नारदजीने पूछा- प्रभो। उत्तम ब्राह्मणोंकी पूजा करके तो सब लोग श्रेष्ठ गति प्राप्त करते हैं; किन्तु जो उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनकी क्या गति होती है?
ब्रह्माजी बोले- सुधासे संतप्त हुए उत्तम ब्राह्मणोंका जो लोग अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक सत्कार नहीं करते, वे नरकमें पड़ते हैं। जो क्रोधपूर्वक कठोर शब्दों में ब्राह्मणकी निन्दा करके उसे द्वारसे हटा देते हैं, वे अत्यन्त घोर महारौरव एवं कृच्छ्र नरकमें पड़ते हैं तथा नरकसे निकलनेपर कीड़े होते हैं। उससे छूटनेपर चाण्डालयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर रोगी एवं दरिद्र होकर भूखसे पीड़ित होते हैं। अत: भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए ब्राह्मणका कभी अपमान नहीं करना चाहिये जो देवता, अग्नि और ब्राह्मणके लिये नहीं दूंगा' ऐसा वचन कहता है, वह सौ बार नीचेकी योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें चाण्डाल होता है। जो लात उठाकर ब्राह्मण, गौ, पिता-माता और गुरुको मारता है, उसका रौरव नरकमें वास निश्चित है; वहाँसे कभी उसका उद्धार नहीं होता। यदि पुण्यवश जन्म हो भी जाय तो वह पंगु होता है। साथ ही अत्यन्त दीन, विषादग्रस्त और दुःखशोकसे पीड़ित रहता है। इस प्रकार तीन जन्मोंतक कष्ट भोगनेके बाद ही उसका उद्धार होता है। जो पुरुष मुक्कों, तमाच और कीलोंसे ब्राह्मणको मारता है, वह एक कल्पतक तापन और रौरव नामक घोर नरकमें निवास करता है और पुनः जन्म लेनेपर कुत्ता होता है। उसके बाद चाण्डालयोनिमें जन्म लेकर दरिद्र और उदरशूलसे पीड़ित होता है। माता, पिता, ब्राह्मण, स्नातक, तपस्वी और गुरुजनोंको क्रोधपूर्वक मारकर मनुष्य दीर्घकालतक कुम्भीपाक नरक में पड़ा रहता है। इसके बाद वह कीट योनिमें जन्म लेता है। बेटा नारद! जो ब्राह्मणोंके विरुद्ध कठोर वचन बोलता है, उसकेशरीरमें आठ प्रकारकी कोढ़ होती है-खुजली दाद, मण्डल (त), (सफेद), मि (आ) काली को सफेद कोढ़ और तरुण कुष्ठइनमें काली कोढ़, सफेद को और आपना दारुण तरुण कुष्ठ—ये तीन महाकुष्ठ माने गये हैं। जो जान-बूझकर महापातकमें प्रवृत्त होते हैं अथवा महापातकी पुरुषोंका संग करते हैं अथवा अतिपातकका आचरण करते हैं, उनके शरीरमें ये तीनों प्रकारके कुष्ठ होते हैँ। संसर्गसे अथवा परस्पर सम्बन्ध होनेसे मनुष्योंमें इस रोगका संक्रमण होता है। इसलिये विवेकी पुरुष कोढ़ीसे दूर ही रहे। उसका स्पर्श हो जानेपर तुरंत स्नान कर ले। पतित, कोड़ी, चाण्डाल, गोभक्षी, कुत्ता, रजस्वला स्त्री और भीलका स्पर्श हो जानेपर तत्काल स्नान करना चाहिये।
जो ब्राह्मणकी न्यायोपार्जित जीविका तथा उसके धनका अपहरण करते हैं, वे अक्षय नरकमें पड़ते हैं। जो चुगलखोर मनुष्य ब्राह्मणोंका छिद्रा करता है. उसे देखकर या स्पर्श करके वस्त्रसहित जलमें गोता लगाना चाहिये। ब्राह्मणके धनका यदि कोई प्रेमसे उपभोग कर ले, तो भी वह उसकी सात पीढ़ियोंतकको जला डालता है और जो पराक्रमपूर्वक छीनकर उसका उपभोग करता है, वह तो दस पीढ़ी पहले और दस पीढ़ी पीछेतकके पुरुषोंको नष्ट करता है। विषको विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन ही विष कहलाता है। विष तो केवल उसके खानेवालेको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धन पुत्र-पौत्रोंका भी नाश कर डालता है। जो मोहवश माता, ब्राह्मणी अथवा गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करता है, वह घोर रौरव नरकमें पड़ता है। वहाँसे पुनः मनुष्ययोनिमें आना कठिन होता है।
नारदजीने पूछा-पिताजी! सभी ब्राह्मणोंकी हत्यासे बराबर ही पाप लगता है अथवा किसीमें कुछअधिक या कम भी? यदि न्यूनाधिक होता है तो क्यों? इसको यथार्थ रूपसे बताइये ।
ब्रह्माजीने कहा- 'बेटा! ब्रह्महत्याका जो पाप बताया गया है, वह किसी भी ब्राह्मणका वध करनेपर अवश्य लागू होता है। ब्रह्महत्यारा घोर नरकमें पड़ता है। इस विषयमें कुछ और भी कहना है, उसे सुनो। वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणकी हत्या करनेपर करोड़ों ब्राह्मणोंके वधका दोष लगता है। तथा वैष्णव ब्राह्मणको मारनेपर उससे भी दसगुना अधिक पाप होता है। अपने वंशके ब्राह्मणका वध करनेपर तो कभी नरकसे उद्धार होता ही नहीं तीन वेदोंके ज्ञाता स्नातककी हत्या करनेपर जो पाप लगता है उसकी कोई सीमा ही नहीं है श्रोत्रिय, सदाचारी तथा तीर्थ स्नान और वेदमन्त्रसे पवित्र ब्राह्मणके वघसे होनेवाले पापका भी कभी अन्त नहीं होता। यदि किसीके द्वारा अपनी बुराई होनेपर ब्राह्मण स्वयं भी शोकवश प्राण त्याग दे तो वह बुराई करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्यारा ही समझा जाता है। कठोर वचनों और कठोर बर्तावोंसे पीड़ित एवं ताड़ित हुआ ब्राह्मण जिस अत्याचारी मनुष्यका नाम ले-लेकर अपने प्राण त्यागता है, उसे सभी ऋषि मुनि, देवता और ब्रह्मवेत्ताओंने ब्रह्महत्यारा बताया है। ऐसी हत्याका पाप उस देशके निवासियों तथा राजाको लगता है। अतः वे ब्रह्महत्याका पाप करके अपने पितरोंसहित नरकमें पकाये जाते हैं। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह मरणपर्यन्त उपवास (अनशन) करनेवाले ब्राह्मणको मनाये-उसे प्रसन्न करके अनशन तोड़नेका प्रयत्न करे। यदि किसी निर्दोष पुरुषको निमित्त बनाकर कोई ब्राह्मण अपने प्राण त्यागता है तो वह स्वयं ही ब्रह्महत्याके घोर पापका भागी होता है। जिसका नाम लेकर मरता है, वह नहीं जो अधम ब्राह्मण अपने कुटुम्बीका वध करता है, उसको भीब्रह्महत्याका पाप लगता है। यदि कोई आततायी ब्राह्मण युद्धके लिये अपने पास आ रहा हो और प्राण लेनेकी चेष्टा करता हो, तो उसे अवश्य मार डाले इससे वह ब्रह्महत्याका भागी नहीं होता। जो घरमें आग लगाता है, दूसरेको जहर देता है, धन चुरा लेता है, सोते हुएको मार डालता है; तथा खेत और स्त्रीका अपहरण करता है-ये आततायी माने गये हैं। संसारमें ब्राह्मणके समान दूसरा कोई पूजनीय नहीं है। वह जगत्का गुरु है। ब्राह्मणको मारनेपर जो पाप होता है, उससे बढ़कर दूसरा कोई पाप है ही नहीं।
नारदजीने पूछा- सुरश्रेष्ठ! पापसे दूर रहनेवाले द्विजको किस वृत्तिका आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करना चाहिये? इसका यथावत् वर्णन कीजिये ।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! बिना माँगे मिली हुई भिक्षा उत्तम वृत्ति बतायी गयी है उससे भी उत्तम है। वह सब प्रकारकी वृत्तियोंमें श्रेष्ठ और कल्याणकारिणी है श्रेष्ठ मुनिगण उच्छवृत्तिका आश्रय लेकर ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं। यज्ञमें आये हुए ब्राह्मणको यज्ञकी समाप्ति हो जानेपर यजमानसे जो दक्षिणा प्राप्त होती है, वह उसके लिये ग्राह्य वृत्ति है। द्विजोंको पढ़ाकर या यज्ञ कराकर उसकी दक्षिणा लेनी चाहिये। पठन-पाठन तथा उत्तम मांगलिक शुभ कर्म करके भी उन्हें दक्षिणा ग्रहण करनी चाहिये। यही ब्राह्मणोंकी जीविका है। दान लेना उनके लिये अन्तिम वृत्ति है। उनमें जो शास्त्र के द्वारा जीविका चलाते हैं, वे धन्य हैं। वृक्ष और लताओंके सहारे जिनकी जीविका चलती है, वे भी धन्य हैं।
ब्राह्मणोचित वृत्तिके अभावमें ब्राह्मणोंको क्षत्रियवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना चाहिये। उस अवस्थामें न्याययुक्त युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर युद्ध करना उनका कर्तव्य है। उन्हें उत्तम वीरव्रतकाआचरण करना चाहिये। ब्राह्मण क्षत्रियवृत्तिके द्वारा राजासे जो धन प्राप्त करता है, वह श्राद्ध और यज्ञ आदिमें दानके लिये पवित्र माना गया है। उस ब्राह्मणको सदा पापसे दूर रहकर वेद और धनुर्वेद दोनोंका अभ्यास करना चाहिये। जो ब्राह्मण न्यायोचित युद्धमें सम्मिलित होकर संग्राममें शत्रुका सामना करते हुए मारे जाते हैं, वे वेदपाठियोंके लिये भी दुर्लभ परमपदको प्राप्त होते हैं। धर्मयुद्धका जो पवित्र बर्ताव है, उसका यथार्थ वर्णन सुनो धर्मयुद्ध करनेवाले योद्धा सामने लड़ते हैं, कभी कायरता नहीं दिखाते तथा जो पीठ दिखा चुका हो, जिसके पास कोई हथियार न हो और जो युद्धभूमिसे भागा जा रहा हो ऐसे शत्रुपर पीछे की ओरसे प्रहार नहीं करते जो दुराचारी सैनिक विजयकी इच्छासे डरपोक, युद्धसे विमुख पतित, मूच्छित, असत्-शूद्र, स्तुतिप्रिय और शरणागत शत्रुको युद्धमें मार डालते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं।
यह क्षत्रियवृत्ति सदाचारी पुरुषोंद्वारा प्रशंसित है। इसका आश्रय लेकर समस्त क्षत्रिय स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं। धर्मयुद्धमें शत्रुका सामना करते हुए मृत्युको प्राप्त होना क्षत्रियके लिये शुभ है। वह पवित्र होकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और एक कल्पतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके बाद सार्वभौम राजा होता है। उसे सब प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं। उसका शरीर नीरोग और कामदेव के समान सुन्दर होता है। उसके पुत्र धर्मशील, सुन्दर, समृद्धिशाली और पिताको रुचिके अनुकूल चलनेवाले होते हैं। इस प्रकार क्रमशः सात जन्मोंतक वे क्षत्रिय उत्तम सुखका उपभोग करते हैं। इसके विपरीत जो अन्यायपूर्वक युद्ध करनेवाले हैं, उन्हें चिरकालतक नरकमें निवास करना पड़ता है। इस तरहब्राह्मणोंको श्रेष्ठ क्षत्रियवृत्तिका सहारा लेना उचित है। उत्तम ब्राह्मण आपत्तिकालमें वैश्यवृत्तिसे एवं खेती आदिसे भी जीविका चला सकता है। उसे चाहिये कि वह दूसरोंके द्वारा खेती और व्यापारका काम कराये, स्वयं ब्राह्मणोचित कर्मका त्याग न करे। | वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर यदि ब्राह्मण झूठ बाल या किसी वस्तुकी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करे तो [लोगोंको ठगनेके कारण] वह दुर्गतिको प्राप्त होता है। भीगे हुए द्रव्यके व्यापारसे बचा रहकर | ब्राह्मण कल्याणका भागी होता है। तौलमें कभी असत्यपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये, क्योंकि तुला धर्मपर ही प्रतिष्ठित है। जो तराजूपर तोलते समय छल करता है, वह नरकमें पड़ता है। जो द्रव्य तराजूपर चढ़ाये बिना ही बेचा जाता है, उसमें भी झूठ-कपटका त्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार मिथ्या बर्ताव नहीं करना चाहिये; क्योंकि मिथ्या व्यवहारसे पापकी उत्पत्ति होती है। 'सत्यसे बढ़कर धर्म और झूठसे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है' अतः सब कार्योंमें सत्यको ही श्रेष्ठ माना गया है। यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और दूसरी ओर सत्यको तराजूपर रखकर तोला जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होता है। जो समस्त कार्योंमें सत्य बोलता और मिथ्याका परित्याग करता है, वह सब दुःखोंसे पार हो जाता है और अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। 2 ब्राह्मण [दूसरोंके द्वारा] व्यापारका काम करा सकता है; किन्तु उसे झूठका त्याग करना ही चाहिये उसे चाहिये कि जो मुनाफा हो उसमेंसे पहले तीर्थोंमें दान करे; जो शेष बचे, उसका स्वयं उपभोग करे। यदि ब्राह्मण वाणिज्यवृत्तिसे न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धनकोपितरों, देवताओं और ब्राह्मणोंके निमित्त यत्नपूर्वक दान देता है; तो उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाणिज्य लाभकारी व्यवसाय है। किन्तु दो उसमें बहुत बड़े दोष आ जाते हैं—लोभ न छोड़ना और झूठ बोलकर माल बेचना । विद्वान् पुरुष इन दोनों दोषका परित्याग करके धनोपार्जन करे। व्यापारमें कमाये हुए धनका दान करनेसे वह अक्षय फलका भागी होता है। ll 1 ll
नारद! पुण्यकर्ममें लगे हुए ब्राह्मणको इस प्रकार खेती करानी चाहिये। वह आधे दिन (दोपहर ) - तक चार बैलोंको हलमें जोते। चारके अभावमें तीन बैलोंको भी जोता जा सकता है। बैलोंसे इतना काम न ले कि उन्हें दिनभर विश्राम करनेका मौका ही न मिले। प्रतिदिन बैलोंको चोर और व्याघ्र आदिसे रहित स्थानमें, जहाँकी घास काटी न गयी हो, ले जाकर चराये। उन्हें यथेष्ट घास खानेको दे और स्वयं उपस्थित रहकर उनके खाने-पीनेकी व्यवस्था करे। उनके रहनेके लिये गोशाला बनवावे, जहाँ किसी प्रकार उपद्रव न हो।2 वहाँसे गोबर, मूत्र और बिखरी हुई घास आदि हटाकर गोशालाको सदा साफ रखे। गोशाला सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है, अतः वहाँ कूड़ा नहीं फेंकना चाहिये। विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह अपने शयनगृहके समान गोशालाको साफ रखे। उसकी फर्शको समतल बनाये तथा यत्नपूर्वक ऐसी व्यवस्था करे, जिससे वहाँ सर्दी, हवा और धूल-धक्कड़से बचाव हो। गौको अपने प्राणोंके समान समझे। उसके शरीरको अपने ही शरीरके तुल्य माने। अपनी देहमें जैसेसुख-दुःख होते हैं, वैसे ही गौके शरीरमें भी होते हैं- ऐसा समझकर गौके कष्टको दूर करने और उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे।
जो इस विधिसे खेतीका काम कराता है, वह बैलको जोतनेके दोषसे मुक्त और धनवान् होता है। जो दुर्बल, रोगी, अत्यन्त छोटी अवस्थाके और अधिक बूढ़े बैलसे काम लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसे गोहत्याका पाप लगता है जो एक ओर दुर्बल और दूसरी ओर बलवान् बैलको जोड़कर उनसे भूमिको जुतवाता है, उसे गोहत्याके समान पापका भागी होना पड़ता है - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो बिना चारा खिलाये ही बैलको हल जोतने काममें लगाता है तथा घास खाते और पानी पीते हुए बैलको मोहवश हाँक देता है, वह भी गोहत्याके पापका भागी होता है। 2 अमावास्या, संक्रान्ति तथा पूर्णिमाको हल जोतनेसे दस हजार गोहत्याओंका पाप लगता है जो उपर्युक्त तिथियोंको गौओंके शरीरमें सफेद और रंग-बिरंगी रचना करके काजल, पुष्प और तेलके द्वारा उनकी पूजा करता है, वह अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जो प्रतिदिन दूसरेकी गायको मुट्ठीभर घास देता है, उसके समस्त पापका नाश हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। जैसा ब्राह्मणका महत्त्व है, वैसा ही गौका भी महत्त्व है; दोनोंकी पूजाका फल समान ही है। विचार करनेपर मनुष्योंमें ब्राह्मण प्रधान है और पशुओं में गौ ।
नारदजीने पूछा- नाथ आपने बताया है कि ब्राह्मणकी उत्पत्ति भगवान्के मुखसे हुई है; फिर गौओंकीउससे तुलना कैसे हो सकती है? विधाता! इस विषयको लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! पहले भगवान्के मुखसे महानू तेजोमय पुंज प्रकट हुआ। उस तेजसे सर्वप्रथम वेदकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमशः अग्नि, गौ और ब्राह्मण- ये पृथक् पृथक् उत्पन्न हुए। मैंने सम्पूर्ण लोकों और भुवनोंकी रक्षाके लिये पूर्वकालमें एक वेदसे चारों वेदोंका विस्तार किया। अग्नि और ब्राह्मण देवताओंके लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य (घी) गौओसे उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों हो इस जगत् के जन्मदाता हैं। यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्वमें नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत्को धारण किये रहते हैं; जिससे स्वभावतः इसकी स्थिति बनी रहती हैं। ब्राह्मण, देवता तथा असुरोंको भी गौकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्योंमें उदार तथा वास्तवमें समस्त गुणोंकी खान है। वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप है। सब प्राणियोंपर उसकी दया बनी रहती है। प्राचीन कालमें सबके पोषणके लिये मैंने गौकी सृष्टि की थी। गौओंकी प्रत्येक वस्तु पावन है और समस्त संसारको पवित्र कर देती है। गौका मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी-इन पंचगव्योंका पान कर लेनेपर शरीरके भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौके दूध, दही और घी खाया करते हैं। गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्यों में ब्रेष्ठ, शुभ और प्रिय है। जिसको गायका दूध, दही और घी खानेका सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मलके समान है। अन्न आदि पाँच रात्रितक, दूध सात रात्रितक, दही बीस रात्रितक और घी एक मासतक शरीरमें अपना प्रभाव रखता है। जो लगातार एक मासतक बिना गव्यका भोजन करता है, उस मनुष्यके भोजनमें प्रेतोंको भाग मिलता है; इसलिये प्रत्येक युगमें सब कार्योंकेलिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सम समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है।
जो गौकी एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जैसे देवताओंके आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं, जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर गौ और उसके घीका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। गौएँ दूध और भी प्रदान करनेवाली हैं। वे घृतकी उत्पत्ति स्थान और घीकी उत्पत्ति में कारण हैं। वे धीकी नदियाँ हैं, उनमें चौकी भैरें उठती हैं। ऐसी गौएँ सदा मेरे घरपर मौजूद रहें। घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मनमें स्थित हो 'गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें। मेरे सब अंगोंको गौओंका स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओंके बीचमें निवास करूँ।"2 इस मन्त्रको प्रतिदिन सन्ध्या और सबेरेके | समय शुद्ध भावसे आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके सब पापका क्षय हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक में पूजित होता है जैसे गी आदरणीय है वैसे ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं वैसे भगवान् श्रीविष्णु। जैसे भगवान् श्रीविष्णु हैं वैसी ही श्रीगंगाजी भी हैं। ये सभी धर्मके साक्षात् स्वरूप माने गये हैं। गौएँ मनुष्योंकी बन्धु हैं और मनुष्य गौओंके बन्धु हैं। जिस घरमें गौ नहीं है, वह बन्धुरहित गृह है। छहों अंगों, पदों और क्रमसहित सम्पूर्ण वेद गौओंके मुखमें निवास करते हैं। उनके सींगोंमें भगवान् श्रीशंकर और श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं। गौओंके उदरमें कार्तिकेय, मस्तकमें ब्रह्मा, ललाटमें महादेवजी, सींगोंके अग्रभागमें इन्द्र, दोनों कानोंमें अश्विनीकुमार, नेत्रोंमें चन्द्रमा और सूर्य, दाँतों में गरुड़, जिसमें सरस्वती देवी, अपान (गुदा) -मेंसम्पूर्ण तीर्थ, मूत्रस्थानमें गंगाजी, रोमकूपोंमें ऋषि, मुख और पृष्ठभागमें यमराज, दक्षिण पार्श्वमें वरुण और कुबेर, वाम पार्श्वमें तेजस्वी और महाबली यक्ष, मुखके भीतर गन्धर्व, नासिकाके अग्रभागमें सर्प, खुरॉके पिछले भागमें अप्सराएँ, गोवरमें लक्ष्मी, गोमूत्रमें पार्वती, चरणोंके अग्रभागमें आकाशचारी देवता, रंभानेकी आवाजमें प्रजापति और थनोंमें भरे हुए चारों समुद्र निवास करते हैं। जो प्रतिदिन स्नान करके गौका स्पर्श करता है, वह मनुष्य सब प्रकारके स्थूल पापोंसे भी मुक्त हो जाता है जो गौओंके खुरसे उड़ी हुई धूलको सिरपर धारण करता है, वह मानो तीर्थके जलमें स्नान कर लेता है और सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। नारदजीने पूछा- गुरुश्रेष्ठ परमेष्ठिन् ! विभिन्न रंगोंकी गौओंमें किसके दानसे क्या फल होता है? इसका तत्त्व बतलाइये।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! ब्राह्मणको श्वेत गौका दान करके मनुष्य ऐश्वर्यशाली होता है सदा महलमें निवास करता है तथा भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर सुख-समृद्धिसे भरा-पूरा रहता है। भूएँके समान रंगवाली गौ स्वर्ग प्रदान करनेवाली तथा भयंकर संसारमें पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है। कपिला गौका दान अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। कृष्णा गौका दान देकर मनुष्य कभी कष्टमें नहीं पड़ता। भूरे रंगकी गौ संसारमें दुर्लभ है। गौर वर्णकी धेनु समूचे कुलको आनन्द प्रदान करनेवाली होती है। लाल नेत्रोंवाली गौ रूपकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको रूप प्रदान करती है। नीली गौ धनाभिलाषी पुरुषकी कामना पूर्ण करती है। एक ही कपिला गौका दान करके मनुष्य सारे पापोंसे मुक्त: हो जाता है। बचपन, जवानी और बुदापेमें जो पाप किया गया है, क्रियासे, वचनसे तथा मनसे भी जो पाप बन गये हैं, उन सबका कपिला गौके दानसे क्षय होजाता है और दाता पुरुष विष्णुरूप होकर वैकुण्ठमें निवास करता है। जो दस गौएँ दान करता है तथा जो भार ढोनेमें समर्थ एक ही बैल दान करता है, उन दोनोंका फल ब्रह्माजीने समान ही बतलाया है। जो पुत्र पितरोंके उद्देश्यसे साँड़ छोड़ता है, उसके पितर अपनी इच्छाके अनुसार विष्णुलोकमें सम्मानित होते हैं। छोड़े हुए साँड़ या दान की हुई गौओके जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गका सुख भोगते हैं। छोड़ा हुआ सौड़ अपनी पूँछसे जो जल फेंकता है, वह एक हजार वर्षोंतक पितरोंके लिये तृप्तिदायक होता है। वह अपने खुरसे जितनी भूमि खोदता है, जितने ढेले और कीचड़ उछालता है, वे सब लाखगुने होकर पितरोंके लिये स्वधारूप हो जाते हैं। यदि पिताके जीते जी माताकी मृत्यु हो जाय तो उसकी स्वर्ग-प्राप्तिके लिये चन्दन चर्चित धेनुका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे दाता पितरोंके ऋणसे मुक्त हो जाता है तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भाँति पूजित होकर अक्षय स्वर्गको प्राप्त करता है। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे युक्त, प्रतिवर्ष बच्चा देनेवाली नयी दुधार गाय पृथ्वीके समान मानी गयी है। उसके दानसे भूमि दानके समान फल होता है। उसे दान करनेवाला मनुष्य इन्द्रके तुल्य होता है और अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो गौका हरण करके उसके बछड़ेकी मृत्युका कारण बनता है, वह महाप्रलयपर्यन्त कीड़ोंसे भरे हुए कुएँमें पड़ा रहता है। गौओंका वध करके मनुष्य अपने पितरोंके साथ घोर रौरव नरकमें पड़ता है तथा उतने ही समयतक अपने पापका दण्ड भोगता रहता है। जो इस पवित्र कथाको एक बार भी दूसरोंको सुनाता है, उसके सब पापका नाश हो जाता है तथा वह देवताओंके साथ आनन्दका उपभोग करता है जो इस परम पुण्यमय प्रसंगका श्रवण करता है, वह सात जन्मोंके पापोंसे तत्काल मुक्त हो जाता है।