रह्माजी यज्ञशालामें लोकपालक श्रीविष्णुभगवान्के साथ बैठकर शोभा पाने लगे। वह यज्ञमण्डप धन आदि सामग्रियों और ऋत्विजोंसे भरा था। परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णु धनुष हाथमें लेकर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। दैत्य और दानवोंके सरदार तथा राक्षसोंके समुदाय भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञ - विद्या, वेद-विद्या तथा पद और क्रमका ज्ञान रखनेवाले महर्षियोंके वेद-घोषसे सारी सभा गूँज उठी। यज्ञमें स्तुति-कर्मके जानकार, शिक्षाके ज्ञाता, शब्दोंकी व्युत्पत्ति एवं अर्थका ज्ञान रखनेवाले और मीमांसाके युक्तियुक्त वाक्योंको समझनेवाले विद्वानोंके उच्चारण किये हुए शब्द सबको सुनायी देने लगे। इतिहास और पुराणोंके ज्ञाता, नाना प्रकारके विज्ञानको जानते हुए भी मौन रहनेवाले, संयमी तथा उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले विद्वानोंने वहाँ उपस्थित होकर जप और होममें लगे हुए मुख्य-मुख्य ब्राह्मणोंको देखा। देवता और असुरोके गुरु लोकपितामह ब्रह्माजी उस यज्ञभूमिमें विराजमान थे। सुर और असुर दोनों ही उनकी सेवामें खड़े थे प्रजापतिगण दक्ष, वसिष्ठ, पुलह, मरीचि, अंगिरा, भृगु, अत्रि, गौतम तथा नारद-ये सब लोग यहाँ भगवान् ब्रह्माजीको उपासना करते थे। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, व्याकरण, छन्दःशास्त्र, निरुङ, कल्प, शिक्षा, आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, गणित, गजविद्या, अश्वविद्या और इतिहास इन सभी अंगोपांगोंसे विभूषित सम्पूर्ण वेद भी मूर्तिमान्होकर ओंकारयुक्त महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे। नय, क्रतु, संकल्प, प्राण तथा अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, शुक्र, बृहस्पति संवर्त, बुध, शनैश्चर, राहु, समस्त ग्रह मरुद्गण, विश्वकर्मा, पितृगण, सूर्य तथा चन्द्रमा भी उद्याजीकी सेवामें उपस्थित थे। दुर्गम कष्टसे तारनेवाली गायत्री, समस्त वेद-शास्त्र, यम-नियम, सम्पूर्ण अक्षर, लक्षण, भाष्य तथा सब शास्त्र देह धारण करके वहाँ विद्यमान थे। क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास और सम्पूर्ण ऋतुएँ अर्थात् इनके देवता महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे।
इनके सिवा अन्यान्य श्रेष्ठ देवियाँ ह्री, कीर्ति, द्युति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, नीति, विद्या, मति, श्रुति, स्मृति, कान्ति, शान्ति, पुष्टि, क्रिया, नाच-गानमें कुशल समस्त दिव्य अप्सराएँ तथा सम्पूर्ण देव माताएँ भी ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं। विप्रचित्ति, शिबि शंकु, केतुमान् प्रह्मद, बलि, कुम्भ, संहाद, अनुहाद, वृषपर्वा नमुचि, शम्बर, इन्द्रतापन, वातापि, केशी, राहु और वृत्र- ये तथा और भी बहुत-से दानव, जिन्हें अपने बलपर गर्व था, ब्रह्माजीकी उपासना करते हुए इस प्रकार बोले।
दानवोंने कहा- भगवन्! आपने ही हमलोगोंकी सृष्टि की है, हमें तीनों लोकोंका राज्य दिया है तथा देवताओंसे अधिक बलवान् बनाया है; पितामह! आपके इस यज्ञमें हमलोग कौन-सा कार्य करें ? हम स्वयं ही कर्तव्यका निर्णय करनेमें समर्थ हैं; अदिति के गर्भसे पैदा हुए इन बेचारे देवताओंसे क्या काम होगा; ये तो सदा हमारे द्वारा मारे जाते और अपमानित होते रहते हैं। फिर भी आप तो हम सबके ही पितामह हैं; अतः देवताओंको भी साथ लेकर यज्ञ पूर्ण कीजिये। यज्ञ समाप्त होनेपर राज्यलक्ष्मीके विषय हमारा देवताओंके साथ फिर विरोध होगा; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, किन्तु इस समय हम चुपचाप इस यज्ञको देखेंगे-देवताओंके साथ युद्ध नहीं जेहेंगे।
पुलस्त्यजी कहते हैं- दानवोंके ये गर्वयुक्त वचन सुनकर इन्द्रसहित महायशस्वी भगवान् श्रीविष्णुनेशंकरजीसे कहा।
भगवान् श्रीविष्णु बोले प्रभो! पितामहके यक्ष प्रधान प्रधान दानव आये हैं। ब्रह्माजीने इनको भी इस यज्ञमें आमन्त्रित किया है। ये सब लोग इसमें विघ्न डालनेका प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु जबतक यज्ञ समाप्त न हो जाय तबतक हमलोगको क्षमा करना चाहिये। इस यज्ञके समाप्त हो जानेपर देवताओंको दानवोंके साथ युद्ध करना होगा। उस समय आपको ऐसा न करना चाहिये, जिससे पृथ्वीपर से दानवोंका नामो-निशान मिट जाय आपको मेरे साथ रहकर इन्द्रकी विजयके लिये प्रयत्न करना उचित है। इन दानवोंका धन लेकर राहगीरों, ब्राह्मणों तथा दुःखी मनुष्यों बाँट दें।
भगवान् श्रीविष्णुकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- 'भगवन्! आपकी बात सुनकर ये दानव कुपित हो सकते हैं; किन्तु इस समय इन्हें क्रोध दिलाना आपको भी अभीष्ट न होगा। अतः रुद्र एवं अन्य देवताओंके साथ आपको क्षमा करना चाहिये। सत्ययुगके अन्तमें जब यह यज्ञ समाप्त हो जायगा, उस समय मैं आपलोगोंको तथा इन दानवोंको विदा कर दूंगा; उसी समय आप सब लोग सन्धि या विग्रह, जो उचित हो, कीजियेगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर भगवान् ब्रह्माजीने पुनः उन दानवोंसे कहा- 'तुम्हें देवताओंके साथ किसी प्रकार विरोध नहीं करना चाहिये। इस समय तुम सब लोग परस्पर मित्रभावसे रहकर मेरा कार्य सम्पन्न करो।'
दानवोंने कहा - पितामह! आपके प्रत्येक आदेशका हमलोग पालन करेंगे। देवता हमारे छोटे भाई हैं, अतः उन्हें हमारी ओरसे कोई भय नहीं है।
दानवोंकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीको बड़ा सन्तोष हुआ। थोड़ी ही देर बाद उनके यज्ञका वृत्तान्त सुनकर ऋषियोंका एक समुदाय आ पहुँचा। भगवान् श्रीविष्णुने उनका पूजन किया। पिनाकधारी महादेवजीने उन्हें आसन दिया तथा ब्रह्माजीकी आज्ञासे वसिष्ठजीने उन सबको अर्घ्य निवेदित करके उनका कुशल- -क्षेम पूछाऔर पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा 'आपलोग आरामसे यहीं रहें। तत्पश्चात् जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी यज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे। उनमें कुछ महात्मा वालखिल्य थे तथा कुछ लोग संप्रख्यान (एक समयके लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार करनेवाले थे। वे नाना प्रकारके नियमोंमें संलग्न तथा वेदीपर शयन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोंने पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे अत्यन्त रूपवान् हो गये। फिर एक-दूसरेकी ओर देखकर सोचने लगे-'यह कैसी बात है ? इस तीर्थमें मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !' ऐसा विचार कर तपस्वियोंने उसका नाम 'मुखदर्शन तीर्थ' रख दिया। तत्पश्चात् वे नहाकर अपने-अपने नियमोंमें लग गये। उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी। नरश्रेष्ठ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना प्रकारकी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके थे। वे सोचने लगे कि 'यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है।' ऐसा विचार करके उन द्विजातियोंने उस सरोवरका 'श्रेष्ठ पुष्कर' नाम रखा।
तदनन्तर ब्राह्मणोंको दानके रूपमें नाना प्रकारके पात्र देनेके पश्चात् वे सभी द्विज वहाँ प्राची सरस्वतीका नाम सुनकर उसमें स्नान करनेकी इच्छासे गये। तीर्थोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीके तटपर बहुत-से दिन निवास करते थे। नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह तीर्थ सभी प्राणियोंको मनोरम जान पड़ता था । अनेकों ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे। उन ऋषियोंसे कोई वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर कुछ लोग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर रहनेवाले थे।
सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शब्द गूँजता रहता था। मृगोंके सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते थे अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी अधिक शोभा हो रही थी। पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीसुप्रभा, कांचना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे प्रसिद्ध पाँच धाराओं में प्रवाहित होती हैं। भूतलपर कॉमन ब्राजीको सभायें उनके विस्तृत यज्ञमण्डपमें जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियमोंका पालन करते हुए जब यह कार्य सम्पादनमें लग गये और पितामह बाजी पलकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन आरम्भ हुआ। राजेन्द्र ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण करते ही वहाँ आ जाते थे देव, गन्धर्व गान करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य बाजे बज उठे। उस यज्ञकी समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ । पुष्कर तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे आवाहन किया। पितामहका सम्मान करती हुई वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती ब्रह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये ही पुष्कर तीर्थमें प्रकट हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके उत्तर-तटपर अपने शरीरका परित्याग करता है तथा प्राची सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म - मृत्युको नहीं प्राप्त होता। सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेवालेको अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है। जो वहाँ नियम और उपवासके द्वारा अपने शरीरको सुखाता है, केवल जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका पृथक्-पृथक् पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थमें तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाला है- यह बात पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्मने कही थी। जो मनुष्य उस तीर्थमें श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुलकी इक्कीसपीढ़ियोंके साथ स्वर्गलोकमें जायेंगे। वह तीर्थ पितरोंको बहुत ही प्रिय है, वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे उन्हें पूर्ण कृप्त हो जाती है। वे पुष्करतीर्थ द्वारा उद्धार पाकर ब्रह्मलोकमें पधारते हैं। उन्हें फिर अन्न-भोगोंकी इच्छा नहीं होती, वे मोक्षमार्गमें चले जाते हैं। अब मैं सरस्वती नदी जिस प्रकार पूर्ववाहिनी हुई, वह प्रसंग बतलाता हूँ; सुनो।
पहलेकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवताओंकी ओरसे भगवान् श्रीविष्णुने सरस्वतीसे कहा 'देवि! तुम पश्चिम समुद्रके तटपर जाओ और इस बयानको ले जाकर समुद्रमें डाल दो ऐसा करनेसे समस्त देवताओंका भय दूर हो जायगा। तुम माताकी भाँति देवताओंको अभय-दान दो।' सबको उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी ओरसे यह आदेश मिलनेपर देवी सरस्वतीने कहा-'भगवन्! मैं स्वाधीन नहीं हूँ आप इस कार्यके लिये मेरे पिता ब्रह्माजीसे अनुरोध कीजिये। पिताजीकी आज्ञाके बिना में एक पग भी कहीं नहीं जा सकती।' सरस्वतीका अभिप्राय जानकर देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा- 'पितामह! आपकी कुमारी कन्या सरस्वती बड़ी साध्वी है-उसमें किसी प्रकारका दोष नहीं देखा गया है; अतः उसे छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो बडवानलको से जा सके।
पुलस्त्यजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्माजीने सरस्वतीको बुलाया और उसे गोदमें लेकर उसका मस्तक सूँघा। फिर बड़े स्नेहके साथ कहा 'बेटी! तुम मेरी और इन समस्त देवताओंकी रक्षा करो। देवताओंके प्रभावसे तुम्हें इस कार्यके करनेपर बड़ा सम्मान प्राप्त होगा। इस बडवानलको ले जाकर खारे पानी के समुद्रमें डाल दो।' पिताके वियोगके कारण बालिकाके नेत्रोंमें आँसू छलछला आये। उसने ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा- 'अच्छा, जाती हूँ।' उस समय सम्पूर्ण देवताओं तथा उसके पिताने भी कहा-'भय न करो।' इससे वह भय छोड़कर प्रसन्न चित्तसे जानेको तैयार हुई। उसकी यात्राके समय शंखऔर नगारोंकी ध्वनि तथा मंगलघोष होने लगा, जिसकी आवाजसे सारा जगत् गूँज उठा। सरस्वती अपने तेजसे सर्वत्र प्रकाश फैलाती हुई चली। उस समय गंगाजी उसके पीछे हो लीं। तब सरस्वतीने कहा- 'सखी! तुम कहाँ आती हो? मैं फिर तुमसे मिलूँगी।' सरस्वतीके ऐसा कहनेपर गंगाने मधुर वाणीमें कहा- 'शुभे! अब तो तुम जब पूर्वदिशामें आओगी तभी मुझे देख सकोगी। देवताओं सहित तुम्हारा दर्शन तभी मेरे लिये सुलभ हो सकेगा।' यह सुनकर सरस्वतीने कहा- 'शुचिस्मिते। तब तुम भी उत्तराभिमुखी होकर शोकका परित्याग कर देना।' गंगा बोलीं 'सखी मैं उत्तराभिमुखी होनेपर अधिक पवित्र मानी जाऊँगी और तुम पूर्वाभिमुखी होनेपर उत्तरवाहिनी गंगा और पूर्ववाहिनी सरस्वतीमें जो मनुष्य श्राद्ध और दान करेंगे, वे तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर मोक्षमार्गका आश्रय लेंगे-इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।'
इसपर वह सरस्वती नदीरूपमें परिणत हो गयी। देवताओंके देखते-देखते एक पाकरके वृक्षकी जड़से प्रकट हुई। वह वृक्ष भगवान् विष्णुका स्वरूप है। सम्पूर्ण देवताओंने उसकी वन्दना की है। उसकी अनेकों शाखाएँ सब ओर फैली हुई हैं। वह दूसरे ब्रह्माजीकी भाँति शोभा पाता है। यद्यपि उस वृक्षमें एक भी फूल नहीं है, तो भी वह डालियोंपर बैठे हुए शुक आदि पक्षियोंके कारण फूलोंसे लदा-सा जान पड़ता है सरस्वतीने उस पाकरके समीप स्थित होकर 1 देवाधिदेव विष्णुसे कहा- 'भगवन्! मुझे बडवाग्नि समर्पित कीजिये: मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी।' उसके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णु बोले- 'शुभे ! तुम्हें इस बडवानलको पश्चिम समुद्रकी ओर ले जाते समय जलनेका कोई भय नहीं होगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने
बडवानलको सोनेके घड़ेमें रखकर सरस्वतीको सौंप
दिया। उसने उस घड़ेको अपने उदरमें रखकर पश्चिमकी
ओर प्रस्थान किया। अदृश्य गतिसे चलती हुई वहमहानदी पुष्करमें पहुँची और ब्रह्माजीने जिन-जिन कुण्डोंमें हवन किया था, उन सबको जलसे आप्लावित करके प्रकट हुई। इस प्रकार पुष्कर क्षेत्रमें परम पवित्र सरस्वती नदीका प्रादुर्भाव हुआ जगत्को जीवनदान देनेवाली वायुने भी उसका जल लेकर वहाँके सब तीर्थोंमें डाल दिया। उस पुण्यक्षेत्रमें पहुँचकर पुण्यसलिला सरस्वती मनुष्योंके पापोंका नाश करनेके लिये स्थित हो गयी जो पुण्यात्मा मनुष्य पुष्कर तीर्थमें विद्यमान सरस्वतीका दर्शन करते हैं. वे नारकी जीवोंकी अधोगतिका अनुभव नहीं करते। जो मनुष्य उसमें भक्ति-भावके साथ स्नान करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें पहुँचकर ब्रह्माजीके साथ आनन्दका अनुभव करते हैं। जो मनुष्य ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करके पितरोंका तर्पण करता हैं, वह उन सबका नरकसे उद्धार कर देता है तथा स्वयं उसका भी चित्त शुद्ध हो जाता है। ब्रह्माजीके क्षेत्रमें पुण्यसलिला सरस्वतीको पाकर मनुष्य दूसरे किस तीर्थकी कामना करे-उससे बढ़कर दूसरा तीर्थ है ही कौन ? सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह सब का सब ज्येष्ठ पुष्करमें एक बार डुबकी लगानेसे मिल जाता है। अधिक क्या कहा जाय जिसने पुष्कर क्षेत्रका निवास, ज्येष्ठ कुण्डका जल तथा उस तीर्थमें मृत्यु- ये तीन बातें प्राप्त कर लीं, उसने परमगति पा ली। जो मनुष्य उत्तम काल, उत्तम क्षेत्र तथा उत्तम तीर्थमें स्नान और होम करके ब्राह्मणको दान देता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है। कार्तिक और वैशाखके शुक्लपक्षमें तथा चन्द्रमा और सूर्य ग्रहणके समय स्नान करनेयोग्य कुरुजांगलदेशमें जितने क्षेत्र और तीर्थ मुनीश्वरोंद्वारा बताये गये हैं, उन सबमें यह पुष्कर तीर्थ अधिक पवित्र है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है।
जो पुरुष कार्तिककी पूर्णिमाको मध्यम कुण्ड (मध्यम पुष्कर) में स्नान करके ब्राह्मणको धन देता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। इसी प्रकार कनिष्ठ कुण्ड (अन्त्य पुष्कर)- में एकाग्रतापूर्वक स्नान करके जो ब्राह्मणको उत्तम अगहनीका चावल दान करता है, वह अग्निलोकमें जाता है तथा वहाँ इक्कीस पीढ़ियोंके साथरहकर श्रेष्ठ फलका उपभोग करता है। इसलिये पुरुषको उचित है कि वह पूरा प्रयत्न करके पुष्कर तीर्थकी प्राप्तिके लिये वहाँकी यात्रा करनेके लिये अपना विचार स्थिर करे। मति, स्मृति, प्रज्ञा, मेधा, बुद्धि और शुभ वाणी-ये छः सरस्वतीके पर्याय बतलाये गये हैं। जो पुष्करके वनमें, जहाँ प्राची सरस्वती है, जाकर उसके जलका दर्शन भर कर लेते हैं, उन्हें भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा जो उसके भीतर गोता लगाकर स्नान करता है, वह तो ब्राजीका अनुचर होता है जो मनुष्य वहाँ विधिपूर्वक श्राद्ध करते हैं, वे पितरोंको दुःखदायी नरकसे निकालकर स्वर्गमें पहुँचा देते हैं। जो सरस्वतीमें स्नान करके पितरोंको कुश और तिलसे युक्त जल दान करते हैं, उनके पितर हर्षित हो नाचने लगते हैं। यह पुष्कर तीर्थ सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि यह आदि तीर्थ है। इसीलिये इस पृथ्वीपर यह समस्त तीर्थोंमें विख्यात है यह मानो धर्म और मोक्षको क्रीडास्थली है, निधि है। सरस्वतीसे युक्त होनेके कारण इसकी महिमा और भी बढ़ गयी है। जो लोग पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीका जल पीते हैं वे ब्रह्मा और महादेवजीके द्वारा प्रशंसित अक्षय लोकोंको प्राप्त होते हैं। धर्मके तत्त्वको जाननेवाले मुनियोंने जहाँ-जहाँ सरस्वतीदेवीका सेवन किया है, उन सभी स्थानोंमें वे परम पवित्ररूपसे स्थित हैं; किन्तु पुष्करमें ये अन्य स्थलोंको अपेक्षा विशेष पवित्र मानी गयी हैं। पुण्यमयी सरस्वती नदी संसारमें सुलभ है; किन्तु कुरुक्षेत्र, प्रभासक्षेत्र और पुष्करक्षेत्रमें तो वह बड़े भाग्यसे प्राप्त होती है। अतः वहाँ इसका दर्शन दुर्लभ बताया गया है। सरस्वती तीर्थ इस भूतलके समस्त तीर्थोंमें श्रेष्ठ होनेके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका साधक है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह ज्येष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ- तीनों पुष्करोंमें यत्नपूर्वक स्नान करके उनकी प्रदक्षिणा करे। तत्पश्चात् पवित्र भावसे प्रतिदिन पितामहका दर्शन करे। ब्रह्मलोकमें जानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अनुलोमक्रमसे अर्थात् क्रमशः ज्येष्ठ मध्यम एवं कनिष्ठ पुष्करमेंतथा विलोमक्रमसे अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इसी प्रकार वह उक्त तीनों पुष्करोंमेंसे किसी एक या सबमें नित्य स्नान करता रहे। पुष्कर क्षेत्रमें तीन सुन्दर शिखर और तीन ही स्रोत हैं। वे सब के सब पुष्कर नामसे ही प्रसिद्ध हैं। उन्हें ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहते हैं। जो मन और इन्द्रियोंको वशमें करके सरस्वतीमें स्नान करता और ब्राह्मणको एक उत्तम गौ दान देता है, वह शास्त्रीय आज्ञाके पालनसे शुद्धचित्त होकर अक्षय लोकोंको पाता है। अधिक क्या कहें- जो रात्रिके समय भी स्नान करके वहाँ याचकको धन देता है, वह अनन्तसुखका भागी होता है। पुष्करमें तिल-दानकी मुनिलोग अधिक प्रशंसा करते हैं तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ सदा ही स्नान करनेका विधान है।
भीष्मजी ! पुष्कर वनमें पहुँचकर सरस्वती नदीके प्रकट होनेकी बात बतायी गयी। अब वह पुनः अदृश्य होकर वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चली। पुष्करसे थोड़ी ही दूर जानेपर एक खजूरका वन मिला, जो फल और फूलोंसे सुशोभित था; सभी ऋतुओंके पुष्प उस वनस्थलीकी शोभा बढ़ा रहे थे, वह स्थान मुनियोंके भी मनको मोहनेवाला था । वहाँ पहुँचकर नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीदेवी पुनः प्रकट हुईं। वहाँ वे 'नन्दा' के नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुईं।