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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 261 - Khand 5, Adhyaya 261

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भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण

महादेवजी कहते हैं- पार्वती। सत्राजितुके एक यशस्विनी कन्या थी, जो भूदेवीके अंशसे उत्पन्न हुई थी उसका नाम था (सत्या) सत्यभामा सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णकी दूसरी पत्नी थीं। तीसरी पत्नी सूर्यकन्या कालिन्दी थीं, जो लीलादेवीके अंशसे प्रकट हुई थीं। विन्दानुविन्दकी पुत्री मित्रविन्दाको स्वयंवरसे ले आकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके साथ विवाह किया वहाँ सात महाबली बैलोंको, जिनका दमन करना बहुत ही कठिन था, भगवान्ने एक ही रस्सीसे नाथ दिया और इस प्रकार पराक्रमरूपी शुल्क देकर उसका पाणिग्रहण किया। राजा सत्राजितके पास स्यमन्तक नामक एक बहुमूल्य मणि थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई महात्मा प्रसेनको दे रखा था। एक दिन भगवान् मधुसूदनने वह श्रेष्ठ मणि प्रसेनसे माँगी। उस समय प्रसेनने बड़ी धृष्टताके साथ उत्तर दिया- यह मणि प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देती है; अतः इसे में किसीको नहीं दे सकता। प्रसेनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो रहे।

एक दिनकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेन आदि समस्त महाबली यादवोंके साथ शिकार खेलनेके लिये बड़े भारी वनमें गये। प्रसेन अकेले ही उस घोर वनमें बहुत दूरतक चले गये। वहाँ एक सिंहने उन्हें मारकर वह मणि ले ली। फिर उस सिंहको महाबली जाम्बवान्ने मार डाला और उस मणिको लेकर वे शीघ्र ही अपनी गुफामें चले गये। उस गुफार्मे दिव्य स्त्रियों निवास करती थीं। उस दिन सूर्यास्त हो जानेपर भगवान् वासुदेव अपने अनुचरोंके साथ चले मार्गमें उन्होंने 1 चतुर्थीके चन्द्रमाको देख लिया। उसके बाद अपने नगरमें प्रवेश किया। तदनन्तर समस्त पुरवासी श्रीकृष्णके विषयमें एक-दूसरे से कहने लगे-'जान पड़ता है, गोविन्दने प्रसेनकी वनमें ही मारकर बेखटके मणि ले ली है। उसके बाद ये द्वारकामें आये हैं।' द्वारकावासियोंकी यह बात जब भगवान्के कानोंमें पड़ी तो वे मूर्खलोगोंके द्वारा उठाये हुए अपवादके भयसे पुनः कुछ यदुवंशियोंको साथ ले गहन वनमें गये। वहाँ सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेनकी लाश पड़ी थी, जिसे भगवान्ने सबको दिखाया। इसप्रकार प्रसेनकी हत्याके झूठे कलंकको मिटाकर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी सेनाको वहीं ठहरा दिया तथा हाथमें शार्ङ्गधनुष और गदा लिये वे अकेले ही गहन वनमें घुस गये। वहाँ एक बहुत बड़ी गुफा देखकर श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। उस गुफाके भीतर एक स्वच्छ भवन था, जो नाना प्रकारकी श्रेष्ठ मणियोंसे जगमगा रहा था। वहाँ एक धायने जाम्बवान्के पुत्रको पालनेमें सुलाकर उसके ऊपरी भागमें मणिको बाँधकर लटका दिया था और पालनेको धीरे-धीरे लीलापूर्वक डुलाती हुई वह लोरियाँ गा रही थी गाते-गाते वह निम्नांकित श्लोकका उच्चारण कर रही थी

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।

सुकुमारक मा रोदीस्तव होष स्यमन्तकः ॥

(276 19) 'प्रसेनको सिंहने मारा और सिंह जाम्बवान्के हाथसे मारा गया है। सुन्दर कुमार रोओ मत। यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी ही है।'

यह सुनकर प्रतापी वासुदेवने शंख बजाया। वह महान् शंखनाद सुनकर जाम्बवान् बाहर निकले। फिर उन दोनोंमें लगातार दस राततक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरेको वज्रके समान मुक्कोंसे मारते थे। वह युद्ध समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था। श्रीकृष्णके बलकी वृद्धि और अपने बलका हास देखकर जाम्बवान्को भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके कहे हुए पूर्वकालके वचनोंका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे ये ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, जो धर्मकी रक्षाके लिये पुनः इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरे नाथ मेरा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं।' ऐसा सोचकर ऋक्षराजने युद्ध बंद कर दिया और हाथ जोड़कर विस्मयसे पूछा- 'आप कौन हैं? कैसे यहाँ पधारे हैं?' तब भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर वाणीमें कहा-'मैं वसुदेवका पुत्र हूँ। मेरा नाम वासुदेव है। तुम मेरी स्यमन्तक नामक मणि हर ले आये हो। उसे शीघ्र लौटा दो, नहीं तो अभी मारे जाओगे।' यह सुनकर जाम्बवान्को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्‌को प्रणाम किया और विनीत भावसे कहा- 'प्रभो। आपके दर्शनसे मैं धन्यऔर कृतार्थ हो गया। देवकीनन्दन। पहले अवतारसे ही मैं आपका दास हूँ। गोविन्द पूर्वकालमें जो मैंने युद्धकी अभिलाषा की थी, उसीको आज आपने पूर्ण किया है। जगन्नाथ करुणाकर। मैंने मोहवश अपने स्वामीके साथ जो यह युद्ध किया है, उसे आप क्षमा करें।'

ऐसा कहकर जाम्बवान् पैरोंमें पड़ गये और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने भगवान्‌को रत्नमय सिंहासनपर विनयपूर्वक बिठाया। फिर शरत्कालके कमलसदृश सुन्दर एवं कोमल चरणोंको उत्तम जलसे पखारकर मधुपर्ककी विधिसे उन यदुश्रेष्ठका पूजन किया। दिव्य वस्त्र और आभूषण भेंट किया। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके अमिततेजस्वी भगवान्‌को अपनी जाम्बवती नामवाली लावण्यमयी कन्या पत्नीरूपसे दान कर दी। साथ ही अन्यान्य श्रेष्ठ मणियाँसहित स्यमन्तकमणि भी दहेजमें दे दी। विपक्षी वीरोंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने वहीं प्रसन्नतापूर्वक जाम्बवतीसे विवाह किया और जाम्बवान्को उत्तम मोक्ष प्रदान किया। फिर जाम्बवतीको साथ ले गुफासे बाहर निकलकर वे द्वारकापुरीको गये। वहाँ पहुँचकर यदुश्रेष्ठ श्रीकृष् समाजको स्यमन्तकमणि दे दी और समाज उसे अपनी कन्या सत्यभामाको दे दिया। भादोंके शुक्लपक्षमें चतुर्थीको चन्द्रमाका दर्शन करनेसे झूठा कलंक लगता है; अतः उस दिन चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये। यदि कदाचित् उस तिथिको चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो इस स्यमन्तकमणिकी कथा सुननेपर मनुष्य मिथ्या कलंक से छूट जाता है। मद्रराजकी तीन कन्याएँ थीं-सुलक्ष्मणा, नग्नजिती और सुशीला इन तीनोंने स्वयंवरमै भगवान् श्रीकृष्णका वरण किया और एक ही दिन भगवान्ने उन तीनोंके साथ विवाह किया। इस प्रकार महात्मा श्रीकृष्णके रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, जाम्बवती नाग्नजिती, सुलक्ष्मणा और सुशीला - ये आठ पटरानियाँ थीं।

