ब्राह्मणोंने कहा- मुनिश्रेष्ठ! यदि हमलोगोंपर आपका अनुग्रह हो तो उन श्रेष्ठ कर्मोका वर्णन कीजिये, जिनसे संसारमें कीर्ति और धर्मकी प्राप्ति होती है।
व्यासजीने कहा- जिसके खुदवाये हुए पोखरेमें अथवा वनमें गौएँ एक मास या सात दिनोंतक तृप्त रहती हैं, वह पवित्र होकर सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होता है। विशेषत: प्रतिष्ठाके द्वारा पवित्र हुई पोखरीके जलका दान करनेसे जो फल होता है, वह सब सुनो। पोखरेमें जब मेघ वर्षा करता है, उस समय जलके जितने छोटे उछलते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक पोखरा बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोकका सुख भोगता है। जलसे खेती पकती है, जिससे मनुष्यको प्रसन्नता होती है। जलके बिना प्राणोंका धारण करना असम्भव है। पितरोंका तर्पण, शौच, सुन्दर रूप और दुर्गन्धका नाश ये सब जलपर ही निर्भर हैं। इस जगत् में संग्रह किये हुए सम्पूर्ण बीजोंका आधार जल ही है। कपड़े धोना और बर्तनोंको मौज-धोकर चमकीला बनाना भी जलके ही अधीन है। इससे प्रत्येक कार्यमें जलको पवित्र माना गया है। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके सारा बल और सारा धन लगाकर बावली, कुआँ तथा पोखरा बनवाने चाहिये। जो निर्जल प्रदेशमें जलाशय बनवाता है, उसे प्रतिदिनइतना पुण्य प्राप्त होता है, जिससे वह एक-एक दिनके पुण्यके बदले एक-एक कल्पतक स्वर्गमें निवास करता है जो पुरुष प्रतिदिन दूसरोंके उपकारके लिये चार हाथ कुआँ खोदता है, वह एक-एक वर्षके पुण्यका एक-एक कल्पतक स्वर्गमें रहकर उपभोग करता है। जलाशय बनानेका उपदेश देनेवालेको एक करोड़ वर्षोंतक स्वर्गका निवास प्राप्त होता है तथा जो स्वयं जलाशय बनवाता है, उसका पुण्य अक्षय होता है।
पूर्वकालको बात है, किसी धनीके पुत्रने एक विख्यात जलाशयका निर्माण कराया, जिसमें उसने दस हजार सोनेकी मुहरें व्यय की थीं धनीने अपनी पूरी शक्ति लगाकर प्राणपण से चेष्टा करके बड़ी श्रद्धाके साथ सम्पूर्ण प्राणियोंके उपकारके लिये वह कल्याणमय जलाशय तैयार कराया था। कुछ कालके पश्चात् वह निर्धन हो गया। उसके बाद एक दूसरा धनी उसके वनवाये हुए जलाशयका मूल्य देनेको उद्यत हुआ और कहा- 'मैं इस जलाशयके लिये दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा। इसे खुदवानेका पुण्य तो तुम्हें मिल ही चुका है। मैं केवल मूल्य देकर इसके ऊपर अपना अधिकार करना चाहता हूँ। यदि तुम्हें लाभ जान पड़े तो मेरा प्रस्ताव स्वीकार करो।' धनीके ऐसा कहनेपर जलाशयनिर्माण करानेवालेने उसे इस प्रकार उत्तर दिया 'भाई! दस हजारका पुण्यफल तो इस जलाशयसे मुझे रोज ही प्राप्त होता है। पुण्यवेत्ताओंने जलाशय निर्माणका ऐसा ही पुण्य माना है इस निर्जल प्रदेशमें मैंने यह कल्याणमय सरोवर निर्माण कराया है, इसमें सब लोग अपनी इच्छाके अनुसार स्नान और जलपान आदि कार्य करते हैं।'
उसकी यह बात सुनकर लोगोंने खूब हँसी उड़ायी तब वह लज्जासे पीड़ित होकर बोला-'हमारी यह बात सच है; विश्वास न हो तो धर्मानुसार इसकी परीक्षा कर लो।' धनीने ईष्यांपूर्वक कहा-'बाबू मेरी बात सुनो। मैं पहले तुम्हें दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ देता हूँ। इसके बाद मैं पत्थर लाकर तुम्हारे जलाशय में डालूँगा। पत्थर स्वाभाविक ही पानीमें डूब जायगा। फिर यदि वह समयानुसार पानीके ऊपर आकर तैरने लगेगा तो मेरा रुपया मारा जायगा। नहीं तो इस जलाशयपर धर्मतः मेरा अधिकार हो जायगा।' जलाशय बनवानेवालेने 'बहुत अच्छा' कहकर उससे दस हजार मुद्राएँ ले लीं और अपने घरको बल दिया। धनीने कई गवाह बुलाकर उनके सामने उस महान् जलाशयमें पत्थर गिराया। उसके इस कार्यको मनुष्यों, देवताओं और असुरोंने भी देखा। तब धर्मके साक्षीने धर्मतुलापर दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ और जलाशयके जलको तोला, किन्तु वे मुद्राएँ जलाशय से होनेवाले एक दिनके जल-दानकी भी तुलना न कर सकीं। अपने धनको व्यर्थ जाते देख धनीके हृदयको बड़ा दुःख हुआ। दूसरे दिन वह पत्थर भी द्वीपकी भाँति जलके ऊपर तैरने लगा। यह देख लोगोंमें बड़ा कोलाहल मचा। इस अद्भुत घटनाकी बात सुनकर धनी और जलाशयका स्वामी दोनों ही प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये। पत्थरको उस अवस्थामें देख धनीने अपनी दस हजार मुद्राएँ उसीकी मान लीं तत्पश्चात् जलाशयके स्वामीने ही वह पत्थर उठाकर दूर फेंक दिया।
नष्ट होते हुए जलाशयको पुनः खुदवाकर उसका उद्धार करनेसे जो पुण्य होता है, उसके द्वारा मनुष्य स्वर्गमें निवास करता है तथा प्रत्येक जन्ममें वह शान्तऔर सुखी होता है। अपने गोत्रके मनुष्य, माताके कुटुम्बी, राजा, सगे-सम्बन्धी, मित्र और उपकारी पुरुषोंके खुदवाये हुए जलाशयका जीर्णोद्धार करने अक्षय फलकी प्राप्ति होती है तपस्वियों, अनाथों और विशेषतः ब्राह्मणोंके लिये जलाशय खुदवानेसे भी मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। इसलिये ब्राह्मणो! जो अपनी शक्तिके अनुसार जलाशय आदिका निर्माण कराता है, वह सब पापके क्षय हो जानेसे [अक्षय] पुण्य तथा मोक्षको प्राप्त होता है। जो धार्मिक पुरुष लोकमें इस महान् धर्ममय उपाख्यानको सुनाता हैं, उसे सब प्रकारके जलाशय-दान करनेका फल होता है। सूर्यग्रहण के समय गंगाजीके उत्तम तटपर एक करोड़ गोदान करनेका जो फल होता है; वही इस प्रसंगको सुननेसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है।
अब मैं सम्पूर्ण वृक्षोंके लगानेका अलग-अलग फल कहूँगा। जो जलाशयके तटपर चारों ओर पवित्र वृक्षोंको लगाता है, उसके पुण्यफलका वर्णन नहीं किया जा सकता। अन्य स्थानोंमें वृक्ष लगानेसे जो फल प्राप्त होता है, जलके समीप लगानेपर उसकी अपेक्षा करोड़ोंगुना अधिक फल होता है। अपने बनवाये हुए पोखरेके किनारे वृक्ष लगानेवाला मनुष्य अनन्त फलका भागी होता है।
जलाशयके समीप पीपलका वृक्ष लगाकर मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह सैकड़ों यज्ञोंसे भी नहीं मिल सकता। प्रत्येक पर्वके दिन जो उसके पत्ते जलमें गिरते हैं, वे पिण्डके समान होकर पितरोंको अक्षय तृप्ति प्रदान करते हैं तथा उस वृक्षपर रहनेवाले पक्षी अपनी इनके अनुसार जो फल खाते हैं, उसका ब्राह्मण भोजनके समान अक्षय फल होता है। गर्मी समयमें गौ, देवता और ब्राह्मण जिस पीपलकी छायामें बैठते हैं, उसे लगानेवाले मनुष्यके पितरोंको अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके पीपलका वृक्ष लगाना चाहिये। एक वृक्ष लगा देनेपर भी मनुष्य स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। रसोंके क्रय-विक्रयके लिये नियत रमणीय स्थानपर, मार्ग में और जलाशयके किनारे जोवृक्ष लगाता है, वह मनोरम स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राह्मणो! पीपल के वृक्षको पूजा करनेसे जो पुण्य होता है, उसे बतलाता हूँ; सुनो। जो मनुष्य स्नान करके पीपल के वृक्षका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो बिना नहाये पीपलका स्पर्श करता है, उसे स्नानजन्य फलकी प्राप्ति होती है। अश्वत्थके दर्शनसे पापका नाश और स्पर्शसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, उसकी प्रदक्षिणा करनेसे आयु बढ़ती है। अश्वत्व को हविष्य, दूध, नैवेद्य, फूल, धूप और दीपक अर्पण करके मनुष्य स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। पीपलकी जड़के पास बैठकर जो जप, होम, स्तोत्र पाठ और यन्त्र - मन्त्रादिके अनुष्ठान किये जाते हैं, उन सबका फल करोड़गुना होता है। जिसकी जड़में श्रीविष्णु, तनेमें भगवान् शंकर तथा अग्रभागमें साक्षात् ब्रह्माजी स्थित हैं, उसे संसारमें कौन नहीं पूजेगा सोमवती अमावास्याको मौन होकर स्नान और एक हजार गौओंका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल अश्वत्थ वृक्षको प्रणाम करनेसे मिल जाता है। अश्वत्थकी सात बार प्रदक्षिणा करनेसे दस हजार गौओंके और इससे अधिक अनेकों बार परिक्रमा करनेपर करोड़ों गौओंके दानका फल प्राप्त होता है। अतः पीपल वृक्षकी परिक्रमा सदा ही करनी चाहिये।
विप्रगण! पीपल के वृक्षके नीचे जो फल, मूल और जल आदिका दान किया जाता है, वह सब अक्षय होकर जन्म-जन्मान्तरोंमें प्राप्त होता रहता है। पीपलके समान दूसरा कोई वृक्ष नहीं है। अश्वत्थ वृक्षके रूपमें साक्षात् श्रीहरि ही इस भूतलपर विराजमान हैं। जैसे संसारमें ब्राह्मण, गौ तथा देवता पूजनीय होते हैं, उसी प्रकार पीपलका वृक्ष भी अत्यन्त पूजनीय माना गया है। पीपलको रोपने, रक्षा करने, छूने तथा पूजनेसे वह क्रमशः धन, पुत्र, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करता है। जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्षके शरीरमें कहीं कुछ चोट पहुँचाता है—उसकी डाली या टहनी काट लेता है, वह एक कल्पतक नरक भोगकर चाण्डाल आदिकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है। और जो कोई पीपलको जड़से काट देता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। यही नहीं, उसकी पहली कई पीढ़ियाँ भयंकर रौरव नरकमें पड़ती हैं। बेलके आठ, बरगदके सात और नीमके दस वृक्ष लगानेका जो फल होता है, पीपलका एक पेड़ लगानेसे भी वही फल होता है।
अब मैं पाँसले (प्याऊ) का लक्षण बताता हूँ। जहाँ जलका अभाव हो, ऐसे मार्गमें पवित्र स्थानपर एक मण्डप बनाये। वह मार्ग ऐसा होना चाहिये, जहाँ बहुत-से पथिकोंका आना-जाना लगा रहता हो । वहाँ मण्डपमें जलका प्रबन्ध रखे और गर्मी, बरसात तथा शरद् ऋतुमें बटोहियाँको जल पिलाता रहे। तीन वर्षोंतक इस प्रकार पसलेको चालू रखनेसे पोखरा खुदवानेका पुण्य प्राप्त होता है जो जलहीन प्रदेशमें ग्रीष्मके समय एक मासतक पाँसला चलाता है, वह एक कल्पतक स्वर्गमें सम्मानपूर्वक निवास करता है। जो पोखरे आदिके फलको पढ़ता अथवा सुनाता है, वह पापसे मुक्त होता है और उसके प्रभावसे उसकी सद्गति हो जाती है। अब ब्रह्माजीने सेतु बाँधनेका जैसा फल बताया है, वह सुनो। जहाँका मार्ग दुर्गम हो, दुस्तर कीचड़ भरा हो तथा जो प्रचुर कण्टकोंसे आकीर्ण हो, वहाँ पुल बँधवाकर मनुष्य पवित्र हो जाता है तथा देवत्वको प्राप्त होता है। जो एक बित्तेका भी पुल बँधवा देता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। अतः जिसने पहले कभी एक बित्तेका भी पुल बँधवाया है, वह राजवंशमें जन्म ग्रहण करता है और अन्तमें महान् स्वर्गको प्राप्त होता है।
इसी प्रकार जो गोचर भूमि छोड़ता है, वह कभी स्वर्गसे नीचे नहीं गिरता। गोदान करनेवालेकी जो गति होती है, वही उसकी भी होती है। जो मनुष्य यथाशक्ति गोचरभूमि छोड़ता है, उसे प्रतिदिन सौसे भी अधिक ब्राह्मणोंको भोजन करानेका पुण्य होता है। जो पवित्र वृक्ष और गोचरभूमिका उच्छेद करता है, उसकी इक्कीस पीढ़ियाँ रौरव नरकमे पकायी जाती हैं। गाँवके गोपालकको चाहिये कि गोचरभूमिको नष्ट करनेवाले मनुष्यका पता लगाकर उसे दण्ड दे।
जो मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमाके लिये तीनया पाँच खंभोंसे युक्त, शोभासम्पन्न और सुन्दर कलशसे विभूषित मन्दिर बनवाता है अथवा इससे भी बढ़कर जो मिट्टी या पत्थरका देवालय निर्माण कराता है, उसके खर्चके लिये धन और वृत्ति लगाता है तथा मन्दिरमें अपने इष्टदेवकी, विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमा स्थापित करके शास्त्रोक्त विधिसे उसकी प्रतिष्ठा कराता है, वह नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। श्रीविष्णु या श्रीशिवकी प्रतिमा बनवाकर उसके साथ अन्य देवताओंकी भी मनोहर मूर्ति निर्माण करानेसे मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह इस पृथ्वीपर हजारों यज्ञ, दान और व्रत आदि करनेसे भी नहीं मिलता। अपनी शक्तिके अनुसार श्रीशिवलिंगके लिये मन्दिर बनवाकर धर्मात्मा पुरुष वही फल प्राप्त करता है, जो श्रीविष्णु प्रतिमाके लिये मन्दिर बनवानेसे मिलता है। [ वह शिव सायुज्यको प्राप्त होता है।] जो मनुष्य अपने घरमें भगवान् श्रीशंकरकी सुन्दर प्रतिमा स्थापित करता है, वह एक करोड़ कल्पोंतक देवलोकमें निवास करता है। जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक श्रीगणेशजीका मन्दिर बनवाता है, वह देवलोकमें पूजित होता है। इसी प्रकार जो नरश्रेष्ठ भगवान् सूर्यका मन्दिर बनवाता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। सूर्य प्रतिमाके लिये पत्थरका मन्दिर बनवाकर मनुष्य सौ करोड़ कल्पतक स्वर्ग भोगता है।
जो इष्टदेवके मन्दिरमें एक मासतक अहर्निश घीका दीपक जलाता है, वह उत्तम देवताओंसे पूजित होकर दस हजार दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। तिलके अथवा दूसरे किसी तेलसे दीपक जलानेका फल घीकी अपेक्षा आधा होता है। एक मासतक जल चढ़ानेसेजो फल मिलता है, उससे मनुष्य ईश्वर-भावको प्राप्त होता है। शीत कालमें देवताको रुईदार कपड़ा चढ़ाकर मनुष्य सब दुःखोंसे मुक्त हो जाता है। देव विग्रहको ढकनेके लिये चार हाथका सुन्दर वस्त्र अर्पण करके मनुष्य कभी स्वर्णसे नहीं गिरता उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको स्वयम्भू शिवलिंगोंकी पूजा करनी चाहिये। जो विद्वान् एक बार भी शिवलिंगकी परिक्रमा करता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकका सुख भोगता है। इसी प्रकार क्रमशः स्वयम्भू लिंगको नमस्कार करके मनुष्य विश्ववन्द्य होकर स्वर्गलोकको जाता है; इसलिये प्रतिदिन उन्हें प्रणाम करना चाहिये।
जो मनुष्य लिंगस्वरूप भगवान् श्रीशंकरके धनका अपहरण करता है, वह रौरव नरककी यातना भोगकर अन्तमें कीड़ा होता है। जो शिवलिंग अथवा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजाके लिये मिले हुए दाताके द्रव्यको स्वयं ही हर लेता है, यह अपने कुलकी करोड़ों पीढ़ियोंके हड़प साथ नरकसे उद्धार नहीं पाता। जो जल, फूल और धूप-दीप आदिके लिये धन लेकर फिर लोभवश उसे उस कार्यमें नहीं लगाता, वह अक्षय नरकमें पड़ता है। भगवान् शिवके अन्न-पानका भक्षण करनेसे मनुष्यकी बड़ी दुर्गात होती है। अतः जो ब्राह्मण शिवमन्दिरमें पूजाको वृत्तिसे जीविका चलाता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। अनाथ, दीन और विशेषतः श्रोत्रिय ब्राह्मणके लिये सुन्दर घर निर्माण कराकर मनुष्य कभी स्वर्गलोकसे नहीं गिरता। जो इस परम उत्तम पवित्र उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा मन्दिर निर्माण आदिका फल भी प्राप्त हो जाता है।