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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 200 - Khand 5, Adhyaya 200

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भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष

श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो ! अविनाशी भगवान् वासुदेवका स्मरण कैसे करना चाहिये ? श्रीमहादेवजी बोले- देवेश्वरि! मैं वास्तविक रूपसे भगवान्के स्वरूपका साक्षात्कार करके निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हूँ। जैसे प्यासा मनुष्य बड़ी व्याकुलताके साथ पानीकी याद करता है, उसी प्रकार मैं भी आकुल होकर श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जिस प्रकार सर्दीका सताया हुआ संसार अग्निका स्मरण करता है, वैसे ही देवता, पितर, ऋषि और मनुष्य निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते रहते हैं। जैसे पतिव्रता नारी सदा पतिकी याद किया करती है, भयसे आतुर मनुष्य किसी निर्भय आश्रयको खोजता फिरता है, धनका लोभी जैसे धनका चिन्तन करता है। और पुत्रकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य जैसे पुत्रके लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मैं भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे हंस मानसरोवरको, ऋषि भगवान्के स्मरणको, वैष्णव भक्तिको, पशु हरी हरी घासको और साधु पुरुष धर्मको चाहते हैं, वैसे ही मैं श्रीविष्णुका चिन्तन करता हूँ।" जैसे समस्त प्राणियोंको आत्माका आश्रयभूत शरीर प्रिय है, जिस प्रकार जीव अधिक आयुकी अभिलाषा रखते हैं, जैसे अमर पुष्पको, चक्रवाक सूर्यको और परमात्माके प्रेमीजन भक्तिको चाहते हैं, उसी प्रकार मैं भीश्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे अन्धकारसे घबराये हुए लोग दीपक चाहते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष इस जगत्में केवल भगवान्‌के स्मरणकी इच्छा रखते हैं। जैसे थके-माँदे मनुष्य विश्राम, रोगी निद्रा और आलस्यहीन पुरुष विद्या चाहते हैं, उसी प्रकार मेँ भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे सूर्यकान्तमणि और सूर्यकी किरणोंका संयोग होनेपर आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके संसर्गसे श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंके संयोगसे द्रवीभूत होने लगती है, उसी प्रकार वैष्णव पुरुषोंके संयोगसे स्थिर भक्तिका प्रादुर्भाव होता है। जैसे कुमुदिनी चन्द्रमाको देखकर खिल जाती है, उसी प्रकार भगवान्के प्रति की हुई भक्ति मनुष्योंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भक्तिसे, स्नेहसे, द्वेषभावसे, स्वामि- सेवकभावसे अथवा विचारपूर्वक बुद्धिके द्वारा जिस किसी भावसे भी जो भगवान् जनार्दनका चिन्तन करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाते हैं। 3 अहो ! भगवान् विष्णुका माहात्म्य अद्भुत है। उसपर विचार करनेसे रोमांच हो आता है। भगवान्‌का जैसे-तैसे किया हुआ स्मरण भी मोक्ष देनेवाला है। बढ़े हुए धनसे और विपुल बुद्धिसे भगवान्‌की प्राप्ति नहीं होती; केवल भक्तियोगसे ही क्षणभरमें भगवान्‌का अपनेसमीप दर्शन होता है। भगवान् अपने समीप रहकर भी दूर जान पड़ते हैं — ठीक उसी तरह, जैसे आँखोंमें लगाया हुआ अंजन अत्यन्त समीप होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

भक्तियोगके प्रभावसे भक्त पुरुषोंको सनातन परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। भगवान्‌की मायासे मोहित पुरुष 'यह तत्त्व है, यह तत्त्व है' यों कहते हुए संशयमें ही पड़े रह जाते हैं। जब भक्तितत्त्व प्राप्त होता है, तभी विष्णुरूप तत्वकी उपलब्धि होती है। सुन्दरि मेरी बात सुनो। इन्द्र आदि देवताओंने सुखके लिये अमृत प्राप्त किया था; तथापि वे विष्णुभक्तिके बिना दुःखी ही रह गये। भक्ति ही एक ऐसा अमृत है, जिसको पाकर फिर कभी दुःख नहीं होता। भक्त पुरुष वैकुण्ठधामको प्राप्त होकर भगवान् विष्णुके समीप सदा आनन्दका अनुभव करता है। जैसे हंस हमेशा पानीको अलग करके दूध पीता है, उसी प्रकार अन्य कर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल श्रीविष्णु भक्तिकी ही शरण लेनी चाहिये। शरीरको पाकर बिना भक्तिके जो कुछ भी किया जाता है, वह सब व्यर्थ परिश्रममात्र होता है। जैसे कोई मूर्ख अपनी बाँहोंसे समुद्र पार करना चाहे, उसी प्रकार मूढ मानव विष्णुभक्तिके बिना संसारसागरको पार करनेकी अभिलाषा करता है। संसारमें बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जो दूसरोंको उपदेश दिया करते हैं; किन्तु जो स्वयं आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य करोड़ोंमें कोई एक ही देखा जाता है।" जड़में सींचे हुए वृक्षके ही हरे हरे पत्ते और शाखाएँ दिखायी देती हैं। इसी प्रकार भजनसे ही आगे-आगे फल प्रस्तुत होता है। जैसे जलमें जल, दूधमें दूध और घीमें घी डाल देनेपर कोई अन्तर नहीं रहता, उसी प्रकार विष्णुभक्तिके प्रसादसे भेददृष्टि नहीं रहती जैसे सूर्य सर्वत्र व्यापक है, अग्नि सब वस्तुओंमें व्याप्त है, इन्हें किसी संकुचित सीमामें आवद्ध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भक्तिमें स्थित भक्त भी कर्मोंसे आबद्ध नहीं होता।अजामिलने अपना धर्म छोड़कर पापका आचरण किया था, तथापि अपने पुत्र नारायणका स्मरण करके उसने निश्चय ही भक्ति प्राप्त कर ली थी। जो भक्त दिन-रात केवल भगवन्नामके ही सहारे जीवन धारण करते हैं, वे वैकुण्ठधामके निवासी हैं-इस विषयमें वेद ही साक्षी हैं। अश्वमेध आदि यहाँका फल स्वर्गमें भी देखा जाता है। उन यज्ञोंका पूरा-पूरा फल भोगकर मनुष्य पुनः स्वर्गसे नीचे गिर जाते हैं; परन्तु जो भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे अनेक प्रकारके भोगोंका उपभोग करके इस प्रकार नीचे नहीं गिरते वैकुष्ठधाममें पहुँच जानेपर उनका पुनरागमन नहीं होता। जिसने भगवान् विष्णुकी भक्ति की है, वह सदा विष्णुधाममें ही निवास करता है। विष्णुभक्तिके प्रसादसे उसका कभी अन्त नहीं देखा गया है। मेढक जलमें रहता है और भँवरा वनमें; परन्तु कुमुदिनीकी गन्धका ज्ञान भँवरेको ही होता है, मेहकको नहीं इसी प्रकार भक्त अपनी भक्तिके प्रभावसे श्रीहरिके तत्त्वको जान लेता है। कुछ लोग गंगाके किनारे निवास करते हैं और कुछ गंगासे सौ योजन दूर; किन्तु गंगाका प्रभाव कोई-कोई ही जानता है। इसी प्रकार कोई उत्तम पुरुष ही श्रीविष्णुभक्तिको उपलब्ध कर पाता है। जैसे ऊँट प्रतिदिन कपूर और अरगजेका बोझ ढोता है किन्तु उनके भीतरकी सुगन्धको नहीं जानता, उसी प्रकार जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे विमुख हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जान पाते। कस्तूरीकी सुगन्धको ग्रहण करनेकी इच्छावाले मृग शालवृक्षको सुँघा करते हैं उनकी नाभिमें ही कस्तूरीकी गन्ध है-इस बातको वे नहीं जानते इसी प्रकार भगवान् विष्णुसे विमुख मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान भगवत्तत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते। पार्वती ! जैसे मूर्खोको उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार जो दूसरोंके भक्त हैं उनके लिये विष्णुभक्तिका उपदेश निरर्थक है। जैसे अंधे मनुष्य आँख न होनेके कारण पास ही रखे हुए दीपक तथा दर्पणको नहीं देख पाते,उसी प्रकार बहिर्मुख (विषयासक्त) मानव अपने अन्तःकरणमें विराजमान श्रीविष्णुको नहीं देखते।

जैसे अग्नि धूमसे, दर्पण मैलसे तथा गर्भ झिल्लीसे ढका रहता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण इस शरीर के भीतर छिपे हुए हैं। गिरिराजकुमारी जैसे दूधमें घी तथा तिलमें तेल सदा मौजूद रहता है, वैसे ही इस चराचर जगत्में भगवान् विष्णु सर्वदा व्यापक देखे जाते हैं। जैसे एक ही धागेमें बहुत से सूतके मनके पिरो दिये जाते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण विश्वके प्राणी चिन्मय श्रीविष्णुमें पिरोये हुए हैं। जिस प्रकार काठमें स्थित अग्निको मन्थनसे ही प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही सर्वत्र व्यापक विष्णुका ध्यानसे ही साक्षात्कार होता है जैसे पृथ्वी जलके संयोगसे नाना प्रकारके वृक्षोंको जन्म देती है, उसी प्रकार आत्मा प्रकृतिके गुणोंके संयोगसे नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। हाथी या मच्छरमें, देवता अथवा मनुष्यमें वह आत्मा न अधिक है न कम। वह प्रत्येक शरीरमें स्थिरभावसे स्थित देखा गया है। वह आत्मा ही सच्चिदानन्दस्वरूप, कल्याणमय एवं महेश्वरके रूपमें उपलब्ध होता है। उस परमात्माको हो विष्णु कहा गया है। वह सर्वगत श्रीहरि मैं ही हूँ। मैं वेदान्तवेद्य विभु, सर्वेश्वर, कालातीत और अनामय परमात्मा हूँ। देवि! जो इस प्रकार मुझे जानता है, वह निस्सन्देह भक्त है।

वह एक ही परमात्मा नाना रूपोंमें प्रतीत होता है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें वह एक ही है-ऐसा जानना चाहिये। नाम-रूपके भेदसे ही उसको इस पृथ्वीपर नाना रूपोंमें बतलाया जाता है। जैसे आकाश प्रत्येक घटमें पृथक्-पृथक् स्थित जान पड़ता है किन्तु घड़ा फूट जानेपर वह एक अखण्डरूपमें ही उपलब्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें पृथक् पृथक् आत्मा प्रतीत होता है परन्तु उस शरीररूप उपाधिके भग्न होनेपर वह एकमात्र सुस्थिर सिद्ध होता है। सूर्य जब बादलोंसे ढक जाते हैं, तब मूर्ख मनुष्य उन्हें तेजोहीन मानने लगता है; उसी प्रकार जिनकी बुद्धि अज्ञानसे आवृत है, वे मूर्ख परमेश्वरको नहीं जानते।परमात्मा विकल्पसे रहित और निराकार है। उपनिषदोंमें उसके स्वरूपका वर्णन किया गया है। वह अपनी इच्छासे निराकारसे साकाररूपमें प्रकट होता है। उस परमात्मासे ही आकाश प्रकट हुआ, जो शब्दरहित था। उस आकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुई। तबसे आकाशमें शब्द होने लगा। वायुसे तेज और तेजसे जलका प्रादुर्भाव हुआ। जलमें विश्वरूपधारी विराट् हिरण्यगर्भ प्रकट हुआ। उसकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमल में कोटि-कोटि ब्रह्माण्डौकी सृष्टि हुई। प्रकृति और पुरुषसे ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति हुई तथा उन्हीं दोनोंके संयोगसे पाँचों तत्त्वोंका परस्पर योग हुआ। भगवान् श्रीविष्णुका आविर्भाव सत्त्वगुणसे युक्त माना जाता है। अविनाशी भगवान् विष्णु इस संसारमें सदा व्यापकरूपसे विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सर्वगत विष्णु इसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। कर्मोंमें ही आस्था रखनेवाले अज्ञानीजन अविद्याके कारण भगवान्‌को नहीं जानते। जो नियत समयपर कर्तव्यबुद्धिसे वर्णोचित कर्मोंका पालन करता है, उसका कर्म विष्णुदेवताको अर्पित होकर गर्भवासका कारण नहीं बनता। मुनिगण सदा ही वेदान्तशास्त्रका विचार किया करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान ही है, जिसका मैं तुमसे वर्णन कर रहा है। शुभ और अशुभकी प्रवृत्तिमें मनको ही कारण मानना चाहिये। मनके शुद्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो जाता है और तभी सनातन ब्रह्मका साक्षात्कार होता है। मन ही सदा अपना बन्धु है और मन ही शत्रु है। मनसे ही कितने तर गये और कितने गिर गये। बाहरसे कर्मका आचरण करते हुए भी भीतरसे सबका त्याग करे। इस प्रकार कर्म करके भी मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे लेशमात्र भी लिप्त नहीं होता। जब भक्तिरसका ज्ञान हो जाता है, उस समय मुक्ति अच्छी नहीं लगती। भक्तिसे भगवान् विष्णुकी प्राप्ति होती है। वे सदाके लिये सुलभ हो जाते हैं। वेदान्त-विचारसे तो केवल ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे जेव सम्पूर्ण वस्तुओंमें भाव -शुद्धिकी ही प्रशंसा कीजाती है। जैसा भाव रहता है वैसा ही फल होता है। जिसकी जैसी बुद्धि होती है, वह जगत्को वैसा ही समझता है। वैकुण्ठनाथको छोड़कर भक्त पुरुष दूसरे मार्गमें कैसे रम सकेगा ? भक्तिहीन होकर चारों वेदोंके पढ़नेसे क्या लाभ? भक्तियुक्त चाण्डाल ही क्यों न हो, वह देवताओंद्वारा भी पूजित होता है। जिस समय श्रीहरिके स्मरणजनित प्रसन्नतासे शरीरमें रोमांच हो जाय और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगें, उस समय मुक्ति दासी बन जाती है। वाणीद्वारा किये हुए पापका भगवान्के कीर्तनसे और मनद्वारा किये हुए पापका उनके स्मरणसे नाश हो जाता है।

ब्रह्माजीने सम्पूर्ण वर्णोंको उत्पन्न किया और उन्हें अपने-अपने धर्ममें लगा दिया। अपने धर्मके पालनसे प्राप्त हुआ धन शुक्ल द्रव्य अर्थात् विशुद्ध धन कहलाता है। शुद्ध धनसे श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है, उसमें थोड़े दानसे भी महान् पुण्य होता है। उस पुण्यकी कोई गणना नहीं हो सकती। नीच पुरुषोंके संगसे जो धन आता हो, उस धनसे मनुष्यके द्वारा जो दान किया जाता है, उसका कुछ फल नहीं होता। उस दानसे वे मानव पुण्यके भागी नहीं होते जो इन्द्रियोंको सुख देनेकी इच्छासे ही कर्म करता है, वह ज्ञान - दुर्बल मूढ़ पुरुष अपने कर्मके अनुसार योनिमें जन्म लेता है। मनुष्य इस लोकमें जो कर्म करता है, उसे परलोकमें भोगना पड़ता है। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषको निश्चय ही कभी दुःख नहीं होता यदि पुण्य करते समय शरीरमें कोई कष्ट हो तो उसे पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मका फल समझकर दुःख नहीं मानना चाहिये। पापाचारी पुरुषको सदा दुःख-ही-दुःख मिलता है। यदि उस समय उसे कुछ सुख प्राप्त हुआ हो तो उसे पूर्वकर्मका फल समझना चाहिये और उसपर हर्षसे फूल नहीं उठना चाहिये। जैसे स्वामी रस्सीमें बँधे हुए पशुको अपनी इच्छाके अनुसार इधर उधर ले जाया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्धनमेंबँधा हुआ जीव सुख और दुःखकी अवस्थाओंमें ले जाया जाता है। प्रारब्ध कर्मसे बँधा हुआ जीव अपने बन्धनको दूर करनेमें समर्थ नहीं होता। देवता और ऋषि भी कर्मोंसे बँधे हुए हैं। कैलासपर्वतपर मुझ महादेवके शरीर में स्थित सर्प भी विषके ही भागी होते हैं; क्योंकि कर्मानुसार प्राप्त हुई योनि बड़ी ही प्रबल है। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सूर्य सुन्दर शरीर प्रदान करनेवाले हैं; परन्तु उनके ही रथका सारथि पंगु है। वास्तवमें कर्मयोनि बड़ी ही प्रबल है। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा निर्मित सम्पूर्ण जगत् कर्मके अधीन हैं और वह कर्म श्रीकेशवके अधीन है। श्रीरामनामके जपसे उसका नाश होता है। कोई देवताओंकी प्रशंसा करते हैं, कोई ओषधियोंकी महिमाके गीत गाते हैं, कोई मन्त्र और उसके द्वारा प्राप्त सिद्धिकी महत्ता बतलाते हैं और कोई बुद्धि, पराक्रम, उद्यम, साहस, धैर्य, नीति और बलका बखान करते हैं; परन्तु मैं कर्मकी प्रशंसा करता हूँ; क्योंकि सब लोग कर्मके ही पीछे चलनेवाले हैं—यह मेरा निश्चित विचार है तथा पूर्वकालके विद्वानोंने भी इसका समर्थन किया है। कुछ लोग क्रोधमें आकर सर्वस्व त्याग देते हैं, कोई-कोई अभाववश सब कुछ छोड़ते हैं तथा कुछ लोग बड़े कष्टसे सबका त्याग करते हैं। ये सभी त्याग मध्यम श्रेणीके हैं। अपनी बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर और क्रोध आदिके वशीभूत न होकर श्रद्धापूर्वक त्याग करना चाहिये। जो लोग इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करते हैं, उन्हींका त्याग उत्तम माना गया है। योगाभ्यासमें तत्पर हुआ मनुष्य यदि उसमें पूर्णता न प्राप्त कर सके अथवा प्रारब्ध कर्मकी प्रेरणासे वह साधनसे विचलित हो जाय तो भी वह उत्तम गतिको ही प्राप्त होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र आचरणवाले श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान् योगियोंके यहाँ द्विजकुलमें जन्म ग्रहण करता है तथा वहाँ थोड़े ही समयमें पूर्ण योगसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् वह योग एवंभक्तिके प्रसादसे चिदानन्दमय पदको प्राप्त होता है। जैसे कीचड़से कीचड़ तथा रक्तसे रक्तको नहीं धोया जा सकता, उसी प्रकार हिंसाप्रधान यज्ञ-कर्मसे कर्मजनित मल कैसे धोया जा सकता है। हिंसायुक्त कर्ममय सकाम यज्ञ कर्म-बन्धनका नाश करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है। स्वर्गकी कामनासे किये हुए यज्ञ स्वर्गलोकमें अल्प सुख प्रदान करनेवाले होते हैं। कर्मजनित सुख अधिक मात्रामें हों तो भी वे अनित्य ही होते हैं; उनमें नित्य सुख है ही नहीं। भगवान् श्रीहरिकी भक्तिके बिना कहीं भी नित्य सुख नहीं मिलता।

जो भगवान् सृष्टि करते हैं, वे ही संहारकारी और पालक कहलाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं सैकड़ोंअपराधोंसे युक्त हूँ। मुझे यहाँसे अपने परमधाममें ले चलिये। मुझ अपराधीपर कृपा कीजिये। आपने व्याधको मोक्ष दिया है, कुब्जाको तारा है [मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये ] । योगिजन सदा आपकी महिमाका गान करते हैं। आप परमात्मा, जनार्दन, अविनाशी पुरुष और लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं। आपका दर्शन करके कितने ही भक्त आपके परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग इस दिव्य विष्णुस्मरणका प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सनातन धाममें जाते हैं। जो भगवान् विष्णुके समीप भक्तिभावसे भावित बुद्धिद्वारा इसका पाठ करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होते हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार