भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् लोकविधाता भगवान् ब्रह्माजीने किस समय यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ एकत्रित करके उनसे यज्ञ करना आरम्भ किया? वह यज्ञ जैसा और जिस प्रकार हुआ था, वह सब मुझे बताइये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! यह तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि जब स्वायम्भुव मनु भूलोकके राज्य-सिंहासनपर प्रतिष्ठित हुए, उस समय ब्रह्माजीने समस्त प्रजापतियोंको उत्पन्न करके कहा- 'तुमलोग सृष्टि करो' और स्वयं वे पुष्करमें जा यज्ञ-सामग्री एकत्रित करके अग्निशालामें स्थित हो यज्ञ करने लगे। ब्रह्माजी समस्त देवताओं, गन्धर्वी तथा अप्सराओंको भी वहाँ ले गये थे। ब्रह्मा, उद्गाता, होता और अध्वर्यु ये चार प्रधानरूपसे यज्ञके निर्वाहक होते हैं। इनमेंसेप्रत्येकके साथ अन्य तीन व्यक्ति परिवाररूपमें रहते हैं, जिन्हें ये स्वयं ही निर्वाचित करते हैं। ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता तथा आग्नीध्र–इन चार व्यक्तियोंका एक समुदाय होता है। इन सबको ब्रह्माका परिवार कहते हैं। ये चारों व्यक्ति आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा वेदविद्यामें प्रवीण होते हैं। उद्गाता, प्रत्युद्गाता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य इन चार व्यक्तियोंका दूसरा समुदाय उद्गाताका परिवार कहलाता है। होता, मैत्रावरुणि, अच्छावाक और ग्रावस्तुत इन चार व्यक्तियोंका तीसरा समुदाय उद्गाताका परिवार होता है। अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा और उन्नेता- इन चारोंका चौथा समुदाय अध्वर्युका परिवार माना गया है। शन्तनुनन्दन ! वेदके प्रधान प्रधान विद्वानोंने ये सोलह ऋत्विज् बताये हैं । स्वयम्भू ब्रह्माजीने तीन सौ छाछठयज्ञोंकी सृष्टि की है। उन सबमें इतने ही ब्राह्मण ऋत्विज् बतलाये गये हैं। कोई-कोई ऊपर बताये हुए ऋत्विजोंके अतिरिक्त एक सदस्य और दस चमध्यओंका निर्वाचन चाहते हैं। ब्रह्माजीके यज्ञमें देवर्षि नारदको ब्रह्मा बनाया गया। गौतम ब्राह्मणाच्छंसी हुए। देवरातको पोता और देवलको आग्नीध्रके पदपर प्रतिष्ठित किया गया। अंगिराका उद्गाताके रूपमें वरण हुआ। पुलह प्रस्तोता बनाये गये। नारायण ऋषि प्रतिहर्ता हुए और अत्रि सुब्रह्मण्य कहलाये। उस यज्ञमें भृगु होता, वसिष्ठ मैत्रावरुणि, ऋतु अच्छावाक तथा च्यवन ग्रावस्तुत बनाये गये। मैं ( पुलस्त्य) अध्वर्यु था और शिवि प्रतिष्ठाता बृहस्पति नेष्टा, सांशपावन उन्नेता और अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ धर्म सदस्य थे। भरद्वाज, शमीक, पुरुकुत्स्य, युगन्धर, एणक, ताण्डिक, कोण, कुतप, गार्ग्य और वेदशिरा- ये दस चमसाध्वर्यु बनाये गये। कण्व आदि अन्य महर्षि तथा मार्कण्डेय और अगस्त्य मुनि अपने पुत्र, पौत्र, शिष्य तथा बान्धवोंके साथ उपस्थित होकर रात-दिन आलस्य छोड़कर उस यज्ञमें आवश्यक कार्य किया करते थे। मन्वन्तर व्यतीत होनेपर उस यज्ञका अवभृथ (यज्ञान्त-स्नान) हुआ। उस समय ब्रह्माको पूर्व दिशा, होताको दक्षिण दिशा, अध्वर्युको पश्चिम दिशा और उद्गाताको उत्तर दिशा दक्षिणाके रूपमें दी गयी। ब्रह्माजीने समूची त्रिलोकी ऋत्विजोंको दक्षिणाके रूपमें दे दी। बुद्धिमान् पुरुषको यज्ञकी सिद्धिके लिये एक सौ दूध देनेवाली गौएँ दान करनी चाहिये। उनमेंसे यज्ञका निर्वाह करनेवाले प्रथम समुदायके ऋत्विजोंको अड़तालीस द्वितीय समुदायवालको चौबीस, तृतीय समुदायको सोलह और चतुर्थ समुदायको बारह गौएँ देनी उचित हैं। इस प्रकार आग्नीध्र आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। इसी संख्या में गाँव, दास-दासी तथा भेड़-बकरियाँ भी देनी चाहिये अवभृथ स्नानके बाद ब्राह्मणोंको पट्स भोजन देना चाहिये। स्वायम्भुव मनुका कथन है कि यजमान यज्ञके अन्तमें अपना सर्वस्व दान कर दे अध्वर्यु और सदस्योंको अपनी इच्छाके अनुसार जितना हो सके दान देना चाहिये।तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् श्रीविष्णुके ए साथ यज्ञान्त-स्नान के पश्चात् सब देवताओंको वरदान दिये। उन्होंने इन्द्रको देवताओंका सूर्यको ग्रहों सहित समस्त ज्योतिर्मण्डलका चन्द्रमाको नक्षत्रोंका वरुणको रसौका, दक्षको प्रजापतियोंका समुद्रको नदियोंका धनाध्यक्ष कुबेरको यक्ष और राक्षसोंका, पिनाकधारी महादेवजीको सम्पूर्ण भूतगणोंका, मनुको मनुष्योंका, गरूड़को पक्षियोंका तथा वसिष्ठको ऋषियोंका स्वामी बनाया। इस प्रकार अनेकों वरदान देकर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् विष्णु और शंकरसे आदरपूर्वक कहा- 'आप दोनों पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें परम पूजनीय होंगे। आपके बिना कभी कोई भी तीर्थ पवित्र नहीं होगा। जहाँ कहीं शिवलिंग या विष्णुकी प्रतिमाका दर्शन होगा, वही तीर्थ परम पवित्र और श्रेष्ठ फल देनेवाला हो सकता है। जो लोग पुष्प आदि वस्तुओंकी भेंट चढ़ाकर आपलोगोंकी तथा मेरी पूजा करेंगे, उन्हें कभी रोगका भय नहीं होगा। जिन राज्यों में मेरा तथा आपलोगोंका पूजन आदि होगा, वहाँ भी क्रियाएँ सफल होंगी तथा और भी जिन-जिन फलोंकी प्राप्ति होगी, उन्हें सुनिये वहाँकी प्रजाको कभी मानसिक चिन्ता, शारीरिक रोग, दैवी उपद्रव और क्षुधा आदिका भय नहीं होगा। प्रियजनोंसे वियोग और अप्रिय मनुष्योंसे संयोगकी भी सम्भावना नहीं होगी।' यह सुनकर भगवान् श्रीविष्णु ब्रह्माजीकी स्तुति करनेको उद्यत हुए।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- जिनका कभी अन्त नहीं होता, जो विशुद्धचित्त और आत्मस्वरूप हैं, जिनके हजारों भुजाएँ हैं, जो सहस्र किरणोंवाले सूर्यकी भी उत्पत्तिके कारण हैं, जिनका शरीर और कर्म दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं, उन सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार है। जो समस्त विश्वकी पीड़ा हरनेवाले, कल्याणकारी सहसों सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी, सम्पूर्ण विद्याओंके आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हैं. उन परमेश्वरको सदा नमस्कार है। प्रभो! आप अनादि देव हैं। अपनी महिमासे कभी च्युतनहीं होते। इसलिये 'अच्युत' हैं। आप शंकररूपसे शेषनागका मुकुट धारण करते हैं, इसलिये 'शेषशेखर' हैं। महेश्वर! आप ही भूत और वर्तमानके स्वामी हैं। सर्वेश्वर! आप मरुद्गणोंके, जगत्के, पृथ्वीके तथा समस्त भुवनोंके पति हैं। आपको सदा प्रणाम है। आप ही जलके स्वामी वरुण, क्षीरशायी नारायण, विष्णु, शंकर, पृथ्वीके स्वामी, विश्वका शासन करनेवाले, जगत्को नेत्र देनेवाले [अथवा जगत्को अपनी दृष्टिमें रखनेवाले], चन्द्रमा, सूर्य, अच्युत, वीर, विश्वस्वरूप, तर्कके अविषय, अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। प्रभो! आपने अपने तेज: स्वरूप प्रज्वलित अग्निकी ज्वालासे समस्त भुवनमण्डलको व्याप्त कर रखा है। आप हमारी रक्षा करें। आपके मुख सब ओर हैं। आप समस्त देवताओंकी पीड़ा हरनेवाले हैं अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। मैं आपके अनेकों मुख देख रहा आप शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंकी परमगति और पुराणपुरुष हैं। आप ही ब्रह्मा, शिव तथा जगत्के जन्मदाता हैं। आप ही सबके परदादा हैं। आपको नमस्कार है। आदिदेव संसारचक्रमें अनेकों बार चक्कर लगानेके बाद उत्तम मार्गके अवलम्बन और विज्ञानके द्वारा जिन्होंने अपने शरीरको विशुद्ध बना लिया है, उन्हींको कभी आपकी उपासनाका सौभाग्य प्राप्त होता है। देववर ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। भगवन्! जो आपको प्रकृतिसे परे, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप समझता है, वही सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। गुणमय पदार्थोंमें आप विराट्रूपसे पहचाने जा सकते हैं तथा अन्तःकरणमें [बुद्धिके द्वारा ] आपका सूक्ष्मरूपसे बोध होता है। भगवन्! आप जिस हाथ पैर आदि इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी पद्म धारण करते हैं। गति और कर्मसे रहित होनेपर भी संसारी हैं। देव इन्द्रियोंसे शून्य होनेपर भी आप सृष्टि कैसे करते हैं? भगवन्! विशुद्ध भाववाले याज्ञिक पुरुष संसार-बन्धनका उच्छेद करनेवाले यज्ञोंद्वारा आपका यजन करते हैं, परन्तु उन्हें स्थूल साधनसे सूक्ष्म परात्पर रूपका ज्ञान नहीं होता; अतः उनकी दृष्टिमें आपका यह चतुर्मुख स्वरूप ही रह जाताहै। अद्भुत रूप धारण करनेवाले परमेश्वर! देवता आदि भी आपके उस परम स्वरूपको नहीं जानते; अतः वे भी कमलासनपर विराजमान उस पुरातन विग्रहकी ही आराधना करते हैं, जो अवतार धारण करनेसे उग्र प्रतीत होता है। आप विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंके भी उत्पत्ति स्थान हैं। विशुद्ध भाववाले योगीजन भी आपके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जानते। आप तपस्यासे विशुद्ध आदिपुरुष हैं पुराणमें यह बात बारम्बार कही गयी है कि कमलासन ब्रह्माजी ही सबके पिता हैं, उन्हींसे सबकी उत्पत्ति हुई है। इसी रूपमें आपका चिन्तन भी किया जाता है। आपके उसी स्वरूपको मूढ़ मनुष्य अपनी बुद्धि लगाकर जानना चाहते हैं। वास्तवमें उनके भीतर बुद्धि है ही नहीं। अनेकों जन्मोंकी साधनासे वेदका ज्ञान, विवेकशील बुद्धि अथवा प्रकाश (ज्ञान) प्राप्त होता है। जो उस ज्ञानकी प्राप्तिका लोभी है, वह फिर मनुष्य योनिमें नहीं जन्म लेता; वह तो देवता और गन्धर्वोका स्वामी अथवा कल्याणस्वरूप हो जाता है। भक्तोंके लिये आप अत्यन्त सुलभ हैं; जो आपका त्याग कर देते हैं आपसे विमुख होते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं। प्रभो ! आपके रहते इन सूर्य, चन्द्रमा, वसु, मरुद्गण और पृथ्वी आदिकी क्या आवश्यकता है; आपने ही अपने स्वरूपभूत तत्त्वोंसे इन सबका रूप धारण किया है। आपके आत्माका ही प्रभाव सर्वत्र विस्तृत है; भगवन् ! आप अनन्त हैं- आपकी महिमाका अन्त नहीं है। आप मेरी की हुई यह स्तुति स्वीकार करें। मैंने हृदयको शुद्ध करके, समाहित हो, आपके स्वरूपके चिन्तनमें मनको लगाकर यह स्तवन किया है। प्रभो! आप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहते हैं, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप सबके लिये सुगम-सुबोध नहीं है; क्योंकि आप सबसे पृथक्-सबसे परे हैं।
ब्रह्माजी बोले- केशव इसमें सन्देह नहीं कि आप सर्वज्ञ और ज्ञानकी राशि हैं। देवताओंमें आप सदा सबसे पहले पूजे जाते हैं। भगवान् श्रीविष्णुके बाद रुद्रने भी भक्तिसेनतमस्तक होकर ब्रह्माजीका इस प्रकार स्तवन किया 'कमलके समान नेत्रोंवाले देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप संसारकी उत्पत्तिके कारण हैं और स्वयं कमलसे प्रकट हुए हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! आप देवता और असुरोंके भी पूर्वज है, आपको प्रणाम है । संसारकी सृष्टि करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर! आपको प्रणाम है। सबका मोह दूर करनेवाले जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप विष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए हैं, कमलके आसनपर आपका आविर्भाव हुआ है। आप मूँगेके समान लाल अंगों तथा कर पल्लवोंसे शोभायमान हैं, आपको नमस्कार है।
"नाथ! आप किन-किन तीर्थस्थानोंमें विराजमान हैं तथा इस पृथ्वीपर आपके स्थान किस-किस नामसे प्रसिद्ध हैं?"
ब्रह्माजीने कहा- पुष्करमें मैं देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीके नामसे प्रसिद्ध है। गयामें मेरा नाम चतुर्मुख है। कान्यकुब्जमें देवगर्भ [ या वेदगर्भ] और भृगुकक्ष (भृगुक्षेत्र) में पितामह कहलाता हूँ। कावेरीके तटपर सृष्टिकर्ता नन्दीपुरीमें बृहस्पति प्रभासमें पद्मजन्मा वानरी (किष्किन्धा) में सुरप्रिय, द्वारकामें ऋग्वेद, विदिशापुरीमें भुवनाधिए, पौण्ड्रकर्मे पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुरमें पिंगाक्ष, जयन्तीमें विजय, पुष्करावतमें जयन्त उग्रदेशमें पद्महस्त, श्यामलापुरीमें भवोद अहिच्छत्रमें जयानन्द, कान्तिपुरीमें जनप्रिय, पाटलिपुत्र (पटना) में ब्रह्मा ऋषिकुण्ड मुनि, महिलारोप्यमें कुमुद, श्रीनिवासमें श्रीकण्ठ, कामरूप (आसाम) - में शुभाकार, काशी में शिवप्रिय, मल्लिकामे विष्णु महेन्द्र पर्वतपर भार्गव, गोनर्द देशमें स्थविराकार, उज्जैनमें पितामह, कौशाम्बीमें महाबोध, अयोध्या में राघव, चित्रकूटमें मुनीन्द्र, विन्ध्यपर्वतपर वाराह, गंगाद्वार (हरिद्वार) में परमेष्ठी, हिमालयमें शंकर, देविकामें स्रुचाहस्त, चतुष्पथमें सुवहस्त, वृन्दावनमें पद्मपाणि, नैमिषारण्यमें कुशहस्त, गोप्लक्षमें गोपीन्द्र, यमुनातटपर सुचन्द्र, भागीरथीके तटपर पद्मतनु, जनस्थानमें जनानन्द,कोकण देशमें मद्राक्ष, काम्पिल्यमें कनकप्रिय, खेटकों अन्नदाता, कुशस्थलमें शम्भु, लंकामें पुलस्त्य, काश्मीरमें हंसवाहन अर्बुद (आम्) में वसिष्ठ, उत्पलावतमें नारद, मेधकमें श्रुतिदाता, प्रयागमें यजुषांपति, यज्ञ पर्वतपर सामवेद, मधुर मधुरप्रिय, अंकोलकर्म यज्ञगर्भ, ब्रह्मवाहमें सुतप्रिय गोमन्तमें नारायण, विदर्भ (बरार) में द्विजप्रिय ऋषिवेदमें दुराधर्ष, पम्पापुरीमें सुरमर्दन, विरजामें महारूप, राष्ट्रवर्द्धनमें सुरूप, मालवीमें पृथूदर, शाकम्भरीमें रसप्रिय, पिण्डारक क्षेत्रमें गोपाल, भोगवर्द्धनमें शुष्कन्ध कादम्बक प्रजाध्यक्ष, समस्थलमें देवाध्यक्ष, भद्रपीटमें गंगाधर, सुपीठमें जलमाली, त्र्यम्बकमें त्रिपुराधीश, श्रीपर्वतपर त्रिलोचन, पद्मपुरमें महादेव, कलापमें वैधस, श्रृंगवेरपुर में शौरि नैमिषारण्यमें चक्रपाणि, दण्डपुरीमें विरूपाक्ष धूतपातकमें गोतम, माल्यवान् पर्वतपर हंसनाथ, वालिकमें द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी (अमरावती) में देवनाथ, धूताषाढीमें धुरन्धर, लम्बामें हंसवाह, बण्डा गरुडप्रिय महोदयमें महायज्ञ यूपकेतनमें सुब पद्मवनमें सिद्धेश्वर, विभामें पद्मबोधन, देवदारुवनमें लिंग, उदकृपथमें उमापति, मातृस्थानमें विनायक, अलकापुरीमें धनाथिए, त्रिकूटमें गोनई, पातालमें कामुक केदारक्षेत्रमें पद्माध्यक्ष, कूष्माण्डमें सुरतप्रिय, भूतवापीमें शुभांग, सावलीमें भषक, अक्षरमें पापहर, अम्बिकामें सुदर्शन, वरदामें महावीर, कान्तारमें दुर्गनाशन, पर्णादमें अनन्त, प्रकाशामें दिवाकर, विरजामें पद्मनाभ, वृकस्थलमें सुवृद्ध वटकमै मार्कण्ड, रोहिणी में नागकेतन, पद्मावतीमें पद्मागृह तथा गगनमें पद्मकेतन नामसे मैं प्रसिद्ध हूँ। त्रिपुरान्तक! ये एक सौ आठ स्थान मैंने तुम्हें बताये हैं। इन स्थानोंमें तीनों सन्ध्याओंके समय मैं उपस्थित रहता हूँ। जो भक्तिमान् पुरुष इन स्थानोंमेंसे एकका भी दर्शन कर लेता है, वह परलोकमें निर्मल स्थान पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका अनुभव करता है। उसके मन, वाणी और शरीरके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं- इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। और जो इन सभी तीर्थोंकी यात्राकरके मेरा दर्शन करता है, वह मोक्षका अधिकारी होकर मेरे लोकमें निवास करता है। जो पुष्प, नैवेद्य एवं धूप चढ़ाता और ब्राह्मणोंको [भोजनादिसे] तृप्त करता है, साथ ही जो स्थिरतापूर्वक ध्यान लगाता है, वह शीघ्र ही परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है। उसे श्रेष्ठ फल तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है। पुण्यका पुष्कर जो इन तीर्थोंकी यात्रा करता या कराता है अथवा जो इस प्रसंगको सुनता है, वह भी समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। शंकर! इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय - इन तीर्थोंकी यात्रा करनेसे अप्राप्य वस्तुकी प्राप्ति होती है और सारा पाप नष्ट हो जाता है। जिन्होंने तीर्थमें अपनी पत्नीके दिये हुए पुष्करके जलसे सन्ध्या करके गायत्रीका जप किया है, उन्होंने मानो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लिया।
पुष्कर तीर्थके पवित्र जलको झारी अथवा मिट्टीके करवेमें ले आकर सायंकालमें एकाग्र मनसे प्राणायामपूर्वक सन्ध्योपासन करना चाहिये। शंकर ! इस प्रकार सन्ध्या करनेका जो फल है, उसका अब श्रवण करो। उस पुरुषको एक ही दिनकी सन्ध्यासे बारह वर्षोंतक सन्ध्योपासन करनेका फल मिल जाता है। पुष्करमें स्नान करनेपर अश्वमेध यज्ञका फल होता है, दान करनेसे उसके दसगुने और उपवास करनेसे अनन्तगुने फलकी प्राप्ति होती है यह बात मैंने स्वयं [भलीभाँति सोच-विचारकर] कही है। तीर्थसे अपने डेरेपर आकर शास्त्रीय विधिके अनुसार पिण्डदानपूर्वक पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके पितर ब्रह्माके एक दिन (एक कल्प) तक तृप्त रहते हैं। शिवजी! अपने डेरेमें आकर पिण्डदान करनेवालोंको तीर्थकी अपेक्षा आठगुना अधिक पुण्य होता है; क्योंकि वहाँ द्विजातियोंद्वारा दिये। जाते हुए पिण्डदानपर नीच पुरुषोंकी दृष्टि नहींपड़ती। एकान्त और सुरक्षित गृहमें ही पितरोंके श्राद्धका विधान है; क्योंकि बाहर नीच पुरुषोंकी दृष्टिसे दूषित हो जानेपर यह पितरोंको नहीं पहुँचता । आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको गुप्तरूपसे ही पिण्डदान करना चाहिये। यदि श्राद्धमें दिया जानेवाला पक्वान्न साधारण मनुष्य देख लेते हैं तो उससे कभी पितरोंकी तृप्ति नहीं होती। मनुजीका कथन है कि तीर्थोंमें श्राद्धके लिये ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये। जो भी अन्नकी इच्छासे अपने पास आ जाय, उसे भोजन करा देना चाहिये। 9 श्राद्धके योग्य समय हो या न हो— तीर्थमें पहुँचते ही मनुष्यको सर्वदा स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिये। पिण्डदान करना तो बहुत ही उत्तम है, वह पितरोंको अधिक प्रिय है। जब अपने वंशका कोई व्यक्ति तीर्थमें जाता है तब पितर बड़ी आशासे उसकी ओर देखते हैं, उससे जल पानेकी अभिलाषा रखते हैं; अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। और यदि दूसरा कोई इस कार्यको करना चाहता हो तो उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। सत्ययुगमें पुष्करका, त्रेतामें नैमिषारण्यका, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गंगाजीका आश्रय लेना चाहिये । अन्यत्रका किया हुआ पाप तीर्थमें जानेपर कम हो जाता है; किन्तु तीर्थका किया हुआ पाप अन्यत्र कहीं नहीं छूटता। 2 जो सबेरे और शामको हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें आचमन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। जो पुष्करमें इन्द्रिय-संयमपूर्वक रहकर प्रातः काल और सन्ध्याके समय आचमन करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त होता है तथा वह ब्रह्मलोकको जाता है। जो बारह वर्ष, बारह दिन, एक मास अथवा पक्षभर भी पुष्करमें निवास करता है, वह परम गतिको प्राप्तकरता है। इस पृथ्वीपर करोड़ों तीर्थ हैं। वे सब तीनों सन्ध्याओंके समय पुष्करमें उपस्थित रहते हैं। पिछले हजारों जन्मोंके तथा जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त वर्तमान जीवनके जितने भी पाप हैं, उन सबको पुष्करमें एक बार स्नान करके मनुष्य भस्म कर डालता है।