ऋषियोंने पूछा- सूतजी कर्मयोग कैसे किया जाता है, जिसके द्वारा आराधना करनेपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं? महाभाग ! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमें यह बात बताइये। जिसके द्वारा मुमुक्षु पुरुष सबके ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी आराधना कर सकें, वह समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाला धर्म क्या वस्तु है? उसका वर्णन कीजिये। उसके श्रवणकी इच्छासे ये ब्राह्मणलोग आपके सामने बैठे हैं।
सूतजी बोले- महर्षियों! पूर्वकालमें अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने सत्यवतीके पुत्र व्यासजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे आपलोग सुनिये।
व्यासजीने कहा— ऋषियो! मैं सनातन कर्मयोगका वर्णन करूँगा, तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। कर्मयोग ब्राह्मणोंको अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। पहले की बात है, प्रजापति मनुने श्रोता बनकर बैठे हुए ऋषियोंके समक्ष ब्राह्मणोंके लाभ लिये वेदप्रसिद्ध सम्पूर्ण विषयोंका उपदेश किया था वह उपदेश सम्पूर्ण पापको हरनेवाला, पवित्र और मुनि समुदायद्वारा सेवित है; मैं उसीका वर्णन करता हूँ, तुमलोग एकाग्रचित्त होकरश्रवण करो। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह अपने गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार गर्भ या जन्मसे आठवें वर्षमें उपनयन होनेके पश्चात् वेदोंका अध्ययन आरम्भ करे। दण्ड, मेखला, यज्ञोपवीत और हिंसारहितकाला मृगचर्म धारण किये मुनिवेषमें रहे, भिक्षाका अन्न ग्रहण करे और गुरुका मुँह जोहते हुए सदा उनके हितमें संलग्न रहे ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञोपवीत बनानेके लिये ही कपास उत्पन्न किया था ब्राह्मणोंके लिये तीन आवृत्ति करके बनाया हुआ यज्ञोपवीत शुद्ध माना गया है। द्विजको सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहना चाहिये। अपनी शिखाको सदा बाँधे रखना चाहिये। इसके विपरीत बिना यज्ञोपवीत पहने और बिना शिखा बाँधे जो कर्म किया जाता है, वह विधिपूर्वक किया हुआ नहीं माना जाता । वस्त्र रूई जैसा सफेद हो या गेरुआ । फटा न हो, तभी उसे ओड़ना चाहिये तथा वहाँ पहननेके योग्य माना गया है। इनमें भी श्वेत वस्त्र अत्यन्त उत्तम है। उससे भी उत्तम और शुभ आच्छादन काला मृगचर्म माना गया है। जनेऊ गलेमें डालकर दाहिना हाथ उसके ऊपर कर ले और बायीं बाँह [अथवा कंधे ] पर उसे रखे तो वह 'उपवीत' कहलाता है। यज्ञोपवीतको सदा इसी तरह रखना चाहिये। कण्ठमें मालाकी भाँति पहना हुआ जनेऊ 'निवीत' कहा गया है। ब्राह्मणो बायीं बाँह बाहर निकालकर दाहिनी बाँह या कंधेपर रखे हुए जनेऊको 'प्राचीनावीत' (अपसव्य) कहते हैं। इसका पितृ कार्य (श्राद्ध-तर्पण आदि) में उपयोग करना चाहिये। हवन गृहमें, गोशालामें, होम और जपके समय, स्वाध्यायमें भोजनकालमें, ब्राह्मणोंके समीप रहनेपर, गुरुजनों तथा दोनों कालकी संध्याकी उपासना के समय तथा साधु पुरुषोंसे मिलने पर सदा उपवीतके ढंगसे ही जनेऊ पहननाचाहिये - यही सनातन विधि है। ब्राह्मणके लिये तीन आवृत्ति की हुई मूँजकी ही मेखला बनानी चाहिये। मूँज न मिलनेपर कुशसे भी मेखला बनानेका विधान है। मेखलामें गाँठ एक या तीन होनी चाहिये। द्विज बाँस अथवा पलाशका दण्ड धारण करे। दण्ड उसके पैरसे लेकर सिरके केशतक लंबा होना चाहिये। अथवा किसी भी यज्ञोपयोगी वृक्षका दण्ड, जो सुन्दर और छिद्र आदिसे रहित हो, वह धारण कर सकता है।
द्विज सबेरे और सायंकालमें एकाग्रचित्त होकर संध्योपासन करे। जो काम, लोभ, भय अथवा मोहवश संध्योपासन त्याग देता है, वह गिर जाता है। संध्या करनेके पश्चात् द्विज प्रसन्नचित्त होकर सायंकाल और प्रात: कालमें अग्निहोत्र करे। फिर दुबारा स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। इसके बाद पत्र, पुष्प, फल, जौ और जल आदिसे देवताओंकी पूजा करे। प्रतिदिन आयु और आरोग्यकी सिद्धिके लिये तन्द्रा और आलस्य आदिका परित्याग करके 'मैं अमुक हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ' इस प्रकार अपने नाम, गोत्र आदिका परिचय देते हुए धर्मतः अपनेसे बड़े पुरुषोंको विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनोंको नमस्कार करनेका स्वभाव बना ले। नमस्कार करनेवाले ब्राह्मणको बदलेमें 'आयुष्मान् भव सौम्य ! ' कहना चाहिये तथा उसके नामके अन्तमें प्लुताकारका उच्चारण करना चाहिये। यदि नाम हलन्त हो, तो अन्तिम हल्के आदिका अक्षर प्लुत बोलना चाहिये। * जोब्राह्मण प्रणामके बदले उक्तरूपसे आशीर्वाद देनेकी विधि नहीं जानता, वह विद्वान् पुरुषके द्वारा प्रणाम करनेके योग्य नहीं है। जैसा शूद्र है, वैसा ही वह भी है। अपने दोनों हाथोंको विपरीत दिशामें करके गुरुके चरणोंका स्पर्श करना उचित है अर्थात् अपने बायें हाथसे गुरुके बायें चरणका और दाहिने हाथसे दाहिने चरणका स्पर्श करना चाहिये। शिष्य जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गुरुदेवको वह पहले प्रणाम करे।
जल, भिक्षा, फूल और समिधा - इन्हें दूसरे दिनके लिये संग्रह न करे-प्रतिदिन जाकर आवश्यकताके अनुसार ले आये। देवताके निमित्त किये जानेवाले कार्योंमें भी जो इस तरहके दूसरे दूसरे आवश्यक सामान हैं, उनका भी अन्य समयके लिये संग्रह न करे। ब्राह्मणसे भेंट होनेपर कुशल पूछे, क्षत्रियसे अनामय, वैश्यसे क्षेम और शूद्रसे आरोग्यका प्रश्न करे। उपाध्याय (गुरु), पिता, बड़े भाई, राजा, मामा, श्वशुर, नाना, दादा, वर्णमें अपनेसे श्रेष्ठ व्यक्ति तथा पिताका भाई - ये पुरुषों में गुरु माने गये हैं। माता, नानी, गुरुपत्नी, बुआ, मौसी, सास, दादी, बड़ी बहिन और दूध पिलानेवाली धाय- इन्हें स्त्रियोंमें गुरु माना गया है। यह गुरुवर्ग माता और पिताके सम्बन्धसे है, ऐसा जानना चाहिये तथा मन, वाणी और शरीरकी क्रियाद्वारा इनके अनुकूल आचरण करना चाहिये। गुरुजनोंको देखते ही उठकर खड़ा हो जाय और हाथ जोड़कर प्रणाम करे। इनके साथ एक आसनपर न बैठे। इनसे विवाद न करे। अपने जीवनकी रक्षाके लिये भी गुरुजनोंके साथ द्वेषपूर्वक बातचीत न करें। अन्य गुणकेद्वारा ऊँचा उठा हुआ पुरुष भी गुरुजनोंसे द्वेष करनेके कारण नीचे गिर जाता है। समस्त गुरुजनोंमें भी पाँच विशेष रूपसे पूज्य हैं। उन पाँचोंमें भी पहले पिता, माता और आचार्य—ये तीन सर्वश्रेष्ठ हैं। उनमें भी माता सबसे अधिक सम्मानके योग्य है। उत्पन्न करनेवाला पिता, जन्म देनेवाली माता, विद्याका उपदेश देनेवाला गुरु, बड़ा भाई और स्वामी-ये पाँच परमपूज्य गुरु माने गये हैं। कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि अपने पूर्ण प्रयत्नसे अथवा प्राण त्यागकर भी इन पाँचोंका विशेष रूपसे सम्मान करे। जबतक पिता और माता-ये दोनों जीवित हों, तबतक सब कुछ छोड़कर पुत्र उनकी सेवामें संलग्न रहे। पिता-माता यदि पुत्रके गुणोंसे भलीभाँति प्रसन्न हों, तो वह पुत्र उनकी सेवारूप कर्मसे ही सम्पूर्ण धर्मोका फल प्राप्त कर लेता परन्तु यह है। माताके समान देवता और पिताके समान गुरु दूसरा नहीं है। उनके किये हुए उपकारोंका बदला भी किसी तरह नहीं हो सकता। अतः मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा उन दोनोंका प्रिय करना चाहिये; उनकी आज्ञाके बिना दूसरे किसी धर्मका आचरण न करे।" निषेध मोक्षरूपी फल देनेवाले नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर ही लागू होता है। [मोक्षके साधनभूत नित्य नैमित्तिक कर्म अनिवार्य हैं, उनका अनुष्ठान होना ही चाहिये; उनके लिये किसीकी अनुमति लेना आवश्यक नहीं है।] यह धर्मके सार तत्त्वका उपदेश किया गया है। यह मृत्युके बाद भी अनन्त फलको देनेवाला है। उपदेशक गुरुकी विधिवत् आराधना करके उनकी आज्ञासे घर लौटनेवाला शिष्य इस लोकमें विद्याका फल भोगता है और मृत्युके पश्चात् स्वर्गमें जाता है।ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान है; जो मूर्ख उसका अपमान करता है, वह उस पापके कारण मृत्युके बाद और नरकमें पड़ता है। सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले पुरुषको स्वामीका सदा सम्मान करना चाहिये। इस संसारमें माताका अधिक उपकार है; इसलिये उसका अधिक गौरव माना गया है मामा, चाचा, श्वशुर, ऋत्विज् और गुरुजनोंसे ‘मैं अमुक हूँ' ऐसा कहकर बोले और खड़ा होकर उनका स्वागत करे। यहमें दीक्षित पुरुष यदि अवस्थामें अपनेसे छोटा हो, तो भी उसे नाम लेकर नहीं बुलाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि वह उससे 'भोः!' और 'भवत्' (आप) आदि कहकर बात करे। ब्राह्मण और क्षत्रिय आदिके द्वारा भी वह सदा सादर नमस्कारके योग्य और पूजनीय है। उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। क्षत्रिय आदि यदि ज्ञान, उत्तम कर्म एवं श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त होते हुए अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हों, तो भी ब्राह्मणके द्वारा नमस्कारके योग्य कदापि नहीं हैं। ब्राह्मण अन्य सभी वर्णोंके लोगोंसे स्वस्ति कहकर बोले- यह श्रुतिकी आज्ञा है। एक वर्णके पुरुषको अपने समान वर्णवालोंको प्रणाम ही करना चाहिये। समस्त वर्णोंके गुरु ब्राह्मण हैं, ब्राह्मणोंके गुरु अग्नि हैं, स्त्रीका एकमात्र गुरु पति है और अतिथि सबका गुरु है। विद्या, कर्म, वय, भाई-बन्धु और कुल ये पाँच सम्मानके कारण बताये गये हैं। इनमें पिछलोंकी अपेक्षा पहले उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणादि तीन वर्णोंमें जहाँ इन पाँचोंमेंसे अधिक एवं प्रबल गुण होते हैं, वही सम्मानके योग्य समझा जाता है। दसवीं (90 वर्षसे ऊपरकी) अवस्थाको प्राप्त हुआ शूद्र भी सम्मानके योग्य होता है। ब्राह्मण, स्त्री, राजा, नेत्रहीन, वृद्ध, भारसे पीड़ित मनुष्य, रोगी तथा दुर्बलको जानेके लिये मार्ग देना चाहिये।"
ब्रह्मचारी प्रतिदिन मन और इन्द्रियोंको संयममेंरखते हुए शिष्ट पुरुषोंके घरोंसे भिक्षा ले आये तथा गुरुको निवेदन कर दे। फिर गुरु उसमेंसे जितना भोजनके लिये दें, उनकी आज्ञाके अनुसार उतना ही लेकर मौनभावसे भोजन करे। उपनयन संस्कारसे युक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण 'भवत्' शब्दका पहले प्रयोग करके अर्थात् 'भवति भिक्षां मे देहि' कहकर भिक्षा माँगे । क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्यके बीचमें और वैश्य अन्तमें 'भवत्' शब्दका प्रयोग करे अर्थात् क्षत्रिय 'भिक्षां भवति मे देहि' और वैश्य 'भिक्षां मे देहि भवति' कहे। ब्रह्मचारी सबसे पहले अपनी माता, बहिन अथवा मौसीसे भिक्षा माँगे। अपने सजातीय लोगोंके घरोंमें ही भिक्षा माँगे अथवा सभी वर्णोंके घरसे भिक्षा ले आये भिक्षाके सम्बन्धमें दोनों ही प्रकारका विधान मिलता है। किन्तु पतित आदिके घरसे भिक्षा लाना वर्जित है। जिनके यहाँ वेदाध्ययन और यज्ञोंकी परम्परा बंद नहीं है, जो अपने कर्मके लिये सर्वत्र प्रशंसित हैं, उन्हींके घरोंसे जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षा ले आये। गुरुके कुलमें भिक्षा न माँगे। अपने कुटुम्ब, कुल और सम्बन्धियोंके यहाँ भी भिक्षाके लिये न जाय। यदि दूसरे घर न मिलें तो यथासम्भव ऊपर बताये हुए पूर्व पूर्व गृहका परित्याग करके भिक्षा ले सकता है। यदि पूर्वकथनानुसार योग्य घर मिलना असम्भव हो जाय तो समूचे गाँवमें भिक्षाके लिये विचरण करे। उस समय मनको काबू में रखकर मौन रहे और इधर-उधर दृष्टि न डाले।
इस प्रकार सरलभावसे आवश्यकतानुसार भिक्षाका संग्रह करके भोजन करे। सदा जितेन्द्रिय रहे। मौन रहकर एवं एकाग्रचित्त हो व्रतका पालन करनेवाला ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षाके अन्नसे ही जीवन-निर्वाह करे, एक स्थानका अन्न न खाय । भिक्षासे किया हुआ निर्वाह ब्रह्मचारीके लिये उपवासके समान माना गया है। ब्रह्मचारी भोजनको सदा सम्मानकी दृष्टिसे देखे। गर्वमेंआकर अन्नकी गर्हणा न करे। उसे देखकर हर्ष प्रकट करे। मनमें प्रसन्न हो और सब प्रकारसे उसका अभिनन्दन करे। अधिक भोजन आरोग्य, आयु और स्वर्गलोककी प्राप्तिमें हानि पहुँचानेवाला है वह पुण्यका नाशक और लोक-निन्दित है। इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। पूर्वाभिमुख होकर अथवा सूर्यकी ओर मुँह करके अन्नका भोजन करना उचित है। उत्तराभिमुख होकर कदापि भोजन न करे यह भोजनकी सनातन विधि है। भोजन करनेवाला पुरुष हाथ-पैर धो, शुद्ध स्थानमें बैठकर पहले जलसे आचमन करे फिर भोजनके पश्चात् भी उसे दो बार आचमन करना चाहिये।
भोजन करके, जल पीकर, सोकर उठनेपर और स्नान करनेपर, गलियोंमें घूमनेपर, ओठ चाटने या स्पर्श करनेपर, वस्त्र पहननेपर, वीर्य, मूत्र और मलका त्याग करनेपर अनुचित बात कहनेपर थूकनेपर, अध्ययन आरम्भ करनेके समय, खाँसी तथा दम उठनेपर, चौराहे या श्मशानभूमिमें घूमकर लौटनेपर तथा दोनों संध्याओंके समय श्रेष्ठ द्विज आचमन किये होनेपर भी फिर आचमन करे। चाण्डालों और म्लेच्छोंके साथ बात करनेपर, स्त्रियों, शुद्रों तथा जूठे मुँहवाले पुरुषोंसे वार्तालाप होनेपर, जूठे मुँहवाले पुरुष अथवा जूठे भोजनको देख लेनेपर तथा आँसू या रक्त गिरनेपर भी आचमन करना चाहिये। अपने शरीरसे स्त्रियाँका स्पर्श हो जानेपर अपने बालों तथा खिसककर गिरे हुए वस्त्रका स्पर्श कर लेनेपर धर्मकी दृष्टिसे आचमन करना उचित है। आचमनके लिये जल ऐसा होना चाहिये, जो गर्म न हो, जिसमें फेन न हो तथा जो खारा न हो पवित्रताकी इच्छा रखनेवाला पुरुष सर्वदा पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर ही आचमन करे। उस समय सिर अथवा गलेको ढके रहे तथा बाल और चोटीको खुला रखे। कहींसे आया हुआ पुरुष दोनों पैरोंको धोये बिना पवित्र नहीं होता। विद्वान् पुरुष सीढ़ीपर या जलमें खड़ा होकर अथवा पगड़ी बाँधे आचमन न करे। बरसती हुई धाराके जलसे अथवा खड़ा होकर या हाथसे उलीचे हुए जलके द्वारा आचमन करना उचित नहीं है। एक हाथसेदिये हुए जलके द्वारा अथवा बिना यज्ञोपवीतके भी आचमन करना निषिद्ध है। खड़ाऊँ पहने हुए अथवा घुटनोंके बाहर हाथ करके भी आचमन नहीं करना चाहिये। बोलते, हँसते, किसीकी ओर देखते तथा बिछौनेपर लेटे हुए भी आचमन करना निषिद्ध है। जिस जलको अच्छी तरह देखा न गया हो, जिसमें फेन आदि हों, जो शूद्रके द्वारा अथवा अपवित्र हाथोंसे लाया गया हो तथा जो खारा हो, ऐसे जलसे भी आचमन करना अनुचित है। आचमनके समय अँगुलियोंसे शब्द न करे, मनमें दूसरी कोई बात न सोचे। हाथसे बिलोड़े हुए जलके द्वारा भी आचमन करना निषिद्ध है। ब्राह्मण उतने ही जलसे आचमन करनेपर पवित्र हो सकता है, जो हृदयतक पहुँच सके। क्षत्रिय कण्ठतक पहुँचनेवाले आचमनके जलसे शुद्ध होता है। वैश्य जिह्वासे जलका आस्वादन मात्र कर लेनेसे पवित्र होता है और स्त्री तथा शूद्र जलके स्पर्शमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं।
अँगूठेकी जड़के भीतरकी रेखामें ब्राह्मतीर्थं बताया जाता है। अँगूठे और तर्जनीके बीचके भागको पितृतीर्थ कहते हैं। कानी अँगुलीके मूलसे पीछेका भाग प्राजापत्यतीर्थ कहलाता है। अँगुलियोंका अग्रभाग देवतीर्थ माना गया है। उसीको आर्षतीर्थ भी कहते हैं। अथवा अँगुलियोंके मूलभागमें दैव और आर्षतीर्थ तथा मध्यमें आग्नेय तीर्थ है। उसीको सौमिक तीर्थ भी कहते हैं। यह जानकर मनुष्य मोहमें नहीं पड़ता। ब्राह्मण सदा ब्राह्मतीर्थसे ही आचमन करे बार अथवा देवतीर्थसे आचमनकी इच्छा रखे। किन्तु पितृ तीर्थसे कदापि आचमन न करे। पहले मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मतीर्थसे तीन आचमन करे। फिर अँगूठेके मूलभागसे मुँहको पोंछते हुए उसका स्पर्श करे। तत्पश्चात् अँगूठे और अनामिका अँगुलियोंसे दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। फिर तर्जनी और अँगूठेके योगसे नाकके दोनों छिद्रोंका, कनिष्ठा और अँगूठेके संयोगसे दोनों कानोंका, सम्पूर्ण अँगुलियोंके योगसे हृदयका, करतलसे मस्तकका और अँगूठेसे दोनों कंधोंका स्पर्श करे।द्विज तीन बार जो जलका आचमन करता है, उससे ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी तृप्त होते हैं-ऐसा हमारे सुननेमें आया है। मुखका परिमार्जन करनेसे गंगा और यमुनाको तृप्ति होती है। दोनों नेत्रोंके स्पर्शसे सूर्य और चन्द्रमा प्रसन्न होते हैं। नासिकाके दोनों छिद्रोंका स्पर्श करनेसे अश्विनीकुमारोंकी तथा कानोंके स्पर्शसे वायु और अग्निकी तृप्ति होती है। हृदयके स्पर्शसे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं और मस्तकके स्पर्शसे वह अद्वितीय पुरुष (अन्तर्यामी) प्रसन्न होता है। मधुपर्क, सोमरस, पान, फल, मूल तथा गन्ना- इन सबके खाने-पीनेमें मनुजीने दोष नहीं बताया है-उससे मुँह जूठा नहीं होता। अन्न खाने या जल पीनेके लिये प्रवृत्त होनेवाले मनुष्यके हाथमें यदि कोई वस्तु हो तो उसे पृथ्वीपर रखकर आचमनके पश्चात् उसपर भी जल छिड़क देना चाहिये। जिस-जिस वस्तुको हाथमें लिये हुए मनुष्य अपना मुँह जूठा करता है, उसे यदि पृथ्वीपर न रखे तो वह स्वयं भी अशुद्ध ही रह जाता है। वस्त्र आदिके विषयमें विकल्प है-उसे पृथ्वीपर रखा भी जा सकता है और नहीं भी। उसका स्पर्श करके आचमन करना चाहिये। रातके समय जंगलमें चोर और व्याघ्रोंसे भरे हुए रास्तेपर चलनेवाला पुरुष द्रव्य हाथमें लिये हुए भी मल-मूत्रका त्याग करके दूषित नहीं होता। यदि दिनमें शौच जाना हो तो जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ाकर उत्तराभिमुख हो मल-मूत्रका त्याग करे। यदि रात्रिमें जाना पड़े तो दक्षिणकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये। पृथ्वीको लकड़ी, पत्ते, मिट्टी, ढेले अथवा घाससे ढककर तथा अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित करके मलमूत्रका त्याग करना चाहिये। किसी पेड़की छायामें, कुएँके पास, नदीके किनारे, गोशाला, देवमन्दिर तथा जलमें, रास्तेपर, राखपर, अग्निमें तथा श्मशान भूमिमें भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। गोबरपर, काठपर, बहुत बड़े वृक्षपर तथा हरी-भरी घासमें भी मल-मूत्र करना निषिद्ध है। खड़े होकर तथा नग्न होकर भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। पर्वतमण्डलमें, पुराने देवालयमें, बाँबीपर तथा किसी भी गड्ढे में मल-मूत्रका त्याग वर्जित है। चलते-चलते भी पाखाना और पेशाब नहीं करना चाहिये। भूसी, कोयले तथा ठीकरेपर, खेतमें, बिलमें, तीर्थमें, चौराहेपर अथवा सड़कपर, बगीचेमें, जलके निकट, ऊसर भूमिमें तथा नगरके भीतर – इन सभी स्थानोंमें मल मूत्रका त्याग मना है।
खड़ाऊँ या जूता पहनकर, छाता लगाकर, अन्तरिक्षमें, स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, गौ, देवता, देवालय तथा जलकी ओर मुँह करके, नक्षत्रों तथा ग्रहोंको देखते हुए अथवा उनकी ओर मुँह करके तथा सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी ओर दृष्टि करके भी कभी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये शौच आदि होनेके पश्चात् कहीं किनारेसे लेप और दुर्गन्धको मिटानेवाली मिट्टी लेकर आलस्यरहित हो विशुद्ध एवं बाहर निकाले हुए जलसे हाथ आदिकी शुद्धि करे। ब्राह्मणको उचित है कि वह रेत मिली हुई अथवा कीचड़की मिट्टी न ले। रास्तेसे, ऊसर भूमिसे तथा दूसरोंके शौचसे बची हुई मिट्टीको भी काममें न ले। देवमन्दिरसे, कुएँसे, घरकी दीवारसे और जलसे भी मिट्टी न ले । तदनन्तर हाथ-पैर धोकर प्रतिदिन पूर्वोक्त विधिसे आचमन करना चाहिये ।