महादेवजी कहते हैं- पार्वती! काशीका राजा पौण्ड्रकवासुदेव काशीपुरीके भीतर एकान्त स्थानमें बैठकर बारह वर्षोंतक बिना कुछ खाये-पिये मेरी आराधनामें संलग्न हो पंचाक्षर मन्त्रका जप करता रहा। उस समय वह अपने नेत्ररूपी कमलसे मेरी पूजा करता था तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगने के लिये कहा। वह बोला-'मुझे वासुदेवके समान रूप प्रदान कीजिये।' यह सुनकर मैंने उसे शंख, चक्र, गदा और पद्मसहित चार भुजाएँ, कमलदलके समान विशाल नेत्र, किरीट, मणिमय कुण्डल, पीत वस्त्र तथा कौस्तुभमणि आदि चिह्न प्रदान किये। अब वह अपनेको वासुदेव बताकर सब लोगोंको मोहमें डालने लगा। एक दिन अभिमान और बलसे उन्मत्त हुए काशिराजके पास देवर्षि नारदने आकर कहा—'मूढ़! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णपर विजय पाये बिना तू वासुदेव नहीं हो सकता।' इतना सुनते ही वह उसी समय श्रीकृष्णको जीतनेके लिये गरुड़पताकासे युक्त रथपर आरूढ़ हो चारों अंगोंसे युक्त अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा करके द्वारकामें जा पहुँचा। वहाँ नगरद्वारपर सुवर्णमय रथ में बैठे हुए पौण्ड्रकने श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और यह सन्देश दिया कि 'मैं वासुदेव हूँ तथा युद्धके लिये यहाँ आया हूँ। मुझपर विजय पाये बिना तुम वासुदेव नहीं कहला सकते।" उसका सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ हुए और पौण्ड्रकसे युद्ध करनेके लिये नगरद्वारपर आये। वहाँ उन्होंने अक्षौहिणी सेनाके साथ रथपर बैठे हुए शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले पौण्ड्रकको देखा। फिर तो शार्ङ्गधनुष हाथमें ले प्रलयाग्निके समान 2 तेजस्वी वाणोंसे रथ, हाथी, घोड़े और पैदलसहित उसकी बहुत बड़ी अक्षौहिणी सेनाको भगवान्ने दो ही पड़ीमें भस्म कर डाला। एक वाणसे उसके हाथोंमें चिपके हुए शंख, चक्र और गदा आदि शस्त्रोंकोलीलापूर्वक काट दिया। फिर पवित्र सुदर्शनचक्र से उसके किरीट-कुण्डलयुक्त मस्तकको काटकर उन्होंने काशीके अन्तःपुरमें गिरा दिया। उस मस्तकको देखकर समस्त काशीनिवासी बहुत विस्मित हुए।
उधर मगधराज जरासन्ध कंसवधके पश्चात् यादवोंसे द्वेषभाव रखते हुए ही उन्हें सदा पीड़ा दिया करता था। इससे दुःखित होकर यादवोंने श्रीकृष्णसे उसकी चेष्टाएँ बतलायीं। तब भगवान् श्रीकृष्णने भीमसेन और अर्जुनको बुलाकर परामर्श किया इस जरासन्धने महादेवजीकी आराधना की है; अतः उनकी कृपासे यह शस्त्रोंद्वारा नहीं मारा जा सकता। किन्तु किसी-न-किसी प्रकार इसका वध करना आवश्यक है।' फिर कुछ सोचकर भगवान्ने भीमसेनसे कहा
'तुम उसके साथ मल्लयुद्ध करो।' भीमसेनने ऐसा करनेकी प्रतिज्ञा की तब सम्पूर्ण चराचर जगत्के वन्दनीय भगवान् वासुदेव भीम और अर्जुनको साथ ले जरासन्धकी पुरीमें गये और वहाँ ब्राह्मणका वेष धारण करके उन सबने राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। उन्हें देखकर जरासन्धने साष्टांग प्रणाम किया और योग्य आसनोंपर बिठाकर मधुपर्ककी विधिसे उनका पूजन करके कहा- 'द्विजवरो में धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। आपलोग किस लिये मेरे समीप पधारे हैं? उसे बतायें। मैं आपलोगोंको सब कुछ दूँगा।' तब उनमेंसे भगवान् श्रीकृष्णने हँसकर कहा-'राजन् हम क्रमशः श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन हैं तथा युद्धके लिये तुम्हारे पास आये हैं। हममेंसे किसी एकको द्वन्द्व-युद्धके लिये स्वीकार करो।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने उनकी बात मान ली और द्वन्द्व-युद्धके लिये भीमसेनका वरण किया। फिर तो भीमसेन और जरासन्धमें अत्यन्त भयंकर मल्लयुद्ध हुआ, जो लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा। उसके बाद श्रीकृष्णके संकेतसे भीमसेननेउसके शरीरको चीर डाला और दो टुकड़े करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीमके द्वारा जरासन्धका वध कराकर उसके कैद किये हुए राजाओंको भी भगवान्ने मुक्त किया। वे राजा भगवान् मधुसूदनको प्रणाम और उनकी स्तुति करके उनके द्वारा सुरक्षित हो अपने-अपने देशोंको चले गये।
तदनन्तर भगवान् वासुदेवने भीमसेन और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थमें जाकर महाराज युधिष्ठिरसे राजसूय नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कराया। यज्ञ समाप्त होनेपर युधिष्ठिरने भीष्मजीकी अनुमतिसे अग्रपूजाका अधिकार श्रीकृष्णको ही दिया - सर्वप्रथम उन्हींकी पूजा की। उस समय शिशुपालने श्रीकृष्णके प्रति बहुत-से आक्षेपयुक्त वचन कहे। तब श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्रके द्वारा उसका मस्तक काट डाला। वह तीन जन्मोंकी समाप्तिके बाद उस समय श्रीहरिके सारूप्यको प्राप्त हुआ। शिशुपालको मारा गया सुनकर दन्तवक्त्र श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये मथुरा गया। यह सुनकर श्रीकृष्ण भी मथुरा हो उससे युद्ध करनेके लिये गये। वहीं मथुरापुरीके दरवाजेपर यमुनाके किनारे उन दोनोंमें दिन-रात युद्ध होता रहा अन्तमें श्रीकृष्णने दन्तवक्त्रपर गदासे प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वज्रसे विदीर्ण हुए पर्वतकी भाँति उसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया और वह प्राणहीन होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। दन्तवक्त्र भी योगियों को प्राप्त होनेयोग्य नित्यानन्दमय सुखसे परिपूर्ण सनातन परमपदरूप भगवत्सायुज्यको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जय और विजय सनकादिके शापके व्याजसे केवल भगवान्की लीलामें सहयोग देनेके लिये संसारमें लोन बार उत्पन्न हुए और तीनों ही जन्मोंमें भगवान्के ही हाथसे उनकी मृत्यु हुई। इस तरह तीन जन्मोंकी समाप्ति होनेपर वे पुनः मोक्षको प्राप्त हुए।
दन्तवक्त्रका वध करनेके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण यमुनाके पार हो नन्दके व्रजमें गये और पहलेके पिता माता नन्द और यशोदाको प्रणाम करके उन्होंने उन दोनोंको आश्वासन दिया। फिर नन्द और यशोदाने भी नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए भगवान्को हृदयसे लगाया। तत्पश्चात् श्रीकृष्णने वहाँक समस्त बड़े-बड़े गोपोंको प्रणाम करके आश्वासन दिया और बहुमूल्य रत्न, वस्त्रतथा आभूषण आदि देकर व्रजके समस्त निवासियोंको सन्तुष्ट किया। वहाँ रहनेवाले नन्दगोप आदि सब लोग तथा पशु-पक्षी और मृग आदि भी भगवान् की कृपासे स्त्री- पुत्रसहित दिव्य रूप धारण करके विमानपर बैठे और परम वैकुण्ठधामको चले गये। इस प्रकार समस्त व्रजवासियोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण शोभामयी द्वारकापुरीमें आये, उस समय आकाशमें स्थित देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे।
द्वारकामे वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव सदा भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया करते थे। वे विश्वरूपधारी भगवान् भाँति भौतिके दिव्य रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर गृहोंमें कल्पवृक्षके फूलोंसे सजी हुई स्वच्छ एवं कोमल शय्याओंपर सोलह हजार आठ रानियोंके साथ प्रतिदिन आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों श्रीकृष्ण और बलरामजीका बालसखा एवं सहपाठी एक ब्राह्मण था, जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीड़ित रहता था। एक दिन वह भीखमें मिला हुआ मुट्ठीभर चाकल पुराने चिथड़े में बाँधकर भगवान् वासुदेवसे मिलनेके लिये परम मनोहर द्वारका नगरी में आया और रुक्मिणीके अन्तः पुरके दरवाजेपर जा क्षणभर चुपचाप खड़ा रहा। इतनेमें उसके ऊपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने ब्राह्मणको आया जान आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और प्रणाम करके हाथ पकड़कर महलके भीतर ले जा उसे सुन्दर आसनपर बिठाया। वह बेचारा भयसे काँप रहा था, किन्तु भगवान्ने रुक्मिणी के हाथमें रखे हुए सुवर्णमय कलशके जलसे स्वयं ही उसके दोनों चरण धोकर | मधुपर्कद्वारा उसका पूजन किया। फिर अमृतके समान मधुर अन्न-पान आदिसे ब्राह्मणको तृप्त करके उसके पुराने चिमें बँधे हुए चावलोंको लेकर भगवान्ने हँसते-हँसते उनका भोग लगाया। उन्होंने ज्यों ही उन चावलोंको मुँहमें डाला, त्यों ही ब्राह्मणको प्रचुर धन धान्य, वस्त्र एवं आभूषणोंसे युक्त महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। किन्तु उस समय भगवान्से खाली हाथ विदा होकर उसने अपने मनमें इस बातका विचार किया कि 'इन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया।' निवासस्थानमें पहुँचनेपर जब उसने अपने लिये धन-धान्यसे सम्पन्न गृह देखातो उसे निश्चय हो गया कि यह सब श्रीहरिकी कृपासे ही प्राप्त हुआ है। ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर दिव्य वस्त्र एवं आभूषण आदिके द्वारा पत्नीके साथ समस्त कामनाओंका उपभोग किया और श्रीहरिकी प्रसन्नता लिये नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंके प्रसादसे वह परमधामको प्राप्त हुआ।
धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने छलपूर्वक जुआ खेलकर उसीके व्याजसे पाण्डवोंका सारा राज्य हड़प लिया था और उन्हें अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया था। इससे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ महान् वनमें जाकर वहाँ बारह वर्षोंतक रहे। फिर एक सालतक उन्हें अज्ञातवास करना पड़ा। अन्तमें सब मत्स्यदेशके राजा विराटके भवनमें एकत्रित हुए और भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे धृतराष्ट्र पुत्रोंके साथ युद्ध करनेको आये। अनेक देशोंसे आये हुए राजाओंके साथ परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें जुटे हुए पाण्डवों और धृतराष्ट्र-पुत्रोंमें बहुत बड़ा संग्राम हुआ, जो देवताओंके लिये भी भयंकर था उसमें श्रीकृष्णने अर्जुनके सारथिका काम किया और अपनी शक्ति अर्जुनमें स्थापित करके उनके द्वारा ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं सहित दुर्योधन, भीष्म, द्रोण तथा अन्यान्य राजाओंका वध कराकर उन्होंने पाण्डवोंको अपने राज्यपर स्थापित कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतारकर भगवान्ने द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। तदनन्तर कुछ कालके बाद एक वैदिक ब्राह्मण अपने मरे हुए पाँच वर्षक बालकको लेकर द्वारकामें राजाके द्वारपर रखकर बहुत विलाप करने लगा। उसने श्रीकृष्णके प्रति बहुत आक्षेपयुक्त वचन कहे। श्रीकृष्ण उस आक्षेपको सुनकर भी चुप रहे। ब्राह्मण कहता गया मेरे पाँच पुत्र पहले मर चुके हैं। यह छठा पुत्र है। यदि श्रीकृष्ण मेरे इस पुत्रको जीवित नहीं करेंगे तो मैं इस राजद्वारपर प्राण दे दूंगा।' इसी समय अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारकामें आये। वहाँ उन्होंने पुत्रशोकसे विलाप करते हुए ब्राह्मणको देखा। उसका पाँच वर्षका बालक कालके मुखमें चला गया है. यह देखकर अर्जुनको बड़ी दया आयी। उन्होंने अको अभयदान देकर प्रतिज्ञा की 'मैं तुम्हारपुत्रको जीवित कर दूंगा।' उनसे आश्वासन पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उन्होंने मन्त्र पढ़कर अनेक संजीवनास्त्रोंका प्रयोग किया; किन्तु वह बालक जीवित न हुआ। इससे अपनी प्रतिज्ञा झूठी होती देख अर्जुनको बड़ा शोक हुआ और उन्होंने उस ब्राह्मणके साथ ही प्राण त्याग देनेका विचार किया। यह सब जानकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरसे बाहर निकले और उस वैदिक ब्राह्मणसे बोले-'मैं तुम्हारे सभी पुत्रोंको ला दूँगा।' ऐसा कहकर उसे आश्वासन दे अर्जुनसहित गरुड़पर आरूढ़ हो वे विष्णुलोकमें गये। वहाँ दिव्य मणिमय मण्डपमें श्रीलक्ष्मीदेवीके साथ बैठे हुए भगवान् नारायणको देखकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने उन्हें नमस्कार किया। भगवान्ने उन दोनोंको अपनी भुजाओं में कस लिया और पूछा-'तुम दोनों किस लिये आये हो?' श्रीकृष्णने कहा- 'भगवन्! मुझे वैदिक ब्राह्मणके पुत्रोंको दे दीजिये।' तब भगवान् नारायणने वैसी ही अवस्थामें स्थित अपने लोकमें विद्यमान ब्राह्मणपुत्रोंको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। श्रीकृष्ण भी उन्हें गरुड़के कंधेपर बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनसहित स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और आकाशमें देवताओंके मुँहसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकापुरीमें आये वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मणके छः पुत्र उन्हें समर्पित कर दिये तब वह अत्यन्त हर्षमें भरकर श्रीकृष्णको अभ्युदयकारक आशीर्वाद देने लगा। अर्जुनकी भी प्रतिज्ञा सफल हुई इसलिये उनको भी बड़ा हर्ष था। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके महाराज युधिष्ठिरद्वारा पालित अपनी पुरीकी राह ली।
श्रीकृष्णके सोलह हजार रानियोंके गर्भ से कुल अयुत सहस्र (एक करोड़) पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस विषयमें कहते हैं—' श्रीकृष्णके एक करोड़ आठ सौ पुत्र थे। उन सबमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ही बड़े थे, असंख्य यदुवंशियोंसे यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी।
एक दिन समस्त यादवकुमार घूमनेके लिये नर्मदातटपर गये। वहाँ महर्षि कण्व तपस्या कर रहे थे। यादवकुमारोंने जाम्बवतीके पुत्र साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर उसके पेटमें एक लोहेका मूसल बाँध दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषिके समीप आकर सबने नमस्कारकिया और स्त्रीरूपधारी साम्बको आगे खड़ा करके पूछा- 'मुने! बताइये इस स्त्रीके गर्भमें कन्या है या पुत्र ?' मुनिने मन-ही-मन सब बात जानकर क्रोधपूर्वक कहा- 'अरे! तुम सब लोग इसी मूसलसे मारे जाओगे।' यह सुनकर सबका हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्होंने