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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 140 - Khand 4, Adhyaya 140

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भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा

अम्बरीष बोले- मुनिश्रेष्ठ! आपने बड़ी अच्छी बात बतायी, इसके लिये आपको धन्यवाद है। आप सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपने भगवान् विष्णुके सगुण एवं निर्गुण ध्यानका वर्णन किया; अब आप भक्तिका लक्षण बतलाइये। साधुओंपर कृपा करनेवाले महर्षे! मुझे यह समझाइये कि किस मनुष्यको कब, कहाँ, कैसी और किस प्रकार भक्ति करनी चाहिये।

सूतजी कहते हैं-राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज अम्बरीषके ये वचन सुनकर देवर्षि नारदजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उनसे बोले- राजन्! सुनो-भगवान्की भक्ति समस्त पापका नाश करनेवाली है, मैं तुमसे उस भक्तिका भलीभाँति वर्णन करता हूँ। भक्ति अनेकों प्रकारकी बतायी गयी है— मानसी, वाचिकी, कायिकी, लौकिकी, वैदिकी तथा आध्यात्मिकी ध्यान, धारणा, बुद्धि तथा वेदार्थके चिन्तनद्वारा जो विष्णुको प्रसन्न करनेवाली भक्ति की जाती है, उसे 'मानसी' भक्ति कहते हैं। दिन-रात अविश्रान्त भावसे वेदमन्त्रोंके उच्चारण, जप तथा आरण्यक आदिके पाठद्वारा जो भगवान्की प्रसन्नताका सम्पादन किया जाता है, उसकानाम 'वाचिकी' भक्ति है। व्रत, उपवास और नियमोंके पालन तथा पाँचों इन्द्रियोंके संयमद्वारा की जानेवाली आराधना [ शरीरसे साध्य होनेके कारण] 'कायिकी' भक्ति कही गयी है; यह सब प्रकारकी सिद्धियोंका सम्पादन करनेवाली है। पाद्य, अर्घ्य आदि उपचार, नृत्य, वाद्य, गीत, जागरण तथा पूजन आदिके द्वारा जो भगवान्की सेवा की जाती है, उसे 'लौकिकी' भक्ति कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके जप, संहिताओंके अध्ययन आदि तथा हविष्यकी आहुति - यज्ञ-यागादिके द्वारा की जानेवाली उपासनाका नाम 'वैदिकी' भक्ति है। विज्ञ पुरुषोंने अमावास्या, पूर्णिमा तथा विषुव (तुला और मेषकी संक्रान्ति) आदिके दिन जो याग करनेका आदेश दिया है, वह वैदिकी भक्तिका साधक है। अब मैं योगजन्य आध्यात्मिकी भक्तिका भी वर्णन करता हूँ, सुनो। योगज भक्तिका साधक सदा अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर प्राणायामपूर्वक ध्यान किया करता है। विषयोंसे अलग रहता है। वह ध्यानमें देखता है भगवान्‌का मुख अनन्त तेजसे उद्दीप्त हो रहा है, उनकी कटिके ऊपरी भागतक लटका हुआ यज्ञोपवीत शोभा पा रहा है। उनका शुक्ल वर्ण है, चार भुजाएँ हैं।उनके हाथोंमें वरद एवं अभयकी मुद्राएँ हैं। वे पीत वस्त्र धारण किये हुए हैं तथा उनके नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं। वे तसे परिपूर्ण दिखायी देते हैं। राजन् इस प्रकार योगयुक्त अपने हृदयमें परमेश्वरका ध्यान करता है। पुरुष जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठको भस्म कर डालती है, उसी प्रकार भगवान्‌की भक्ति मनुष्यके पापको तत्काल दग्ध कर देती है। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्ति साक्षात् सुधाका रस है, सम्पूर्ण रसोका एकमात्र सार है। इस पृथ्वीपर मनुष्य जबतक उस भक्तिका श्रवण नहीं करता उसका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे सैकड़ों बार जन्म, मृत्यु और जराके आघातसे होनेवाले नाना प्रकारके दैहिक दुःख प्राप्त होते हैं। यदि महान् प्रभावशाली भगवान् अनन्तका कीर्तन और स्मरण किया जाय तो वे समस्त पापोंका नाश कर देते हैं, ठीक उसी तरह जैसे वायु मेघका तथा सूर्यदेव अन्धकारका विनाश कर डालते हैं। राजन्! देवपूजा, यज्ञ, तीर्थ-स्नान, व्रतानुष्ठान, तपस्या और नाना प्रकारके कर्मोंसे भी अन्तःकरणकी वैसी शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् अनन्तका ध्यान करनेसे होती है। नरनाथ! जिनमें पवित्र यशवाले तथा अपने भक्तोंको भक्ति प्रदान करनेवाले विशुद्धस्वरूप भगवान् श्रीविष्णुका कीर्तन होता है, वे ही कथाएँ शुद्ध हैं तथा वे ही यथार्थ, वे ही लाभ पहुँचानेवाली और वे ही हरिभक्तोंके कहने-सुननेयोग्य होती हैं। भूमण्डलके राज्यका भार सँभालनेवाले धीरचित्त महाराज अम्बरीष! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारा हृदय पुरुषोत्तमके ध्यानमें एकतान हो रहा है तथा सौभाग्यलक्ष्मीसे सुशोभित होनेवाली तुम्हारी नैष्ठिक बुद्धि श्रीकृष्णचन्द्रकी पुण्यमयी लीलाओंके श्रवणमें प्रवृत्त हो रही है। भूपते ! भक्तोंको वरदान देनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधना किये बिना अहंकारवश अपनेको ही बड़ा माननेवाले पुरुषका कल्याण कैसे होगा। भगवान् मायाके जन्मदाता हैं, उनपर मायाका प्रभाव नहीं पड़ता। साधु पुरुष उन्हेंभक्तिके द्वारा ही प्राप्त करते हैं, इस बातको तुम भी जानते हो राजन् धर्मका कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो। फिर भी जिनके चरण ही तीर्थ हैं, उन भगवानको चर्चाका प्रसंग उठाकर जो तुम उनकी सरस कथाको मुझसे विस्तारके साथ पूछ रहे हो उसमें यही कारण है कि तुम वैष्णवोंका गौरव बढ़ाना चाहते हो मुझ जैसे लोगोंको आदर दे रहे हो। साधु-संत जो एक-दूसरेसे मिलनेपर अधिक श्रद्धाके साथ भगवान् अनन्तके कल्याणमय गुणका कीर्तन और श्रवण करते हैं, इससे बढ़कर परम संतोषकी बात तथा समुचित पुण्य मुझे और किसी कार्यमें नहीं दिखायी देता। ब्राह्मण, गौ, सत्य, श्रद्धा, यज्ञ, तपस्या, श्रुति, स्मृति, दया, दीक्षा और संतोष ये सब श्रीहरिके स्वरूप हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा सम्पूर्ण प्राणी उस परमेश्वरके ही स्वरूप हैं। इस चराचर जगत्को उत्पन्न करनेकी शक्ति रखनेवाले वे विश्वरूप भगवान् स्वयं ही ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके सदा उन्हें खिलाया जानेवाला अन्न भोजन करते हैं; इसलिये जिनकी चरण-रेणु तीर्थके समान है, भगवान् अनन्त ही जिनके आधार हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा तथा पुण्यमयी लक्ष्मीके सर्वस्व हैं, उन ब्राह्मणोंका आदरपूर्वक पूजन करो। जो विद्वान् ब्राह्मणको विष्णुबुद्धिसे देखता है, वही सच्चा वैष्णव है तथा वही अपने धर्ममें भलीभाँति स्थित माना जाता है। तुमने भक्तिके लक्षण सुननेके लिये प्रार्थना की थी, सो सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब गंगा स्नान करनेके लिये जा रहा हूँ।

"यह वैशाखका महीना उपस्थित है, जो भगवान् लक्ष्मीपतिको अत्यन्त प्रिय है। इसकी भी आज शुक्ल सप्तमी है; इसमें गंगाका स्नान अत्यन्त दुर्लभ है। पूर्वकालमें राजा जह्नुने वैशाख शुक्ल सप्तमीको क्रोधमें आकर गंगाजीको पी लिया था और फिर अपने दाहिने कानके छिद्रसे उन्हें बाहर निकाला था अतः जनुकीकन्या होनेके कारण गंगाको 'जाहनवी' कहते हैं। इस तिथिको स्नान करके जो आकाशकी मेखलाभूत गंगा देवीका उत्तम विधानके साथ पूजन करता है, वह मनुष्य धन्य एवं पुण्यात्मा है। जो वैशाख शुक्ल सप्तमीको विधिपूर्वक गंगामें देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, उसे गंगादेवी कृपा दृष्टिसे देखती हैं तथा वह स्नानके पश्चात् सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। वैशाखके समान कोई मास नहीं है तथा गंगाके सदृश दूसरी कोई नदी नहीं है। इन दोनोंका संयोग दुर्लभ है। भगवान्की भक्तिसे ही ऐसा सुयोग प्राप्त होता है। गंगाजीका प्रादुर्भाव भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे हुआ है। वे ब्रह्मलोकसे आकर भगवान् शंकरके जटा जूटमें निवास करती हैं। गंगा समस्त दुःखौका नाश करनेवाली हैं। वे अपने तीन स्रोतोंसे निरन्तर प्रवाहित होकर तीनों लोकोंको पवित्र करती रहती हैं। उन्हें स्वर्गपर चढ़नेके लिये सीढ़ी माना गया है वे सदा आनन्द देनेवाली, नाना प्रकारके पापको हरनेवाली, संकटसे तारनेवाली, भक्तजनोंके अन्तःकरणमें दिव्य प्रकाश फैलानेकी लीलासे सुशोभित होनेवाली, सगरके पुत्रोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली, धर्म-मार्गमें लगानेवाली तथा तीन मार्गोसे प्रवाहित होनेवाली हैं। गंगादेवी तीनों लोकोंका श्रृंगार हैं। वे अपने दर्शन, स्पर्श, नान कीर्तन, ध्यान और सेवनसे हजारों पवित्र तथा अपवित्र पुरुषोंको पावन बनाती रहती हैं जो लोग दूर रहकर भी तीनों समय 'गंगा, गंगा, गंगा' इस प्रकार उच्चारण करते हैं, उनके तीन जन्मोंका पाप गंगाजी नष्ट कर देती हैं। जो मनुष्य हजार योजन दूरसे भी गंगाका स्मरण करता है, वह पापी होनेपर भी उत्तम गतिको प्राप्त होता है।

"राजन् वैशाख शुक्ल सप्तमीको गंगाजीका दर्शन विशेष दुर्लभ है। भगवान् श्रीविष्णु और ब्राह्मणोंकी कृपासे ही उस दिन उनकी प्राप्ति होती है। माधव (वैशाख) के समान महीना और माधव (विष्णु) - के समान कोई देवता नहीं है; क्योंकि पापके समुद्रमें डूबतेहुए मनुष्यके लिये माधव ही जहाजका काम देते हैं। माधव मासमें जो भक्तिपूर्वक दान, जप, हवन और स्नान आदि शुभकर्म किये जाते हैं, उनका पुण्य अक्षय तथा सौ करोड़गुना अधिक होता है। जिस प्रकार देवताओंमें विश्वात्मा भगवान् नारायणदेव श्रेष्ठ हैं. जैसे जप करनेयोग्य मन्त्रोंमें गायत्री सबसे उत्कृष्ट है, उसी प्रकार नदियोंगे गंगाजीका स्थान सबसे ऊँचा है। जैसे सम्पूर्ण स्त्रियोंमें पार्वती, तपनेवालोंमें सूर्य, लाभों में आरोग्यलाभ, मनुष्योंमें ब्राह्मण, पुण्योंमें परोपकार, विद्याओंमें वेद, मन्त्रोंमें प्रणव, ध्यानोंमें आत्मचिन्तन, तपस्याओंमें सत्य और स्वधर्म पालन, शुद्धियोंमें आत्मशुद्धि, दानोंमें अभयदान तथा गुणोंमें लोभका त्याग ही सबसे प्रधान माना गया है, उसी प्रकार सब मासोंमें वैशाख मास अत्यन्त श्रेष्ठ है। पापका अन्त वैशाख मासमें प्रातः स्नान करनेसे होता है। अन्धकारका अन्त सूर्यके उदयसे तथा पुण्योंका अन्त दूसरोंकी बुराई और चुगली करनेसे होता है। राजन् कार्तिक मासमें जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित हों, उस समय जो स्नान-दान आदि पुण्यकार्य किया जाता है, उसका पुण्य परार्धगुना अधिक होता है। माघ मासमें जब मकरराशिपर सूर्य हों तो कार्तिककी अपेक्षा भी हजारगुना उत्तम फल होता है और वैशाख मासमें मेषकी संक्रान्ति होनेपर मायसे भी सौगुना अधिक पुण्य होता है। वे ही मनुष्य पुण्यात्मा और धन्य हैं, जो वैशाख मासमें प्रात:काल स्नान करके विधि-विधानसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी पूजा करते हैं। वैशाख मासमें सबेरेका स्नान, यज्ञ, दान, उपवास, हविष्य-भक्षण तथा ब्रह्मचर्य का पालन-ये महान् पातकोंका नाश करनेवाले हैं। राजन्। कलियुगमें वैशाखकी महिमा गुप्त नहीं रहने पायेगी क्योंकि उस समय वैशाखस्नानका माहात्म्य अश्वमेध यज्ञके अनुष्ठानसे भी बढ़कर है कलियुगमें परमपावन अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान नहीं हो सकता। उस समय वैशाख मासका स्नान ही अश्वमेध यज्ञके समान विहित है। कलियुग के अधिकांश मनुष्य पापीहोंगे। उनकी बुद्धि पापमें ही आसक्त होगी; अतः वे अश्वमेधके पुण्यको, जो स्वर्ग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है, नहीं जान सकेंगे। उस समयके लोग अपनेपापोंके कारण नरकमें पड़ेंगे। अतएव कलियुगके लिये अश्वमेधका प्रचार कम कर दिया गया [ और उसके स्थानपर वैशाख मासके स्नानका विधान किया गया ] ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान