नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्रह्मस्थूणा नामक तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। कुब्जा - वनमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नान करके तीन रात उपवास करनेवालेको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। इसके बाद देवदमें जहाँसे कृष्णवेणा नदी निकलती है, स्नान करे। फिर ज्योतिर्मात्र (जातिमात्र) हृदमें तथा कन्याश्रममें स्नान करे कन्याश्रममें जानेमात्र से सौ अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। सर्वदेवहदमें स्नान करनेसे सहस गोदानोंका फल प्राप्त होता है तथा जातिमात्र हृदमें नहानेसे मनुष्यको पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है। इसके बाद परम पुण्यमयी वाणी तथा नदियोंमें श्रेष्ठ पयोष्णी (मन्दाकिनी) में जाकर देवताओं तथा पितरोंका पूजन करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है।
महाराज ! तदनन्तर दण्डकारण्यमें जाकर गोदावरीमें स्नान करना चाहिये। वहाँ शरभंग मुनि तथा महात्मा शुकके आश्रमकी यात्रा करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अपने कुलको पवित्र कर देता है। तत्पश्चात् सप्तगोदावरीमें स्नान करके नियमोंका पालन करते हुए नियमानुकूल भोजन करनेवाला पुरुष महान् पुण्यको प्राप्त होता और देवलोकको जाता है। वहाँसे देवपथकी यात्रा करे। इससे मानव देवसत्रका पुण्य प्राप्त कर लेता है। तुंगकारण्यमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जितेन्द्रिय भावसे रहे। युधिष्ठिर। तुंगकारण्यमें प्रवेश करनेवाले पुरुष अथवा स्त्रीका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। धीर पुरुषको उचित है कि वह नियमोंका पालन तथा नियमानुकूल भोजन करते हुए एक मासतक वहाँ निवास करे इससे वह ब्रह्मलोकको जाता और अपने कुलको भी पवित्र कर देता है। मेधावनमें जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। इससे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता तथास्मरणशक्ति और मेधाकी प्राप्ति होती है। वहीं कालंजर तीर्थमें जानेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है।
महाराज! तत्पश्चात् पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूटपर मन्दाकिनी नदीकी यात्रा करे। वह सब पापको दूर करनेवाली है। उसमें स्नान करके देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे परम उत्तम भर्तृस्थान नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे ही मनुष्यको सिद्धि प्राप्त होती है। उस तीर्थकी प्रदक्षिणा करके शिवस्थानकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ एक विख्यात कूप है, जिसमें चारों समुद्रोंका निवास है। वहाँ स्नान करके उस कूपकी प्रदक्षिणा करे; इससे पवित्र हुआ जितात्मा पुरुष परम गतिको प्राप्त होता है। तदनन्तर महान् शृंगवेरपुरकी यात्रा करे। वहाँ गंगामें स्नान करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले पुरुषके पाप धुल जाते हैं और वह वाजपेय यज्ञका फल पाता है। वहाँसे परम बुद्धिमान् भगवान् शंकरके मुंजवट नामक स्थानकी यात्रा करे। वहाँ जाकर महादेवजीकी पूजा और प्रदक्षिणा करनेसे मनुष्य गणपति पदको प्राप्त होता है।
इसके बाद ऋषियोंद्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ ब्रह्माजीके साथ साक्षात् भगवान् माधव विराजमान हैं। गंगा सब तीर्थोंके साथ प्रयागमें आयी हैं और वहाँ तीनों लोकोंमें विख्यात तथा सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली सूर्यनन्दिनी यमुना गंगाजीके साथ मिली हैं। गंगा और यमुनाके बीचकी भूमि पृथ्वीका जघन (कटिसे नीचेका भाग) मानी गयी है। और प्रयाग जघनके बीचका उपस्थ भाग है, ऐसी ऋषियोंकी मान्यता है। वहाँ प्रयाग, उत्तम प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नामक नागका स्थान, भोगवतीतीर्थ तथा प्रजापतिकी वेदी आदि पवित्र स्थान बताये गये हैं। वहाँ यज्ञ और वेद मूर्तिमान् होकर रहते हैं। प्रयागसे बढ़कर पवित्र तीर्थ तीनों लोकोंमें नहीं है। प्रयाग अपने प्रभावकेकारण सब तास बढ़कर है। प्रयागतीर्थ नामको सुनने, कीर्तन करने तथा उसे मस्तक झुकानेसे भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो उत्तम व्रतका पालन करते हुए वहाँ संगममें स्नान करता है, उसे महान पुण्यकी प्राप्ति होती है; क्योंकि प्रयाग देवताओंकी भी यज्ञभूमि है। वहाँ थोड़ेसे दानका भी महान् फल होता है। कुरुनन्दन। प्रयागमें साठ करोड़ और दस हजार तीर्थोंका निवास बताया गया है। चारों विद्याओंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है तथा सत्यवादी पुरुषोंको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, वह वहाँ गंगा-यमुना संगममें स्नान करनेसे ही मिल जाता है। प्रयाग भगवती नामक उत्तम बावली है जो वासुकि नागका उत्तम स्थान माना गया है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँ हंसप्रपतन तथा दशाश्वमेध नामक तीर्थ हैं। गंगामें कहीं भी स्नान