नरकासुर नामक एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जो भूमिसे उत्पन्न हुआ था। उसने देवराज इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंको युद्धमें जीतकर देवमाता अदितिके दो तेजस्वी कुण्डल छीन लिये थे। साथ ही देवताओंके भाँति-भाँति रत्न, इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवाघोड़ा, कुबेरके मणिमाणिक्य आदि तथा पद्मनिधि नामक शंख भी ले लिये थे। वह आकाशमें विचरण करनेवाला था और आकाशमें ही नगर बनाकर उसके भीतर निवास करता था। एक दिन सम्पूर्ण देवता उसके भयसे पीड़ित हो शचीपति इन्द्रको आगे करके अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये। श्रीकृष्णने भी नरकासुरकी सारी चेष्टाएँ सुनकर देवताओंको अभयदान दे विनतानन्दन गरुड़का स्मरण किया। सर्वदेववन्दित महाबली गरुड़ उसी समय भगवान्‌के सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गये। भगवान् सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए उस राक्षसके नगरमें गये। जैसे आकाशमें सूर्यका मण्डल देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार उसका नगर भी उद्भासित हो रहा था। उसमें दिव्य आभूषण धारण किये बहुत-से राक्षस निवास करते थे। वह नगर देवताओंके लिये भी दुर्भेद्य था भगवान्ने उसके कई आवरण देख चक्रसे उन्हें काट डाला, ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं। आवरण कट जानेपर समस्त राक्षस शूल उठाये सैकड़ों और हजारोंके झुंड बनाकर युद्धके लिये चले विजयकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर तोमर, भिन्दिपाल और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णपर प्रहार करने लगे । तब भगवान् श्रीकृष्णने भी शार्ङ्गधनुष लेकर उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंको काट डाला तथा अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबका संहार आरम्भ किया। इस प्रकार समस्त राक्षस मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सम्पूर्ण दानवोंका वध करके कमलनयन भगवान् पुरुषोत्तमने पांचजन्य नामक महान् शंख बजाया।

शंखनाद सुनकर पराक्रमी दैत्य नरकासुर दिव्य रथपर आरूढ़ हो भगवान्से युद्ध करनेके लिये आया। उन दोनोंमें अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वे दोनों बरसते हुए मेथोंकी भाँति हजारों बाणोंकी झड़ी लगा रहे थे। इसी बीचमें सनातन भगवान् वासुदेवने अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उस राक्षसका धनुष काट दिया और उसकी छातीपर महान् दिव्यास्त्रका प्रहार किया उससे हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वह महान् असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तबभूमिकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्ण उस राक्षसके समीप गये और बोले—'तुम कोई वर माँगो' यह सुनकर राक्षसने गरुड़पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा "सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीकृष्ण मुझे की कोई आवश्यकता नहीं। फिर भी दूसरे लोगोंके हितके लिये आपसे एक उत्तम वर माँगता हूँ। मधुसूदन! जो मनुष्य मेरी मृत्युके दिन मांगलिक स्नान करें, उन्हें कभी नरककी प्राप्ति न हो।'

'एवमस्तु' कहकर भगवान्ने उसे वह वर दे दिया। नरकासुरने ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंद्वारा पूजित, व एवं वैदूर्यमणिसे बने हुए नूपुरोंसे सुशोभित तथा शरत्कालके खिले हुए कमलसदृश कोमल भगवच्चरणका दर्शन करते हुए अपने प्राणोंका परित्याग किया और श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महर्षि आनन्दमग्न हो भगवान्के ऊपर फूलोंकी वर्षा और स्तुति करने लगे। इसके बाद कमलनयन श्रीकृष्णने नरकासुरके नगरमें प्रवेश किया और उसने बलपूर्वक जो देवताओंका धन लूट लिया था, वह सब उन्हें वापस कर दिया। देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल उच्चैः वा मोड़ा, ऐरावत हाथी और दीप्तिमान् मणिमय पर्वत ये सारी वस्तुएँ भगवान्ने इन्द्रको दे दी। बलवान् नरकासुरने समस्त राजाओंको जीतकर सभी राष्ट्रोंसे जो सोलह हजार कन्याओंका अपहरण किया था, वे सब की सब उसके अन्तः पुरमें कैद थीं। सैकड़ों कामदेवकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले महापराक्रमी श्रीकृष्णको देखकर उन सबने उन्हें अपना पति बना लिया। तब अनन्त रूप धारण करनेवाले भगवान् गोविन्दने एक ही लग्नमें उन सबका पाणिग्रहण किया। नरकासुरके सभी पुत्र पृथ्वीदेवीको आगे करके भगवान् गोविन्दकी शरणमें गये। तब दयानिधान भगवान्ने उन सबकी रक्षा की और पृथ्वीके वचनोंका आदर करते हुए उन्हें नरकासुरके राज्यपर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन सभी सुन्दरी स्त्रियोंको इन्द्रके विमानपर बिठाकर देवदूतोंके साथ द्वारकायें भेज दिया। इसके बाद सत्यभामाके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाताका दर्शन करने के लिये स्वर्गलोकमें गये। अमरावतीपुरीमें पहुँचकरमहाबली श्रीकृष्ण पत्नीसहित गरुड़से उतरे और देवताओंकी वन्दनीया माता अदितिके चरणोंमें उन्होंने प्रणाम किया। पुत्रवत्सला माताने भगवान्‌को दोनों हाथोंसे पकड़कर छातीसे लगा लिया और एक श्रेष्ठ आसनपर बिठाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन किया। तत्पश्चात् आदित्य, वसु, रुद्र और इन्द्र आदि देवताओंने भी परमेश्वरका यथायोग्य पूजन किया। उस समय यशस्विनी सत्यभामा शचीके महलमें गयीं। वहाँ इन्द्राणीने उन्हें सुखमय आसनपर बिठाकर उनका भलीभाँति पूजन किया। उसी समय सेवकोंने इन्द्रकी प्रेरणासे पारिजातके सुन्दर फूल ले जाकर शचीदेवीको भेंट दिये। सुन्दरी शचीने उन फूलको लेकर अपने काले एवं चिकने केशोंमें गूँथ लिया और सत्यभामाकी अवहेलना कर दी। उन्होंने सोचा- 'ये फूल देवताओंके योग्य हैं और सत्यभामा मानुषी हैं, अतः ये इन फूलकी अधिकारिणी नहीं हैं।' ऐसा विचार करके उन्होंने वे फूल सत्यभामाको नहीं दिये।

सत्यभामा क्रोधमें भरकर इन्द्राणीके घरसे चली आर्यों और अपने स्वामीके पास आकर बोलीं 'यदुश्रेष्ठ! उस शचीको पारिजातके फूलोंपर बड़ा घमंड है। उसने मुझे दिये बिना ही सब फूल अपने ही केशों में धारण कर लिये हैं।' सत्यभामाकी यह बात सुनकर महाबली वासुदेवने पारिजातका पेड़ उखाड़ लिया और उसे गरुड़की पीठपर रखकर वे सत्यभामाके साथ द्वारकापुरीकी ओर चल दिये। यह देख देवराज इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ और वे देवताओंको साथ लेकर भगवान् जनार्दनपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, मानो मेघ किसी महान् पर्वतपर जलकी बूँदें बरसा रहे हों। भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और गरुड़जीके पंखोंकी मारसे देवता परास्त हो गये और इन्द्र भयभीत होकर गजराज ऐरावतसे नीचे उतर पड़े तथा गद्गद वाणी से भगवान्की स्तुति करके बोले - ' श्रीकृष्ण यह पारिजात देवताओंके उपभोगमें आनेयोग्य है। पूर्वकालमें आपने ही इसे देवताओंके लिये दिया था। अब यह मनुष्यलोकमें कैसे रह सकेगा?' तब भगवान्ने इन्द्रसे कहा 'देवराज! तुम्हारे घरमें शचीने सत्यभामाका अपमान किया है। उन्होंने इनको पारिजातके फूल न देकर स्वयंही उन्हें अपने मस्तकमें धारण किया है। इसलिये मैंने पारिजातका अपहरण किया है। मैंने सत्यभामासे प्रतिज्ञा की है कि मैं तुम्हारे घरमें पारिजातका वृक्ष लगा दूंगा; अतः आज यह पारिजात तुम्हें नहीं मिल सकता। मैं मनुष्योंके हितके लिये उसे भूतलपर ले जाऊँगा । जबतक मैं वहाँ रहूँगा, मेरे भवनमें पारिजात भी रहेगा। मेरे परमधाम पधारनेपर तुम अपनी इच्छाके अनुसार इसे ले लेना। इन्द्रने भगवान्‌को नमस्कार करके कहा'अच्छा, ऐसा ही हो।' यों कहकर वे देवताओंके साथ अपनी पुरीमें लौट गये और भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामादेवीके साथ गरुड़पर बैठकर द्वारकापुरीमें चले आये। उस समय मुनिगण उनकी स्तुति करते थे। सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरि सत्यभामाके निकट देववृक्ष पारिजातकी स्थापना करके समस्त भार्याओंके साथ विहार करने लगे। विश्वरूपधारी मधुसूदन रात्रिमें इन सभी पत्नियोंके घरोंमें रहकर उन्हें सुख प्रदान करते थे।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार