युधिष्ठिरने पूछा- स्वामिन्! पौष मासके कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवताकी पूजा की जाती है? यह बताइये।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजेन्द्र! बतलाता हूँ, सुनो बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रतके अनुष्ठानसे होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके एकादशीका व्रत करना चाहिये। पौष मासके कृष्णपक्ष में 'सफला' नामकी एकादशी होती है। उस दिन पूर्वोक्त विधानसे ही विधिपूर्वक भगवान् नारायणकी पूजा करनी चाहिये। एकादशी कल्याण करनेवाली है। अतः इसका व्रत अवश्य करना उचित है। जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियोंमें गरुड़, देवताओंमें श्रीविष्णु तथा मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतोंमें एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। राजन्! 'सफला एकादशीको नाम- मन्त्रोंका उच्चारण करके फलोंके द्वारा श्रीहरिका पूजन करे। नारियलके फल, सुपारी, बिजौरा नीबू जमीरा नीबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आमके फलोंसे देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार धूप-दीपसे भी भगवान्की अर्चना करे। 'सफला एकादशीको विशेषरूपसे दीप दान करनेका विधान है। रातको वैष्णव पुरुषोंके साथ जागरण करना चाहिये। जागरण करनेवालेको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करनेसे भी नहीं मिलता।
नृपश्रेष्ठ! अब 'सफला एकादशीकी शुभकारिणी कथा सुनो। चम्पावती नामसे विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मतकी राजधानी थी। राजर्षि माहिष्मतके पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्ममें ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था। उसने पिताके धनको पापकर्ममें ही खर्च किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा ब्राह्मणोंका निन्दक था। वैष्णवों और देवताओंकी भी हमेशा निन्दा कियाकरता था। अपने पुत्रको ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मतने राजकुमारोंमें उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाइयोंने मिलकर उसे राज्यसे बाहर निकाल दिया। लुम्भक उस नगरसे निकलकर गहन वनमें चला गया। वहीं रहकर उस पापीने प्रायः समूचे नगरका धन लूट लिया। एक दिन जब वह चोरी करनेके लिये नगरमें आया तो रातमें पहरा देनेवाले सिपाहियोंने उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने अपनेको राजा माहिष्मतका पुत्र बतलाया तो सिपाहियोंने उसे छोड़ दिया। फिर वह पापी वनमें लौट आया और प्रतिदिन मांस तथा वृक्षोंके फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्टका विश्राम स्थान पीपल वृक्षके निकट था वहाँ बहुत वर्षोंका पुराना पीपलका वृक्ष था। उस वनमें वह वृक्ष एक महान् देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था।
बहुत दिनोंके पश्चात् एक दिन किसी संचित पुण्यके प्रभावसे उसके द्वारा एकादशीके व्रतका पालन हो गया। पौष मासमें कृष्णपक्षकी दशमीके दिन पापिष्ठ लुम्भकने वृक्षोंके फल खाये और वस्त्रहीन होनेके कारण रातभर जाड़ेका कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला। वह निष्प्राण-सा हो रहा था। सूर्योदय होनेपर भी उस पापीको होश नहीं हुआ। 'सफला एकादशीके दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होनेपर उसे चेतना प्राप्त हुई। फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसनसे उठा और लँगड़ेकी भाँति पैरोंसे बार-बार लड़खड़ाता हुआ वनके भीतर गया। वह भूखसे दुर्बल और पीड़ित हो रहा था। राजन् ! उस समय लुम्भक बहुत से फल लेकर ज्यों ही विश्राम स्थानपर लौटा, त्यों ही सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने वृक्षकी जड़में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा- 'इन फलोंसे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु संतुष्ट हो।' य कहकर लुम्भकने रातभर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रतका पालन कर लिया। उससमय सहसा आकाशवाणी हुई- 'राजकुमार तुम 'सफला एकादशीके प्रसादसे राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने यह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान् विष्णुके भजनमें लग गयी। दिव्य आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न होकर उसने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षोंतक वह उसका संचालन करता रहा। उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उसके मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भकने तुरंत ही राज्यकी ममता छोड़कर उसे पुत्रको सौंप दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णके समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता। राजन्। इस प्रकार जो 'सफला एकादशीका उत्तम व्रत करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर मरनेके पश्चात् मोक्षको प्राप्त होता है। संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जो 'सफला' एकादशीके व्रतमें लगे रहते हैं। उन्हींका जन्म सफल है। महाराज! इसकी महिमाको पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्य राजसूय यज्ञका फल पाता है।
युधिष्ठिर बोले श्रीकृष्ण आपने शुभकारिणी 'सफला एकादशीका वर्णन किया। अब कृपा करके शुक्लपक्षकी एकादशीका महत्त्व बतलाइये उसका क्या नाम है? कौन-सी विधि है? तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है ?
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजन्! पौषके शुक्लपक्षकी जो एकादशी है, उसे बतलाता हूँ सुनो। महाराज संसारके हितकी इच्छासे में इसका वर्णन करता हूँ। राजन्। पूर्वोक्त विधिसे ही यत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। इसका नाम 'पुत्रदा' है। यह सब पापको हरनेवाली उत्तम तिथि है। समस्त कामनाओं तथा सिद्धियोंके दाता भगवान् नारायण इस तिथिके अधिदेवता हैं। चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है। पूर्वकाली बात है, भद्रावती पुरीमें राजा सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम चम्पा था। राजाको बहुत समयतककोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। इसलिये दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोकमें डूबे रहते थे। राजाके पितर उनके दिये हुए जलको शोकोच्छ्वाससे गरम करके पीते थे। 'राजाके बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हमलोगोंका तर्पण करेगा' यह सोच सोचकर पितर दुःखी रहते थे।
एक दिन राजा घोड़ेपर सवार हो गहन वनमें चले गये। पुरोहित आदि किसीको भी इस बातका पता न था। मृग और पक्षियोंसे सेवित उस सघन काननमें राजा भ्रमण करने लगे। मार्गमें कहीं सियारकी बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओंकी । जहाँ-तहाँ रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार घूम-घूमकर राजा वनकी शोभा देख रहे थे, इतनेमें दोपहर हो गयी। राजाको भूख और प्यास सताने लगी। वे जलकी खोजमें इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी पुण्यके प्रभावसे उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियोंके बहुत-से आश्रम थे। शोभाशाली नरेशने उन आश्रमोंकी ओर देखा। उस समय शुभकी सूचना देनेवाले शकुन होने लगे। राजाका दाहिना नेत्र और दाहिना हाथफड़कने लगा, जो उत्तम फलकी सूचना दे रहा था। सरोवर के तटपर बहुत-से मुनि वेद-पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। वे घोड़ेसे उतरकर मुनियोंके सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। वे मुनि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले थे। जब राजाने हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले- 'राजन् ! हमलोग तुमपर प्रसन्न हैं।'
राजा बोले- आपलोग कौन हैं? आपके नाम क्या हैं तथा आपलोग किसलिये यहाँ एकत्रित हुए हैं ? यह सब सच-सच बताइये ।
मुनि बोले- राजन् ! हमलोग विश्वेदेव यहाँ स्नानके लिये आये हैं। माघ निकट आया है। आजसे पाँचवें दिन माघका स्नान आरम्भ हो जायगा। आज ही 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है, जो व्रत करनेवाले मनुष्योंको पुत्र देती है।
राजाने कहा – विश्वेदेवगण! यदि आपलोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये ।मुनि बोले- राजन् ! आजके ही दिन 'पुत्रदा' नामकी एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रतका पालन करो। महाराज ! भगवान् केशव प्रसादसे तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा ।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियोंके कहनेसे राजाने उत्तम व्रतका पालन किया। महर्षियोंके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीका अनुष्ठान किया। फिर द्वादशीको पारण करके मुनियोंके चरणोंमें बारम्बार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये। तदनन्तर रानीने गर्भ धारण किया। प्रसवकाल आनेपर पुण्यकर्मा राजाको तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणोंसे पिताको संतुष्ट कर दिया। वह प्रजाओंका पालक हुआ । इसलिये राजन् ! 'पुत्रदा' का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर 'पुत्रदा' का व्रत करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र पाकर मृत्युके पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्यको पढ़ने और सुननेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है!