नारदजीने कहा- वाले! तुम व्यर्थ ही अपनेको खेदमें डालती हो। अहो ! इतनी चिन्तातुर क्यों हो रही हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्मरण करो। इससे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की तथा गोपसुन्दरियोंका मनोरथ पूर्ण किया, वे श्रीकृष्ण कहीं चले नहीं गये हैं। तुम तो साक्षात् भक्ति हो, जो उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीच पुरुषोंके घरोंमें भी चले जाते हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर - इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्म- सायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है। ऐसा सोचकर ही ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने तुम्हें प्रकट किया है। तुम भगवत्स्वरूपा, परमानन्दचिन्मूर्ति परम सुन्दरी तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्रियतमा हो। एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि 'मैं क्या करूँ?' उस समय भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि 'मेरे भोंका पोषण करो। तुमने भगवान्की यह आज्ञा स्वीकार कर ली। इससे प्रसन्न होकर श्रीहरिने तुम्हें मुक्तिको दासीरूपमें दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको पुत्ररूपमें। तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे तो वैकुण्ठधाममेंही भक्तोंका पोषण करती हो । भूलोकमें उनका पोषण करनेके लिये तुमने केवल छायारूप धारण कर रखा है। मुक्ति अपने साथ ज्ञान और वैराग्यको लेकर तुम्हारी सेवाके लिये इस पृथ्वीपर आयी तथा सत्ययुगके आरम्भसे द्वापरके अन्ततक यहाँ बड़े आनन्दसे रही; परन्तु कलियुग आनेपर वह पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित होकर क्षीण होने लगी। तब तुम्हारी आज्ञासे वह तुरंत ही फिर वैकुण्ठलोकको चली गयी। अब भी वह तुम्हारे स्मरण करनेपर इस लोकमें आती है और फिर चली जाती है। इन ज्ञान और वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर अपने ही पास रख छोड़ा था । कलियुगमें मनुष्योंद्वारा इनकी उपेक्षा होनेके कारण ये तुम्हारे पुत्र उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं; फिर भी तुम चिन्ता न करो। मैं इनके उद्धारका उपाय सोचता हूँ। सुमुखि ! कलियुगके समान कोई युग नहीं है। इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें और मनुष्य मनुष्यके भीतर स्थापित कर दूँगा । अन्य जितने भी धर्म हैं, उन सबको दबाकर और बड़े-बड़े उत्सव रचाकर यदि संसारमें मैं तुम्हारा प्रचार न कर दूँ तो मैं श्रीहरिका दास ही नहीं। इस कलियुगमें जो जीव तुमसे सम्बन्ध रखेंगे, वे पापी होनेपर भी निर्भयतापूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके नित्य धामको चले जायँगे। जिनकेहृदयमें सदा प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे पवित्रमूर्ति पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते। जिनके हृदयमें भक्तिभाव भरा हुआ है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस अथवा असुर भी नहीं छू सकते। भगवान् तपस्या, वेदाध्ययन, ज्ञान तथा कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते। वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इस विषय में गोपियाँ ही प्रमाण हैं। सहस्रों जन्मोंका पुण्य उदय होनेपर मनुष्योंका भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें भक्ति ही सार है। भक्तिसे ही भगवान् श्रीकृष्ण सामने प्रकट होते- प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकोंमें दुःख उठाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषिको कितना क्लेश भोगना पड़ा था। व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत-से साधनोंकी क्या आवश्यकता है? एकमात्र भक्ति ही मोक्ष प्रदान करनेवाली है।
इस प्रकार नारदजीद्वारा निर्णय किये हुए अपने माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अंग पुष्ट हो गये। उसने नारदजीसे कहा-'नारदजी! आप धन्य हैं। मुझमें आपकी निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें निवास करूँगी। कभी उसे छोड़कर नहीं जाऊँगी। साधो! आप बड़े कृपालु हैं। आपने एक क्षणमें ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया, किन्तु अभीतक मेरे पुत्रोंको चेत नहीं हुआ; अतः इन्हें भी शीघ्र ही सचेत कीजिये।
भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी दया आयी। वे उन्हें हाथकी अंगुलियोंसे दबा दबाकर जगाने लगे; फिर कानके पास मुँह लगाकर जोर-जोरसे बोले-'ओ ज्ञान! जल्दी जागो। वैराग्य ! तुम भी शीघ्र ही जाग उठो।' फिर वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बारम्बार गीता-पाठ करके उन्होंने उन दोनोंको जगाया। इससे वे बहुत जोर लगाकर किसी तरह उठ तो गये किन्तु आँख खोलकर देख न सके। आलस्यके कारण दोनों ही जँभाई लेते रहे। उनके सिरके बाल पककर बगुलोंकी तरह सफेद हो गये थे। सारे अंग रक्त-मांससे हीन होनेके कारण कंकाल प्रतीत होते थे। उन्हें देखकरऐसा जान पड़ता था, मानो सूखे काठ हों। भूखसे दुर्बल होनेके कारण वे फिर सो गये। उन्हें इस अवस्थामें देखकर देवर्षि नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे 'अब मुझे क्या करना चाहिये, इनकी यह नींद कैसे जाय, तथा यह सबसे बड़ा बुढ़ापा कैसे दूर हो ?' शौनकजी। इस प्रकार चिन्ता करते-करते उन्होंने भगवान् गोविन्दका स्मरण किया। उसी समय आकाशवाणी हुई- 'मुने! खेद मत करो। तुम्हारा उद्योग निश्चय ही सफल होगा। देवर्षे! तुम इसके लिये सत्कर्मका अनुष्ठान करो। वह कर्म क्या है, यह तुम्हें साधु-शिरोमणि संतजन बतलायेंगे। उस सत्कर्मके करनेपर इनकी निद्रा और वृद्धावस्था दोनों क्षणभरमें दूर हो जायँगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार हो जायगा।'
यह आकाशवाणी वहाँ सबको साफ-साफ सुनायी दी। इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे-'मैं तो इसका भाव नहीं समझ सका। इस आकाशवाणीने भी गुप्तरूपसे ही बात की है। यह नहीं बताया कि वह कौन-सा साधन करनेयोग्य है, जिससे इनका कार्य सिद्ध हो सके। वे संत न जाने कहाँ होंगे और किस प्रकार उस साधनका उपदेश देंगे। आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार यहाँ मुझे क्या करना चाहिये ?'
तदनन्तर ज्ञान और वैराग्य दोनोंको वहीं छोड़कर नारद मुनि वहाँसे चल दिये और एक-एक तीर्थमें जाकर मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे। उनका वृत्तान्त सब लोग सुन लेते; किन्तु कोई भी कुछ निश्चय करके उत्तर नहीं देता था। कुछ लोगोंने तो इस कार्यको असाध्य बता दिया और कोई बोले, 'इसका ठीक-ठीक पता लगना कठिन है।' कुछ लोग सुनकर मौन रह गये और कितने ही मुनि अपनी अवज्ञा होनेके भयसे चुपचाप खिसक गये। तीनों लोकोंमें महान् हाहाकार मचा, जो सबको विस्मयमें डालनेवाला था। लोग आपसमें काना-फुंसी करने लगे-'भाई! जब वेदध्वनि, वेदान्तोष और गीता पाठ सुनानेपर भी ज्ञान और वैराग्य नहीं जाग सके तो अब दूसरा कोई उपायहै। भला योगो नारदको भी स्वयं जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी मनुष्य कैसे बता सकते हैं ?' इस प्रकार जिन-जिन मुनियोंसे यह बात पूछी गयी, उन सबने निर्णय करके यही बताया कि यह कार्य दुस्साध्य है।
सूतजी बोले- तब नारदजी चिन्तासे आतुर हो बदरीवनमें आये। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय किया था कि 'उस साधनकी प्राप्तिके लिये यहीं तपस्या करूँगा।' बदरीवनमें पहुँचते ही उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये। तब मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उनसे कहा 'महात्माओ! इस समय बड़े सौभाग्यसे मुझे आपलोगोंका समागम प्राप्त हुआ है। कुमारो ! आप मुझपर कृपा करके अब शीघ्र ही उस साधनको बताइये। आप सब लोग योगी, बुद्धिमान् और बहुज्ञ विद्वान् हैं। देखने में पाँच वर्षके बालक से होनेपर भी आप पूर्वजोंके भी पूर्वज हैं। आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं। निरन्तर हरिनामकीर्तनमें तत्पर रहते हैं। भगवल्लीलामृतका रसास्वादन करके सदा उन्मत्त बने रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है। आपके मुखमें सदा 'हरिः शरणम्' (भगवान्) ही हमारे रक्षक हैं) यह मन्त्र विद्यमान रहता है। इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था आपको बाधा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालमें आपके भूभंगमात्र से भगवान् विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़े थे और फिर आपहीकी कृपासे वे पुनः वैकुण्ठधाममें पहुँचे। मेरा अहोभाग्य हैं, जिससे इस समय आपका दर्शन हुआ मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु है; अतः मुझपर आपकी कृपा होनी चाहिये। आकाशवाणीने जिस साधनकी ओर संकेत किया है, वह क्या है? इसे बताइये और किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये, इसका विस्तारसहित वर्णन कीजिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है और किस तरह इनका प्रेमपूर्वक यत्न करके सब वर्णार्म प्रचार किया जा सकता है ?' श्रीसनकादि बोले – देवयें! आप चिन्ता नकरें। अपने मनमें प्रसन्न हों उनके उद्धारका एक सुगम उपाय पहलेसे ही मौजूद है। नारदजी आप धन्य हैं। विरक्तोंके शिरोमणि हैं। भगवान् श्रीकृष्णके दासोंमें सदा आगे गिननेयोग्य हैं तथा योगमार्गको प्रकाशित करनेवाले साक्षात् सूर्य ही हैं। आप जो | भक्तिके लिये इतना उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तको तो भक्तिकी सदा स्थापना करना उचित ही है। ऋषियोंने इस संसारमें बहुत से मार्ग प्रकट किये हैं; किन्तु वे सभी परिश्रमसाध्य हैं और उनमेंसे अधिकांश स्वर्गरूप फलकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं। भगवान्की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो अभीतक गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः बड़े भाग्यसे मिलता है आपको आकाशवाणीने पहले जिस कर्तव्यका संकेत किया है, उसे बतलाया जाता है। आप स्थिर एवं प्रसन्नचित्त होकर सुनिये। नारदजी! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ तथा स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ ये सब तो स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्ममात्रके ही सूचक हैं, सत्कर्मके नहीं। सत्कर्म (मोक्षदायक कर्म ) - का सूचक तो विद्वानोंने केवल ज्ञानयज्ञको माना है। श्रीमद्भागवतका पारायण ही वह ज्ञानयज्ञ है, जिसका शुक आदि महात्माओंने गान किया है। उसके शब्द सुननेसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल मिलेगा। इससे ज्ञान-वैराग्यका कष्ट दूर हो जायगा और भक्तिको सुख मिलेगा। श्रीमद्भागवतकी ध्वनि होनेपर कलियुगके ये सारे दोष उसी प्रकार दूर हो जायँगे, जैसे सिंहकी गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं। तब प्रेमरसकी धारा बहानेवाली भक्ति ज्ञान और वैराग्यके सहित प्रत्येक घरमें तथा प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें क्रीड़ा करेगी।
नारदजीने कहा- मैंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीतापाठ आदिके द्वारा ज्ञान और वैराग्यको बहुत जगाया किन्तु वे उठ न सके। ऐसी दशामें श्रीमद्भागवतका पाठ सुनानेसे वे कैसे जग सकेंगे; क्योंकि श्रीमद्भागवत कथाके श्लोक - श्लोकमें और पद-पदमें वेदोंका ही अर्थ भरा हुआ है आपलोग शरणागत पुरुषोंपर दयाकरनेवाले हैं। आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता; इसलिये मेरे सन्देहका निवारण कीजिये। इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।
श्रीसनकादि बोले- नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे प्रकट हुई है, अतः उनसे पृथक् फलके रूपमें आकर यह उनकी अपेक्षा भी अत्यन्त उत्तम प्रतीत होती है। जैसे आमके वृक्ष में जड़से लेकर शाखातक रस मौजूद रहता है, किन्तु उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; फिर वही एकत्रित होकर जब उससे पृथक् फलके रूपमें प्रकट होता है तो संसारमें सबके मनको प्रिय लगता है। जैसे दूधमें घी रहता है; किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता। फिर वही जब उससे पृथक् हो जाता है तो दिव्य जान पड़ता है और देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है। खाँड ईखके आदि, मध्य और अन्त - प्रत्येक भागमें व्याप्त रहती है; तथापि उससे पृथक् होनेपर ही उसमें अधिक मधुरता आती है। इसी प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा भी है। यह श्रीमद्भागवतपुराण वेदोंके समान माना गया है। श्रीवेदव्यासजीने भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकीस्थापनाके लिये ही इसे प्रकट किया है। पूर्वकालमें जिस समय वेद-वेदान्तके निष्णात विद्वान् और गीताकी भी रचना करनेवाले वेदव्यासजी खिन्न होकर अज्ञानके समुद्रमें डूब रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश किया था। उसका श्रवण करते ही व्यासदेवकी सारी चिन्ताएँ तत्काल दूर हो गयी थीं। उसी श्रीमद्भागवतके विषयमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे सन्देह पूछ रहे हैं? श्रीमद्भागवतशास्त्र समस्त शोक और दुःखका विनाश करनेवाला है।
नारदजीने कहा- महानुभावो! आपका दर्शन जीवके समस्त अमंगलका तत्काल नाश कर देता है और सांसारिक दुःखरूपी दावानलसे पीड़ित प्राणियोंपर शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोंद्वारा वर्णित भगवत्कथामृतका पान करते रहते हैं, मैं प्रेमलक्षणा-भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरणमें आया हूँ। अनेक जन्मोंके संचित सौभाग्यप्रद पुण्यका उदय होनेपर जब कभी मनुष्यको सत्संग प्राप्त होता है, तभी अज्ञानजनित मोहमय महान् अन्धकारका नाश करके विवेकका उदय होता है।