करनेपर कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेके समान पुण्य होता है। गंगाजीका जल सारे पापको उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे आग रूईके ढेरको जला डालती है। सत्ययुगमें सभी तीर्थ, त्रेतामें पुष्कर, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गंगा ही सबसे पवित्र तीर्थ मानी गयी हैं। पुष्करमें तपस्या करे, महालयमें दान दे और भृगु-तुंगपर उपवास करे तो विशेष पुण्य होता है। किन्तु पुष्कर, कुरुक्षेत्र और गंगाके जलमें स्नान करनेमात्रसे प्राणी अपनी सात पहलेकी तथा सात पोछेकी पीढ़ियोंको भी तत्काल ही तार देता है। गंगाजी नाम लेनेमात्रसे पापको धो देती हैं, दर्शन करनेपर कल्याण प्रदान करती हैं तथा स्नान करने और जल पीनेपर सात पीढ़ियोतकको पवित्र कर देती हैं। राजन्! जबतक मनुष्यकी हड्डीका गंगाजलसे स्पर्श बना रहता है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित रहता है। ब्रह्माजीका कथन है किगंगाके समान तीर्थ, श्रीविष्णुसे बढ़कर देवता तथा ब्राह्मणोंसे बढ़कर पूज्य कोई नहीं है। महाराज! जहाँ गंगा बहती हैं, वहाँ उनके किनारेपर जो जो देश और तपोवन होते हैं, उन्हें सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये।"
जो मनुष्य प्रतिदिन तीर्थोके इस पुण्य प्रसंगका श्रवण करता है, वह सदा पवित्र होकर स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है तथा उसे अनेकों जन्मोंकी बातें याद आ जाती हैं जहाँको यात्रा की जा सकती है और जहाँ जाना असम्भव है, उन सभी प्रकारके तीर्थोंका मैंने वर्णन किया है। यदि प्रत्यक्ष सम्भव न हो तो मानसिक इच्छाके द्वारा भी इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये। पुण्यकी इच्छा रखनेवाले देवोपम ऋषियोंने भी इन तीर्थोंका आश्रय लिया है।
वसिष्ठ मुनि बोले- राजा दिलीप तुम भी उपर्युक्त विधिके अनुसार मनको वशमें करके तीर्थोंकी यात्रा करो; क्योंकि पुण्य पुण्यसे ही बढ़ता है। पहले के बने हुए कारणोंसे, आस्तिकतासे और श्रुतियोंको देखनेसे शिष्ट पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले सज्जनोंको उन तीर्थोकी प्राप्ति होती है।
नारदजी कहते हैं-राजा युधिष्ठिर। इस प्रकार दिलीपको तीर्थोकी महिमा बताकर मुनि वसिष्ठ उनसे विदा ले प्रातः काल प्रसन्न हृदयसे वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा दिलीपने शास्त्रोंके तात्विक अर्थका ज्ञान हो जाने और वसिष्ठजीके कहनेसे सारी पृथ्वीपर तीर्थ यात्राके लिये भ्रमण किया। महाभाग ! इस प्रकार सब पापोंसे छुड़ानेवाली यह परमपुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (झूसी) में आकर प्रतिष्ठित - समाप्त होती है। जो मनुष्य इस विधिसे पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह मृत्युके पश्चात् सौ अश्वमेध यज्ञौका फल प्राप्त करेगा, युधिष्ठिर। तुम ऋषियोंको भी साथ ले जाओगे, इसलियेतुम्हें औरोंकी अपेक्षा आठगुना फल होगा। सूतजी कहते हैं- समस्त तीर्थोंके वर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाले देवर्षि नारदके इस चरित्रका जो सबेरे उठकर पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । नारदजीने यह भी कहा-'राजन् ! वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कौण्डिन्य, विश्वामित्र, गौतम, असित, देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज-शिष्य उद्दालक मुनि, शौनक, पुत्रसहित महान् तपस्वी व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाऔर महातपस्वी जाबालि - इन सभी तपस्वी ऋषियोंकी तुम प्रतीक्षा करो तथा इन सबको साथ लेकर उपर्युक्त तीर्थोंकी यात्रा करो।' राजा युधिष्ठिरसे यों कहकर देवर्षि नारद उनसे विदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धर्मात्मा युधिष्ठिरने बड़े आदरके साथ समस्त तीर्थोंकी यात्रा की। ऋषियो! मेरी कही हुई इस तीर्थयात्राकी कथाका जो पाठ या श्रवण करता है, वह सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।