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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 164 - Khand 5, Adhyaya 164

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फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपा करके बताइये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- युधिष्ठिर! एक बार नारदजीने कमलके आसनपर विराजमान होनेवाले ब्रह्माजीसे प्रश्न किया- 'सुरश्रेष्ठ! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, कृपयाउसके पुण्यका वर्णन कीजिये।'

ब्रह्माजीने का - नारद! सुनो- 'मैं एक उत्तम कथा सुनाता हूँ, जो पापका अपहरण करनेवाली है। यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पापनाशक है। यह 'विजया' नामकी एकादशी राजाओंको विजय प्रदान करती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् श्रीरामचन्द्रजी चौदह वर्षोंके लिये वनमेंगये और वहाँ पंचवटीमें सीता तथा लक्ष्मणके साथ रहने लगे। वहाँ रहते समय रावणने चपलतावश विजयात्मा श्रीरामकी तपस्विनी पत्नी सीताको हर लिया। उस दुःखसे श्रीराम व्याकुल हो उठे। उस समय सीताकी खोज करते हुए वे वनमें घूमने लगे। कुछ दूर जानेपर उन्हें जटायु मिले, जिनकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसके बाद उन्होंने बनके भीतर कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। फिर सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता हुई। तत्पश्चात् श्रीरामके लिये वानरोकी सेना एकत्रित हुई हनुमानजीने लंकाके उद्यानमें जाकर सीताजीका दर्शन किया और उन्हें श्रीरामकी चिह्नस्वरूप मुद्रिका प्रदान की। यह उन्होंने महान् पुरुषार्थका काम किया था। वहाँसे लौटकर वे श्रीरामचन्द्रजीसे मिले और लंकाका सारा समाचार उनसे निवेदन किया। हनुमान्जीकी बात सुनकर श्रीरामने सुग्रीवकी अनुमति ले लंकाको प्रस्थान करनेका विचार किया और समुद्र के किनारे पहुँचकर उन्होंने लक्ष्मणसे कहा- 'सुमित्रानन्दन! किस पुण्यसे इस समुद्रको पार किया जा सकता है? यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जलजन्तुओंसे भरा हुआ है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता जिससे इसको सुगमतासे पार किया जा सके।'

लक्ष्मण बोले- महाराज! आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष पुरुषोत्तम हैं। आपसे क्या छिपा है ? यहाँ द्वीपके भीतर बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं। यहाँसे आधे योजनकी दूरीपर उनका आश्रम है। रघुनन्दन। उन प्राचीन मुनीश्वरके पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये।

लक्ष्मणकी यह अत्यन्त सुन्दर बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्यसे मिलनेके लिये गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तक झुकाकर मुनिको प्रणाम किया। मुनि उनको देखते ही पहचान गये कि ये पुराणपुरुषोत्तम श्रीराम है, जो किसी कारणवश मानवशरीरमें अवतीर्ण हुए हैं। उनके आनेसे महर्षिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पूछा—' श्रीराम। आपका कैसे यहाँ आगमन हुआ ?'श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! आपकी कृपासे राक्षसों सहित लंकाको जीतनेके लिये सेनाके साथसमुद्र के किनारे आया हूँ। मुने! अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सके, वह उपाय बताइये। मुझपर कृपा कीजिये ।

बकदाल्भ्यने कहा— श्रीराम ! फाल्गुन कृष्णपक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेसे आपकी विजय होगी। निश्चय ही आप अपनी वानरसेनाके साथ समुद्रको पार कर लेंगे। राजन्! अब इस व्रतकी फलदायक विधि सुनिये। दशमीका दिन आनेपर एक कलश स्थापित करे। वह सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीका भी हो सकता है। उस कलशको जलसे भरकर उसमें पल्लव डाल दे। उसके ऊपर भगवान् नारायणके सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। फिर एकादशीके दिन प्रात:काल स्नान करे। कलशको पुनः स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। माला, चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदिके द्वारा विशेषरूपसे उसका पूजन करे। कलशके ऊपर सप्तधान्य और जौ रखे गन्ध, धूप, दीप और भाँति-भाँतिके नैवेद्यसे पूजनकरे। कलशके सामने बैठकर वह सारा दिन उत्तम कथा-वार्ता आदिके द्वारा व्यतीत करे तथा रातमें भी वहाँ जागरण करे। अखण्ड व्रतकी सिद्धिके लिये श्रीका दीपक जलाये फिर द्वादशी के दिन सूर्योदय होनेपर उस कलशको किसी जलाशयके समीप नदी, झरने या पोखरेके तटपर ले जाकर स्थापित करे और उसकी विधिवत् पूजा करके देव-प्रतिमासहित उस कलशको वेदवेत्ता ब्राह्मणके लिये दान कर दे। महाराज ! कलशके साथ ही और भी बड़े-बड़े दान देने चाहिये। श्रीराम आप अपने यूथपतियोंके साथ इसी विधिसे प्रयत्नपूर्वक 'विजया' का व्रत कीजिये इससे आपकी विजय होगी।

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुनिके कथनानुसार उस समय 'विजया' एकादशीका व्रत किया। उस व्रतके करनेसे श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए। उन्होंने संग्राममें रावणको मारा, लंकापर विजय पायी और सीताको प्राप्त किया। बेटा! जो मनुष्य इस विधिसे व्रत करते हैं, उन्हें इस लोकमें विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— युधिष्ठिर। इस कारण 'विजया' का व्रत करना चाहिये। इस प्रसंगको पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। युधिष्ठिरने कहा— श्रीकृष्ण ! मैंने विजया एकादशीका माहात्म्य, जो महान् फल देनेवाला है, सुन लिया। अब फाल्गुन शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम और माहात्म्य बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाभाग धर्मनन्दन! सुनो तुम्हें इस समय वह प्रसंग सुनाता हूँ, जिसे राजा मान्धाताके पूछने पर महात्मा वसिष्ठने कहा था। फाल्गुन शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम 'आमलकी' है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोककी प्राप्ति करानेवाला है। मान्धाताने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! यह 'आमलकी' कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये। वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! सुनो-पृथ्वीपर'आमलकी' की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापका नाश करनेवाला है भगवान् विष्णुके थूकनेपर उनके मुखसे चन्द्रमाके समान कान्तिमान् एक बिन्दु प्रकट हुआ। वह बिन्दु पृथ्वीपर गिरा। उसीसे आमलकी (आँवले) - का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ। यह सभी वृक्षोंका आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजाकी सृष्टि करनेके लिये भगवान्ने ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। उन्हींसे इन प्रजाओंकी प्रजाओंकी सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षियोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया। उनमेंसे देवता और ऋषि उस स्थानपर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकीका वृक्ष था। महाभाग ! उसे देखकर देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ। वे एक दूसरेपर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्षकी ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष (पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्वकल्पकी ही भाँति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित हैं, किन्तु इस वृक्षको हम नहीं जानते उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई- 'महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकीका वृक्ष है, जो विष्णुको प्रिय है। इसके स्मरणमात्रसे गोदानका फल मिलता है। स्पर्श करनेसे इससे दूना और फल भक्षण करनेसे तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकीका सेवन करना चाहिये। यह सब पापको हरनेवाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूलमें विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्धर्मे परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओंमें मुनि, टहनियोंमें देवता, पत्तोंमें वसु, फूलोंमें मरुद्गण तथा फलोंमें समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है। * अतः विष्णुभक्त पुरुषके लिये यह परम पूज्य है।'

ऋषि बोले- [ अव्यक्त स्वरूपसे बोलनेवाले महापुरुष!] हमलोग आपको क्या समझें- आप कौन हैं? देवता है या कोई और? हमें ठीक-ठीक बताइये।आकाशवाणी हुई— जो सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता और समस्त भुवनोंके स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनतासे देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मैं हूँ। देवाधिदेव भगवान् विष्णुका कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियोंके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ वे आदि अन्तरहित भगवान्‌की स्तुति करने लगे।

ऋषि बोले सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत आत्मा एवं परमात्माको नमस्कार है। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वरको बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वरको नमस्कार है। मायापते ! आपको प्रणाम है। आप विश्वके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।

ऋषियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले-महर्षियो। तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ?'

ऋषि बोले- भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हमलोगों के हितके लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।

श्रीविष्णु बोले- महर्षियो। फाल्गुन शुक्लपक्षमें यदि पुष्य नक्षत्रसे युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य देनेवाली और बड़े-बड़े पाठकोंका नाश करनेवाली होती है। द्विज उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशीमें आँवलेके वृक्षके पास जाकर वहाँ रात्रिमें जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता और सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। विप्रगण! यह व्रतोंमें उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुमलोगोंको बताया है।

ऋषि बोले- भगवन्! इस व्रतकी विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है? पूजनकी कौन सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सबबातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।

भगवान् विष्णुने कहा-द्विजवरो! इस व्रतकी जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशीको प्रातः काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि 'हे पुण्डरीकाक्ष! हे अच्युत! मैं एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरणमें रखें।' ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। अपने मनको वशमें रखते हुए नदीमें, पोखरे, कुएँपर अथवा घरमें ही स्नान करे। स्नानके पहले शरीरमें मिट्टी लगाये।

मृत्तिका लगानेका मन्त्र

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।

मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम् ॥

'वसुन्धरे तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके मैंने करोड़ों जन्मोंमें जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापको हर लो।'

स्नान-मन्त्र

त्वं मातः सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।

स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नमः ॥

स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्त्रवणेषु च।

नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत् ॥

(47।44-45) 'जलकी अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतोंके लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जातिके जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसोंकी स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानोंका फल देनेवाला हो।' विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह परशुरामजी की सोनेकी प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति औरधनके अनुसार एक या आधे माशे सुवर्णकी होनी चाहिये। स्नानके पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकारकी सामग्री लेकर आँवले के वृक्षके पास जाय वहाँ वृक्षके चारों ओरकी जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमिमें मन्त्रपाठपूर्वक जलसे भरे हुए नवीन कलशकी स्थापना करे। कलशमें पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेतचन्दनसे उसको चर्चित करे। कण्ठमें फूलकी माला पहनाये। सब प्रकारके धूपकी सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपककी श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओरसे सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करे पूजाके लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजीकी 'विशोकाय नमः कहकर उनके चरणोंकी, 'विश्वरूपिणे नमः' से दोनों घुटनोंकी, 'उग्राय नमः' से जाँघोंकी, 'दामोदराय नमः' से कटिभागकी, 'पद्मनाभाय नमः' से उदरकी, 'श्रीवत्सधारिणे नमः' से वक्षःस्थलकी, 'चक्रिणे नमः' से बायी बाँकी, 'गदिने नमः' से दाहिनी बाँहकी, 'वैकुण्ठाय नमः' से कण्ठकी, 'यज्ञमुखाय नमः' से मुखकी, 'विशोकनिधये नमः - से नासिकाकी, 'वासुदेवाय नमः' से नेत्रोंकी, 'वामनाय नमः' से ललाटकी, 'सर्वात्मने नमः' से सम्पूर्ण अंगों तथा मस्तककी पूजा करे। ये ही पूजाके मन्त्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे शुद्ध फलके द्वारा देवाधिदेव परशुरामजीको अर्घ्य प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते

गृहाणार्थ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥

(47।57)

'देवदेवेश्वर जमदग्निनन्दन श्रीविष्णुस्वरूप परशुरामजी! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये।'

तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे जागरण करे। नृत्य, संगीत, बाह्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्षकी परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरिकी आरती करे। ब्राह्मणकी पूजा करके वहाँकी सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजीका कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि 'परशुरामजी स्वरूपमें भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हाँ।' तत्पश्चात् आमलकीका स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करनेके बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियोंके साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ सुनो। सम्पूर्ण तीर्थोके सेवनसे जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकारके दान देनेसे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधिके पालनसे सुलभ होता है। समस्त यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतोंमें उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।

वसिष्ठजी कहते हैं- महाराज! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियोंने उक्त व्रतका पूर्णरूपसे पालन किया। नृपश्रेष्ठ। इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्यको सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार