सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो! पूर्वकालमें अमित तेजस्वी व्यासजीने इस प्रकार आश्रम धर्मका वर्णन किया था। इतना उपदेश करनेके पश्चात् उन सत्यवती नन्दन भगवान् व्यासने समस्त मुनियोंको भलीभाँति आश्वासन दिया और जैसे आये थे, वैसे ही वे चले गये। वही यह वर्णाश्रम धर्मकी विधि है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इस प्रकार वर्ण-धर्म तथा आश्रम- धर्मका पालन करके ही मनुष्य भगवान् विष्णुका प्रिय होता है, अन्यथा नहीं। द्विजवरो! अब इस विषय में मैं आपलोगोंको रहस्यकी बात बताता हूँ, सुनिये। यहाँ वर्ण और आश्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धर्म बताये गये हैं, वे सब हरि-भक्तिकी एक कलाके अंशके अंशकी भी समानता नहीं कर सकते। कलियुगमें मनुष्योंके लिये इस मर्त्यलोकमें एकमात्र हरि भक्ति ही साध्य है। जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है। जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी सौंपके हँसनेसे फैलेहुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है। यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है। जो अपने मस्तकपर श्रीविष्णुका चरणोदक धारण करता है, उसे स्नानसे क्या लेना है। जिसने अपने हृदयमें श्रीहरिके चरणकमलोंको स्थापित कर लिया है, उसको यज्ञसे क्या प्रयोजन है। जिन्होंने सभामें भगवान्की लीलाओंका वर्णन किया है, उन्हें दानकी क्या आवश्यकता है। जो श्रीहरिके गुणोंका श्रवण करके बारंबार हर्षित होता है, भगवान् श्रीकृष्णमें चित्त लगाये रखनेवाले उस भक्त पुरुषको वही गति प्राप्त होती है, जो समाधिमें आनन्दका अनुभव करनेवाले योगीको मिलती है। पाखण्डी और पापासक्त पुरुष उस आनन्दमें विघ्न डालनेवाले बताये गये हैं। नारियाँ तथा उनका अधिक संग करनेवाले पुरुष भी हरिभक्तिमें बाधा पहुँचानेवाले हैं।
स्त्रियाँ नेत्रोंके कटाक्षसे जो संकेत करती हैं, उसका उल्लंघन करना देवताओंके लिये भी कठिन होता है। जिसने उसपर विजय पा ली है, वही संसारमें भगवान्का भक्त कहलाता है। मुनि भी इस लोकमें नारीके चरित्रपर लुभाकर मतवाले हो उठते हैं। ब्राह्मणो! जो लोगनारीकी भक्तिका आश्रय लेते हैं, उन्हें भगवान्की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। द्विजो! बहुत-सी राक्षसियाँ कामिनीका वेष धारण करके इस संसार में विचरती रहती हैं, वे सदा मनुष्योंकी बुद्धि एवं विवेकको अपना ग्रास बनाया करती हैं।
विप्रगण! जबतक किसी सुन्दरी स्त्रीके चंचल नेत्रोंका कटाक्ष, जो सम्पूर्ण धर्मोका लोप करनेवाला है, मनुष्यके ऊपर नहीं पड़ता तभीतक उसकी विद्या कुछ करनेमें समर्थ होती है, तभीतक उसे ज्ञान बना रहता है। तभीतक सब शास्त्रोंको धारण करनेवाली उसकी मेधा शक्ति निर्मल बनी रहती है। तभीतक जप-तप और तीर्थसेवा बन पड़ती है। तभीतक गुरुकी सेवा संभव है और तभीतक इस संसार सागरसे पार होनेके साधनमें मनुष्यका मन लगता है। इतना ही नहीं, बोध, विवेक, सत्संगकी रुचि तथा पौराणिक बातोंको सुननेकी लालसा भी तभीतक रहती है।
जो भगवच्चरणारविन्दोंके मकरन्दका लेशमात्र भी पाकर आनन्दमग्न हो जाते हैं, उनके ऊपर नारियोंके चंचल कटाक्षपातका प्रभाव नहीं पड़ता। द्विजो! जिन्होंने प्रत्येक जन्ममें भगवान् हृषीकेशका सेवन किया है, ब्राह्मणोंको दान दिया है तथा अग्नि में हवन किया है, उन्हींको उन उन विषयोंकी ओरसे वैराग्य होता है। स्त्रियोंमें सौन्दर्य नामकी वस्तु ही क्या है? पीब, मूत्र, विष्ठा, रक्त, त्वचा, मेदा, हड्डी और मज्जा- इन सबसे युक्त जो ढाँचा है, उसीका नाम है शरीर भला इसमें सौन्दर्य कहाँसे आया उपर्युक्त वस्तुओंको पृथक्-पृथक् करके यदि छू लिया जाय तो स्नान करके ही मनुष्य शुद्धहोता है। किन्तु ब्राह्मणो! इन सभी वस्तुओंसे युक्त जो अपवित्र शरीर है, वह लोगोंको सुन्दर दिखायी देता है। अहो ! यह मनुष्योंकी अत्यन्त दुर्दशा है, जो दुर्भाग्यवश घटित हुई है। पुरुष उभरे हुए कुर्चीसे युक्त शरीर में स्त्री-बुद्धि करके प्रवृत्त होता है; किन्तु कौन स्त्री है? और कौन पुरुष ? विचार करनेपर कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये साधु पुरुषको सब प्रकारसे स्त्रीके संगका परित्याग करना चाहिये। भला, स्त्रीका आश्रय लेकर कौन पुरुष इस पृथ्वीपर सिद्धि पा सकता है। कामिनी और उसका संग करनेवाले पुरुषका संग भी त्याग देना चाहिये। उनके संगसे रौरव नरककी प्राप्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष प्रतीत होती है। जो लोग अज्ञानवश स्त्रियोंपर लुभाये रहते हैं, उन्हें दैवने ठग लिया है। नारीकी योनि साक्षात् नरकका कुण्ड है। कामी पुरुषको उसमें पकना पड़ता है। क्योंकि जिस भूमिसे उसका आविर्भाव हुआ है, वहीं वह फिर रमण करता है। अहो ! जहाँसे मलजनित मूत्र और रज बहता है, वहीं मनुष्य रमण करता है! उससे बढ़कर अपवित्र कौन होगा। वहाँ अत्यन्त कष्ट है; फिर भी मनुष्य उसमें प्रवृत्त होता है! अहो! यह दैवकी कैसी विडम्बना है? उस अपवित्र योनिमें बारंबार रमण करना - यह मनुष्योंकी कितनी निर्लज्जता है! अतः बुद्धिमान् पुरुषको स्त्री - प्रसंगसे होनेवाले बहुतेरे दोषोंपर विचार करना चाहिये।
मैथुनसे बलकी हानि होती है और उससे उसको अत्यन्त निद्रा (आलस्य) आने लगती है। फिर नींदसे द बेसुध रहनेवाले मनुष्यकी आयु कम हो जाती है। द्व इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह नारीकोअपनी मृत्युके समान समझे और मनको प्रयत्नपूर्वक भगवान् गोविन्दके चरणकमलोंमें लगावे। श्रीगोविन्दके चरणोंकी सेवा इहलोक और परलोकमें भी सुख देनेवाली है। उसे छोड़कर कौन महामूर्ख पुरुष स्त्रीके चरणोंका सेवन करेगा। भगवान् जनार्दनके चरणोंकी सेवा मोक्ष प्रदान करनेवाली है तथा स्त्रियोंकी योनिका सेवन योनिके ही संकटमें डालनेवाला है। योनिसेवी पुरुषको बार-बार योनिमें ही गिरना पड़ता है; यन्त्रमें कसे जानेवालेको जैसा कष्ट होता है, वैसी ही यातना उसे भी भोगनी पड़ती है। परन्तु फिर भी वह योनिकी ही अभिलाषा करता है। यह पुरुषकी कैसी विडम्बना है। इसे जानना चाहिये। मैं अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी उत्तम बात सुनो- श्रीगोविन्दमें मन लगाओ, यातना देनेवाली योनिमें नहीं । ll 2 ll
जो स्त्रीकी आसक्ति छोड़कर विचरता है, वह मानव पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। यदि दैवयोगसे उत्तम कुलमें उत्पन्न सती-साध्वी स्त्रीसे मनुष्यका विवाह हो जाय तो उससे पुत्रका जन्म होनेके पश्चात् फिर उसके साथ समागम न करे। ऐसे पुरुषपर भगवान् जगदीश्वर संतुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष स्त्रीके संगको असत्संग कहते हैं। उसके रहते भगवान् श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति नहीं होती। इसलिये सब प्रकारके संगका परित्याग करके भगवान्की भक्ति ही करनी चाहिये।मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ है। जिसकी भगवान्में भक्ति होती है, वह मनुष्य निस्सन्देह कृतार्थ हो जाता है। उसी उसी कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हों। भगवान्के संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त होता है। श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया गया है। जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी यजन करते हैं, उन आदि अन्तरहित भगवान् नारायणका भजन कौन नहीं करेगा ? जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके युगल चरणोंकी स्थापना करता है, उसकी माता परम सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं। 'जगद्वन्द्य जनार्दन ! शरणागतवत्सल !' आदि कहकर जो मनुष्य भगवान्को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना पड़ता । ll 2 ll
विशेषतः ब्राह्मणोंका, जो साक्षात् भगवान्के स्वरूप हैं, जो लोग यथायोग्य पूजन करते हैं, उनके ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं। भगवान् विष्णु ही ब्राह्मणके रूपमें इस पृथ्वीपर विचरते हैं। ब्राह्मणके बिना कोई भी कर्म सिद्ध नहीं होता। जिन्होंने भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका चरणोदक पीकर उसे मस्तकपर चढ़ाया है, उन्होंने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया तथा आत्माका भी उद्धार कर लिया। जिन्होंने ब्राह्मणोंके मुखमें सम्मानपूर्वक मधुर अन्न अर्पित किया है, उनके द्वारा साक्षात् श्रीकृष्णके ही मुखमें वह अन्न दिया गया है।इसमें सन्देह नहीं कि साक्षात् श्रीहरि ही उस अन्नको भोग लगाते हैं। ब्राह्मणोंके रहनेसे ही यह पृथ्वी धन्य मानी गयी है। उनके हाथमें जो कुछ दिया जाता है, वह भगवान् के हाथमें ही समर्पित होता है। उनको नमस्कार करनेसे पापका नाश होता है। ब्राह्मणकी वन्दना करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिये ब्राह्मण सत्पुरुषोंके लिये विष्णुबुद्धिसे आराधना करनेके योग्य हैं। भूखे ब्राह्मणके मुखमें यदि कुछ अन्न दिया जाय तो दाता मृत्युके पश्चात् परलोकमें जानेपर करोड़ कल्पोंतक अमृतकी धारासे अभिषिक्त होता है। ब्राह्मणोंका मुख ऊसर और काँटोंसे रहित बहुत बड़ा खेत हैं; वहाँ यदि कुछ बोया जाता है तो उसका कोटि-कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको घृतसहित भोजन देकर मनुष्य एक कल्पतक आनन्दका अनुभव करता है। जो ब्राह्मणको संतुष्ट करनेके लिये नाना प्रकारके सुन्दर मिष्टान्न दान करता है, उसे कोटि कल्पोंतक महान् भोगसम्पन्न लोक प्राप्त होते हैं।
ब्राह्मणको आगे करके ब्राह्मणके द्वारा ही कहीं हुईं पुराण कथाका प्रतिदिन श्रवण करना चाहिये। पुराण बड़े-बड़े पापोंके वनको भस्म करनेके लिये महान् दावानलके समान है। पुराण सब तीर्थोकी अपेक्षा श्रेष्ठ तीर्थ बताया जाता है, जिसके चतुर्थांशका श्रवण करनेसे श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं जैसे भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण जगत्को प्रकाश देने तथा सबको दृष्टि प्रदान करनेके लिये सूर्यका स्वरूप धारण करके विचरते हैं, उसी प्रकार श्रीहरि ही अन्तःकरणमें ज्ञानका प्रकाश फैलानेके लिये पुराणका रूप धारण करके जगत्में विचरते हैं । पुराण परम पावन शास्त्र है। अतः यदि श्रीहरिकी प्रसन्नता प्राप्त करनेका मन हो तो मनुष्योंको निरन्तर श्रीकृष्णरूपी परमात्मा के पुराणका श्रवण करना चाहिये। विष्णुभक्त पुरुषकोशान्तभावसे पुराण सुनना उचित है; क्योंकि वह अत्यन्त दुर्लभ है। पुराणकी कथा बड़ी निर्मल है. अन्तःकरणको निर्मल बनानेका उत्कृष्ट साधन है। व्यासरूपधारी श्रीहरिने वेदार्थोंका संग्रह करके पुराणकी रचना की है; अतः उसके श्रवणमें तत्पर रहना चाहिये। पुराणमें धर्मका निश्चय किया गया है और धर्म केशवका स्वरूप है; अतः विद्वान् पुरुष पुराण सुन लेनेपर विष्णुरूप हो जाता है। एक तो ब्राह्मण ही साक्षात् श्रीहरिका रूप है, दूसरे पुराण भी वैसा ही है; अतः उन दोनोंका संग पाकर मनुष्य विष्णुरूप ही हो जाता है।
इसी प्रकार गंगाजीके जलसे अभिषिक्त होनेपर मनुष्य अपने पापको दूर भगा देता है; भगवान् केशव ही जलके रूपमें इस भूमण्डलका पापसे उद्धार कर रहे हैं। यदि वैष्णव पुरुष विष्णुके भजनकी अभिलाषा रखता हो तो उसे गंगाजीके जलका निर्मल अभिषेक प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि वह अन्तःकरणको शुद्ध करनेका उत्तम साधन है। इस पृथ्वीपर भगवती गंगा विष्णुभक्ति प्रदान करनेवाली बतायी जाती हैं। लोकोंका उद्धार करनेवाली गंगा वास्तवमें श्रीविष्णुका ही स्वरूप है। ब्राह्मणोंमें, पुराणोंमें, गंगामें, गौओंमें तथा पीपलके वृक्षमें नारायण बुद्धि करके मनुष्योंको उनके प्रति निष्काम भक्ति करनी चाहिये।" तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इन्हें विष्णुका प्रत्यक्ष स्वरूप निश्चित किया है। अतः विष्णु-भक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सदा इनकी पूजा करनी चाहिये।
विष्णुमें भक्ति किये बिना मनुष्योंका जन्म निष्फल बताया जाता है। कलिकाल ही जिसके भीतर जल-राशि है, जो पापरूपी ग्रहोंसे भरा हुआ है, विषयासक्ति ही जिसमें भँवर है, दुर्बोध ही फेनका काम देता है, महादुष्टरूपी सर्पोंके कारण जो अत्यन्त भयानक प्रतीत होता है, उस दुस्तर भवसागरको हरिभक्तिकी नौकापरबैठे हुए मनुष्य पार कर जाते हैं। इसलिये लोगोंको हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। लोग बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते। यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र कथाओंका ही श्रवण करना चाहिये। द्विजो ! यदि निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको सुनना उचित है; उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हृषीकेश यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की हैं। सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं। जो हृदयसे सेवन करनेयोग्य, संतोंके द्वारा बारंबार सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं, श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप पामरो! अरे निष्ठुर मनुष्यो! क्यों स्वयं अपने-आपको रौरव नरकमें गिरा रहे हो। यदि तुम अनायास ही दु:खोंके पार जाना चाहते हो तो गोविन्दके चारु चरणोंका सेवन किये बिना नहीं जा सकोगे। भगवान् श्रीकृष्णके युगल चरण मोक्षके हेतु हैं; उनका भजन करो। मनुष्य कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रहकरे। क्योंकि नाना प्रकारके नरकोंमें गिरनेके पश्चात् यदि पुनः उत्थान होता है, तभी मनुष्यका जन्म मिलता है। वहाँ उसे गर्भवासका अत्यन्त दुःखदायी कष्ट तो भोगना ही पड़ता है। द्विजो! फिर कर्मवश जीव यदि इस पृथ्वीपर जन्म लेता है, तो बाल्यावस्था आदिके अनेक दोषोंसे उसे पीड़ा सहनी पड़ती है। फिर युवावस्थामें पहुँचनेपर यदि दरिद्रता हुई तो उससे बहुत कष्ट होता है। भारी रोगसे तथा अनावृष्टि आदि आपत्तियोंसे भी क्लेश उठाना पड़ता है। वृद्धावस्थामें मनके इधर-उधर भटकनेसे जो कष्ट उसे प्राप्त होता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर व्याधिके कारण समयानुसार मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है। संसारमें मृत्युसे बढ़कर दूसरे किसी दुःखका अनुभव नहीं होता ।
तत्पश्चात् जीव अपने कर्मवश यमलोकमें पीड़ा भोगता है; वहाँ अत्यन्त दारुण यातना भोगकर फिर संसारमें जन्म लेता है। इस प्रकार वह बारंबार जन्मता और मरता तथा मरता और जन्मता रहता है। जिसने भगवान् गोविन्दके चरणोंकी आराधना नहीं की है, उसीकी ऐसी दशा होती है। गोविन्दके चरणोंकी आराधना न करनेवाले मनुष्यकी बिना कष्टके मृत्यु नहीं होती तथा बिना कष्टके उसे जीवन भी नहीं मिलता। यदि घरमें धन हो तो उसे रखनेसे क्या फल हुआ। जिस समय यमराजके दूत आकर जीवको खींचते हैं, उस समय धन क्या उसके पीछे-पीछे जाता है ? अतः ब्राह्मर्णोंके सत्कारमें लगाया हुआ धन ही सब प्रकारकेसुख देनेवाला है। दान स्वर्गकी सीढ़ी है, दान सब पापका नाश करनेवाला है। गोविन्दका भक्तिपूर्वक किया हुआ भजन महान् पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है। यदि मनुष्य में बल हो तो उसे व्यर्थ ही नष्ट न करे। आलस्य छोड़कर भगवान् के सामने नृत्य करे और गीत गाये। मनुष्यके पास जो कुछ हो, उसे भगवान् श्रीकृष्णको समर्पित कर दे। श्रीकृष्णको समर्पित की हुई वस्तु कल्याणदायिनी होती है और किसीको दी हुई वस्तु केवल दुःख देनेवाली होती है। नेत्रोंसे श्रीहरिकी ही प्रतिमा आदिका दर्शन तथा कानोंसे श्रीकृष्णके गुण और नामौका ही अहर्निश अवण करे। विद्वान् पुरुषको अपनी जिह्वासे श्रीहरिके चरणोदकका आस्वादन करना चाहिये। नासिकासे श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंपर चढ़े हुए श्रीतुलसीदलको सुँधकर त्वचासे हरिभक्तका स्पर्श करतथा मनसे भगवान्के चरणोंका ध्यान करके जीव कृतार्थ हो जाता है— इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। विद्वान् पुरुष भगवान्में ही मन लगाये और हृदयमें उन्हींकी भावना करे; ऐसा करनेवाला मनुष्य अन्तमें भगवान्को ही प्राप्त होता है – इसमें कुछ विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। जो मनसे भी निरन्तर चिन्तन करनेपर भक्तको अपना पद प्रदान कर देते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका कौन मनुष्य सेवन नहीं करेगा। जो श्रीविष्णुके चरणारविन्दोंमें निरन्तर चित्त लगाये रहता है, भगवान्की प्रसन्नताके लिये अपनी शक्तिके अनुसार दान किया करता है तथा उन्हींके युगल चरणोंमें प्रणाम करता, मन लगाता और अनुराग रखता है, वह इस मनुष्यलोकमें निश्चय ही पूज्यभावको प्राप्त होता है। *