भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् सुना जाता है, पूर्वकालमें बहुत-से राजा इस पृथ्वीका उपभोग कर चुके हैं। पृथ्वीके सम्बन्धसे ही राजाओंको पार्थिव या पृथ्वीपति कहते हैं। परन्तु इस भूमिकी जो 'पृथ्वी' संज्ञा है, वह किसके सम्बन्धसे हुई है? भूमिको यह पारिभाषिक संज्ञा किसलिये दी गयी अथवा उसका 'गौ' नाम भी क्यों पड़ा, यह मुझे बताइये।
पुलस्त्यजीने कहा- स्वायम्भुव मनुके वंशमें एक अंग नामके प्रजापति थे। उन्होंने मृत्युकी कन्या सुनीथाके साथ विवाह किया था। सुनीथाका मुख बड़ा कुरूप था। उससे वेन नामक पुत्र हुआ, जो सदा अधर्ममें हो लगा रहता था। वह लोगोंकी बुराई करता और परायी स्त्रियोंको हड़प लेता था। एक दिन महर्षियोंने उसकी भलाई और जगत्के उपकारके लिये उसे बहुत कुछ समझाया बुझाया परन्तु उसका अन्तःकरण अशुद्ध होनेके कारण उसने उनकी बात नहीं मानी, प्रजाको अभयदान नहीं दिया। तब ऋषियोंने शाप देकर उसे मार डाला। फिर अराजकताके भयसे पीड़ित होकर पापरहित ब्राह्मणोंने वेनके शरीरका बलपूर्वक मन्थन किया। मन्थन करनेपर उसके शरीर से पहले म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुई, जिनका रंग काले अंजनके समान था। तत्पश्चात् उसके दाहिने हाथसे एक दिव्य तेजोमय शरीरधारी धर्मात्मा पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो धनुष, बाण और गदा धारण किये हुए थे तथा रत्नमय कवच एवं अंगदादि आभूषणोंसे विभूषित थे। वे पृथुके नामसे प्रसिद्ध हुए। उनके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही अवतीर्ण हुए थे। ब्राह्मणोंने उन्हें राज्यपर अभिषिक्त किया। राजा होनेपर उन्होंने देखा कि इस भूतलसे धर्म उठ गया है। न कहीं स्वाध्याय होता है, न वषट्कार (यज्ञादि)। तब वे क्रोध करके अपने वाणसे पृथ्वीको विदीर्ण कर डालनेके लिये उद्यत हो गये। यह देख पृथ्वी गौका रूप धारण करके भाग खड़ी हुई। उसे भागते देख पृथुने भी उसका पीछा किया। तब वह एक स्थानपर खड़ी होकर बोली- 'राजन्! मेरे लिये क्या आज्ञा होती है?'पृथुने कहा – 'सुव्रते ! सम्पूर्ण चराचर जगत्के लिये जो अभीष्ट वस्तु है, उसे शीघ्र प्रस्तुत करो।' पृथ्वीने 'बहुत अच्छा' कहकर स्वीकृति दे दी तब राजाने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें पृथ्वीका दूध दुह वही दूध अन्न हुआ, जिससे सारी प्रजा जीवन धारण करती है। तत्पश्चात् ऋषियोंने भी भूमिरूपिणी गौका दोहन किया। उस समय चन्द्रमा ही बड़ा बने थे। दुहनेवाले थे वनस्पति, दुग्धका पात्र भा वेद और तपस्या ही दूध थी। फिर देवताओंने भी वसुधाको दुहा। उस समय मित्र देवता दोग्धा हुए, इन्द्र बछड़ा बने तथा ओज और बल ही दूधके रूपमें प्रकट हुआ। देवताओंका दोहनपात्र सुवर्णका था और पितरोंका चाँदीका पितरोंकी ओरसे अन्तकने दुहनेका काम किया, यमराज बछड़ा बने और स्वधा ही दूधके रूपमें प्राप्त हुई। नागने तूंबीको पात्र बनाया और तक्षकको बछड़ा। धृतराष्ट्र नामक नागने दोग्धा बनकर विषरूपी दुग्धका दोहन किया। असुरोंने लोहेके वर्तनमें इस पृथ्वीसे मायारूप दूध दुहा। उस समय प्रह्लादकुमार विरोचन बछड़ा बने थे और त्रिमूर्धाने दुहनेका काम किया था। यक्ष अन्तर्धान होनेकी विद्या प्राप्त करना चाहते थे; इसलिये उन्होंने कुबेरको बछड़ा बनाकर कच्चे वर्तनमें उस अन्तर्धान-विद्याको हो वसुधासे दुग्धके रूपमें दुरा। गन्धवों और अप्सराओंने चित्ररथको बछड़ा बनाकर कमलके पत्तेमें पृथ्वीसे सुगन्धोंका दोहन किया। उनकी ओरसे अथर्ववेदके पारगामी विद्वान् सुरुचिने दूध दुहनेका कार्य किया था। इस प्रकार दूसरे लोगोंने भी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार पृथ्वीसे आयु, धन और सुखका दोहन किया। पृथुके शासन कालमें कोई भी मनुष्य न दरिद्र था न रोगी, न निर्धन था न पापी तथा न कोई उपद्रव था न पीड़ा। सब सदा प्रसन्न रहते थे। किसीको दुःख या शोक नहीं था। महाबली पृथुने लोगोंके हितकी इच्छासे अपने धनुषकी नोकसे बड़े-बड़े पर्वतको उखाड़कर हटा दिया और पृथ्वीको समतल या पृथुके राज्यमें गाँव बसाने या किले बनवानेकी,आवश्यकता नहीं थी। किसीको शस्त्र धारण करनेका भी कोई प्रयोजन नहीं था। मनुष्योंको विनाश एवं वैषम्यका दुःख नहीं देखना पड़ता था अर्थशास्त्रमें किसीका आदर नहीं था। सब लोग धर्ममें ही संलग्न रहते थे। इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वीके दोहन पात्रोंका वर्णन किया तथा जैसा-जैसा दूध दुहा गया था, वह भी बता दिया। राजा पृथु बड़े विज्ञ थे; जिनकी जैसी संथ थी, उसीके अनुसार उन्होंने सबको दूध प्रदान किया। यह प्रसंग यज्ञ और श्राद्ध सभी अवसरोंपर सुनानेके योग्य हैं; इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। यह भूमि धर्मात्मा पृथुकी कन्या मानी गयी इसीसे विद्वान् पुरुष 'पृथ्वी' कहकर इसकी स्तुति करते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप तत्त्वके ज्ञाता हैं; अब क्रमशः सूर्यवंश और चन्द्रवंशका पूरा-पूरा एवं स्वार्थ वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! पूर्वकालमें कश्यपजीसे अदिति के गर्भ से विवस्वान् नामक पुत्र हुए। विवस्वानके तीन स्त्रियाँ थीं- संज्ञा, राज्ञी और प्रभा राज्ञीने रैवत नामक पुत्र उत्पन्न किया। प्रभासे प्रभातकी उत्पत्ति हुई। संज्ञा विश्वकर्माकी पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनुको जन्म दिया। कुछ काल पश्चात् संज्ञाके गर्भसे यम और यमुना नामक दो जुड़वी सन्तानें पैदा हुई। तदनन्तर वह विवस्वान (सूर्य) के तेजोमय स्वरूपको न सह सकी, अतः उसने अपने शरीरसे अपने ही समान रूपवाली एक नारीको प्रकट किया। उसका नाम छाया हुआ छाया सामने खड़ी होकर बोली 'देवि! मेरे लिये क्या आज्ञा है?' संज्ञाने कहा- 'छाया! तुम मेरे स्वामीकी सेवा करो, साथ ही मेरे बच्चोंका भी माताकी भाँति स्नेहपूर्वक पालन करना।' 'तथास्तु' कहकर छाया भगवान् सूर्यके पास गयी। वह उनसे अपनी कामना पूर्ण करना चाहती थी। सूर्यने भी यह समझकर कि यह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली संज्ञा ही है, बड़े आदरके साथ उसकी कामना की छायाने सूर्यसे सावर्ण मनुको उत्पन्न किया। उनका वर्ण भी वैवस्वत मनुके समान होनेके कारण उनका नाम सावर्ण मनु पड़ गया। तत्पश्चात्भगवान् भास्करने छायाके गर्भसे क्रमशः शनैश्चर नामक पुत्र तथा तपती और विष्टि नामकी कन्याओंको जन्म दिया।
एक समय महायशस्वी यमराज वैराग्यके कारण पुष्कर तीर्थमें गये और वहाँ फल, फेन एवं वायुका आहार करते हुए कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने सौ वर्षोंतक तपस्याके द्वारा ब्रह्माजीकी आराधना की। उनके रूपके प्रभावसे देवेश्वर ब्रह्माजी सन्तुष्ट हो गये तब यमराजने उनसे लोकपालका पद अक्षय पितृलोकका राज्य तथा धर्माधर्ममय जगत्की देख-रेखका अधिकार माँगा। इस प्रकार उन्हें ब्रह्माजीसे लोकपाल पदवी प्राप्त हुई। साथ ही उन्हें पितृलोकका राज्य और धर्माधर्मके निर्णयका अधिकार भी मिल गया।
छायाके पुत्र शनैश्चर भी तपके प्रभावसे ग्रहोंकी समानताको प्राप्त हुए। यमुना और तपती- ये दोनों सूर्य कन्याएँ नदी हो गयीं। विष्टिका स्वरूप बड़ा भयंकर था; वह कालरूपसे स्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र हुए, उन सबमें 'इल' ज्येष्ठ थे। शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार हैं-इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करूष, महाबली शर्याति, पृषध तथा नाभाग। ये सभी दिव्य मनुष्य थे। राजा मनु अपने ज्येष्ठ और धर्मात्मा पुत्र 'इल' को राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं पुष्करके तपोवनमें तपस्या करनेके लिये चले गये। तदनन्तर उनकी तपस्याको सफल करनेके लिये वरदाता ब्रह्माजी आये और बोले—'मनो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी इच्छाके अनुसार वर माँगो।'
मनुने कहा- स्वामिन्! आपकी कृपासे पृथ्वीके सम्पूर्ण राजा धर्मपरायण, ऐश्वर्यशाली तथा मेरे अधीन हो 'तथास्तु' कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर मनु अपनी राजधानीमें आकर पूर्ववत् रहने लगे। इसके बाद राजा इल अर्थसिद्धिके लिये इस भूमण्डलपर विचरने लगे। वे सम्पूर्ण द्वीपोंमें घूम-घूमकर वहाँके राजाओंको अपने वशमें करते थे। एक दिन प्रतापी इल रथमें बैठकर भगवान् शंकरके महान् उपवनमें गये, जो कल्पवृक्षकी लताओंसे व्याप्त एवं'शरवण' के नामसे प्रसिद्ध था। उसमें देवाधिदेव चन्द्रार्धशेखर भगवान् शिव पार्वतीजीके साथ क्रीडा करते हैं। पूर्वकालमें महादेवजीने उमाके साथ 'शरवण' के भीतर प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही थी कि 'पुरुष नामधारी जो कोई भी जीव हमारे वनमें आ जायगा, वह इस दस योजनके घेरेमें पैर रखते ही स्त्रीरूप हो जायगा।' राजा इल इस प्रतिज्ञाको नहीं जानते थे, इसीलिये 'शरवण' में चले गये। वहाँ पहुँचनेपर वे सहसा स्त्री हो गये तथा उनका घोड़ा भी उसी समय घोड़ी बन गया रायके जो-जो पुरुषोचित अंग थे, वे सभी स्त्रीके आकारमें परिणत हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अब वे 'इला' नामकी स्त्री थे।
इला उस वनमें घूमती हुई सोचने लगी, 'मेरे माता-पिता और भ्राता कौन हैं?' वह इसी उधेड़-बुनमें पड़ी थी, इतनेमें ही चन्द्रमाके पुत्र बुधने उसे देखा । [ इलाकी दृष्टि भी बुधके ऊपर पड़ी।] सुन्दरी इलाका मन बुधके रूपपर मोहित हो गया; उधर बुध भी उसे देखकर कामपीड़ित हो गये और उसकी प्राप्तिके लिये यत्न करने लगे। उस समय बुध ब्रह्मचारीके वेषमें थे। वे बनके बाहर पेड़ोंके झुरमुटमें छिपकर इलाको बुलाने लगे- 'सुन्दरी! यह साँझका समय, विहारकी वेला है। जो बीती जा रही है; आओ, मेरे घरको लीप-पोतकर फूलोंसे सजा दो।' इला बोली- 'तपोधन! मैं यह सब कुछ भूल गयी हूँ। बताओ, मैं कौन हूँ? तुम कौन हो ? मेरे स्वामी कौन हैं तथा मेरे कुलका परिचय क्या है?' बुधने कहा- 'सुन्दरी! तुम इला हो, मैं तुम्हें चाहनेवाला बुध हूँ। मैं विद्या है। तेजस्वी कुलमें मेरा जन्म हुआ है। मेरे पिता ब्राह्मणोंके राजा चन्द्रमा हैं।'
बुधकी यह बात सुनकर इलाने उनके घरमें प्रवेश किया। वह सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था और अपने वैभवसे इन्द्रभवनको मात कर रहा था। वहाँ रहकर इला बहुत समयतक बुधके साथ वनमें रमण करती रही। उधर इलके भाई इक्ष्वाकु आदि मनुकुमार अपने राजाकी खोज करते हुए उस 'शरवण' के निकट आ पहुँचे। उन्होंने नाना प्रकारके स्तोत्रोंसेपार्वती और महादेवजीका स्तवन किया। तब वे दोनों प्रकट होकर बोले—'राजकुमारो ! मेरी यह प्रतिज्ञा तो टल नहीं सकती; किन्तु इस समय एक उपाय हो सकता है। इक्ष्वाकु अश्वमेध यज्ञ करें और उसका फल हम दोनोंको अर्पण कर दें। ऐसा करनेसे वीरवर इस 'किम्पुरुष' हो जायेंगे इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।'
'बहुत अच्छा, प्रभो!' यह कहकर मनुकुमार लौट गये। फिर इक्ष्वाकुने अश्वमेध यज्ञ किया। इससे इला 'किम्पुरुष' हो गयी। वे एक महीने पुरुष और एक महीने स्वीके रूपमें रहने लगे। बुधके भवनमें [स्त्रीरूपसे] रहते समय इलने गर्भ धारण किया था। उस गर्भसे उन्होंने अनेक गुणोंसे युक्त पुत्रको जन्म दिया। उस पुत्रको उत्पन्न करके बुध स्वर्गलोकको चले गये। वह प्रदेश इलके नामपर 'इलावृतवर्ष' के नामसे प्रसिद्ध हुआ। ऐल चन्द्रमाके वंशज तथा चन्द्रवंशका विस्तार करनेवाले राजा हुए। इस प्रकार इलाकुमार पुरूरवा चन्द्रवंशकी तथा राजा इक्ष्वाकु सूर्यवंशकी वृद्धि करनेवाले बताये गये हैं। 'इल' किम्पुरुष अवस्थामें 'सुसुम्न' भी कहलाते थे। तदनन्तर सुद्युम्नसे तीन पुत्र और हुए, जो किसीसे परास्त होनेवाले नहीं थे। उनके नाम उत्कल, गय तथा हरिताश्व थे। हरिताश्व बड़े पराक्रमी थे। उत्कलकी राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई और गयकी राजधानी गया मानी गयी है। इसी प्रकार हरिताश्वको कुरु प्रदेशके साथ-ही-साथ दक्षिण दिशाका राज्य दिया गयासुद्युम्न अपने पुत्र पुरुरवाको प्रतिष्ठानपुर (पैठन) के राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं दिव्य वर्षके फलोंका उपभोग करनेके लिये इलावृतवर्षमें चले गये।
[मुयुम्न के बाद] इक्ष्वाकु हो मनुके सबसे बड़े पुत्र थे। उन्हें मध्यदेशका राज्य प्राप्त हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्रोंमें पंद्रह श्रेष्ठ थे। वे मेरुके उत्तरीय प्रदेशमें राजा हुए। उनके सिवा एक सौ चौदह पुत्र और हुए, जो मेरके दक्षिणवर्ती देशों के राजा बताये गये हैं। इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रसे ककुस्थ नामक पुत्र हुआ। ककुत्स्थका पुत्र सुयोधन था। सुयोधनका पुत्र पृथु औरपृथुका विश्वावसु हुआ। उसका पुत्र आर्द्र तथा आर्द्रका पुत्र युवनाश्व हुआ। युवनाश्वका पुत्र महापराक्रमी शावस्त हुआ, जिसने अंगदेशमें शावस्ती नामकी पुरी बसावी शावस्तसे बृहदश्व और बृहदश्वसे कुवलाश्वका जन्म हुआ। कुवलाश्व धुन्धु नामक दैत्यका विनाश करके धुन्धुमारके नामसे विख्यात हुए। उनके तीन पुत्र हुए- दृढाश्व, दण्ड तथा कपिलाश्व । धुन्धुमारके पुत्रोंमें प्रतापी कपिलाश्व अधिक प्रसिद्ध दृश्वका प्रमोद और प्रमोदका पुत्र हर्षश्व हर्वश्वसे निकुम्भ और निकुम्भसे संहताश्वका जन्म हुआ। संहताश्वके दो पुत्र हुए- अकृताश्व तथा रणाश्व । रणाश्वके पुत्र युवनाश्व और युवनाश्वके मान्धाता थे। मान्धाताके तीन पुत्र हुए- पुरुकुत्स, धर्मसेतु तथा मुचुकुन्द। इनमें मुचुकुन्दकी ख्याति विशेष थी। वे इन्द्रके मित्र और प्रतापी राजा थे। पुरुकुत्सका पुत्र सम्भूत था, जिसका विवाह नर्मदाके साथ हुआ था। सम्भूतसे सम्भूति और सम्भूतिसे त्रिधन्वाका जन्म हुआ। त्रिधन्वाका पुत्र त्रैधारुण नामसे विख्यात हुआ। उसके पुत्रका नाम सत्यव्रत था। उससे सत्यरथका जन्म हुआ। सत्यरथके पुत्र हरिश्चन्द्र थे । हरिश्चन्द्रसे रोहित हुआ। रोहितसे वृक और वृकसे बाहुकी उत्पत्ति हुई। बाहुके पुत्र परम धर्मात्मा राजा सगर हुए। सगरकी दो स्त्रियाँ थीं- प्रभा और भानुमती। इन दोनोंने पुत्रकी इच्छासे और्व नामक अग्निकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर और्वने उन दोनोंको इच्छानुसार वरदान देते हुए कहा – 'एक रानी साठ हजार पुत्र पा सकती है और दूसरीको एक ही पुत्र मिलेगा, जो वंशकी रक्षा करनेवाला होगा [इन दो वरोंमेंसे जिसको जो पसंद आवे, वह उसे ले ले]!" प्रभाने बहुत से पुत्रोंको लेना स्वीकार किया तथा भानुमतीको एक ही पुत्र असमंजसकी प्राप्ति हुई। तदनन्तर प्रभाने जो यदुकुलकी कन्या थी, साठ हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया, जोअश्वकी खोजके लिये पृथ्वीको खोदते समय भगवान् विष्णुके अवतार महात्मा कपिलके कोपसे दग्ध हो गये। असमंजसका पुत्र अंशुमान् के नामसे विख्यात हुआ। उसका पुत्र दिलीप था। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जिन्होंने तपस्या करके भागीरथी गंगाको इस पृथ्वीपर उतारा था। भगीरथके पुत्रका नाम नाभाग हुआ नाभागके अम्बरीष और अम्बरीषके पुत्र सिन्धुद्वीप हुए सिन्धुद्वीपसे अयुतायु और अयुतायुसे ऋतुपर्णका जन्म हुआ। ऋतुपर्णसे कल्माषपाद और कल्माषपादसे सर्वकर्माकी उत्पत्ति हुई। सर्वकर्माका आरण्य और आरण्यका पुत्र निघ्न हुआ। निघ्नके दो उत्तम पुत्र हुए अनुमित्र और रघु अनुमित्र शत्रुओंका नाश करनेके लिये वनमें चला गया। रघुसे दिलीप और दिलीपसे अज हुए। अजसे दीर्घबाहु और दीर्घबाहुसे प्रजापालकी उत्पत्ति हुई। प्रजापालसे दशरथका जन्म हुआ। उनके चार पुत्र हुए। वे सब-के-सब भगवान् नारायणके स्वरूप थे। उनमें राम सबसे बड़े थे, जिन्होंने रावणको मारा और रघुवंशका विस्तार किया तथा भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकिने रामायणके रूपमें जिनके चरित्रका चित्रण किया। रामके दो पुत्र हुए-कुश और लव। ये दोनों ही इक्ष्वाकु वंशका विस्तार करनेवाले थे। कुशसे अतिथि और अतिथिसे निषधका जन्म हुआ। निषधसे नल, नलसे नभा, नभासे पुण्डरीक और पुण्डरीकसे क्षेमधन्वाकी उत्पत्ति हुई । क्षेमधन्वाका पुत्र देवानीक हुआ वह वीर और प्रतापी था। उसका पुत्र अहीनगु हुआ। अहीनगुसे सहस्राश्वका जन्म हुआ। सहस्राश्वसे चन्द्रावलोक, चन्द्रावलोकसे तारापीड, सरापीदमे चन्द्रगिरि, चन्द्रगिरिसे चन्द्र तथा चन्द्रसे श्रुतायु हुए, जो महाभारत युद्धमें मारे गये। नल नामके दो राजा प्रसिद्ध हैं-एक तो वीरसेनके पुत्र थे और दूसरे निषधके इस प्रकार इक्ष्वाकुवंशके प्रधान प्रधान राजाओंका वर्णन किया गया।