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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 198 - Khand 5, Adhyaya 198

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प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा

महादेवजी कहते हैं-सुरश्रेष्ठ कार्तिकेय अब प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य सुनो यह पापका नाशक, पुण्यकी वृद्धि करनेवाला तथा तत्त्वचिन्तनपरायण पुरुषोंको मोक्ष देनेवाला है समुद्रसे लेकर सरोवरोंतक: जितने तीर्थ हैं, वे भी तभीतक गरजते हैं जबतक कि कार्तिक में श्रीहरिकी प्रबोधिनी तिथि नहीं आती। प्रबोधिनीको एक ही उपवाससे सहस्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञोंका फल मिल जाता है। इस चराचर त्रिलोकीमें जो वस्तु अत्यन्त दुर्लभ मानी गयी है, उसे भी माँगनेपर हरिबोधिनी एकादशी प्रदान करती है। यदि हरिबोधिनी एकादशीको उपवास किया जाय तो वह अनायास ही ऐश्वर्य, सन्तान, ज्ञान, राज्य और सुख सम्पत्ति प्रदान करती है। मनुष्यके किये हुए मेरुपर्वतके समान बड़े-बड़े पापको भी हरिबोधिनी एकादशी एक ही उपवाससे भस्म कर डालती है। जो प्रबोधिनी एकादशीको स्वभावसे ही विधिपूर्वक उपवास करता है, वह शास्त्रोक्त फलका भागी होता है। प्रबोधिनी एकादशीको रात्रिमें जागरण करनेसे पहलेके हजारों जन्मोंकी की हुई पापराशि रूड़के ढेरकी भाँति भरम हो जाती है।

रात्रिमें जागरण करते समय भगवत्सम्बन्धी गीत, वाद्य, नृत्य और पुराणोंके पाठकी भी व्यवस्था करनी चाहिये। धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, चन्दन, फल और अर्घ्य आदिसे भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। मनमें श्रद्धा रखकर दान देना और इन्द्रियोंको संयममें रखना चाहिये। सत्यभाषण, निद्राका अभाव, प्रसन्नता, शुभकर्ममें प्रवृत्ति, मनमें आश्चर्य और उत्साह, आलस्य आदिका त्याग, भगवान्की परिक्रमा तथा नमस्कार इन बातोंका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। महाभाग ! प्रत्येक पहरमें उत्साह और उमंगके साथ भक्तिपूर्वक भगवान्की आरती उतारनी चाहिये। जो पुरुष भगवान्के समीप एकाग्रचित्त होकर उपर्युक्त गुणोंसे युक्त जागरण करता है, वह पुनः इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो धनकी कृपणता छोड़कर इस प्रकार भक्तिभावसेएकादशीको जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन हो जाता है। जो कार्तिक पुरुषसूक्तके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिका पूजन करता है, उसके द्वारा करोड़ों वर्षोंतक भगवान्‌की पूजा सम्पन्न हो जाती है। जो मनुष्य पांचरात्रमें बतायी हुई यथार्थ विधिके अनुसार कार्तिकमें भगवान्का पूजन करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो कार्तिकमें 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्रके द्वारा श्रीहरिकी अर्चना करता है, वह नरकके दुःखोंसे छुटकारा पाकर अनामयपदको प्राप्त होता है। जो कार्तिक श्रीविष्णुसहस्रनाम तथा गजेन्द्र मोक्षका पाठ करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। उसके कुलमें जो सैकड़ों, हजारों पुरुष उत्पन्न हो चुके हैं, वे सभी श्रीविष्णुधामको प्राप्त होते हैं। अतः एकादशीको जागरण अवश्य करना चाहिये। जो कार्तिकमें रात्रिके पिछले पहर में भगवान के सामने स्तोत्रगान करता है, वह अपने पितरोंके साथ श्वेतद्वीपमें निवास करता है। जो मनुष्य कार्तिक शुक्लपक्षमें एकादशीका व्रत पूर्ण करके प्रातःकाल सुन्दर कलश दान करता है, वह श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता है।

व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ कार्तिकेय ! अब मैं तुम्हें महान् पुण्यदायक व्रत बताता हूँ। यह व्रत कार्तिकके अन्तिम पाँच दिनोंमें किया जाता है। इसे भीष्मजीने भगवान् वासुदेवसे प्राप्त किया था, इसलिये यह व्रत भीष्म पंचक नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् केशवके सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो इस व्रतके गुणोंका यथावत् वर्णन कर सके। वसिष्ठ, भृगु और गर्ग आदि मुनीश्वरोंने सत्ययुगके आदिमें कार्तिकके शुक्लपक्षमें इस पुरातन धर्मका अनुष्ठान किया था। राजा अम्बरीषने भी त्रेता आदि युगोंमें इस व्रतका पालन किया था। ब्राह्मणोंने ब्रह्मचर्यपालन, जप तथा हवन कर्म आदिके द्वारा और क्षत्रियों एवं वैश्योंने सत्य-शीच आदिके पालनपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान किया है। सत्यहीन मूढ़ मनुष्योंके लिये इस व्रतका अनुष्ठान असम्भव है। जो इस व्रतको पूर्ण कर लेता है, उसने मानो सब कुछ कर लिया।कार्तिक शुक्लपक्ष एकादशीको विधिपूर्वक स्नान करके पाँच दिनोंका व्रत ग्रहण करे। व्रती पुरुष प्रातः स्नानके बाद मध्याह्नके समय भी नदी, झरने या पोखरेपर जाकर शरीरमें गोबर लगाकर विशेषरूपसे। स्नान करे। फिर चावल, जौ और तिलोंके द्वारा क्रमशः देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। मौनभावसे स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहन दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करे। ब्राह्मणको पंचरत्न दान दे। लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका प्रतिदिन पूजन करे। इस पंचकतके अनुष्ठानसे मनुष्य वर्षभरके सम्पूर्ण व्रतोंका फल प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य निम्नांकित मन्त्रोंसे भीष्मको जलदान देता और अर्घ्यके द्वारा उनका पूजन (सत्कार) करता है, वह मोक्षका भागी होता है। मन्त्र इस प्रकार है—

वैयाघ्रपद्यगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।

अनपत्याय भीष्माय उदकं भीष्मवर्मणे ॥

वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च।

अर्घ्यं ददामि भीष्माय आजन्मब्रह्मचारिणे ॥

(125 43-44)

'जिनका गोत्र वैयाघ्रपद्य और प्रवर सांकृत्य है, उन सन्तानरहित राजर्षि भीष्मके लिये यह जल समर्पित है जो वसुओंके अवतार तथा राजा शन्तनुके पुत्र हैं, उन आजन्म ब्रह्मचारी भीष्मको मैं अर्घ्य दे रहा हूँ।' तत्पश्चात् सब पापका हरण करनेवाले श्रीहरिका पूजन करे। उसके बाद प्रयत्नपूर्वक भीष्मपंचकव्रतका पालन करना चहिये। भगवान्को भक्तिपूर्वक जलसे स्नान कराये। फिर मधु, दूध, घी, पंचगव्य, गन्ध और चन्दनमिश्रित जलसे उनका अभिषेक करे। तदनन्तर सुगन्धित चन्दन और केशरमें कपूर और खस मिलाकर भगवान के श्रीविग्रहपर उसका लेप करे फिर गन्ध और धूपके साथ सुन्दर फूलोंसे ओहरिकी पूजा करे तथा उनकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक घी मिलाया हुआ गूगल जलावे। लगातार पाँच दिनोंतक भगवान्‌के समीप दिन-रात दीपक जलाये रखे। देवाधिदेव श्रीविष्णुको नैवेद्यके रूपमें उत्तम अन्न निवेदन करे। इस प्रकार भगवान्का स्मरण और उन्हें प्रणाम करके उनकी अर्चनाकरे। फिर 'ॐ नमो वासुदेवाय' इस मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे तथा उस पडक्षर मन्त्रके अन्तमें 'स्वाहा' पद जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक घृतमिश्रित तिल, चावल और जौ आदिसे अग्निमें हवन करे। सायंकालमें सन्ध्योपासना करके भगवान् गरुड़ध्वजको प्रणाम करे और पूर्ववत् षडक्षर मन्त्रका जप करके व्रत- पालनपूर्वक पृथ्वीपर शयन करे। इन सब विधियोंका पाँच दिनोंतक पालन करते रहना चाहिये।

एकादशीको सनातन भगवान् हृषीकेशका पूजन करके थोड़ा-सा गोबर खाकर उपवास करे फिर द्वादशीको व्रती पुरुष भूमिपर बैठकर मन्त्रोचारणके साथ गोमूत्र पान करे । त्रयोदशीको दूध पीकर रहे चतुर्दशीको दही भोजन करे। इस प्रकार शरीरकी शुद्धिके लिये चार दिनोंका लंघन करके पाँचवें दिन स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक भगवान् केशवकी पूजा करे और भक्तिके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे। पापबुद्धिका परित्याग करके बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मचर्यका पालन करे। शाकाहारसे अथवा मुनियोंके अन्न (तिन्नीके चावल) से इस प्रकार निर्वाह करते हुए मनुष्य श्रीकृष्णके पूजनमें संलग्न रहे। उसके बाद रात्रिमें पहले पंचगव्य पान करके पीछे अन्न भोजन करे। इस प्रकार भलीभाँति व्रतकी पूर्ति करनेसे मनुष्य शास्त्रोक्त फलका भागी होता है। इस भीष्म व्रतका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य परमपदको प्राप्त करता है। स्त्रियोंको भी अपने स्वामीकी आज्ञा लेकर इस धर्मवर्धक व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। मोक्ष-मुखकी वृद्धि, सम्पूर्ण विधवाएँ भी कामनाओंकी पूर्ति तथा पुण्यकी प्राप्तिके लिये इस व्रतका पालन करें। भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगे रहकर प्रतिदिन बलिवैश्वदेव भी करना चाहिये यह आरोग्य और पुत्र प्रदान करनेवाला तथा महापातकों का नाश करनेवाला है। एकादशीसे लेकर पूर्णिमातकका जो व्रत है, वह इस पृथ्वीपर भीष्मपंचकके नामसे विख्यात है। भोजनपरायण पुरुषके लिये इस व्रतका निषेध है। इस व्रतका पालन करनेपर भगवान् विष्णु शुभ फल प्रदान करते हैं।महादेवजी कहते हैं- यह मोक्षदायक शास्त्र अनधिकारी पुरुषोंके सामने प्रकाशित करनेयोग्य नहीं है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है, वह मोक्षको प्राप्त होता है। कार्तिकेय ! इस व्रतको यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। जो त्यागी मनुष्य हैं, वे भी यदि इस व्रतका अनुष्ठान करें तो उनके पुण्यको बतलाने में मैं असमर्थ हूँ। इस प्रकार कार्तिक मासका जो कुछ भी फल है, वह सब मैंने बतला दिया।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- देवदेव भगवान् शंकरने पुत्रकी मंगल कामनासे यह व्रत उसे बताया था। पिताके वचन सुनकर कार्तिकेय आनन्दमग्न हो गये। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस कार्तिकमाहात्म्यका पाठ करता, सुनता और सुनकर हृदयमें धारण करता है, वह सब पापसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। इस माहात्म्यका श्रवण करनेमात्रसे ही धन, धान्य, यश, पुत्र, आयु और आरोग्यकी प्राप्ति हो जाती है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार