व्यासजी कहते हैं— महर्षियो! इस प्रकार दण्ड, मेखला, मृगचर्म आदिसे युक्त तथा शौचाचारसे सम्पन्न ब्रह्मचारी गुरुके मुँहकी ओर देखता रहे और जब वे बुलायें तभी उनके पास जाकर अध्ययन करे। सदा हाथ जोड़े रहे. सदाचारी और संयमी बने जब गुरु बैठनेकीआज्ञा दें, तब उनके सामने बैठे। गुरुकी बातका श्रवण और गुरुके साथ वार्तालाप - ये दोनों कार्य लेटे-लेटे न करे और भोजन करते समय भी न करे। उस समय न तो खड़ा रहे और न दूसरी ओर मुख ही फेरे । गुरुके समीप शिष्यकी शय्या और आसन सदा नीचे रहनेचाहिये। जहाँतक गुरुकी दृष्टि पड़ती हो, वहाँक मनमाने आसनपर न बैठे। गुरुके परोक्षमें भी उनका नाम न ले। उनकी चाल, उनकी बोली तथा उनकी चेष्टाका अनुकरण न करे। जहाँ गुरुपर लांछन लगाया जाता हो अथवा उनकी निन्दा हो रही हो, वहाँ कान मूँद लेने चाहिये अथवा वहाँसे अन्यत्र हट जाना चाहिये। दूर खड़ा होकर, क्रोधमें भरकर अथवा स्त्रीके समीप रहकर गुरुकी पूजा न करे गुरुकी वातका प्रत्युत्तर न दे यदि गुरु पास ही खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। गुरुके लिये सदा पानीका घड़ा, कुश, फूल और समिधा लाया करे। प्रतिदिन उनके आँगनमें झाडू देकर उसे लीप-पोत दे। गुरुके उपभोगमें आयी हुई वस्तुओंपर, उनकी शय्या खड़ाऊँ, जूते, आसन तथा छाया आदिपर कभी पैर न रखे गुरुके लिये दान आदि ला दिया करें। जो कुछ प्राप्त हो, उन्हें निवेदन कर दे। उनसे पूछे बिना कहीं न जाय और सदा उनके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहे गुरुके समीप कभी पैर न फैलाये। उनके सामने जँभाई लेना, हँसना, गला बँकना और अँगड़ाई लेना सदाके लिये छोड़ दे। समयानुसार गुरुसे, जबतक कि वे पढ़ानेसे उदासीन न हो जायँ, अध्ययन करे। गुरुके पास नीचे बैठे। एकाग्र चित्तसे उनकी सेवामें लगा रहे। गुरुके आसन, शय्या और सवारीपर कभी न बैठे। गुरु यदि दौड़ते हों तो उनके पीछे-पीछे स्वयं भी दौड़े। वे चलते हो तो स्वयं भी पीछे-पीछे जाव बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊँटगाड़ी, महलकी अटारी, कुशकी चटाई, शिलाखण्ड तथा नावपर गुरुके साथ शिष्य भी बैठ सकता है।
शिष्यको सदा जितेन्द्रिय, जितात्मा, क्रोधहीन और पवित्र रहना चाहिये। वह सदा मधुर और हितकारी वचन बोले। चन्दन, माला, स्वाद, श्रृंगार, सीपी, प्राणियोंकी हिंसा, तेलकी मालिश, सुरमा, शावंत आदि। पेय, छत्रधारण, काम, लोभ, भय, निद्रा, गाना-बजाना, दूसरोंको फटकारना, किसीपर लांछन लगाना, स्त्रीकी ओर देखना, उसका स्पर्श करना, दूसरेका घात करना तथा चुगली खाना-इन दोषोंका यत्नपूर्वक परित्याग करे। जलसे भरा हुआ पड़ा, फूल, गोबर, मिट्टी औरकुश – इन वस्तुओंका आवश्यकताके अनुसार संग्रह करे तथा अन्नको भिक्षा लेनेके लिये प्रतिदिन जाय । भी, नमक और वासी अन्न ब्रह्मचारीके लिये वर्जित हैं। वह कभी नृत्य न देखे। सदा संगीत आदिसे निःस्पृह रहे। न सूर्यकी ओर देखे न दातुन करे। उसके लिये स्त्रियाँके साथ एकान्तमें रहना और शूद्र आदिके साथ वार्तालाप करना भी निषिद्ध है। वह गुरुके उच्छिष्ट औषध और अन्नका स्वेच्छासे उपयोग न करे।
ब्राह्मण गुरुके परित्यागका किसी तरह विचार भी मनमें न लाये। यदि मोह या लोभवश वह उन्हें त्याग दें तो पतित हो जाता है। जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन गुरुदेवसे कभी द्रोह न करे। गुरु यदि घमंडी, कर्तव्य-अकर्तव्यको न जाननेवाला और कुमार्गगामी हो तो मनुजीने उसका त्याग करनेका आदेश दिया है। गुरुके गुरु समीप आ जायें तो उनके प्रति भी गुरुकी ही भाँति बर्ताव करना चाहिये। नमस्कार करनेके पश्चात् जब वे गुरुजी आज्ञा दें, तब आकर अपने गुरुओंको प्रणाम करना चाहिये जो विद्यागुरु हाँ, उनके प्रति भी यही बर्ताव करना चाहिये। जो योगी हो, जो अधर्मसे रोकने और हितका उपदेश करनेवाले हों, उनके प्रति भी सदा गुरुजनोचित वर्ताव करना चाहिये। गुरुके पुत्र, गुरुकी पत्नी तथा गुरुके बन्धु-बान्धवोंके साथ भी सदा अपने गुरुके समान ही बर्ताव करना उचित है। इससे कल्याण होता है। वालक अथवा शिष्य यज्ञकर्ममें माननीय पुरुषोंका आदर करे। यदि गुरुका पुत्र भी पढ़ाये तो गुरुके समान ही सम्मान पानेका अधिकारी है। किन्तु गुरुपुत्रके शरीर दबाने, नहलाने, उच्छिष्ट भोजन करने तथा चरण धोने आदिका कार्य न करे। गुरुको स्त्रियोंमें जो उनके समान वर्णकी हों, उनका गुरुकी भाँति सम्मान करना चाहिये तथा जो समान वर्णकी न हों, उनका अभ्युत्थान और प्रणाम आदिके द्वारा ही सत्कार करना चाहिये। गुरुपत्नीके प्रति तेल लगाने, नहलाने, शरीर दबाने और केशोंका श्रृंगार करने आदिकी सेवा न करे। यदि गुरुकी स्त्री युवती हो तो उसका चरण स्पर्श करकेप्रणाम नहीं करना चाहिये अपितु अमुक ह कहकर पृथ्वीपर ही मस्तक टेकना चाहिये। सत्पुरुषांक धर्मका निरन्तर स्मरण करनेवाले शिष्यको उचित है। कि वह बाहरसे आनेपर प्रतिदिन गुरुपत्नीका चरण स्पर्श एवं प्रणाम करे। मौसी, मामी, सास, बुआ-ये सब गुरुपत्नीके समान हैं। अतः गुरुपत्नीकी भाँति इनका भी आदर करना चाहिये। अपने बड़े भाइयोंकी सवर्ण स्त्रियोंका प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना उचित है। परदेशसे आनेपर अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियोंकी सभी श्रेष्ठ स्त्रियोंके चरणोंमें मस्तक झुकाना चाहिये। बुआ, मौसी तथा बड़ी बहिनके साथ माताकी ही भाँति बर्ताव करना चाहिये, इन सबकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है।
जो इस प्रकार सदाचारसे सम्पन्न, अपने मनको वशमें रखनेवाला और दम्भहीन शिष्य हो, उसे प्रतिदिन वेद, धर्मशास्त्र और पुराणका अध्ययन कराना चाहिये। जब शिष्य सालभरतक गुरुकुलमें निवास कर ले और उस समयतक गुरु उसे ज्ञानका उपदेश न करे तो वह अपने पास रहनेवाले शिष्यके सारे पापोंको हर लेता है। आचार्यका पुत्र सेवापरायण, ज्ञान देनेवाला, धर्मात्मा, पवित्र, शक्तिशाली, अन्न देनेवाला, पानी पिलानेवाला, साधु पुरुष और अपना शिष्य- ये दस प्रकारके पुरुष धर्मतः पढ़ानेके योग्य हैं। कृतज्ञ, द्रोह न रखनेवाला, मेधावी, गुरु बनानेवाला, विश्वासपात्र और प्रिय-ये छ प्रकारके द्विज विधिपूर्वक अध्ययन करानेके योग्य हैं। शिष्य आचमन करके संयमशील हो उत्तराभिमुख बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करे। गुरुके चरणोंमें प्रणाम करके उनका मुँह जोहता रहे। जब गुरु कहें सौम्य ! आओ, पढ़ो,' तब उनके पास जाकर पाठ पढ़े और जब वे कहें कि 'अब पाठ बंद करना चाहिये', तब पाठ बंद कर दे। अग्निके पूर्व आदि दिशाओंमें कुश बिछाकर उनकी उपासना करे। तीन प्राणायामोंसे पवित्र होकर ब्रह्मचारी ॐ कारके जपका अधिकारी होता है।ब्रह्मणो विप्रको अध्ययनके आदि और अन्तमें भी विधिपूर्वक प्रणवका जप करना चाहिये प्रतिदिन पहले वेदको अंजलि देकर उसका अध्ययन कराना चाहिये। वेद सम्पूर्ण भूतोंके सनातन नेत्र हैं; अतः प्रतिदिन उनका अध्ययन करे अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। जो नित्यप्रति ऋग्वेदका अध्ययन करता है, वह दूधकी आहुतिसे जो यजुर्वेदका पाठ करता है, वह दहीसे; जो सामवेदका अध्ययन करता है, वह घीकी आहुतियोंसे तथा जो अथर्ववेदका पाठ करता है, वह सदा मधुसे देवताओंको तृप्त करता है। उन देवताओंके समीप नियमपूर्वक नित्यकर्मका आश्रय ले वनमें जा एकाग्रचित्त हो गायत्रीका जप करे। प्रतिदिन अधिक से अधिक एक हजार, मध्यम स्थितिमें एक सौ अथवा कम-से-कम दस बार गायत्री देवीका जप करना चाहिये; यह जपयज्ञ कहा गया है। भगवान्ने गायत्री और वेदोंको तराजूपर रखकर तोला था, एक ओर चारों वेद थे और एक ओर केवल गायत्री मन्त्र । दोनोंका पलड़ा बराबर रहा। द्विजको चाहिये कि वह श्रद्धालु एवं एकाग्रचित्त होकर पहले ओंकारका और फिर व्याहृतियोंका उच्चारण करके गायत्रीका उच्चारण करे पूर्वकल्पमें 'भूः', 'भुवः' और 'स्व' ये तीन सनातन महाव्याहृतियाँ उत्पन्न हुईं, जो सब प्रकारके अमंगलका नाश करनेवाली हैं ये तीनों व्याहृतियाँ क्रमशः प्रधान, पुरुष और कालका, विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीका तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका प्रतीक मानी गयी हैं। पहले 'ऑ' उसके बाद 'ब्रह्म' तथा उसके पश्चात् गायत्री मन्त्र - इन सबको मिलाकर यह महायोग नामक मन्त्र बनता है, जो सारसे भी सार बताया गया है। जो ब्रह्मचारी प्रतिदिन इस वेदमाता गायत्रीका अर्थ समझकर जप करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है गायत्री वेदोंकी जननी है गायत्री सम्पूर्ण संसारको पवित्र करनेवाली है। गायत्रीसे बढ़कर दूसरा कोई अपनेयोग्यमन्त्र नहीं है। यह जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है।" द्विजवरो! आषाढ़, श्रावण अथवा भादोंकी पूर्णिमाको
वेदोंका उपाकर्म बताया गया है अर्थात् उक्त तिथिसे वेदोंका स्वाध्याय प्रारम्भ किया जाता है। जबतक सूर्य दक्षिणायनके मार्गपर चलते हैं, तबतक अर्थात् साढ़े चार महीने प्रतिदिन पवित्र स्थानमें बैठकर ब्रह्मचारी एकाग्रतापूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् द्विज पुष्यनक्षत्रमें घरके बाहर जाकर वेदोंका उत्सर्ग स्वाध्यायकी समाप्ति करे। शुक्लपक्षमें प्रातः काल और कृष्णपक्षमें संध्याके समय वेदोंका स्वाध्याय करना चाहिये।
वेदोंका अध्ययन, अध्यापन प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाले पुरुषको नीचे लिखे अनध्यायोंके समय सदा ही अध्ययन बंद रखना चाहिये। यदि रातमें ऐसी तेज हवा चले, जिसकी सनसनाहट कानोंमें गूंज उठे तथा दिनमें धूल उड़ानेवाली आँधी चलने लगे तो अनध्याय होता है। यदि बिजलीकी चमक, मेघकी गर्जना, वृष्टि तथा महान् उल्कापात हो तो प्रजापति मनुने अकालिक अनध्याय बताया है-ऐसे अवसरोंपर उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक अध्ययन रोक देना उचित है। यदि अग्निहोत्रके लिये अग्नि प्रज्वलित करनेपर इन उत्पातोंका उदय जान पड़े तो वर्षाकालमें अनध्याय समझना चाहिये तथा वर्षासे भिन्न ऋतुमें यदि बादल दीख भी जाय तो अध्ययन रोक देना चाहिये। वर्षा ऋतुमें और उससे भिन्न कालमें भी यदि उत्पात सूचक शब्द, भूकम्प, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिर्मय ग्रहोंके उपद्रव हों तो अकालिक (उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक) अनध्याय समझना चाहिये। यदि प्रातः कालमें होमाग्नि प्रज्वलित होनेपर बिजलीकी गड़गड़ाहट और मेघकी गर्जना सुनायी दे तो सज्योति अनध्याय होता है अर्थात् ज्योति-सूर्यके रहनेतक हीअध्ययन बंद रहता है। इसी प्रकार रातमें भी अग्नि प्रज्वलित होनेके पश्चात् यदि उक्त उत्पात हो तो दिनकी ही भाँति सज्योति-ताराओंके दीखनेतक अनध्याय माना जाता है। धर्मकी निपुणता चाहनेवाले पुरुषोंके लिये गाँवों, नगरों तथा दुर्गन्धपूर्ण स्थानोंमें सदा ही अनध्याय रहता है। गाँवके भीतर मुर्दा रहनेपर, शूद्रकी समीपता होनेपर, रोनेका शब्द कानमें पड़नेपर तथा मनुष्योंकी भारी भीड़ रहनेपर भी सदा ही अनध्याय होता है। जलमें, आधी रातके समय, मल-मूत्रका त्याग करते समय, जूठा मुँह रहनेपर तथा श्राद्धका भोजन कर लेनेपर मनसे भी वेदका चिन्तन नहीं करना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण एकोद्दिष्ट श्राद्धका निमन्त्रण लेकर तीन दिनोंतक वेदोंका अध्ययन बंद रखे। राजाके यहाँ 1 सूतक (जननाशौच) हो या ग्रहणका सूतक लगा हो, तो भी तीन दिनोंतक वेद-मन्त्रोंका उच्चारण न करे। एकोद्दिष्टमें सम्मिलित होनेवाले विद्वान् ब्राह्मणके शरीर में जबतक श्राद्धके चन्दनकी सुगन्ध और लेप रहे, तबतक वह वेद-मन्त्रका उच्चारण न करे। लेटकर, पैर फैलाकर, घुटने मोड़कर तथा शूद्रका श्राद्धान्न भोजन करके वेदाध्ययन न करे। कुहरा पड़नेपर, बाणका शब्द होनेपर, दोनों संध्याओंके समय, अमावास्या, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अष्टमीको भी वेदाध्ययन निषिद्ध है। वेदोंके उपाकर्मके पहले और उत्सर्गके बाद तीन राततक अनध्याय माना गया है। अष्टका तिथियोंको एक दिन-रात तथा ऋतुके अन्तकी रात्रियोंको रातभर अध्ययन निषिद्ध है। मार्गशीर्ष पौष और माघ मासके कृष्णपक्षमें जो अष्टमी तिथियों आती हैं. उन्हें विद्वान् पुरुषोंने तीन अष्टकाओंके नामसे कहा है। बहेड़ा, सेमल, महुआ, कचनार और कैथ-इन वृक्षोंकी छायामें कभी वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये। अपने सहपाठी अथवा साथ रहनेवाले ब्रह्मचारी या आचार्यकीमृत्यु हो जानेपर तीन राततक अनध्याय माना गया है। ये अवसर वेदपाठी ब्राह्मणोंके लिये छिद्ररूप हैं, अतः अनध्याय कहे गये हैं। इनमें अध्ययन करनेसे राक्षस हिंसा करते हैं; अतः इन अनध्यायोंका त्याग कर देना चाहिये । नित्य कर्ममें अनध्याय नहीं होता । संध्योपासन भी बराबर चलता रहता है। उपाकर्ममें, उत्सर्गमें, होमके अन्तमें तथा अष्टकाकी आदि तिथियोंको वायुके चलते रहनेपर भी स्वाध्याय करना चाहिये । वेदांगों, इतिहास-पुराणों तथा अन्य धर्मशास्त्रोंके लिये भी अनध्याय नहीं । इन सबको अनध्यायकी कोटिसे पृथक् समझना चाहिये ।
यह मैंने ब्रह्मचारीके धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने शुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषियोंके सामने इस धर्मका प्रतिपादन किया था। जो द्विज वेदका अध्ययन न करके दूसरे शास्त्रोंमें परिश्रम करता है, वह मूढ़ और वेदबाह्य माना गया है। द्विजातियोंको उससेबात नहीं करनी चाहिये। द्विजको केवल वेदोंके पाठ मात्रसे ही संतोष नहीं कर लेना चाहिये। जो केवल पाठ मात्रमें लगा रह जाता है, वह कीचड़में फँसी हुई गौकी भाँति कष्ट उठाता है। जो विधिपूर्वक वेदका अध्ययन करके उसके अर्थका विचार नहीं करता, वह मूढ़ एवं शूद्रके समान है। वह सुपात्र नहीं होता। यदि कोई सदाके लिये गुरुकुलमें वास करना चाहे तो सदा उद्यत रहकर शरीर छूटनेतक गुरुकी सेवा करता रहे। वनमें जाकर विधिवत् अग्निमें होम करे तथा ब्रह्मनिष्ठ एवं एकाग्रचित्त होकर सदा स्वाध्याय करता रहे। वह भिक्षाके अन्नपर निर्भर रहकर योगयुक्त हो सदा गायत्रीका जप और शतरुद्रिय तथा विशेषतः उपनिषदोंका अभ्यास करता रहे। वेदाध्ययनके विषयमें जो यह परम प्राचीन विधि है, इसका भलीभाँति मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। पूर्वकालमें श्रेष्ठ महर्षियोंके पूछनेपर दिव्यशक्तिसम्पन्न स्वायम्भुव मनुने इसका प्रतिपादन किया था।