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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 263 - Khand 5, Adhyaya 263

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पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! काशीका राजा पौण्ड्रकवासुदेव काशीपुरीके भीतर एकान्त स्थानमें बैठकर बारह वर्षोंतक बिना कुछ खाये-पिये मेरी आराधनामें संलग्न हो पंचाक्षर मन्त्रका जप करता रहा। उस समय वह अपने नेत्ररूपी कमलसे मेरी पूजा करता था तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगने के लिये कहा। वह बोला-'मुझे वासुदेवके समान रूप प्रदान कीजिये।' यह सुनकर मैंने उसे शंख, चक्र, गदा और पद्मसहित चार भुजाएँ, कमलदलके समान विशाल नेत्र, किरीट, मणिमय कुण्डल, पीत वस्त्र तथा कौस्तुभमणि आदि चिह्न प्रदान किये। अब वह अपनेको वासुदेव बताकर सब लोगोंको मोहमें डालने लगा। एक दिन अभिमान और बलसे उन्मत्त हुए काशिराजके पास देवर्षि नारदने आकर कहा—'मूढ़! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णपर विजय पाये बिना तू वासुदेव नहीं हो सकता।' इतना सुनते ही वह उसी समय श्रीकृष्णको जीतनेके लिये गरुड़पताकासे युक्त रथपर आरूढ़ हो चारों अंगोंसे युक्त अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा करके द्वारकामें जा पहुँचा। वहाँ नगरद्वारपर सुवर्णमय रथ में बैठे हुए पौण्ड्रकने श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और यह सन्देश दिया कि 'मैं वासुदेव हूँ तथा युद्धके लिये यहाँ आया हूँ। मुझपर विजय पाये बिना तुम वासुदेव नहीं कहला सकते।" उसका सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ हुए और पौण्ड्रकसे युद्ध करनेके लिये नगरद्वारपर आये। वहाँ उन्होंने अक्षौहिणी सेनाके साथ रथपर बैठे हुए शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले पौण्ड्रकको देखा। फिर तो शार्ङ्गधनुष हाथमें ले प्रलयाग्निके समान 2 तेजस्वी वाणोंसे रथ, हाथी, घोड़े और पैदलसहित उसकी बहुत बड़ी अक्षौहिणी सेनाको भगवान्ने दो ही पड़ीमें भस्म कर डाला। एक वाणसे उसके हाथोंमें चिपके हुए शंख, चक्र और गदा आदि शस्त्रोंकोलीलापूर्वक काट दिया। फिर पवित्र सुदर्शनचक्र से उसके किरीट-कुण्डलयुक्त मस्तकको काटकर उन्होंने काशीके अन्तःपुरमें गिरा दिया। उस मस्तकको देखकर समस्त काशीनिवासी बहुत विस्मित हुए।

उधर मगधराज जरासन्ध कंसवधके पश्चात् यादवोंसे द्वेषभाव रखते हुए ही उन्हें सदा पीड़ा दिया करता था। इससे दुःखित होकर यादवोंने श्रीकृष्णसे उसकी चेष्टाएँ बतलायीं। तब भगवान् श्रीकृष्णने भीमसेन और अर्जुनको बुलाकर परामर्श किया इस जरासन्धने महादेवजीकी आराधना की है; अतः उनकी कृपासे यह शस्त्रोंद्वारा नहीं मारा जा सकता। किन्तु किसी-न-किसी प्रकार इसका वध करना आवश्यक है।' फिर कुछ सोचकर भगवान्ने भीमसेनसे कहा

'तुम उसके साथ मल्लयुद्ध करो।' भीमसेनने ऐसा करनेकी प्रतिज्ञा की तब सम्पूर्ण चराचर जगत्के वन्दनीय भगवान् वासुदेव भीम और अर्जुनको साथ ले जरासन्धकी पुरीमें गये और वहाँ ब्राह्मणका वेष धारण करके उन सबने राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। उन्हें देखकर जरासन्धने साष्टांग प्रणाम किया और योग्य आसनोंपर बिठाकर मधुपर्ककी विधिसे उनका पूजन करके कहा- 'द्विजवरो में धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। आपलोग किस लिये मेरे समीप पधारे हैं? उसे बतायें। मैं आपलोगोंको सब कुछ दूँगा।' तब उनमेंसे भगवान् श्रीकृष्णने हँसकर कहा-'राजन् हम क्रमशः श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन हैं तथा युद्धके लिये तुम्हारे पास आये हैं। हममेंसे किसी एकको द्वन्द्व-युद्धके लिये स्वीकार करो।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने उनकी बात मान ली और द्वन्द्व-युद्धके लिये भीमसेनका वरण किया। फिर तो भीमसेन और जरासन्धमें अत्यन्त भयंकर मल्लयुद्ध हुआ, जो लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा। उसके बाद श्रीकृष्णके संकेतसे भीमसेननेउसके शरीरको चीर डाला और दो टुकड़े करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीमके द्वारा जरासन्धका वध कराकर उसके कैद किये हुए राजाओंको भी भगवान्ने मुक्त किया। वे राजा भगवान् मधुसूदनको प्रणाम और उनकी स्तुति करके उनके द्वारा सुरक्षित हो अपने-अपने देशोंको चले गये।

तदनन्तर भगवान् वासुदेवने भीमसेन और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थमें जाकर महाराज युधिष्ठिरसे राजसूय नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कराया। यज्ञ समाप्त होनेपर युधिष्ठिरने भीष्मजीकी अनुमतिसे अग्रपूजाका अधिकार श्रीकृष्णको ही दिया - सर्वप्रथम उन्हींकी पूजा की। उस समय शिशुपालने श्रीकृष्णके प्रति बहुत-से आक्षेपयुक्त वचन कहे। तब श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्रके द्वारा उसका मस्तक काट डाला। वह तीन जन्मोंकी समाप्तिके बाद उस समय श्रीहरिके सारूप्यको प्राप्त हुआ। शिशुपालको मारा गया सुनकर दन्तवक्त्र श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये मथुरा गया। यह सुनकर श्रीकृष्ण भी मथुरा हो उससे युद्ध करनेके लिये गये। वहीं मथुरापुरीके दरवाजेपर यमुनाके किनारे उन दोनोंमें दिन-रात युद्ध होता रहा अन्तमें श्रीकृष्णने दन्तवक्त्रपर गदासे प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वज्रसे विदीर्ण हुए पर्वतकी भाँति उसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया और वह प्राणहीन होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। दन्तवक्त्र भी योगियों को प्राप्त होनेयोग्य नित्यानन्दमय सुखसे परिपूर्ण सनातन परमपदरूप भगवत्सायुज्यको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जय और विजय सनकादिके शापके व्याजसे केवल भगवान्‌की लीलामें सहयोग देनेके लिये संसारमें लोन बार उत्पन्न हुए और तीनों ही जन्मोंमें भगवान्‌के ही हाथसे उनकी मृत्यु हुई। इस तरह तीन जन्मोंकी समाप्ति होनेपर वे पुनः मोक्षको प्राप्त हुए।

दन्तवक्त्रका वध करनेके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण यमुनाके पार हो नन्दके व्रजमें गये और पहलेके पिता माता नन्द और यशोदाको प्रणाम करके उन्होंने उन दोनोंको आश्वासन दिया। फिर नन्द और यशोदाने भी नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए भगवान्‌को हृदयसे लगाया। तत्पश्चात् श्रीकृष्णने वहाँक समस्त बड़े-बड़े गोपोंको प्रणाम करके आश्वासन दिया और बहुमूल्य रत्न, वस्त्रतथा आभूषण आदि देकर व्रजके समस्त निवासियोंको सन्तुष्ट किया। वहाँ रहनेवाले नन्दगोप आदि सब लोग तथा पशु-पक्षी और मृग आदि भी भगवान् की कृपासे स्त्री- पुत्रसहित दिव्य रूप धारण करके विमानपर बैठे और परम वैकुण्ठधामको चले गये। इस प्रकार समस्त व्रजवासियोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण शोभामयी द्वारकापुरीमें आये, उस समय आकाशमें स्थित देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे।

द्वारकामे वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव सदा भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया करते थे। वे विश्वरूपधारी भगवान् भाँति भौतिके दिव्य रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर गृहोंमें कल्पवृक्षके फूलोंसे सजी हुई स्वच्छ एवं कोमल शय्याओंपर सोलह हजार आठ रानियोंके साथ प्रतिदिन आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों श्रीकृष्ण और बलरामजीका बालसखा एवं सहपाठी एक ब्राह्मण था, जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीड़ित रहता था। एक दिन वह भीखमें मिला हुआ मुट्ठीभर चाकल पुराने चिथड़े में बाँधकर भगवान् वासुदेवसे मिलनेके लिये परम मनोहर द्वारका नगरी में आया और रुक्मिणीके अन्तः पुरके दरवाजेपर जा क्षणभर चुपचाप खड़ा रहा। इतनेमें उसके ऊपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने ब्राह्मणको आया जान आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और प्रणाम करके हाथ पकड़कर महलके भीतर ले जा उसे सुन्दर आसनपर बिठाया। वह बेचारा भयसे काँप रहा था, किन्तु भगवान्ने रुक्मिणी के हाथमें रखे हुए सुवर्णमय कलशके जलसे स्वयं ही उसके दोनों चरण धोकर | मधुपर्कद्वारा उसका पूजन किया। फिर अमृतके समान मधुर अन्न-पान आदिसे ब्राह्मणको तृप्त करके उसके पुराने चिमें बँधे हुए चावलोंको लेकर भगवान्ने हँसते-हँसते उनका भोग लगाया। उन्होंने ज्यों ही उन चावलोंको मुँहमें डाला, त्यों ही ब्राह्मणको प्रचुर धन धान्य, वस्त्र एवं आभूषणोंसे युक्त महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। किन्तु उस समय भगवान्से खाली हाथ विदा होकर उसने अपने मनमें इस बातका विचार किया कि 'इन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया।' निवासस्थानमें पहुँचनेपर जब उसने अपने लिये धन-धान्यसे सम्पन्न गृह देखातो उसे निश्चय हो गया कि यह सब श्रीहरिकी कृपासे ही प्राप्त हुआ है। ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर दिव्य वस्त्र एवं आभूषण आदिके द्वारा पत्नीके साथ समस्त कामनाओंका उपभोग किया और श्रीहरिकी प्रसन्नता लिये नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंके प्रसादसे वह परमधामको प्राप्त हुआ।

धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने छलपूर्वक जुआ खेलकर उसीके व्याजसे पाण्डवोंका सारा राज्य हड़प लिया था और उन्हें अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया था। इससे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ महान् वनमें जाकर वहाँ बारह वर्षोंतक रहे। फिर एक सालतक उन्हें अज्ञातवास करना पड़ा। अन्तमें सब मत्स्यदेशके राजा विराटके भवनमें एकत्रित हुए और भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे धृतराष्ट्र पुत्रोंके साथ युद्ध करनेको आये। अनेक देशोंसे आये हुए राजाओंके साथ परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें जुटे हुए पाण्डवों और धृतराष्ट्र-पुत्रोंमें बहुत बड़ा संग्राम हुआ, जो देवताओंके लिये भी भयंकर था उसमें श्रीकृष्णने अर्जुनके सारथिका काम किया और अपनी शक्ति अर्जुनमें स्थापित करके उनके द्वारा ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं सहित दुर्योधन, भीष्म, द्रोण तथा अन्यान्य राजाओंका वध कराकर उन्होंने पाण्डवोंको अपने राज्यपर स्थापित कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतारकर भगवान्ने द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। तदनन्तर कुछ कालके बाद एक वैदिक ब्राह्मण अपने मरे हुए पाँच वर्षक बालकको लेकर द्वारकामें राजाके द्वारपर रखकर बहुत विलाप करने लगा। उसने श्रीकृष्णके प्रति बहुत आक्षेपयुक्त वचन कहे। श्रीकृष्ण उस आक्षेपको सुनकर भी चुप रहे। ब्राह्मण कहता गया मेरे पाँच पुत्र पहले मर चुके हैं। यह छठा पुत्र है। यदि श्रीकृष्ण मेरे इस पुत्रको जीवित नहीं करेंगे तो मैं इस राजद्वारपर प्राण दे दूंगा।' इसी समय अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारकामें आये। वहाँ उन्होंने पुत्रशोकसे विलाप करते हुए ब्राह्मणको देखा। उसका पाँच वर्षका बालक कालके मुखमें चला गया है. यह देखकर अर्जुनको बड़ी दया आयी। उन्होंने अको अभयदान देकर प्रतिज्ञा की 'मैं तुम्हारपुत्रको जीवित कर दूंगा।' उनसे आश्वासन पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उन्होंने मन्त्र पढ़कर अनेक संजीवनास्त्रोंका प्रयोग किया; किन्तु वह बालक जीवित न हुआ। इससे अपनी प्रतिज्ञा झूठी होती देख अर्जुनको बड़ा शोक हुआ और उन्होंने उस ब्राह्मणके साथ ही प्राण त्याग देनेका विचार किया। यह सब जानकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरसे बाहर निकले और उस वैदिक ब्राह्मणसे बोले-'मैं तुम्हारे सभी पुत्रोंको ला दूँगा।' ऐसा कहकर उसे आश्वासन दे अर्जुनसहित गरुड़पर आरूढ़ हो वे विष्णुलोकमें गये। वहाँ दिव्य मणिमय मण्डपमें श्रीलक्ष्मीदेवीके साथ बैठे हुए भगवान् नारायणको देखकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने उन्हें नमस्कार किया। भगवान्ने उन दोनोंको अपनी भुजाओं में कस लिया और पूछा-'तुम दोनों किस लिये आये हो?' श्रीकृष्णने कहा- 'भगवन्! मुझे वैदिक ब्राह्मणके पुत्रोंको दे दीजिये।' तब भगवान् नारायणने वैसी ही अवस्थामें स्थित अपने लोकमें विद्यमान ब्राह्मणपुत्रोंको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। श्रीकृष्ण भी उन्हें गरुड़के कंधेपर बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनसहित स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और आकाशमें देवताओंके मुँहसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकापुरीमें आये वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मणके छः पुत्र उन्हें समर्पित कर दिये तब वह अत्यन्त हर्षमें भरकर श्रीकृष्णको अभ्युदयकारक आशीर्वाद देने लगा। अर्जुनकी भी प्रतिज्ञा सफल हुई इसलिये उनको भी बड़ा हर्ष था। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके महाराज युधिष्ठिरद्वारा पालित अपनी पुरीकी राह ली।

श्रीकृष्णके सोलह हजार रानियोंके गर्भ से कुल अयुत सहस्र (एक करोड़) पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस विषयमें कहते हैं—' श्रीकृष्णके एक करोड़ आठ सौ पुत्र थे। उन सबमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ही बड़े थे, असंख्य यदुवंशियोंसे यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी।

एक दिन समस्त यादवकुमार घूमनेके लिये नर्मदातटपर गये। वहाँ महर्षि कण्व तपस्या कर रहे थे। यादवकुमारोंने जाम्बवतीके पुत्र साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर उसके पेटमें एक लोहेका मूसल बाँध दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषिके समीप आकर सबने नमस्कारकिया और स्त्रीरूपधारी साम्बको आगे खड़ा करके पूछा- 'मुने! बताइये इस स्त्रीके गर्भमें कन्या है या पुत्र ?' मुनिने मन-ही-मन सब बात जानकर क्रोधपूर्वक कहा- 'अरे! तुम सब लोग इसी मूसलसे मारे जाओगे।' यह सुनकर सबका हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्होंने श्रीकृष्णके पास आकर महर्षिकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं श्रीकृष्णने उस लोहेके मूसलको चूर्ण करके कुण्डमें डलवा दिया। उस चूर्णसे वज्रके समान कोर बड़े-बड़े सरकंडे उग आये मूसलके चूर्ण होनेसे एक लोहा बच गया था, जो कनिष्ठिका अँगुलीके बराबर था। उसको एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्यको निषादने पकड़ा और उसके पेटसे उस मूसलावशेष लोहेको निकालकर बाणके आगेका फल बनवा लिया। कुछ दिनोंके बाद समस्त यादव परस्पर आक्षेपयुक्त वचन कहते हुए उन सरकंडोंद्वारा एक-दूसरेसे लड़कर नष्ट हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण युद्धसे श्रान्त होकर कल्पवृक्षकी छायामें सो रहे थे। उसी समय वह निषाद धनुष-बाण लेकर शिकार खेलनेके लिये आया। भगवान् श्रीकृष्णके सिवा समस्त यादव युद्धमें काम आये थे, वे सभी मरनेके पश्चात् अपने-अपने देवस्वरूपमें मिल गये। इस प्रकार मूसलद्वारा सबका संहार करके अकेले भगवान् श्रीकृष्ण अनेक लताओंसे व्याप्त महान् कल्पवृक्षकी छायामें लेटे हुए अपने चतुर्व्यूहगत वासुदेवस्वरूपका चिन्तन कर रहे थे। वे घुटनेपर अपना एक पैर रखे अ मानवलोकका त्याग करनेको उद्यत थे। उसी समय प मृगयासे जीविका चलानेवाले उस निषादने कालके व प्रभावसे चक्र, वज्र, ध्वजा और अंकुश आदि चिह्नोंसे 3 अंकित भगवान् के अत्यन्त लाल तलवेको (मृग जानकर ) लक्ष्य करके बींध डाला। उसके बाद उसने भगवान् श्रीकृष्णको पहचाना। फिर तो महान् भयसे पीड़ित हो वह थर-थर काँपने लगा और दोनों हाथ जोड़कर बोला- नाथ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ, क्षमा करें। यो कहकर वह भगवान के चरणों में पड़ गया।

निषादको इस अवस्थामै देख भगवान् श्रीकृष्ण अपने अमृतमय हाथोंसे उठाया और यह कहकर कि 'तुमने कोई अपराध नहीं किया है।' उसे आश्वासन दिया। इसके बाद उसे योगियोंको प्राप्त होनेयोग्यपुनरावृत्तिरहित सनातन विष्णुलोक प्रदान किया। फिर तो वह स्त्री और पुत्रसहित मानव शरीरका त्याग करके दिव्य विमानपर बैठा तथा सहस्रों सूर्यके समान प्रकाशमान हिरण्मय वासुदेव नामक विष्णुधामको चला गया। इसी समय दारुक रथ लेकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप आये भगवान्ने कहा-'मेरे स्वरूपभूत अर्जुनको यहाँ बुला ले आओ।' आज्ञा पाकर दारुक मनके समान वेगशाली रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही अर्जुनके समीप जा पहुँचे अर्जुन उस रथपर बैठकर आये और भगवान्‌को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले, 'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' भगवान् श्रीकृष्णने कहा-'मैं परमधामको जाऊँगा। तुम द्वारका जाकर वहाँसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंको यहाँ ले आकर मेरे शरीरके साथ भेजो।' अर्जुन दारुकके साथ द्वारकापुरीको गये। इधर भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के सृष्टि, पालन और संहारके हेतुभूत, सम्पूर्ण क्षेत्रोंके ज्ञाता, अन्तर्यामी, योगियोंद्वारा ध्यान करनेके योग्य, अपने वासुदेवात्मक स्वरूपको धारण करके गरुड़पर आरूढ़ हो महर्षियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए परमधामको चले गये। अर्जुनने द्वारकामें वसुदेव और उग्रसेनसे तथा रुक्मिणी आदि पटरानियोंसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर श्रीकृष्णमें अनुराग रखनेवाले समस्त पुरवासी पुरुष और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ द्वारकापुरी छोड़कर बाहर निकल आय तथा वसुदेव, उग्रसेन और अर्जुनके साथ शीघ्र ही श्रीहरिके समीप आयीं, वहीं पहुँचकर आठों रानियाँ श्रीकृष्णके स्वरूपमें मिल गयीं। वसुदेव, उग्रसेन और अक्रूर आदि सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादव अपना-अपना शरीर त्यागकर सनातन वासुदेवको प्राप्त हुए रेवतीदेवीने बलरामजीके शरीरको अंकमें लेकर चिताकी अग्निमें प्रवेश किया और दिव्य विमानपर बैठकर वे अपने स्वामीके निवासस्थान दिव्य संकर्षणलोकमै चली गयीं। इसी प्रकार रुक्मीकी पुत्री प्रद्युम्नके साथ कथा अनिरुद्ध के साथ तथा यदुकुलकी अन्य वि अपने-अपने पतियोंके शरीरके साथ अग्निप्रवेश कर गयीं। उन सबका और्ध्वदैहिक कर्म अर्जुनने ही सम्पन्न किया। उस समय दारुक भी दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुग्रीव नामक दिव्य रथपर आरूढ़ हो परमधामको बले गये। पारिजातवृक्ष और देवताओंकी सुधर्मा सभा-येदोनों इन्द्रलोकर्मे पहुँच गये। तत्पश्चात् द्वारकापुरी समुद्रमें गयी! अर्जुन भी यह कहते हुए कि 'अब मेरा भाग्य नष्ट हो सायंकालीन सूर्यकी भाँति तेजोहीन होकर अपनी पुरीमें चले आये।

इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके हितके लिये तथा पृथ्वीके समस्त भारका नाश करनेके लिये भगवान्ने यदुकुलमें अवतार लिया और सम्पूर्ण राक्षसों तथा पृथ्वीके महान् भारका नाश करके नन्दके व्रज, मथुरा और द्वारकामें रहनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको कालधर्मसे मुक्त किया। फिर उन्हें अपने शाश्वत, योगिगम्य, हिरण्मय, रम्य एवं परमैश्वर्यमय पदमें स्थापित करके वे परमधाममें दिव्य पटरानियों आदिसे सेवित हो सानन्द निवास करने लगे।

पार्वती ! यह भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सब प्रकारके उत्तम फल प्रदान करनेवाला है। मैंने इसे संक्षेपमें ही कहा है। जो वासुदेवके इस चरित्रका श्रीहरिके समीप पाठ, श्रवण अथवा चिन्तन करता है, वह भगवान्‌के परमपदको प्राप्त होता है। महापातक अथवा उपपातकसे युक्त मनुष्य भी बालकृष्णके चरित्रको सुनकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्वारकामें विराजमानरुक्मिणीसहित श्रीहरिका स्मरण करके मनुष्य निश्चय ही पापरहित हो महान् ऐश्वर्यरूप परमधामको प्राप्त होता है। जो संग्राममें, दुर्गम संकटमें तथा शत्रुओंसे घिर जानेपर सब देवताओंके नेता भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह विजयी होता है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता, जो सब कामनाओंका फल प्राप्त करना चाहता हो, वह विद्वान् मनुष्य 'श्रीकृष्णाय नम:' इस मन्त्रका उच्चारण करता रहे। 'सबको अपनी ओर खींचनेवाले कृष्ण, सबके हृदयमें निवास करनेवाले वासुदेव, पाप-तापको हरनेवाले श्रीहरि, परमात्मा तथा प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले भगवान् गोविन्दको बारंबार नमस्कार है।" जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको जाता है। भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं। वे समस्त लोकोंकी रक्षा करनेके लिये ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको ग्रहण करते हैं। वे ही किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये बुद्धरूपमें अवतीर्ण होते हैं। कलियुगके अन्तमें एक ब्राह्मणके घरमें अवतीर्ण हो भगवान् जनार्दन समस्त म्लेच्छोंका संहार करेंगे। ये सब जगदीश्वरकी वैभवावस्थाएँ हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार