श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो ! अविनाशी भगवान् वासुदेवका स्मरण कैसे करना चाहिये ? श्रीमहादेवजी बोले- देवेश्वरि! मैं वास्तविक रूपसे भगवान्के स्वरूपका साक्षात्कार करके निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हूँ। जैसे प्यासा मनुष्य बड़ी व्याकुलताके साथ पानीकी याद करता है, उसी प्रकार मैं भी आकुल होकर श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जिस प्रकार सर्दीका सताया हुआ संसार अग्निका स्मरण करता है, वैसे ही देवता, पितर, ऋषि और मनुष्य निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते रहते हैं। जैसे पतिव्रता नारी सदा पतिकी याद किया करती है, भयसे आतुर मनुष्य किसी निर्भय आश्रयको खोजता फिरता है, धनका लोभी जैसे धनका चिन्तन करता है। और पुत्रकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य जैसे पुत्रके लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मैं भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे हंस मानसरोवरको, ऋषि भगवान्के स्मरणको, वैष्णव भक्तिको, पशु हरी हरी घासको और साधु पुरुष धर्मको चाहते हैं, वैसे ही मैं श्रीविष्णुका चिन्तन करता हूँ।" जैसे समस्त प्राणियोंको आत्माका आश्रयभूत शरीर प्रिय है, जिस प्रकार जीव अधिक आयुकी अभिलाषा रखते हैं, जैसे अमर पुष्पको, चक्रवाक सूर्यको और परमात्माके प्रेमीजन भक्तिको चाहते हैं, उसी प्रकार मैं भीश्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे अन्धकारसे घबराये हुए लोग दीपक चाहते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष इस जगत्में केवल भगवान्के स्मरणकी इच्छा रखते हैं। जैसे थके-माँदे मनुष्य विश्राम, रोगी निद्रा और आलस्यहीन पुरुष विद्या चाहते हैं, उसी प्रकार मेँ भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे सूर्यकान्तमणि और सूर्यकी किरणोंका संयोग होनेपर आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके संसर्गसे श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंके संयोगसे द्रवीभूत होने लगती है, उसी प्रकार वैष्णव पुरुषोंके संयोगसे स्थिर भक्तिका प्रादुर्भाव होता है। जैसे कुमुदिनी चन्द्रमाको देखकर खिल जाती है, उसी प्रकार भगवान्के प्रति की हुई भक्ति मनुष्योंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भक्तिसे, स्नेहसे, द्वेषभावसे, स्वामि- सेवकभावसे अथवा विचारपूर्वक बुद्धिके द्वारा जिस किसी भावसे भी जो भगवान् जनार्दनका चिन्तन करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाते हैं। 3 अहो ! भगवान् विष्णुका माहात्म्य अद्भुत है। उसपर विचार करनेसे रोमांच हो आता है। भगवान्का जैसे-तैसे किया हुआ स्मरण भी मोक्ष देनेवाला है। बढ़े हुए धनसे और विपुल बुद्धिसे भगवान्की प्राप्ति नहीं होती; केवल भक्तियोगसे ही क्षणभरमें भगवान्का अपनेसमीप दर्शन होता है। भगवान् अपने समीप रहकर भी दूर जान पड़ते हैं — ठीक उसी तरह, जैसे आँखोंमें लगाया हुआ अंजन अत्यन्त समीप होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
भक्तियोगके प्रभावसे भक्त पुरुषोंको सनातन परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। भगवान्की मायासे मोहित पुरुष 'यह तत्त्व है, यह तत्त्व है' यों कहते हुए संशयमें ही पड़े रह जाते हैं। जब भक्तितत्त्व प्राप्त होता है, तभी विष्णुरूप तत्वकी उपलब्धि होती है। सुन्दरि मेरी बात सुनो। इन्द्र आदि देवताओंने सुखके लिये अमृत प्राप्त किया था; तथापि वे विष्णुभक्तिके बिना दुःखी ही रह गये। भक्ति ही एक ऐसा अमृत है, जिसको पाकर फिर कभी दुःख नहीं होता। भक्त पुरुष वैकुण्ठधामको प्राप्त होकर भगवान् विष्णुके समीप सदा आनन्दका अनुभव करता है। जैसे हंस हमेशा पानीको अलग करके दूध पीता है, उसी प्रकार अन्य कर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल श्रीविष्णु भक्तिकी ही शरण लेनी चाहिये। शरीरको पाकर बिना भक्तिके जो कुछ भी किया जाता है, वह सब व्यर्थ परिश्रममात्र होता है। जैसे कोई मूर्ख अपनी बाँहोंसे समुद्र पार करना चाहे, उसी प्रकार मूढ मानव विष्णुभक्तिके बिना संसारसागरको पार करनेकी अभिलाषा करता है। संसारमें बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जो दूसरोंको उपदेश दिया करते हैं; किन्तु जो स्वयं आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य करोड़ोंमें कोई एक ही देखा जाता है।" जड़में सींचे हुए वृक्षके ही हरे हरे पत्ते और शाखाएँ दिखायी देती हैं। इसी प्रकार भजनसे ही आगे-आगे फल प्रस्तुत होता है। जैसे जलमें जल, दूधमें दूध और घीमें घी डाल देनेपर कोई अन्तर नहीं रहता, उसी प्रकार विष्णुभक्तिके प्रसादसे भेददृष्टि नहीं रहती जैसे सूर्य सर्वत्र व्यापक है, अग्नि सब वस्तुओंमें व्याप्त है, इन्हें किसी संकुचित सीमामें आवद्ध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भक्तिमें स्थित भक्त भी कर्मोंसे आबद्ध नहीं होता।अजामिलने अपना धर्म छोड़कर पापका आचरण किया था, तथापि अपने पुत्र नारायणका स्मरण करके उसने निश्चय ही भक्ति प्राप्त कर ली थी। जो भक्त दिन-रात केवल भगवन्नामके ही सहारे जीवन धारण करते हैं, वे वैकुण्ठधामके निवासी हैं-इस विषयमें वेद ही साक्षी हैं। अश्वमेध आदि यहाँका फल स्वर्गमें भी देखा जाता है। उन यज्ञोंका पूरा-पूरा फल भोगकर मनुष्य पुनः स्वर्गसे नीचे गिर जाते हैं; परन्तु जो भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे अनेक प्रकारके भोगोंका उपभोग करके इस प्रकार नीचे नहीं गिरते वैकुष्ठधाममें पहुँच जानेपर उनका पुनरागमन नहीं होता। जिसने भगवान् विष्णुकी भक्ति की है, वह सदा विष्णुधाममें ही निवास करता है। विष्णुभक्तिके प्रसादसे उसका कभी अन्त नहीं देखा गया है। मेढक जलमें रहता है और भँवरा वनमें; परन्तु कुमुदिनीकी गन्धका ज्ञान भँवरेको ही होता है, मेहकको नहीं इसी प्रकार भक्त अपनी भक्तिके प्रभावसे श्रीहरिके तत्त्वको जान लेता है। कुछ लोग गंगाके किनारे निवास करते हैं और कुछ गंगासे सौ योजन दूर; किन्तु गंगाका प्रभाव कोई-कोई ही जानता है। इसी प्रकार कोई उत्तम पुरुष ही श्रीविष्णुभक्तिको उपलब्ध कर पाता है। जैसे ऊँट प्रतिदिन कपूर और अरगजेका बोझ ढोता है किन्तु उनके भीतरकी सुगन्धको नहीं जानता, उसी प्रकार जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे विमुख हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जान पाते। कस्तूरीकी सुगन्धको ग्रहण करनेकी इच्छावाले मृग शालवृक्षको सुँघा करते हैं उनकी नाभिमें ही कस्तूरीकी गन्ध है-इस बातको वे नहीं जानते इसी प्रकार भगवान् विष्णुसे विमुख मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान भगवत्तत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते। पार्वती ! जैसे मूर्खोको उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार जो दूसरोंके भक्त हैं उनके लिये विष्णुभक्तिका उपदेश निरर्थक है। जैसे अंधे मनुष्य आँख न होनेके कारण पास ही रखे हुए दीपक तथा दर्पणको नहीं देख पाते,उसी प्रकार बहिर्मुख (विषयासक्त) मानव अपने अन्तःकरणमें विराजमान श्रीविष्णुको नहीं देखते।
जैसे अग्नि धूमसे, दर्पण मैलसे तथा गर्भ झिल्लीसे ढका रहता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण इस शरीर के भीतर छिपे हुए हैं। गिरिराजकुमारी जैसे दूधमें घी तथा तिलमें तेल सदा मौजूद रहता है, वैसे ही इस चराचर जगत्में भगवान् विष्णु सर्वदा व्यापक देखे जाते हैं। जैसे एक ही धागेमें बहुत से सूतके मनके पिरो दिये जाते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण विश्वके प्राणी चिन्मय श्रीविष्णुमें पिरोये हुए हैं। जिस प्रकार काठमें स्थित अग्निको मन्थनसे ही प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही सर्वत्र व्यापक विष्णुका ध्यानसे ही साक्षात्कार होता है जैसे पृथ्वी जलके संयोगसे नाना प्रकारके वृक्षोंको जन्म देती है, उसी प्रकार आत्मा प्रकृतिके गुणोंके संयोगसे नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। हाथी या मच्छरमें, देवता अथवा मनुष्यमें वह आत्मा न अधिक है न कम। वह प्रत्येक शरीरमें स्थिरभावसे स्थित देखा गया है। वह आत्मा ही सच्चिदानन्दस्वरूप, कल्याणमय एवं महेश्वरके रूपमें उपलब्ध होता है। उस परमात्माको हो विष्णु कहा गया है। वह सर्वगत श्रीहरि मैं ही हूँ। मैं वेदान्तवेद्य विभु, सर्वेश्वर, कालातीत और अनामय परमात्मा हूँ। देवि! जो इस प्रकार मुझे जानता है, वह निस्सन्देह भक्त है।
वह एक ही परमात्मा नाना रूपोंमें प्रतीत होता है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें वह एक ही है-ऐसा जानना चाहिये। नाम-रूपके भेदसे ही उसको इस पृथ्वीपर नाना रूपोंमें बतलाया जाता है। जैसे आकाश प्रत्येक घटमें पृथक्-पृथक् स्थित जान पड़ता है किन्तु घड़ा फूट जानेपर वह एक अखण्डरूपमें ही उपलब्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें पृथक् पृथक् आत्मा प्रतीत होता है परन्तु उस शरीररूप उपाधिके भग्न होनेपर वह एकमात्र सुस्थिर सिद्ध होता है। सूर्य जब बादलोंसे ढक जाते हैं, तब मूर्ख मनुष्य उन्हें तेजोहीन मानने लगता है; उसी प्रकार जिनकी बुद्धि अज्ञानसे आवृत है, वे मूर्ख परमेश्वरको नहीं जानते।परमात्मा विकल्पसे रहित और निराकार है। उपनिषदोंमें उसके स्वरूपका वर्णन किया गया है। वह अपनी इच्छासे निराकारसे साकाररूपमें प्रकट होता है। उस परमात्मासे ही आकाश प्रकट हुआ, जो शब्दरहित था। उस आकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुई। तबसे आकाशमें शब्द होने लगा। वायुसे तेज और तेजसे जलका प्रादुर्भाव हुआ। जलमें विश्वरूपधारी विराट् हिरण्यगर्भ प्रकट हुआ। उसकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमल में कोटि-कोटि ब्रह्माण्डौकी सृष्टि हुई। प्रकृति और पुरुषसे ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति हुई तथा उन्हीं दोनोंके संयोगसे पाँचों तत्त्वोंका परस्पर योग हुआ। भगवान् श्रीविष्णुका आविर्भाव सत्त्वगुणसे युक्त माना जाता है। अविनाशी भगवान् विष्णु इस संसारमें सदा व्यापकरूपसे विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सर्वगत विष्णु इसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। कर्मोंमें ही आस्था रखनेवाले अज्ञानीजन अविद्याके कारण भगवान्को नहीं जानते। जो नियत समयपर कर्तव्यबुद्धिसे वर्णोचित कर्मोंका पालन करता है, उसका कर्म विष्णुदेवताको अर्पित होकर गर्भवासका कारण नहीं बनता। मुनिगण सदा ही वेदान्तशास्त्रका विचार किया करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान ही है, जिसका मैं तुमसे वर्णन कर रहा है। शुभ और अशुभकी प्रवृत्तिमें मनको ही कारण मानना चाहिये। मनके शुद्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो जाता है और तभी सनातन ब्रह्मका साक्षात्कार होता है। मन ही सदा अपना बन्धु है और मन ही शत्रु है। मनसे ही कितने तर गये और कितने गिर गये। बाहरसे कर्मका आचरण करते हुए भी भीतरसे सबका त्याग करे। इस प्रकार कर्म करके भी मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे लेशमात्र भी लिप्त नहीं होता। जब भक्तिरसका ज्ञान हो जाता है, उस समय मुक्ति अच्छी नहीं लगती। भक्तिसे भगवान् विष्णुकी प्राप्ति होती है। वे सदाके लिये सुलभ हो जाते हैं। वेदान्त-विचारसे तो केवल ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे जेव सम्पूर्ण वस्तुओंमें भाव -शुद्धिकी ही प्रशंसा कीजाती है। जैसा भाव रहता है वैसा ही फल होता है। जिसकी जैसी बुद्धि होती है, वह जगत्को वैसा ही समझता है। वैकुण्ठनाथको छोड़कर भक्त पुरुष दूसरे मार्गमें कैसे रम सकेगा ? भक्तिहीन होकर चारों वेदोंके पढ़नेसे क्या लाभ? भक्तियुक्त चाण्डाल ही क्यों न हो, वह देवताओंद्वारा भी पूजित होता है। जिस समय श्रीहरिके स्मरणजनित प्रसन्नतासे शरीरमें रोमांच हो जाय और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगें, उस समय मुक्ति दासी बन जाती है। वाणीद्वारा किये हुए पापका भगवान्के कीर्तनसे और मनद्वारा किये हुए पापका उनके स्मरणसे नाश हो जाता है।
ब्रह्माजीने सम्पूर्ण वर्णोंको उत्पन्न किया और उन्हें अपने-अपने धर्ममें लगा दिया। अपने धर्मके पालनसे प्राप्त हुआ धन शुक्ल द्रव्य अर्थात् विशुद्ध धन कहलाता है। शुद्ध धनसे श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है, उसमें थोड़े दानसे भी महान् पुण्य होता है। उस पुण्यकी कोई गणना नहीं हो सकती। नीच पुरुषोंके संगसे जो धन आता हो, उस धनसे मनुष्यके द्वारा जो दान किया जाता है, उसका कुछ फल नहीं होता। उस दानसे वे मानव पुण्यके भागी नहीं होते जो इन्द्रियोंको सुख देनेकी इच्छासे ही कर्म करता है, वह ज्ञान - दुर्बल मूढ़ पुरुष अपने कर्मके अनुसार योनिमें जन्म लेता है। मनुष्य इस लोकमें जो कर्म करता है, उसे परलोकमें भोगना पड़ता है। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषको निश्चय ही कभी दुःख नहीं होता यदि पुण्य करते समय शरीरमें कोई कष्ट हो तो उसे पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मका फल समझकर दुःख नहीं मानना चाहिये। पापाचारी पुरुषको सदा दुःख-ही-दुःख मिलता है। यदि उस समय उसे कुछ सुख प्राप्त हुआ हो तो उसे पूर्वकर्मका फल समझना चाहिये और उसपर हर्षसे फूल नहीं उठना चाहिये। जैसे स्वामी रस्सीमें बँधे हुए पशुको अपनी इच्छाके अनुसार इधर उधर ले जाया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्धनमेंबँधा हुआ जीव सुख और दुःखकी अवस्थाओंमें ले जाया जाता है। प्रारब्ध कर्मसे बँधा हुआ जीव अपने बन्धनको दूर करनेमें समर्थ नहीं होता। देवता और ऋषि भी कर्मोंसे बँधे हुए हैं। कैलासपर्वतपर मुझ महादेवके शरीर में स्थित सर्प भी विषके ही भागी होते हैं; क्योंकि कर्मानुसार प्राप्त हुई योनि बड़ी ही प्रबल है। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सूर्य सुन्दर शरीर प्रदान करनेवाले हैं; परन्तु उनके ही रथका सारथि पंगु है। वास्तवमें कर्मयोनि बड़ी ही प्रबल है। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा निर्मित सम्पूर्ण जगत् कर्मके अधीन हैं और वह कर्म श्रीकेशवके अधीन है। श्रीरामनामके जपसे उसका नाश होता है। कोई देवताओंकी प्रशंसा करते हैं, कोई ओषधियोंकी महिमाके गीत गाते हैं, कोई मन्त्र और उसके द्वारा प्राप्त सिद्धिकी महत्ता बतलाते हैं और कोई बुद्धि, पराक्रम, उद्यम, साहस, धैर्य, नीति और बलका बखान करते हैं; परन्तु मैं कर्मकी प्रशंसा करता हूँ; क्योंकि सब लोग कर्मके ही पीछे चलनेवाले हैं—यह मेरा निश्चित विचार है तथा पूर्वकालके विद्वानोंने भी इसका समर्थन किया है। कुछ लोग क्रोधमें आकर सर्वस्व त्याग देते हैं, कोई-कोई अभाववश सब कुछ छोड़ते हैं तथा कुछ लोग बड़े कष्टसे सबका त्याग करते हैं। ये सभी त्याग मध्यम श्रेणीके हैं। अपनी बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर और क्रोध आदिके वशीभूत न होकर श्रद्धापूर्वक त्याग करना चाहिये। जो लोग इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करते हैं, उन्हींका त्याग उत्तम माना गया है। योगाभ्यासमें तत्पर हुआ मनुष्य यदि उसमें पूर्णता न प्राप्त कर सके अथवा प्रारब्ध कर्मकी प्रेरणासे वह साधनसे विचलित हो जाय तो भी वह उत्तम गतिको ही प्राप्त होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र आचरणवाले श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान् योगियोंके यहाँ द्विजकुलमें जन्म ग्रहण करता है तथा वहाँ थोड़े ही समयमें पूर्ण योगसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् वह योग एवंभक्तिके प्रसादसे चिदानन्दमय पदको प्राप्त होता है। जैसे कीचड़से कीचड़ तथा रक्तसे रक्तको नहीं धोया जा सकता, उसी प्रकार हिंसाप्रधान यज्ञ-कर्मसे कर्मजनित मल कैसे धोया जा सकता है। हिंसायुक्त कर्ममय सकाम यज्ञ कर्म-बन्धनका नाश करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है। स्वर्गकी कामनासे किये हुए यज्ञ स्वर्गलोकमें अल्प सुख प्रदान करनेवाले होते हैं। कर्मजनित सुख अधिक मात्रामें हों तो भी वे अनित्य ही होते हैं; उनमें नित्य सुख है ही नहीं। भगवान् श्रीहरिकी भक्तिके बिना कहीं भी नित्य सुख नहीं मिलता।
जो भगवान् सृष्टि करते हैं, वे ही संहारकारी और पालक कहलाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं सैकड़ोंअपराधोंसे युक्त हूँ। मुझे यहाँसे अपने परमधाममें ले चलिये। मुझ अपराधीपर कृपा कीजिये। आपने व्याधको मोक्ष दिया है, कुब्जाको तारा है [मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये ] । योगिजन सदा आपकी महिमाका गान करते हैं। आप परमात्मा, जनार्दन, अविनाशी पुरुष और लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं। आपका दर्शन करके कितने ही भक्त आपके परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग इस दिव्य विष्णुस्मरणका प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सनातन धाममें जाते हैं। जो भगवान् विष्णुके समीप भक्तिभावसे भावित बुद्धिद्वारा इसका पाठ करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होते हैं।