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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 258 - Khand 5, Adhyaya 258

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भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारदजी मथुरामें कंसके पास गये। राजा कंसने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्हें सुन्दर आसनपर बिठाया। नारदजीने कंससे भगवान् विष्णुकी सारी चेष्टाएँ कहीं। देवताओंका करना, भगवान् केशवका अवतार लेना, वसुदेवका अपने पुत्रको व्रजमें रख आना, राक्षसोंका मारा जाना, नागराज कालियका यमुनाके कुण्डसे बाहर निकाला जाना, गोवर्धन धारण करना और इन्द्रका भगवान्से मिलना आदि सभी मुख्य मुख्य घटनाओंको उन्होंने कंससे निवेदन किया। यह सब सुनकर राक्षस कंसने नारदजीका बड़ा आदर किया। उसके बाद वे ब्रह्मलोकमें चल गये। इधर कंसके मनमें बड़ा उद्वेग हुआ। वह मन्त्रियोंके साथ बैठकर मृत्युसे बचनेके विषयमें परामर्श करने लगा। उसके मन्त्रियोंमें अक्रूर सबसे अधिक बुद्धिमान् और धर्मानुरागी थे। महाबली दानवराज कंसने अक्रूरको आज्ञा दी।

कंस बोला - यदुश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे भयसे पीड़ित हो श्रीविष्णुकी शरणमें गये थे। भूतभावन भगवान् मधुसूदन उन देवताओंको अभयदान दे मुझे मारनेके लिये देवकीके गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। वसुदेव भी ऐसा दुष्टात्मा है कि मुझे धोखा देकर रात में वह अपने पुत्रको दुरात्मा नन्दके घरमें रख आया। वह बालक बचपन से ही ऐसा दुर्धषं है कि बड़े-बड़े असुर उसके हाथसे मारे गये। यदि ऐसी ही उसकी प्रगति रही तो एक दिन वह मुझे भी मारनेके लिये तैयार हो जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि व्रजमें उसे इन्द्र आदि देवता तथा समस्त असुर भी नहीं मार सकते; अतः मुझे उसको यहाँ बुलवाकर किसी विशेष उपायसे ही मारना चाहिये। मतवाले हाथी, बड़े-बड़े पहलवान तथा श्रेष्ठ घोड़े आदिसे उसका वध कराना चाहिये। जिस-किसी उपायसे सम्भव हो, उसे यहीं बुलाकर मारा जा सकता है, अन्यत्र नहीं। इसलिये तुम गौओके व्रजमें जाकर बलराम, श्रीकृष्ण तथा नन्द आदि सम्पूर्ण ग्वालोंकोधनुष-यज्ञका मेला देखनेके बहाने यहाँ बुला ले आओ।' 'बहुत अच्छा' कहकर परम पराक्रमी यदुश्रेष्ठ अक्रूर रथपर आरूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्णकेदर्शनके लिये उत्सुक होकर गौओंके रमणीय व्रजमें गये। अक्रूरजी महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने अत्यन्त विनीतभावसे गौओंके बीचमें खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन किया। गोप कन्याओंसे घिरे हुए श्रीहरिको देखकर अक्रूरजीका सारा शरीर रोमांचित हो उठा। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने रथसे उतरकर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। वे बड़े हर्ष के साथ भगवान् गोपालके समीप गये और वज्र तथा चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित लाल कमलसदृश उनके मनोहर चरणोंमें मस्तक रखकर उन्होंने बारंबार नमस्कार किया। तत्पश्चात् उनकी दृष्टि कैलासशिखरके समान गौरवर्णवाले नीलाम्बरधारी बलरामजीपर पड़ी, जो मोतियोंकी मालासे विभूषित होकर