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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 162 - Khand 5, Adhyaya 162

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पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- स्वामिन्! पौष मासके कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवताकी पूजा की जाती है? यह बताइये।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजेन्द्र! बतलाता हूँ, सुनो बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रतके अनुष्ठानसे होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके एकादशीका व्रत करना चाहिये। पौष मासके कृष्णपक्ष में 'सफला' नामकी एकादशी होती है। उस दिन पूर्वोक्त विधानसे ही विधिपूर्वक भगवान् नारायणकी पूजा करनी चाहिये। एकादशी कल्याण करनेवाली है। अतः इसका व्रत अवश्य करना उचित है। जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियोंमें गरुड़, देवताओंमें श्रीविष्णु तथा मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतोंमें एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। राजन्! 'सफला एकादशीको नाम- मन्त्रोंका उच्चारण करके फलोंके द्वारा श्रीहरिका पूजन करे। नारियलके फल, सुपारी, बिजौरा नीबू जमीरा नीबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आमके फलोंसे देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार धूप-दीपसे भी भगवान्‌की अर्चना करे। 'सफला एकादशीको विशेषरूपसे दीप दान करनेका विधान है। रातको वैष्णव पुरुषोंके साथ जागरण करना चाहिये। जागरण करनेवालेको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करनेसे भी नहीं मिलता।

नृपश्रेष्ठ! अब 'सफला एकादशीकी शुभकारिणी कथा सुनो। चम्पावती नामसे विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मतकी राजधानी थी। राजर्षि माहिष्मतके पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्ममें ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था। उसने पिताके धनको पापकर्ममें ही खर्च किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा ब्राह्मणोंका निन्दक था। वैष्णवों और देवताओंकी भी हमेशा निन्दा कियाकरता था। अपने पुत्रको ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मतने राजकुमारोंमें उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाइयोंने मिलकर उसे राज्यसे बाहर निकाल दिया। लुम्भक उस नगरसे निकलकर गहन वनमें चला गया। वहीं रहकर उस पापीने प्रायः समूचे नगरका धन लूट लिया। एक दिन जब वह चोरी करनेके लिये नगरमें आया तो रातमें पहरा देनेवाले सिपाहियोंने उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने अपनेको राजा माहिष्मतका पुत्र बतलाया तो सिपाहियोंने उसे छोड़ दिया। फिर वह पापी वनमें लौट आया और प्रतिदिन मांस तथा वृक्षोंके फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्टका विश्राम स्थान पीपल वृक्षके निकट था वहाँ बहुत वर्षोंका पुराना पीपलका वृक्ष था। उस वनमें वह वृक्ष एक महान् देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था।

बहुत दिनोंके पश्चात् एक दिन किसी संचित पुण्यके प्रभावसे उसके द्वारा एकादशीके व्रतका पालन हो गया। पौष मासमें कृष्णपक्षकी दशमीके दिन पापिष्ठ लुम्भकने वृक्षोंके फल खाये और वस्त्रहीन होनेके कारण रातभर जाड़ेका कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला। वह निष्प्राण-सा हो रहा था। सूर्योदय होनेपर भी उस पापीको होश नहीं हुआ। 'सफला एकादशीके दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होनेपर उसे चेतना प्राप्त हुई। फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसनसे उठा और लँगड़ेकी भाँति पैरोंसे बार-बार लड़खड़ाता हुआ वनके भीतर गया। वह भूखसे दुर्बल और पीड़ित हो रहा था। राजन् ! उस समय लुम्भक बहुत से फल लेकर ज्यों ही विश्राम स्थानपर लौटा, त्यों ही सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने वृक्षकी जड़में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा- 'इन फलोंसे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु संतुष्ट हो।' य कहकर लुम्भकने रातभर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रतका पालन कर लिया। उससमय सहसा आकाशवाणी हुई- 'राजकुमार तुम 'सफला एकादशीके प्रसादसे राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने यह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान् विष्णुके भजनमें लग गयी। दिव्य आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न होकर उसने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षोंतक वह उसका संचालन करता रहा। उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उसके मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भकने तुरंत ही राज्यकी ममता छोड़कर उसे पुत्रको सौंप दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णके समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता। राजन्। इस प्रकार जो 'सफला एकादशीका उत्तम व्रत करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर मरनेके पश्चात् मोक्षको प्राप्त होता है। संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जो 'सफला' एकादशीके व्रतमें लगे रहते हैं। उन्हींका जन्म सफल है। महाराज! इसकी महिमाको पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्य राजसूय यज्ञका फल पाता है।

युधिष्ठिर बोले श्रीकृष्ण आपने शुभकारिणी 'सफला एकादशीका वर्णन किया। अब कृपा करके शुक्लपक्षकी एकादशीका महत्त्व बतलाइये उसका क्या नाम है? कौन-सी विधि है? तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है ?

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजन्! पौषके शुक्लपक्षकी जो एकादशी है, उसे बतलाता हूँ सुनो। महाराज संसारके हितकी इच्छासे में इसका वर्णन करता हूँ। राजन्। पूर्वोक्त विधिसे ही यत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। इसका नाम 'पुत्रदा' है। यह सब पापको हरनेवाली उत्तम तिथि है। समस्त कामनाओं तथा सिद्धियोंके दाता भगवान् नारायण इस तिथिके अधिदेवता हैं। चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है। पूर्वकाली बात है, भद्रावती पुरीमें राजा सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम चम्पा था। राजाको बहुत समयतककोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। इसलिये दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोकमें डूबे रहते थे। राजाके पितर उनके दिये हुए जलको शोकोच्छ्वाससे गरम करके पीते थे। 'राजाके बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हमलोगोंका तर्पण करेगा' यह सोच सोचकर पितर दुःखी रहते थे।

एक दिन राजा घोड़ेपर सवार हो गहन वनमें चले गये। पुरोहित आदि किसीको भी इस बातका पता न था। मृग और पक्षियोंसे सेवित उस सघन काननमें राजा भ्रमण करने लगे। मार्गमें कहीं सियारकी बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओंकी । जहाँ-तहाँ रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार घूम-घूमकर राजा वनकी शोभा देख रहे थे, इतनेमें दोपहर हो गयी। राजाको भूख और प्यास सताने लगी। वे जलकी खोजमें इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी पुण्यके प्रभावसे उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियोंके बहुत-से आश्रम थे। शोभाशाली नरेशने उन आश्रमोंकी ओर देखा। उस समय शुभकी सूचना देनेवाले शकुन होने लगे। राजाका दाहिना नेत्र और दाहिना हाथफड़कने लगा, जो उत्तम फलकी सूचना दे रहा था। सरोवर के तटपर बहुत-से मुनि वेद-पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। वे घोड़ेसे उतरकर मुनियोंके सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। वे मुनि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले थे। जब राजाने हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले- 'राजन् ! हमलोग तुमपर प्रसन्न हैं।'

राजा बोले- आपलोग कौन हैं? आपके नाम क्या हैं तथा आपलोग किसलिये यहाँ एकत्रित हुए हैं ? यह सब सच-सच बताइये ।

मुनि बोले- राजन् ! हमलोग विश्वेदेव यहाँ स्नानके लिये आये हैं। माघ निकट आया है। आजसे पाँचवें दिन माघका स्नान आरम्भ हो जायगा। आज ही 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है, जो व्रत करनेवाले मनुष्योंको पुत्र देती है।

राजाने कहा – विश्वेदेवगण! यदि आपलोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये ।मुनि बोले- राजन् ! आजके ही दिन 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रतका पालन करो। महाराज ! भगवान् केशव प्रसादसे तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा ।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियोंके कहनेसे राजाने उत्तम व्रतका पालन किया। महर्षियोंके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीका अनुष्ठान किया। फिर द्वादशीको पारण करके मुनियोंके चरणोंमें बारम्बार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये। तदनन्तर रानीने गर्भ धारण किया। प्रसवकाल आनेपर पुण्यकर्मा राजाको तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणोंसे पिताको संतुष्ट कर दिया। वह प्रजाओंका पालक हुआ । इसलिये राजन् ! 'पुत्रदा' का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर 'पुत्रदा' का व्रत करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र पाकर मृत्युके पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्यको पढ़ने और सुननेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है!

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार