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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 199 - Khand 5, Adhyaya 199

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भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य

श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो! विश्वेश्वर श्रेष्ठ भक्तिका क्या स्वरूप है, जिसके जाननेमात्रसे मनुष्योंको सुख प्राप्त होता है?

महादेवजी बोले- देवि! भक्ति तीन प्रकारकी बतायी गयी है- सात्त्विकी, राजसी और तामसी इनमें सात्त्विकी उत्तम, राजसी मध्यम और तामसी कनिष्ठ है। मोक्षरूप फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको श्रीहरिको उत्तम भक्ति करनी चाहिये। अहंकारको लेकर या दूसरोंको दिखानेके लिये अथवा ईर्ष्यावश या दूसरोंका संहार करनेकी इच्छासे जो किसी देवताको भक्ति की जाती है, वह तामसी बतायी गयी है। जो विषयोंकी इच्छा रखकर अथवा यश और ऐश्वर्यकी प्राप्ति के लिये भगवान्की पूजा करता है, उसकी भक्ति राजसी मानी गयी है। ज्ञानपरायण ब्राह्मणोंको कर्म-बन्धनका नाश करनेके लिये श्रीविष्णु के प्रति आत्मसमर्पणकी बुद्धि करनी चाहिये। यही सात्त्विकी भक्ति है। अतः देवि! सदा सब प्रकारसे श्रीहरिका सेवन करना चाहिये। तामसभावसे तामस, राजससे राजस और सात्त्विकसे सात्त्विक गति प्राप्त होती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखनेवाले पुरुषोंको समस्त देवता प्रसन्नतापूर्वक शान्ति देते हैं, ब्रह्मा आदि देवेश्वर उनका मंगल करते हैं औरप्रधान प्रधान मुनीश्वर उन्हें कल्याण प्रदान करते हैं। जो भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखते हैं, उनके लिये भूत पिशाचों सहित समस्त ग्रह शुभ हो जाते हैं। ब्रह्मा आदि देवता उनपर प्रसन्न होते हैं तथा उनके घरोंमें लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखनेवाले मानवोंके शरीरमें सदा गंगा, गया, नैमिषारण्य, काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थ निवास करते हैं।

इस प्रकार विद्वान् पुरुष भगवती लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुकी आराधना करे। जो ऐसा करता है, वह ब्राह्मण सदा कृतकृत्य होता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पार्वती क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ही क्यों न हो जो भगवान् विष्णुकी विशेषरूपसे भक्ति करता है, वह निस्सन्देह मुक्त हो जाता है।

पार्वतीजीने पूछा- सुरेश्वर ! इस पृथ्वीपर शालग्रामशिलाकी विशुद्ध मूर्तियाँ बहुत-सी हैं, उनमेंसे कितनी मूर्तियोंको पूजनमें ग्रहण करना चाहिये।

महादेवजी बोले- देवि! जहाँ शालग्रामशिलाकी कल्याणमयी मूर्ति सदा विराजमान रहती है, उस घरको वेदोंमें सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ बताया गया है। ब्राह्मणोंको पाँच, क्षत्रियोंको चार वैश्योंको तीन और शूद्रोंको एक ही शालग्राममूर्तिका यत्नपूर्वक पूजन करनाचाहिये। ऐसा करनेसे वे इस लोकमे समस्त भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। यह शालग्रामशिला भगवान्की सबसे बड़ी मूर्ति है, जो पूजन करनेपर सदा पापका अपहरण करनेवाली और मोक्षरूप फल देनेवाली है। जहाँ शालग्रामशिला विराजती है, वहाँ गंगा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती - सभी तीर्थ निवास करते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको इसका भलीभाँति पूजन करना चाहिये। देवेश्वरि ! जो भक्तिभावसे जनार्दनका पूजन करते हैं, उनके दर्शनमात्र से ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है पितर सदा यही बातचीत किया करते हैं कि हमारे कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न हों, जो हमारा उद्धार करके हमें विष्णुधाममें पहुँचा सकें। वही दिवस धन्य है, जिसमें भगवान् विष्णुका पूजन किया जाय और उसी पुरुषकी माता, बन्धुबान्धव तथा पिता धन्य हैं, जो श्रीविष्णुकी अर्चना करता है। जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, उन सबको परम धन्य समझना चाहिये। वैष्णव पुरुषोंके दर्शनमात्रसे जितने भी उपपातक और महापातक हैं, उन सबका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुकी पूजामें संलग्न रहनेवाले मनुष्य अग्निकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं। वे मैचोंके आवरणसे उन्मुक्त चन्द्रमाकी भाँति सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। वैष्णवोंके पूजनसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। आर्द्र (स्वेच्छासे किया हुआ पाप), शुष्क (अनिच्छासे किया हुआ पाप), लघु और स्थूल, मन, वाणी तथा शरीरद्वारा किया हुआ, प्रमादसे होनेवाला तथा जानकर और अनजानमेंकिया हुआ जो पाप है, वह सब वैष्णवोंके साथ वार्तालाप करनेसे नष्ट हो जाता है। साधु पुरुषोंके दर्शनसे पापहीन पुरुष स्वर्गको जाते हैं और पापिष्ठ मनुष्य पापसे रहित शुद्ध हो जाते हैं। यह बिलकुल सत्य बात है। भगवान् विष्णुका भक्त पवित्रको भी पवित्र बनानेवाला तथा संसाररूपी कीचड़के दागको धो डालनेमें दक्ष होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ll 2 ll

जो विष्णुभक्त प्रतिदिन भगवान् मधुसूदनका स्मरण करते हैं, उन्हें विष्णुमय समझना चाहिये। उनके विष्णुरूप होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्के श्रीविग्रहका वर्ण नूतन मेघोंकी नील घटाके समान श्याम एवं सुन्दर है। नेत्र कमलके समान विकसित एवं विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे देदीप्यमान है। श्रीहरि गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं। कुण्डलोंकी दिव्य ज्योतिसे उनके कपोल और मुखकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। किरीटसे मस्तक सुशोभित है। कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें भुजबंद और चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं। मुखकमल प्रसन्नतासे खिला हुआ है। चार भुजाएँ हैं और साथमें भगवती लक्ष्मीजी विराजमान हैं। पार्वती! जो ब्राह्मण भक्तिभावसे युक्त हो इस प्रकार श्रीविष्णुका ध्यान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुके स्वरूप हैं। वे ही वास्तवमें वैष्णव हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवेश्वरि ! उनका दर्शनमात्र करनेसे, उनमें भक्ति रखनेसे, उन्हें भोजन करानेसे तथा उनकी पूजा करनेसे निश्चय ही वैकुण्ठधामकी प्राप्ति होती है । ll 3 ll

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार