शेषजी कहते हैं- मुने। राजकुमार चित्रांग क्रौंच व्यूहके कण्ठभागमें रथपर विराजमान था। अनेकों वीरोंसे घिरे हुए होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वाराहावतारधारी भगवान् विष्णुने जिस प्रकार समुद्रमें प्रवेश किया था, उसी प्रकार उसने भी शत्रुघ्नको सेनामें प्रवेश किया। उसका धनुष अत्यन्त सुदृढ़ और मेघ गर्जनाके समान टंकार करनेवाला था। चित्रांगने उसे खींचकर चढ़ाया और करोड़ों शत्रुओंको भस्म करनेवाले तीखे बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उन बाणोंसे समस्त शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण बहुत से योद्धा धराशायी हो गये। इस प्रकार घोर संग्राम आरम्भ हो जानेपर पुष्कल भी युद्धके लिये गये। चित्रांग और पुष्कल दोनों एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय उन दोनोंका स्वरूप बड़ा हो मनोहर दिखायी देता था। पुष्कलने सुन्दर भ्रामकास्त्रका प्रयोग करके चित्रांगके दिव्य रथको आकाशमें घुमाना आरम्भ किया। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। एक मुहूर्ततक आकाशमें चक्कर लगानेके बाद घोड़ोंसहित वह रथ बड़े कष्टसे स्थिर हुआ और युद्धभूमिमें आकर ठहरा। उस समय चित्रांगने कहा- 'पुष्कल तुमने बड़ा उत्तम पराक्रम दिखाया श्रेष्ठ योद्धा संग्राममें ऐसे कर्मोंकी बड़ी सराहना करते हैं। तुम घोड़ोंसहित मेरे रथको आकाशमें घुमाते रह गये। किन्तु अब मेरा भी पराक्रम देखो, जिसकी शूरवीर प्रशंसा करते हैं।' ऐसा कहकर चित्रांगने युद्धमें बड़े भयंकर अस्त्रका प्रयोग किया। उस बाणसे आवद्ध होकर पुष्कलका रथ आकाशमें पक्षीकी भाँति घोड़े और सारथिसहित चक्कर लगाने लगा। पुत्रका यह पराक्रम देखकर राजा सुबाहुको बड़ा विस्मय हुआ।
शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले पुष्कल जब किसी तरह धरतीपर आकर ठहरे तो उन्होंने घोड़े और सारथिसहित चित्रांगके रथको अपने बाणोंसे नष्ट कर दिया। जब वह रथ टूट गया तो चीर चित्रांग पुनः दूसरेरथपर सवार हुआ परन्तु पुष्कलने लगे हाथ उसे भी अपने बाणोंसे नष्ट कर डाला। इस प्रकार उस युद्धके मैदानमें वीर पुष्कलने राजकुमार चित्रांगके दस रथ चौपट कर दिये। तब चित्रांग एक विचित्र रथपर सवार होकर पुष्कलके साथ युद्ध करनेके लिये बड़े वेग से आया। उसने क्रोधमें भरकर पाँच भल्ल हाथमें लिये और महातेजस्वी भरतपुत्रके मस्तकको उनका निशाना बनाया। उन भल्लोंकी चोट खाकर पुष्कल क्रोधसे जल उठे और धनुषपर बाणका सन्धान करके चित्रांगको मार डालनेकी प्रतिज्ञा करते हुए बोले-'चित्रांग! यदि इस बाणसे मैं तुम्हारे प्राण न ले लूँ तो शील और सदाचारसे शोभा पानेवाली सती नारीको कलंकित करनेसे यमराजके वशमें पड़े हुए पापी मनुष्योंको जिस लोककी प्राप्ति होती है, वही मुझे भी मिले ! मेरी यह प्रतिज्ञा सत्य हो ।' पुष्कलका यह उत्तम वचन सुनकर शत्रुपक्ष के वीरोंका नाश करनेवाला बुद्धिमान् वीर चित्रांग हंसकर बोला-'शूरशिरोमणे प्राणियोंकी मृत्यु सदा और सर्वत्र ही हो सकती है; अतः मुझे अपने मरनेका दुःख नहीं है; किन्तु तुम मेरे वधके लिये जो बाण छोड़ोगे, उसे मैं यदि काट न डालूँ तो उस अवस्थामें मेरी प्रतिज्ञा सुनो-जो मनुष्य तीर्थ-यात्राकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका मानसिक उत्साह नष्ट करता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे क्योंकि उस दशामें मैं प्रतिज्ञा-भंगका अपराधी समझा जाऊँगा।' इतना कहकर चित्रांग चुप हो गया। उसने अपने धनुषको सँभाला।
पुष्कल बोले- 'यदि मैंने निष्कपट भावसे श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंकी उपासना की हो तो मेरी बात सच्ची हो जाय। यदि मैं अपनी स्त्रीके सिवा दूसरी किसी स्वीका मनमें भी विचार न करता हो तो इस सत्यके प्रभावसे युद्धमें मेरा वचन सत्य हो। यह कहकर पुष्कलने तुरंत ही अपने धनुषपर एक बाण चढ़ाया, जो कालाग्निके समान तेजस्वी तथा बोकेमस्तकका उच्छेद करनेवाला था। उस बाणको उन्होंने चित्रांगके ऊपर छोड़ दिया। वह बाण छूटता देख बलवान् राजकुमारने भी धनुषपर कालाग्निके समान एक तीक्ष्ण बाण रखा और उससे अपने वधके लिये आते हुए पुष्कलके बाणको काट डाला। उस समय बाणके कट जानेपर पुष्कलकी सेनामें भारी हाहाकार मचा। कटे हुए बाणका पिछला आधा भाग धरतीपर गिर पड़ा, किन्तु पूर्वार्ध भाग, जिसमें बाणका फल (नॉक) जुड़ा हुआ था, आगे बढ़ा। उसने एक ही क्षणमें कमलकी नालके समान चित्रांगका गला काट डाला। राजकुमारका सुन्दर मस्तक किरीट और कुण्डलसहित पृथ्वीपर गिर पड़ा और आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगा। भरतकुमार वीरवर पुष्कलने राजकुमार चित्रांगको भूमिपर पड़ा देख उस क्रौंच व्यूहके भीतर प्रवेश किया, जो समस्त बोरोंसे सुशोभित हो रहा था।
तदनन्तर अपने पुत्र चित्रांगको प्राणहीन होकर धरतीपर पड़ा देख राजा सुबाहु पुत्रशोकसे अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगे। उस समय राजकुमार विचित्र और दमन अपने-अपने रथपर बैठकर आये और पिताके चरणोंमें प्रणाम करके समयोचित वचन बोले- 'राजन्! हमलोगोंके जीते जी आपके हृदयमें दुःख क्यों हो रहा है वीर पुरुषोंको तो बुद्धमें मृत्यु अत्यन्त अभीष्ट होती है। यह चित्रांग धन्य है, जो वीरभूमिमें शोभा पा रहा है। महामते! आप शोक छोड़िये, दुःखसे इतने आतुर क्यों हो रहे हैं? मान्यवर! हम दोनोंको युद्धके लिये आज्ञा दीजिये और स्वयं भी युद्धमें मन लगाइये।' अपनी वीरतापर गर्व करनेवाले दोनों पुत्रोंका यह वचन सुनकर महाराजने शोक छोड़ दिया और युद्धके लिये निश्चय किया। साथ ही संग्राममें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वे दोनों भाई विचित्र और दमन भी अपने समान योद्धाकी अभिलाषा करते हुए असंख्य सैनिकोंसे भरी हुई शत्रुकी सेनायें घुस गये। दमनने रिपुतापके और विचित्रने नीलरत्नके साथ लोहा लिया। वे दोनों वीर रणभूमिमें उत्साहपूर्वक युद्ध करने लगे। स्वयं राजासुबाहु सुवर्णजटित रथपर सवार हो करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुध्नके साथ युद्ध करनेके लिये चले सुबाहुको पुत्रवधके कारण रोषमें भरकर युद्धके लिये आते और सैनिकोंका नाश करते देखकर शत्रुघ्नके पार्श्वभागकी रक्षा करनेवाले हनुमान्जी उनकी ओर दौड़े। नख ही उनके आयुध थे और वे युद्धमें मेषको भाँति विकट गर्जना कर रहे थे। उस समय सुबाहुने दस बाणोंसे हनुमान्जीकी छातीमें बड़े वेगसे चोट की। परन्तु हनुमानजी बड़े भयंकर वीर थे। उन्होंने सुबाहुके छोड़े हुए सभी बाण अपने हाथसे पकड़ लिये और उन्हें तिल-तिल करके तोड़ डाला। वे महान् बलवान् तो थे ही राजाके रथको अपनी पूँछमें लपेटकर वेगपूर्वक खींच ले चले। उन्हें रथ लेकर जाते देख नृपश्रेष्ठ सुबाहु आकाशमें ही खड़े हो गये और तीखी नोंकवाले सायकोंसे उनकी पूँछ, मुख, हृदय, बाहु और चरणोंमें बारम्बार चोट पहुँचाने लगे तब कपिवर हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेगसे उछलकर उत्तम योद्धाओंसे सुशोभित राजा सुबकी छातीमें लात मारी। राजा उनके चरण-प्रहारसे मूच्छित होकर धरतीपर गिर पड़े और मुखसे गरम-गरम रक्त वमन करने लगे। उस समय वे जोर-जोरसे साँस लेते हुए काँप रहे थे। मूर्च्छावस्थामें ही राजाने एक स्वप्न देखा-'अयोध्यापुरीमें सरयूके तटपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी यज्ञ मण्डपके भीतर विराजमान है। यज्ञ करानेवालोंमें श्रेष्ठ अनेक ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे हुए हैं। ब्रह्मा आदि देवता और करोड़ों ब्रह्माण्डके प्राणी हाथ जोड़े खड़े हैं तथा बारम्बार भगवान्की स्तुति कर रहे है भगवान् श्रीरामका विग्रह श्याम रंगका है, उनके नेत्र सुन्दर हैं। उन्होंने अपने हाथमें मृगका सींग धारण कर रखा है। नारद आदि देवर्षिगण हाथोंसे वीणा बजाते हुए उनका सुयश गान कर रहे हैं। चारों वेद मूर्तिमान् होकर रघुनाथजीकी उपासना करते हैं। संसारमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तुएँ हैं, उन सबके दाता पूर्ण ब्रह्म भगवान् श्रीराम ही हैं।'
इस प्रकार स्वप्न देखते-देखते वे जाग उठे, उन्हें चेत हो आया। फिर तो वे शत्रुघ्नजीके चरणोंकी ओरपैदल ही चल दिये। धर्मज्ञ महाराजने युद्धके लिये उद्यत हुए सुकेतु, विचित्र और दमनको बुलाकर लड़ने से रोका और कहा- " अब शीघ्र ही युद्ध बंद करो, दमन! यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ, जो तुमने भगवान् श्रीरामके तेजस्वी अश्वको पकड़ लिया। ये इ श्रीरामचन्द्रजी कार्य और कारणसे परे साक्षात् परब्रह्म हैं, चराचर जगत्के स्वामी हैं, मानव शरीर धारण करनेपर भी वे वास्तवमें मनुष्य नहीं हैं। इन्हें इस रूपमें जान लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इस तत्त्वको मैं अभी समझ पाया हूँ। मेरे पापहीन पुत्रो ! पूर्वकालमें असितांगमुनिके शापसे मेरा ज्ञानरूपी धन नष्ट हो गया था। [ वह प्रसंग मैं सुना रहा हूँ-] प्राचीन समयकी बात है, मैं तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे तीर्थयात्राके लिये निकला था। उस यात्रामें मुझे अनेकों धर्मज्ञ ऋषि महर्षियोंके दर्शन हुए। एक दिन ज्ञान प्राप्तिको इच्छासे मैं असितांगमुनिकी सेवामें गया। उस समय उन ब्रह्मर्षिने मेरे ऊपर कृपा करके इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ किया- 'वे जो अयोध्यापुरीके स्वामी महाराज श्रीरामचन्द्रजी हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है तथा जो उनकी धर्मपत्नी जनककिशोरी भगवती सीता हैं, वे भगवान्की साक्षात् चिन्मयी शक्ति मानी गयी हैं। दुस्तर एवं अपार संसार सागरसे पार जानेकी इच्छा रखनेवाले योगीजन यम-नियम आदि साधनोंके द्वारा साक्षात् श्रीरघुनाथजीको ही उपासना करते हैं। वे ही ध्वजामें गरुड़का चिह्न धारण करनेवाले भगवान् नारायण हैं। स्मरण करनेमात्रसे ही वे बड़े-बड़े पापको हर लेते हैं। जो विद्वान् उनकी उपासना करेगा, वह इस संसार समुद्रसे तर जायगा।' मुनिकी बात सुनकर मैंने उनका 'उपहास करते हुए कहा- 'राम कौन बड़े शक्तिशाली हैं। ये तो एक साधारण मनुष्य हैं। इसी प्रकार हर्ष और शोकमें डूबी हुई ये जानकीदेवी भी क्या चीज हैं? जो अजन्मा है, उसका जन्म कैसा? तथा जो अकर्ता है, उसके लिये संसारमें आनेका क्या प्रयोजन है? मुने! मुझे तो आप उस तत्त्वत्का उपदेश दीजिये, जो जन्म, दुःख और जरावस्थासे परे हो।' मेरे ऐसा कहनेपर उन विद्वान् मुनीश्वरने मुझे शाप दे दिया। वे बोले-ओनीच! तू श्रीरघुनाथजीके स्वरूपको नहीं जानता तो भी मेरे कथनका प्रतिवाद कर रहा है, इन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी निन्दा करता है और ये साधारण मनुष्य हैं' ऐसा कहकर उनका उपहास कर रहा है; इसलिये तु तत्त्वज्ञान शून्य होकर केवल पेट पालने तू लगा रहेगा।' यह सुनकर मैंने महर्षिके चरण पकड़ लिये और अपने प्रति उनके हृदयमें दयाका संचार किया। वे करुणाके सागर थे, मेरी प्रार्थनासे पिघल गये और बोले—' राजन्! जब तुम श्रीरघुनाथजीके हमें विघ्न डालोगे और हनुमानजी वेगपूर्वक तुम्हारे ऊपर चरण-प्रहार करेंगे, उसी समय तुम्हें भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ज्ञान होगा; अन्यथा अपनी बुद्धिसे तुम उन्हें नहीं जान सकोगे।' मुनिवर असितांगने पहले ही जो बात बतायी थी, उसका इस समय मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अतः अब मेरे महावली सैनिक रघुनाथजीके शोभायमान अश्वको ले आवें। उसके साथ ही मैं बहुत सा धन-वस्त्र तथा यह राज्य भी भगवान्को अर्पण कर दूँगा वह यज्ञ अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके मैं कृतार्थ हो जाऊँगा, इसलिये घोड़ेसहित अपना सर्वस्व समर्पण कर देना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है।"
उत्तम रीति से युद्ध करनेवाले सुपुत्रोंने पिताको बात सुनकर बड़ा हर्ष प्रकट किया। वे महाराज सुबाहुको श्रीरघुनाथजीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित देखकर उनसे बोले-'राजन् हमलोग आपके चरणोंके सिवा और कुछ नहीं जानते, अतः आपके हृदयमें जो शुभ संकल्प प्रकट हुआ है, वह शीघ्र ही पूर्ण होना चाहिये सफेद चैवरसे सुशोभित रत्न और माला आदिकी शोभासे सम्पन्न तथा चन्दन आदिके द्वारा चर्चित यह यज्ञसम्बन्धी अश्व शत्रुघ्नजीके पास ले जाइये। आपकी आज्ञाके अनुसार उपयोग होनेमें ही इस राज्यकी सार्थकता है। स्वामिन् प्रचुर समृद्धियोंसे भरे हुए कोष, हाथी घोड़े, वस्त्र, रत्न, मोती तथा मूँगे आदि द्रव्य लाखोंकी संख्या है। इनके सिवा और भी जो-जो महान् अभ्युदयकी वस्तुएँ हैं, उन सबकोश्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें समर्पित कीजिये। महामते ! हम सभी पुत्र आपके किंकर हैं, हमें भी भगवान्की सेवामें अर्पण कीजिये।'
ये वचन सुनकर महाराज सुबाहुको बड़ा हर्ष हुआ। वे आज्ञा-पालनके लिये उद्यत हुए अपने वीर पुत्रोंसे इस प्रकार बोले- 'तुम सब लोग हाथोंमें हथियार ले नाना प्रकारके रथोंसे घिरकर कवच आदिसे सुसज्जित हो घोड़ेको यहाँ ले आओ। तत्पश्चात् मैं राजा शत्रुघ्नके पास चलूँगा।'
शेषजी कहते हैं - राजा सुबाहुके वचन सुनकर विचित्र, दमन, सुकेतु तथा अन्यान्य शूरवीर उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये उद्यत हो नगरमें गये। और उस मनोहर अश्वको, जो सफेद चँवरसे संयुक्त और स्वर्णपत्र आदिसे अलंकृत था, राजाके सामने ले आये। रत्नमाला आदिसे विभूषित और मनके समान वेगवान् उस अश्वमेध यज्ञके घोड़ेको लाया गया देख बुद्धिमान् राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ परम धार्मिक शत्रुघ्नजीके समीप पैदल ही चले। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि 'यह धन नश्वर है, जो लोगइसमें आसक्त होते हैं; उन्हें यह दुःख ही देता है।' यही सोचकर वे विनाशकी ओर जानेवाले धनका सदुपयोग करनेके लिये वहाँसे चले। निकट जाकर उन्होंने देखा- शत्रुघ्नी श्वेतबसे सुशोभित है तथा मन्त्री सुमतिसे भगवान् श्रीरामको कथावार्ता पूछ रहे हैं। भयकी बात तो उन्हें छू भी नहीं सकी थी। वे वीरोचित शोभासे उद्दीप्त हो रहे थे।
उनका दर्शन करके पुत्रसहित राजा सुबाहुने शत्रुघ्नजीके चरणोंमें प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा-'मैं धन्य हो गया।' उस समय उनका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीके चिन्तनमें लगा हुआ था। शत्रुघ्नने देखा ये उद्भट राजा सुबाहु मेरे प्रेमी होकर मिलने आये हैं, तो वे आसनसे उठ खड़े हुए और सबके साथ बाँहें पसारकर मिले। विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले राजा सुबाहुने शत्रुघ्नजीका भलीभाँति पूजन करके अत्यन्त हर्ष प्राप्त किया और गद्गद स्वरसे कहा- 'करुणानिधे आज मैं पुत्र, कुटुम्ब और वाहनसहित धन्य हो गया; क्योंकि इस समय मुझे करोड़ों राजाओंद्वारा अभिवन्दित आपके चरणोंका दर्शन हो रहा है। मेरा पुत्र दमन अभी नादान है, इसीलिये इसने इस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया है; आप इसके अनीतिपूर्ण बर्तावको क्षमा कीजिये। जो सम्पूर्ण देवताओंके भी देवता हैं तथा जो लीलासे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं, उन रघुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको यह नहीं जानता, इसीसे इसके द्वारा यह अपराध हो गया है। हमारे इस राज्यका प्रत्येक अंग समृद्धिशाली है। सेना और सवारियोंकी संख्या भी बहुत बढ़ी चढ़ी है। ये सब श्रीरामकी सेवामें समर्पित हैं। ये मेरे पुत्र और हम भी आपहीके हैं। हम सब लोगोंके स्वामी भगवान् श्रीराम ही हैं। हम आपकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करेंगे। मेरी दी हुई ये सभी वस्तुएँ स्वीकार करके इन्हें सफल बनाइये। मेरे पास कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो ग्रहण करनेके योग्य न हो। श्रीरामजीके चरणारविन्दोंके मधुकर हनुमानजी कहाँ हैं? उन्होंकी कृपासे मैं राजाधिराज भगवान् रामका दर्शनकरूँगा। साधुओंका संग हो जानेपर इस पृथ्वीपर क्या क्या नहीं मिल जाता ! मैं महामूढ़ था; किन्तु संतके प्रसादसे ही आज मेरा ब्रह्मशापसे उद्धार हुआ है। अब मैं पद्मपत्रके समान विशाल लोचनोंवाले महाराज श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके इस लोकमें जन्म लेनेका सम्पूर्ण एवं दुर्लभ फल प्राप्त करूँगा। मेरी आयुका बहुत बड़ा भाग श्रीरामके वियोगमें ही बीत गया। अब थोड़ी-सी ही आयु शेष रह गयी है; इसमें मैं श्रीरघुनाथजीका कैसे दर्शन करूँगा ? मुझे यज्ञकर्म में कुशल श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कराइये, जिनके चरणोंकी धूलिसे पवित्र होकर शिला भी मुनिपत्नी हो गयी तथा युद्धमें जिनके मुखारविन्दका अवलोकन करके अनेकों वीर परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग आदरपूर्वक श्रीरघुनाथजीके नाम लेते हैं, वे उसी परम धामको प्राप्त होते हैं, जिसका योगी लोग चिन्तन किया करते हैं। अयोध्याके लोग धन्य हैं, जो अपने नेत्र- पुटोंके द्वारा श्रीरामके मुखकमलका मकरन्द पान करके सुख पाते और महान् अभ्युदयको प्राप्त होते हैं।'
शत्रुघ्नने कहा- राजन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं? आप वृद्ध होनेके नाते मेरे पूज्य हैं। आपका यह सारा राज्य राजकुमार दमनके अधिकारमें रहना चाहिये। क्षत्रियोंका कर्तव्य ही ऐसा है, जो युद्धका अवसर उपस्थित कर देता है। सम्पूर्ण राज्य और यह धन -सब मेरी आज्ञासे लौटा ले जाइये। महीपते! जिस प्रकारश्रीरघुनाथजी मेरे लिये मन-वाणीद्वारा सदा ही पूज्य हैं, उसी प्रकार आप भी पूजनीय होंगे। इस घोड़ेके पीछे चलनेके लिये आप भी तैयार हो जाइये।
परम बुद्धिमान् शत्रुघ्नजीका कथन सुनकर सुबाहुने अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। उस समय शत्रुघ्नजीने उनकी बड़ी सराहना की। तदनन्तर वे महारथियोंसे घिरकर रणभूमिमें गये और पुष्कलके हाथसे मरे हुए अपने पुत्रका विधिपूर्वक दाह-संस्कार करके कुछ देरतक शोकमें डूबे रहे; उनका वह शोक साधारण लोगोंकी ही दृष्टिमें था। वास्तवमें तो वे महारथी नरेश तत्त्वज्ञानी थे; अतः श्रीरघुनाथजी निरन्तर स्मरण करते हुए उन्होंने ज्ञानके द्वारा अपना समस्त शोक दूर कर दिया। फिर अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर रथपर बैठे और विशाल सेनाके साथ महारथियोंको आगे करके शत्रुघ्नके पास आये। राजा शत्रुघ्नने सुबाहुको सम्पूर्ण सेनाके साथ उपस्थित देख घोड़ेकी रक्षाके लिये जानेका विचार किया। सुबाहुके यहाँसे छूटनेपर वह भालपत्रसे चिह्नित अश्व भारतवर्षकी वामावर्त परिक्रमा करता हुआ पूर्वदिशाके अनेकों देशोंमें गया। उन सभी देशोंमें बड़े बड़े शूरवीरोंद्वारा पूजित भूपाल उस अश्वको प्रणाम करते थे। कोई भी उसे पकड़ता नहीं था। कोई विचित्र विचित्र वस्त्र, कोई अपना महान् राज्य तथा कोई धन वैभव या और कोई वस्तु भेंटके लिये लाकर अश्वसहित शत्रुघ्नको प्रणाम करते थे ।