श्रीकृष्णके पास आकर महर्षिकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं श्रीकृष्णने उस लोहेके मूसलको चूर्ण करके कुण्डमें डलवा दिया। उस चूर्णसे वज्रके समान कोर बड़े-बड़े सरकंडे उग आये मूसलके चूर्ण होनेसे एक लोहा बच गया था, जो कनिष्ठिका अँगुलीके बराबर था। उसको एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्यको निषादने पकड़ा और उसके पेटसे उस मूसलावशेष लोहेको निकालकर बाणके आगेका फल बनवा लिया। कुछ दिनोंके बाद समस्त यादव परस्पर आक्षेपयुक्त वचन कहते हुए उन सरकंडोंद्वारा एक-दूसरेसे लड़कर नष्ट हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण युद्धसे श्रान्त होकर कल्पवृक्षकी छायामें सो रहे थे। उसी समय वह निषाद धनुष-बाण लेकर शिकार खेलनेके लिये आया। भगवान् श्रीकृष्णके सिवा समस्त यादव युद्धमें काम आये थे, वे सभी मरनेके पश्चात् अपने-अपने देवस्वरूपमें मिल गये। इस प्रकार मूसलद्वारा सबका संहार करके अकेले भगवान् श्रीकृष्ण अनेक लताओंसे व्याप्त महान् कल्पवृक्षकी छायामें लेटे हुए अपने चतुर्व्यूहगत वासुदेवस्वरूपका चिन्तन कर रहे थे। वे घुटनेपर अपना एक पैर रखे अ मानवलोकका त्याग करनेको उद्यत थे। उसी समय प मृगयासे जीविका चलानेवाले उस निषादने कालके व प्रभावसे चक्र, वज्र, ध्वजा और अंकुश आदि चिह्नोंसे 3 अंकित भगवान् के अत्यन्त लाल तलवेको (मृग जानकर ) लक्ष्य करके बींध डाला। उसके बाद उसने भगवान् श्रीकृष्णको पहचाना। फिर तो महान् भयसे पीड़ित हो वह थर-थर काँपने लगा और दोनों हाथ जोड़कर बोला- नाथ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ, क्षमा करें। यो कहकर वह भगवान के चरणों में पड़ गया।
निषादको इस अवस्थामै देख भगवान् श्रीकृष्ण अपने अमृतमय हाथोंसे उठाया और यह कहकर कि 'तुमने कोई अपराध नहीं किया है।' उसे आश्वासन दिया। इसके बाद उसे योगियोंको प्राप्त होनेयोग्यपुनरावृत्तिरहित सनातन विष्णुलोक प्रदान किया। फिर तो वह स्त्री और पुत्रसहित मानव शरीरका त्याग करके दिव्य विमानपर बैठा तथा सहस्रों सूर्यके समान प्रकाशमान हिरण्मय वासुदेव नामक विष्णुधामको चला गया। इसी समय दारुक रथ लेकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप आये भगवान्ने कहा-'मेरे स्वरूपभूत अर्जुनको यहाँ बुला ले आओ।' आज्ञा पाकर दारुक मनके समान वेगशाली रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही अर्जुनके समीप जा पहुँचे अर्जुन उस रथपर बैठकर आये और भगवान्को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले, 'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' भगवान् श्रीकृष्णने कहा-'मैं परमधामको जाऊँगा। तुम द्वारका जाकर वहाँसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंको यहाँ ले आकर मेरे शरीरके साथ भेजो।' अर्जुन दारुकके साथ द्वारकापुरीको गये। इधर भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के सृष्टि, पालन और संहारके हेतुभूत, सम्पूर्ण क्षेत्रोंके ज्ञाता, अन्तर्यामी, योगियोंद्वारा ध्यान करनेके योग्य, अपने वासुदेवात्मक स्वरूपको धारण करके गरुड़पर आरूढ़ हो महर्षियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए परमधामको चले गये। अर्जुनने द्वारकामें वसुदेव और उग्रसेनसे तथा रुक्मिणी आदि पटरानियोंसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर श्रीकृष्णमें अनुराग रखनेवाले समस्त पुरवासी पुरुष और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ द्वारकापुरी छोड़कर बाहर निकल आय तथा वसुदेव, उग्रसेन और अर्जुनके साथ शीघ्र ही श्रीहरिके समीप आयीं, वहीं पहुँचकर आठों रानियाँ श्रीकृष्णके स्वरूपमें मिल गयीं। वसुदेव, उग्रसेन और अक्रूर आदि सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादव अपना-अपना शरीर त्यागकर सनातन वासुदेवको प्राप्त हुए रेवतीदेवीने बलरामजीके शरीरको अंकमें लेकर चिताकी अग्निमें प्रवेश किया और दिव्य विमानपर बैठकर वे अपने स्वामीके निवासस्थान दिव्य संकर्षणलोकमै चली गयीं। इसी प्रकार रुक्मीकी पुत्री प्रद्युम्नके साथ कथा अनिरुद्ध के साथ तथा यदुकुलकी अन्य वि अपने-अपने पतियोंके शरीरके साथ अग्निप्रवेश कर गयीं। उन सबका और्ध्वदैहिक कर्म अर्जुनने ही सम्पन्न किया। उस समय दारुक भी दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुग्रीव नामक दिव्य रथपर आरूढ़ हो परमधामको बले गये। पारिजातवृक्ष और देवताओंकी सुधर्मा सभा-येदोनों इन्द्रलोकर्मे पहुँच गये। तत्पश्चात् द्वारकापुरी समुद्रमें गयी! अर्जुन भी यह कहते हुए कि 'अब मेरा भाग्य नष्ट हो सायंकालीन सूर्यकी भाँति तेजोहीन होकर अपनी पुरीमें चले आये।
इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके हितके लिये तथा पृथ्वीके समस्त भारका नाश करनेके लिये भगवान्ने यदुकुलमें अवतार लिया और सम्पूर्ण राक्षसों तथा पृथ्वीके महान् भारका नाश करके नन्दके व्रज, मथुरा और द्वारकामें रहनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको कालधर्मसे मुक्त किया। फिर उन्हें अपने शाश्वत, योगिगम्य, हिरण्मय, रम्य एवं परमैश्वर्यमय पदमें स्थापित करके वे परमधाममें दिव्य पटरानियों आदिसे सेवित हो सानन्द निवास करने लगे।
पार्वती ! यह भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सब प्रकारके उत्तम फल प्रदान करनेवाला है। मैंने इसे संक्षेपमें ही कहा है। जो वासुदेवके इस चरित्रका श्रीहरिके समीप पाठ, श्रवण अथवा चिन्तन करता है, वह भगवान्के परमपदको प्राप्त होता है। महापातक अथवा उपपातकसे युक्त मनुष्य भी बालकृष्णके चरित्रको सुनकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्वारकामें विराजमानरुक्मिणीसहित श्रीहरिका स्मरण करके मनुष्य निश्चय ही पापरहित हो महान् ऐश्वर्यरूप परमधामको प्राप्त होता है। जो संग्राममें, दुर्गम संकटमें तथा शत्रुओंसे घिर जानेपर सब देवताओंके नेता भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह विजयी होता है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता, जो सब कामनाओंका फल प्राप्त करना चाहता हो, वह विद्वान् मनुष्य 'श्रीकृष्णाय नम:' इस मन्त्रका उच्चारण करता रहे। 'सबको अपनी ओर खींचनेवाले कृष्ण, सबके हृदयमें निवास करनेवाले वासुदेव, पाप-तापको हरनेवाले श्रीहरि, परमात्मा तथा प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले भगवान् गोविन्दको बारंबार नमस्कार है।" जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको जाता है। भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं। वे समस्त लोकोंकी रक्षा करनेके लिये ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको ग्रहण करते हैं। वे ही किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये बुद्धरूपमें अवतीर्ण होते हैं। कलियुगके अन्तमें एक ब्राह्मणके घरमें अवतीर्ण हो भगवान् जनार्दन समस्त म्लेच्छोंका संहार करेंगे। ये सब जगदीश्वरकी वैभवावस्थाएँ हैं।