भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वेदवेत्ता ब्राह्मण तीनों पुष्करोंकी यात्रा किस प्रकार करते हैं तथा उसके करने से मनुष्योंको क्या फल मिलता है ?
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! अब एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवनके महान् फलका श्रवण करो। जिसके हाथ, पैर और मन संयममें रहते हैं तथा जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् होता है, वही तीर्थ सेवनका फल प्राप्त करता है। जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो जाय - उसीसे सन्तुष्ट रहता है तथा जिसका अहंकार दूर हो गया है, ऐसे मनुष्यको ही तीर्थ सेवनका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र ! जो स्वभावतः क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, उसे तीर्थ सेवनका फल प्राप्त होता है। * यह ऋषियोंका परम गोपनीय सिद्धान्त है।
राजेन्द्र ! पुष्कर तीर्थ करोड़ों ऋषियोंसे भरा है, उसकी लम्बाई बाई योजन (दस कोस) और चौड़ाई आधा योजन (दो कोस) है। यही उस तीर्थका परिमाण है। वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है, जहाँ अत्यन्त पवित्र सरस्वती नदीने ज्येष्ठ पुष्करमें प्रवेश किया है, यहाँ चैत्र शुक्ला चतुर्दशीको ब्रह्मा आदि देवताओं, ऋषियों, सिद्धों औरचारणोंका आगमन होता है, अतः उक्त तिथिको देवताओं और पितरोंके पूजनमें प्रवृत्त हो मनुष्यको वहाँ स्नान करना चाहिये। इससे वह अभय पदको प्राप्त होता है और अपने कुलका भी उद्धार करता है। वहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करके मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करनेसे उसका स्वरूप चन्द्रमाके समान निर्मल हो जाता है तथा वह ब्रह्मलोक एवं उत्तम गतिको प्राप्त होता है। मनुष्य लोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका यह पुष्कर नामसे प्रसिद्ध तीर्थ त्रिभुवनमें विख्यात है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। पुष्करमें तीनों सन्ध्याओंके समय प्रातःकाल, मध्याह्न एवं सायंकालमें दस हजार करोड़ (एक खरब) तीर्थ उपस्थित रहते हैं तथा आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओंका भी प्रतिदिन आगमन होता है। वहाँ तपस्या करके कितने ही देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षि दिव्य योगसे सम्पन्न एवं महान् पुण्यशाली हो गये। जो मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उस मनस्वीके सारे पाप नष्ट जाते हैं। महाराज ! उस तीर्थमें देवता और दानवोंके द्वारा सम्मानित भगवान् ब्रह्माजी सदा ही प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। वहाँ देवताओं और ऋषियोंने महान् पुण्यसे युक्त होकर इच्छानुसार सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। जो मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर हो वहाँ स्नान करता है, उसके पुण्यको मनीषीपुरुष अश्वमेध यज्ञकी अपेक्षा दसगुना अधिक बतलाते। हैं। पुष्करारण्यमें जाकर जो एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसके उस अन्नसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको पूर्ण तृप्तिपूर्वक भोजन करानेका फल होता है तथा उस पुण्यकर्मके प्रभावसे वह इहलोक और परलोकमें भी आनन्द मनाता है। [ अन्न न हो तो ] शाक, मूल अथवा फल - जिससे वह स्वयं जीवन निर्वाह करता हो, वही - दोष- दृष्टिका परित्याग करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणको अर्पण करे। उसीके दानसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र- सभी इस तीर्थमें स्नान दानादि पुण्यके अधिकारी हैं। ब्रह्माजीका पुष्कर नामक सरोवर परम पवित्र तीर्थ है वह वानप्रस्थियों, सिद्धों तथा मुनियोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। परम पावन सरस्वती नदी पुष्करसे ही महासागरकी ओर गयी है। वहाँ महायोगी आदिदेव मधुसूदन सदा निवास करते हैं। वे आदिवराहके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनकी पूजा करते रहते हैं। विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो पुष्कर तीर्थकी यात्रा करता है, वह अक्षय फलका भागी होता है-ऐसा मैंने सुना है।
कुरुनन्दन ! जो सायंकाल और सबेरे हाथ जोड़कर तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें आचमन करनेका फल प्राप्त होता है। स्त्री हो या पुरुष, पुष्करमें स्नान करनेमात्रसे उसके जन्मभरका सारा पाप नष्ट हो जाता है जैसे सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्माजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें पुष्कर ही आदि तीर्थ बताया गया है। जो पुष्करमें संयम और पवित्रताके साथ दस वर्षोंतक निवास करता हुआ ब्रह्माजीका दर्शन करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्र करता है और कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमेंनिवास करता है, उन दोनोंका फल एक-सा ही होता है। पुष्करमें निवास दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका सुयोग मिलना कठिन है। पुष्करमें दान देनेका सौभाग्य भी मुस्किलसे प्राप्त होता है तथा वहाँकी यात्राका सुयोग भी दुर्लभ है। वेदवेता ब्राह्मण ज्येष्ठ पुष्करमें जाकर स्नान करनेसे मोक्षका भागी होता है और श्राद्धसे वह पितरोंको तार देता है। जो ब्राह्मण वहाँ जाकर नाममात्रके लिये भी सन्ध्योपासन करता है, उसे बारह तक सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने स्वयं ही यह बात कही थी। जो अकेले भी कभी पुष्कर तीर्थमें चला जाय, उसको चाहिये कि झारीमें पुष्करका जल लेकर क्रमशः सन्ध्या-वन्दन कर ले; ऐसा करनेसे भी उसे बारह वर्षोंतक निरन्तर सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। जो पत्नीको पास बिठाकर दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके गायत्री मन्त्रका जप करते हुए वहाँ तर्पण करता है, उसके उस तर्पणद्वारा बारह वर्षोंतक पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। फिर पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। इसीलिये विद्वान् पुरुष यह सोचकर स्त्रीके साथ विवाह करते हैं। कि हम तीर्थ में जाकर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करेंगे। जो ऐसा करते हैं, उनके पुत्र, धन, धान्य और सन्तानका कभी उच्छेद नहीं होता यह निःसन्दिग्ध बात है।
राजन्! अब मैं तुमसे इस तीर्थके आश्रमोंका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। महर्षि अगस्त्यने इस तीर्थमें अपना आश्रम बनाया है, जो देवताओंके आश्रमकी समानता करता है। पूर्वकालमें यहाँ सप्तर्षियोंका भी आश्रम था ब्रह्मर्षियों और मनुओंने भी यहाँ आश्रम बनाया था। यज्ञ पर्वतके किनारे यहाँ नागौंको रमणीय पुरी भी है। महाराज! मैं महामना अगस्त्यजीके प्रभावका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ. ध्यान देकर सुनो। पहले की बात है-सत्ययुगमें कालकेयनामसे प्रसिद्ध दानव रहते थे। उनका स्वभाव अत्यन्त कठोर था तथा वे युद्धके लिये सदा उन्मत्त रहते थे। एक समय वे सभी दानव नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो वृत्रासुरको बीचमें करके इन्द्र आदि देवताओं पर चारों ओरसे चढ़ आये। तब देवतालोग इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये। उन्हें हाथ जोड़कर खड़े देख ब्रह्माजीने कहा- "देवताओ! तुमलोग जो कार्य करना चाहते हो, वह सब मुझे मालूम है। मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम वृत्रासुरका वध कर सकोगे। दधीचि नामके एक महर्षि हैं, उनकी बुद्धि बड़ी ही उदार है। तुम सब लोग एक साथ जाकर उनसे वर माँगो वे धर्मात्मा हैं, अतः प्रसन्नचित्त होकर तुम्हारी माँग पूरी करेंगे। तुम उनसे यही कहना कि 'आप त्रिभुवनका हित करनेके लिये अपनी हड्डियाँ हमें प्रदान करें ।' निश्चय ही वे अपना शरीर त्यागकर तुम्हें हड्डियाँ अर्पण कर देंगे। उनकी हड्डियोंसे तुमलोग अत्यन्त भयंकर एवं सुदृढ़ वज्र तैयार करो, जो दिव्य शक्तिसे सम्पन्न उत्तम अस्त्र होगा। उससे बिजलीके समान गड़गड़ाहट पैदा होगी और वह महान् से - महान् शत्रुका विनाश करनेवाला होगा। उसी वज्रसे इन्द्र वृत्रासुरका वध करेंगे।"पुलस्त्यजी कहते हैं— ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर समस्त देवता उनकी आज्ञा ले इन्द्रको आगे करके दधीचिके आश्रमपर गये। वह सरस्वती नदीके उस पार बना हुआ था। नाना प्रकारके वृक्ष और लताएँ उसे घेरे हुए थीं। वहाँ पहुँचकर देवताओंने सूर्यके समान तेजस्वी महर्षि दधीचिका दर्शन किया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके ब्रह्माजीके कथनानुसार वरदान माँगा। तब दधीचिने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओंको प्रणाम करके यह कार्य साधक वचन कहा- 'अहो ! आज इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता यहाँ किसलिये पधारे हैं? मैं देखता हूँ आप सब लोगोंकी कान्ति फीकी पड़ गयी है, आपलोग पीड़ित जान पड़ते हैं। जिस कारणसे आपके हृदयको कष्ट पहुँच रहा है, उसे शान्तिपूर्वक बताइये ।'
देवता बोले—महर्षे ! यदि आपकी हड्डियोंका शस्त्र बनाया जाय तो उससे देवताओंका दुःख दूर हो सकता है।
दधीचिने कहा- देवताओ! जिससे आपलोगोंका हित होगा, वह कार्य मैं अवश्य करूँगा। आज आपलोगोंके लिये मैं अपने इस शरीरका भी त्याग करता हूँ।
ऐसा कहकर मनुष्यों में श्रेष्ठ महर्षि दधीचिने सहसा अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया। तब सम्पूर्ण देवताओंने आवश्यकताके अनुसार उनके शरीरसे हड्डियाँ निकाल लीं। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे विजय पानेके लिये विश्वकर्माके पास जाकर बोले- 'आप इन हड्डियोंसे वज्रका निर्माण कीजिये ।' देवताओंके वचन सुनकर विश्वकर्माने बड़े हर्षके साथ प्रयत्नपूर्वक उग्र शक्ति सम्पन्न वज्रास्त्रका निर्माण किया और इन्द्रसे कहा- 'देवेश्वर ! यह वज्र सब अस्त्र-शस्त्रोंमें श्रेष्ठ है, आप इसके द्वारा देवताओंके भयंकर शत्रु वृत्रासुरको भस्म कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शुद्ध भावसे उस वज्रको ग्रहण किया। तदनन्तर इन्द्र देवताओंसे सुरक्षित हो, वज्र हाथमें लिये, वृत्रासुरका सामना करनेके लिये गये, जोपृथ्वी और आकाशको घेरकर खड़ा था। कालकेय नामके विशालकाय दानव हाथोंमें शस्त्र उठाये चारों ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। फिर तो दानवोंके साथ देवताओंका भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। दो घड़ीतक तो ऐसी मार-काट हुई, जो सम्पूर्ण लोकको महान् भयमें डालनेवाली थी। वीरोंकी भुजाओंसे चलायी हुई तलवारें जब शत्रुके शरीरपर पड़ती थीं, तब बड़े जोरका शब्द होता था। आकाशसे पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तक ताड़के फलोंके समान जान पड़ते थे उनसे वहाँकी सारी भूमि पटी हुई दिखायी देती थी। उस समय सोनेके कवच पहने हुए कालकेय दानव दावानलसे जलते हुए वृक्षोंके समान प्रतीत होते थे। वे हाथमें परिघ लेकर देवताओंपर टूट पड़े। उन्होंने एक साथ मिलकर बड़े वेगसे धावा किया था। यद्यपि देवता भी एक साथ संगठित होकर ही युद्ध कर रहे थे, तो भी वे उन दानवोंके वेगको न सह सके। उनके पैर उखड़ गये, वे भयभीत होकर भाग खड़े हुए। देवताओंको डरकर भागते और वृत्रासुरको प्रबल होते देख हजार आँखोंवाले इन्द्रको बड़ी घबराहट हुई। इन्द्रकी ऐसी अवस्था देख सनातन भगवान् श्रीविष्णुने उनके भीतर अपने तेजका संचार करके उनके बलको बढ़ाया। इन्द्रको श्रीविष्णुके तेजसे परिपूर्ण देख देवताओं तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ब्रह्मर्षियोंने भी उनमें अपने-अपने तेजका संचार किया। इस प्रकार भगवान् श्रीविष्णु देवता तथा , महाभाग महर्षियोंके तेजसे वृद्धिको प्राप्त होकर इन्द्र अत्यन्त बलवान् हो गये।
देवराज इन्द्रको सवल जान वृत्रासुरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया। उसकी विकट गर्जनासे पृथ्वी, दिशाएँ, अन्तरिक्ष, द्युलोक और आकाशमें सभी काँप उठे। वह भयंकर सिंहनाद सुनकर इन्द्रको बड़ा सन्ताप हुआ। उनके हृदयमें भय समा गया और उन्होंने बड़ी उतावलीके साथ अपना महान् वज्रास्त्र उसके ऊपर छोड़ दिया। इन्द्रके वज्रका आघात पाकर वह महान् असुर निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता तुरंत आगे बढ़कर वृत्रासुरके वधसे सन्तप्त हुएशेष दैत्योंको मारने लगे। देवताओंकी मार पड़नेपर वे महान् असुर भयसे पीड़ित हो वायुके सम्मान वेगसे भागकर अगाध समुद्रमें जा छिपे। वहाँ एकत्रित होकर सब-के-सब तीनों लोकोंका नाश करनेके लिये आपसमें सलाह करने लगे। उनमें जो विचारक थे. उन्होंने नाना प्रकारके उपाय बतलाये-तरह तरहकी युक्तियाँ सुझार्थी । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि 'तपस्यासे ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं, इसलिये उसीका क्षय करनेके लिये शीघ्रता की जाय। पृथ्वीपर जो कोई भी तपस्वी, धर्मज्ञ और विद्वान् हो, उनका तुरंत वध कर दिया जाय। उनके नष्ट हो जानेपर सम्पूर्ण जगत्का स्वयं ही नाश हो जायगा।
उन सबकी बुद्धि मारी गयी थी इसलिये उपर्युक्त प्रकारसे संसारके विनाशका निश्चय करके वे बहुत प्रसन्न हुए। समुद्ररूप दुर्गका आश्रय लेकर उन्होंने त्रिभुवनका विनाश आरम्भ किया। वे रातमें कुपित होकर निकलते और पवित्र आश्रमों तथा मन्दिरोंमें जो भी मुनि मिलते, उन्हें पकड़कर खा जाते थे। उन दुरात्माओंने वसिष्ठके आश्रम में जाकर आठ हजार आठ ब्राह्मणोंका भक्षण कर लिया तथा उस वनमें और भी जितने तपस्वी थे, उन्हें भी मौतके घाट उतार दिया। महर्षि च्यवनके पवित्र आश्रमपर, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन्होंने फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंको अपना ग्रास बना लिया। इस प्रकार रातमें वे मुनियोंका संहार करते और दिनमें समुद्रके भीतर घुस जाते थे। भरद्वाजके आश्रमपर जाकर उन दानवने वायु और जल पीकर संयम नियमके साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियोंकी हत्या कर डाली इस तरह बहुत दिनोंतक उन्होंने मुनियोंका भक्षण जारी रखा, किन्तु मनुष्योंको इन हत्यारोंका पता नहीं चला। उस समय कालकेयोंके भयसे पीड़ित होकर सारा जगत् [ धर्म-कर्मको ओरसे] निरुत्साह हो गया। स्वाध्याय बंद हो गया। यज्ञ और उत्सव समाप्त हो गये। मनुष्योंकी संख्या दिनोदिन क्षीण होने सगी, वे भयभीत होकर आत्मरक्षा के लिये दस दिशाओंमें दौड़ने लगे; कोई द्विज गुफाओंमें छिप गये,दूसरों झरनोंकी शरण ली, कितनोंने भयसे व्याकुल होकर प्राण त्याग दिये। इस प्रकार यज्ञ और उत्सवोंसे रहित होकर जब सारा जगत् नष्ट होने लगा, तब इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता व्यथित होकर भगवान् श्रीनारायणक शरणमें गये और इस प्रकार स्तुति करने लगे।
देवता बोले- प्रभो! आप ही हमारे जन्मदाता और रक्षक हैं। आप ही संसारका भरण-पोषण करने जाते हैं। चर और अचर- सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि आपसे ही हुई है। कमलनयन। पूर्वकालमें यह भूमि नष्ट होकर रसातलमें चली गयी थी। उस समय आपने ही वराहरूप धारण करके संसारके हितके लिये इसका समुद्रसे उद्धार किया था। पुरुषोत्तम ! आदिदैत्य हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था, तो भी आपने नृसिंहरूप धारण करके उसका वध कर डाला। इस प्रकार आपके बहुत से ऐसे [अलौकिक] कर्म हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती। मधुसूदन हमलोग भयभीत हो रहे हैं, अब आप ही हमारी गति हैं; इसलिये देवदेवेश्वर ! हम आपसे लोककी रक्षाके लिये प्रार्थना करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंकी, देवताओंकी तथा इन्द्रकी महान् भयसे रक्षा कीजिये। आपकी ही कृपासे [अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज] चार भागों में बंटी हुई सम्पूर्ण प्रजा जीवन धारण करती है। आपकी ही दयासे मनुष्य स्वस्थ होंगे और देवताओंकी हव्यकव्योंसे तृप्ति होगी। इस प्रकार देव मनुष्यादि सम्पूर्ण लोक एक दूसरेके आश्रित हैं आपके ही अनुग्रहसे इन सबका उद्वेग शान्त हो सकता है तथा आपके द्वारा ही इनकी पूर्णतया रक्षा होनी सम्भव है। भगवन्! संसारके ऊपर बड़ा भारी भय आ पहुंचा है। पता नहीं, कौन रात्रिमें जा-जाकर ब्राह्मणोंका वध कर डालता है। ब्राह्मणोंका क्षय हो जानेपर समूची पृथ्वीका नाश हो जायगा। अतः महाबाहो । जगत्पते। आप ऐसी कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर इन लोकोंका विनाश न हो।
भगवान् श्रीविष्णु बोले – देवताओ। मुझे प्रजाके विनाशका सारा कारण मालूम है। मैं तुम्हें भीबताता हूँ, निश्चिन्त होकर सुनो। कालकेय नामसे विख्यात जो दानवोंका समुदाय है, वह बड़ा ही निष्ठुर है। उन दानवोंने ही परस्पर मिलकर सम्पूर्ण जगत्को कष्ट पहुँचाना आरम्भ किया है। वे इन्द्रके द्वारा वृत्रासुरको मारा गया देख अपनी जान बचानेके लिये समुद्रमें घुस गये थे। नाना प्रकारके ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर समुद्रमें रहकर वे जगत्का विनाश करनेके लिये रातमें मुनियोंको खा जाते हैं। जबतक वे समुद्र के भीतर छिपे रहेंगे, तबतक उनका नाश होना असम्भव है, इसलिये अब तुमलोग समुद्रको सुखानेका कोई उपाय सोचो।
पुलस्त्यजी कहते हैं- भगवान् श्रीविष्णुके ये वचन सुनकर देवता ब्रह्माजीके पास आकर वहाँसे महर्षि अगस्त्यके आश्रमपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मित्रावरुणके पुत्र परम तेजस्वी महात्मा अगस्त्य ऋषिको देखा। अनेकों महर्षि उनकी सेवामें लगे थे। उनमें प्रमादका लेश भी नहीं था। वे तपस्याकी राशि जान पड़ते थे। ऋषिलोग उनके अलौकिक कर्मोकी चर्चा करते हुए उनको स्तुति कर रहे थे।
देवता बोले- महर्षे! पूर्वकालमें जब राजा नहुषके द्वारा लोकोंको कष्ट पहुँच रहा था, उस समय आपने संसारके हितके लिये उन्हें इन्द्र-पदसे भ्रष्ट किया और इस प्रकार लोकका काँटा दूर करके आप जगत्के आश्रयदाता हुए। जिस समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल सूर्यके ऊपर क्रोध करके बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था; उस समय आपने ही उसे नतमस्तक किया; तबसे आजतक आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ वह पर्वत बढ़ता नहीं। जब सारा जगत् अन्धकारसे आच्छादित था और प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी, उस समय आपको ही अपना रक्षक समझकर प्रजा आपकी शरणमें आयी और उसे आपके द्वारा परम आनन्द एवं शान्तिकी प्राप्ति हुई। जब-जब हमलोगोंपर भयका आक्रमण हुआ, तब-तब सदा ही आपने हमें शरण दी है; इसलिये आज भी हम आपसे एक वरकी याचना करते हैं। आप वरदाता हैं [ अतः हमारी इच्छा पूर्ण कीजिये ]भीष्मजीने पूछा- महामुने! क्या कारण था, जिससे विन्ध्य पर्वत सहसा क्रोधसे मूच्छित हो बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था ?
पुलस्त्यजीने कहा- सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तके समय सुवर्णमय महापर्वत गिरिराज मेरुकी परिक्रमा किया करते हैं। एक दिन सूर्यको देखकर विन्ध्याचलने उनसे कहा-'भास्कर! जिस प्रकार आप प्रतिदिन मेरुपर्वतकी परिक्रमा किया करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी कीजिये।' यह सुनकर सूर्यने गिरिराज विन्ध्यसे कहा- 'शैल! मैं अपनी इच्छासे मेरुकी परिक्रमा नहीं करता; जिन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने ही मेरे लिये यह मार्ग नियत कर दिया है।' उनके ऐसा कहनेपर विन्ध्याचलको सहसा क्रोध हो आया और वह सूर्य तथा चन्द्रमाका मार्ग रोकनेके लिये बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया। तब इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओंने जाकर बढ़ते हुए गिरिराज विन्ध्याचलको रोका, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाकर बोले-'मुनीश्वर! शैलराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंका मार्ग रोक रहा है; उसे कोई निवारण नहीं कर पाता।'
देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्मर्षि अगस्त्यजी विन्ध्यके पास गये और आदरपूर्वक बोले- 'पर्वत श्रेष्ठ! मैं दक्षिण दिशामें जानेके लिये तुमसे मार्ग चाहता हूँ। जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक तुम नीचे रहकर ही मेरी प्रतीक्षा करो।' [मुनिकी बात मानकर विन्ध्याचलने वैसा ही किया।] महर्षि अगस्त्य दक्षिण दिशासे आजतक नहीं लौटे; इसीसे विन्ध्य पर्वत अब नहीं बढ़ता। भीष्म ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह प्रसंग मैंने सुना दिया अब देवताओंने जिस प्रकार कालकेय दैत्योंका वध किया, वह वृत्तान्त सुनो। देवताओंके वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यने पूछा
'आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं और मुझसे क्या
वरदान चाहते हैं ?' उनके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने
कहा— 'महात्मन्! हम आपसे एक अद्भुत वरदान चाहते हैं। महर्षे! आप कृपा करके समुद्रको पीजाइये। आपके ऐसा करनेपर हमलोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवों को उनके सगे-सम्बन्धियों सहित नार डालेंगे।' महर्षिने कहा-'बहुत अच्छा, देवराज मैं आपलोगों की इच्छा पूर्ण करूंगा।' ऐसा कहकर ये देवताओं और तपःसिद्ध मुनियोंके साथ जलनिधि समुद्र के पास गये। उनके इस अद्भुत कर्मको देखनेकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर भी उन महात्माके पीछे-पीछे गये। महर्षि सहसा समुद्रके तटपर जा पहुँचे। समुद्र भीषण गर्जना कर रहा था। वह अपनी उत्ताल तरंगोंसे नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था । महर्षि अगस्त्यके साथ सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, नाग और महाभाग मुनि जब महासागरके किनारे पहुँच गये, तब महर्षिने समुद्रको पी जानेकी इच्छासे उन सबको लक्ष्य करके कहा – 'देवगण! सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये इस समय मैं इस महासागरको पिये लेता हूँ; अब आपलोगोंको जो कुछ करना हो, शीघ्र ही कीजिये।' यों कहकर वे सबके देखते-देखते समुद्रको पी गये। यह देखकर इन्द्र आदि देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ तथा वे महर्षिकी स्तुति करते हुए कहने लगे- 'भगवन्! आप हमारे रक्षक और लोकोंको नयाजन्म देनेवाले हैं। आपकी कृपासे देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्का कभी उच्छेद नहीं हो सकता।' इस प्रकार सम्पूर्ण देवता उनका सम्मान कर रहे थे। प्रधान प्रधान गन्धर्व हर्षनाद करते थे और महर्षिके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। उन्होंने समूचे महासागरको जलशून्य कर दिया। जब समुद्रमें एक बूँद भी पानी न रहा, तब सम्पूर्ण देवता हर्षमें भरकर हाथों में दिव्य आयुध लिये दानवोंपर प्रहार करने लगे। महाबली देवताओंका वेग असुरोंके लिये असह्य हो गया। उनकी मार खाकर भी वे भीमकाय दानव दो घड़ीतक घमासान युद्ध करते रहे; किन्तु वे पवित्रात्मा मुनियोंकी तपस्यासे दग्ध हो चुके थे, इसलिये पूर्ण शक्ति लगाकर यत्न करते रहनेपर भी देवताओंके हाथसे मारे गये। जो मरनेसे बच रहे, वे पृथ्वी फाड़कर पातालमें घुस गये। दानवोंको मारा गया देख देवताओंने नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यका स्तवन किया तथा इस प्रकार कहा
देवता बोले-महाभाग ! आपकी कृपासे संसारके लोगोंको बड़ा सुख मिला। कालकेय दानव बड़े ही क्रूर और पराक्रमी थे, वे सब आपकी शक्तिसे मारे गये। लोकरक्षक महर्षे! अब इस समुद्रको भरदीजिये। आपने जो जल पी लिया है, वह सब इसमें वापस छोड़ दीजिये ।
उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी बोले- 'वह जल तो मैंने पचा लिया, अब समुद्रको भरनेके लिये आपलोग कोई दूसरा उपाय सोचें।' महर्षिकी बात सुनकर देवताओंको विस्मय भी हुआ और विषाद भी । वहाँ इकट्ठे हुए सब लोग एक-दूसरेकी अनुमति ले मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम करके जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। देवतालोग समुद्रको भरनेके विषयमें परस्पर विचार करते हुए ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़ ब्रह्माजीको प्रणाम किया और समुद्रके पुनः भरनेका उपाय पूछा। तब लोकपितामह ब्रह्माने उनसे कहा-'देवताओ! तुम सब लोग इच्छानुसार अपने-अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाओ, अब बहुत दिनोंके बाद समुद्र अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त होगा । महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनोंको तारनेके लिये गंगाजीको लायेंगे और उन्हींके जलसे पुनः समुद्रको भर देंगे।'
ऐसा कहकर ब्रह्माजीने देवताओं और ऋषियोंको भेज दिया।