शरत्कालके पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे अक्रूरजीने उनको भी प्रणाम किया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्णने भी बड़े हर्षके साथ उठकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरका पूजन किया और उनको साथ लेकर वे दोनों भाई घरपर आये। यदुश्रेष्ठ अक्रूरको आया देख महातेजस्वी नन्दगोपने निकट जाकर उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बिठाया और बड़ी प्रसन्नता के साथ विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, वस्त्र तथा दिव्य आभूषण आदि निवेदन करके भक्तिभावसे उनका पूजन किया। अक्रूरजीने भी बलराम, श्रीकृष्ण, नन्दजी तथा यशोदाको वस्त्र और आभूषण भेंट किये। फिर कुशल पूछकर शान्तभावसे वे कुशके आसनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् राजकार्यके विषयमें प्रश्न होनेपर बुद्धिमान् अक्रूरने इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

अक्रूर बोले- नन्दरायजी! ये महातेजस्वी श्रीकृष्ण साक्षात् अविनाशी भगवान् नारायण हैं देवताओंका हित, साधु पुरुषोंकी रक्षा, पृथ्वीके भारका नाश, धर्मकी स्थापना तथा कंस आदि सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करनेके लिये इनका अवतार हुआ है। उक्त कार्योंके लिये समस्त देवताओं तथा महात्मा मुनियोंने इनसे प्रार्थना की थी। उसीके अनुसार ये वर्षाकालमें आधी रातके समय देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। उस समय वसुदेवजीने कंसके भयसे रातमें ही अपने पुत्र भगवान् श्रीहरिको तुम्हारे घरमें पहुँचा दिया। उसी समय यशस्विनीयशोदाको भी मायाके अंशसे एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई थी उसीने सम्पूर्ण ब्रजको नींदमें बेसुध कर दिया था यशोदाजी भी मूर्च्छितावस्थामें पड़ी थीं। वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाकी शय्यापर सुला दिया और स्वयं उस कन्याको लेकर वे मथुराकी ओर चल दिये। कन्याको देवकीकी शय्यापर रखकर ये प्रसवघरसे बाहर निकल गये। देवकीकी शय्यापर सोयी हुई कन्या शीघ्र ही रोने लगी। उसका जन्म सुनकर दानव कंस सहसा आ पहुँचा और उसने कन्याको लेकर घुमाते हुए पत्थरपर पटक दिया। परन्तु वह कन्या आकाशमें उड़ गयी और आठ भुजाओंसे युक्त हो गम्भीर वाणीमें कंससे रोषपूर्वक बोली- ओ नीच दानव! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर और पुरुषोत्तम हैं, वे तुम्हारा वध करनेके लिये व्रजमें जन्म ले चुके हैं।' यो कहकर महामाया हिमालय पर्वतपर चली गयी। तभी से वह दुष्टात्मा भयसे उद्विग्न हो गया और महात्मा श्रीकृष्णको मारनेके लिये एक-एक करके दानवोंको भेजने लगा। बालक होनेपर भी बुद्धिमान् श्रीकृष्णने खेल-खेल में ही सब दानवोंको मौतके घाट उतार दिया है। इन परमेश्वरने अनेक अद्भुत कर्म किये हैं। गोवर्धन-धारण, नागराज कालियका निर्वासन, इन्द्रसे समागम और सम्पूर्ण राक्षसों का संहार आदि सारे कर्म श्रीकृष्णके ही किये हुए है; यह बात नारदजीके मुँहसे सुनकर कंस अत्यन्त भयसे व्याकुल हो उठा है। महाबाहु बलराम और श्रीकृष्ण बड़े दुर्धर्ष बीर हैं: इसलिये इन दोनोंको वहीं बुलाकर वह बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवा डालना चाहता है अथवा पहलवानोंको भिड़ाकर इन्हें मार डालनेको उद्यत है। श्रीकृष्णको बुला लानेके लिये ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। यही सब उस दुष्ट दानवकी चेष्टा है, जिसे मैंने बता दिया। अब आप समस्त व्रजवासी दही-घी आदि लेकर कल सवेरे धनुषयका उत्सव देखनेके लिये मथुरामे चलें बलराम श्रीकृष्ण और समस्त गोपको राजाके पास चलना है। वहाँ निश्चय ही कंस श्रीकृष्णके हाथसे मारा जायगा; अतः आपलोग राजाकी आज्ञासे निर्भय होकर वहाँ चलिये।

इतना कहकर बुद्धिमान् अक्रूर चुप हो गये।उनकी बातें बड़ी ही भयंकर और रोंगटे खड़े कर देनेवाली थीं। उन्हें सुनकर नन्द आदि समस्त बड़े-बूढ़े गोप भयसे व्याकुल हो दुःखके महान् समुद्रमें डूब गये। उस समय कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको आश्वासन देकर कहा- 'आपलोग भय न करें। मैं दुरात्मा कंसका विनाश करनेके लिये भैया बलरामजी तथा आपलोगोंके साथ मथुरा चलूँगा। वहाँ दानवराज दुरात्मा कंसको और उसके साथ रहनेवाले समस्त राक्षसोंको मारकर इस पृथ्वीकी रक्षा करूँगा। अतः आपलोग शोक छोड़कर मथुरापुरीको चलिये।' श्रीहरिके ऐसा कहनेपर नन्द आदि गोपने बारंबार छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा । उन महात्माके अलौकिक कर्मोपर विचार करके तथा अक्रूरजीकी बातोंको सुनकर उन सबकी चिन्ता दूर हो गयी। तत्पश्चात् यशोदाने अक्रूरको दही, दूध, घी आदिसे युक्त भाँति-भाँति के पवित्र स्वादिष्ट, मधुर और रुचिकर पक्वान्न परोसकर भोजन कराया। उनके साथ बलराम, श्रीकृष्ण, नन्द आदि श्रेष्ठ गोप, अनेकों सुहृद्, बालक और वृद्ध भी थे। यशोदाजीके दिये हुए रुचिवर्धक उत्तम अन्नको यादवश्रेष्ठ अक्रूरजीने बड़े प्रेमसे खाया। भोजन करानेके पश्चात् नन्दरानीने जल देकर आचमन कराया और अन्तमें कपूरसहित पानका बीड़ा दिया। फिर सूर्यास्त होनेपर अरजीने सन्ध्योपासना की। उसके बाद बलराम और श्रीकृष्णके साथ खीर खाकर वे उन्हींके साथ शयन करनेके लिये गये। दीपकके प्रकाशसे सुशोभित श्रेष्ठ एवं रमणीय भवनमें विचित्र पलंग बिछा था। स्वच्छ सुन्दर बिछावन पर भाँति-भाँतिके फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस पलंगपर भगवान् श्रीकृष्ण सोते थे, मानो शेषनागकी शय्यापर श्रीनारायण शयन करते हों।

भगवान्‌को शयन करते देख सहसा अक्रूरके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक पड़े। उनका सारा शरीर पुलकित हो उठा। उन्होंने तमोगुणी निद्राको त्याग दिया। वे भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ तो थे ही, अपने परम कल्याणका विचार करके भगवान्के चरण दबाने लगे। उस समय वे मन-ही-मन सोच रहे थे— 'इसीमें मेरे जीवनकी सफलता है। यही जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन है। यही धर्म तथा यही सर्वश्रेष्ठ मोक्षसुख है। शिव और ब्रह्माआदि देवता, सनकादि मुनीश्वर तथा वसिष्ठ आदि महर्षि जिनका दर्शन करना तो दूर रहा, मनसे स्मरण भी नहीं कर पाते, वे ही भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरण इस समय मुझे प्राप्त हुए हैं। अहो मेरा कितना सौभाग्य है? ये दोनों चरण शरत्कालके खिले हुए कमलकी भाँति सुन्दर हैं। भगवती लक्ष्मी अपने कोमल एवं चिकने हाथोंसे इनकी सेवा करती हैं। ये चरण परम उत्तम सुखस्वरूप हैं।' इस प्रकार भगवान्की सेवामें लगे हुए अक्रूरजीकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। उस समय वे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। तदनन्तर निर्मल प्रभात होनेपर देवगण आकाशमें खड़े हो भगवान्की स्तुति करने लगे। तब भगवान् शयनसे उठे । उठकर विधिपूर्वक आचमन किया। फिर परम बुद्धिमान् बलरामजीके साथ जाकर माताके चरणोंमें नमस्कार किया और मथुरा जानेकी इच्छा प्रकट की। यशोदाजी दुःख और हर्षमें दूबी हुई थीं। उन्होंने दोनों पुत्रोंको उठाकर बड़े प्रेमके साथ छातीसे लगा लिया। उस समय उनके आँसुओंकी धारा बह रही थी। उन्होंने दोनों महावीर पुत्रोंको आशीर्वाद दिया और बार-बार हृदयसे लगाकर विदा किया। अक्रूरने भी हाथ जोड़कर यशोदाजीके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- 'महाभागे ! अब मैं जाऊँगा मुझपर कृपा करो ये महाबाहु श्रीकृष्ण महाबली कंसको मारकर सम्पूर्ण जगत्के राजा होंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः देवि! तुम शोक छोड़कर सुखी होओ।'

ऐसा कहकर अक्रूरजी नन्दरानीसे विदा ले बलराम और श्रीकृष्णके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हुए और तीव्र गतिसे मथुराकी ओर चले। उनके पीछे नन्द आदि बड़े बूढ़े गोप भाँति-भाँतिके फल तथा बहुत से दही घी आदि लेकर गये। श्रीहरिको रथपर बैठकर जसे जाते देख समस्त गोपांगनाएँ भी उनके पीछे-पीछे चलीं। उनका हृदय शोक सन्तप्त हो रहा था। वे 'हा कृष्ण! कृष्ण हा गोविन्द' कहकर बारंबार रोती और विलाप करती थीं। श्रीहरिने उन सबको समझा-बुझाकर लौटाया। उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे। वे दीनभावसे । रोती हुए खड़ी रहीं। इसके बाद अक्रूरजीने अपने दिव्य रथको व्रजसे मथुराकी ओर बढ़ाया। शीघ्र ही यमुनाके |पार होकर उन्होंने रथको किनारे खड़ा कर दिया और स्वयं उससे उतरकर वे स्नान तथा अन्य आवश्यक कृत्य करनेकी तैयारी करने लगे। भक्तप्रवर अक्रूरने यमुनाके उत्तम जलमें जाकर डुबकी लगायी और अघमर्षण मन्त्रका जप आरम्भ किया। उस समय उन्हें श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण दोनों ही जलके भीतर दिखायी दिये। उन्हें देखकर अक्रूरजीको बड़ा विस्मय हुआ तब उन्होंने उठकर रथकी ओर देखा; किन्तु वहाँ भी वे दोनों महाबली वीर बैठे दृष्टिगोचर हुए तब पुनः जलमें डुबकी लगाकर वे युगल मन्त्रका जप करने लगे। उस समय उन्हें क्षीरसागरमें शेषनागकी शय्यापर बैठे हुए लक्ष्मीसहित श्रीहरिका दर्शन हुआ सनकादि मुनि उनकी स्तुति कर रहे थे और सम्पूर्ण देवता सेवामें खड़े थे इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वरको देखकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरने उनका स्तवन किया। स्तुति करनेके पश्चात् सुगन्धित कमलपुष्पोंसे भगवान्‌का पूजन किया और अपनेको कृतकृत्य मानते हुए वे यमुनाजलसे बलराम और श्रीकृष्णके समीप आये। वहाँ आकर अक्रूरजीने उन दोनों भाइयोंको भी प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें आश्चर्यमग्न और विनीतभावसे खड़ा देख पूछा- 'कहिये अक्रूरजी! आपने जलमें कौन-सी आश्चर्यको बात देखी है?' वह सुनकर अक्रूरजीने महातेजस्वी श्रीकृष्णसे कहा-'प्रभो! आप सर्वत्र व्यापक हैं। आपकी महिमासे क्या आश्चर्यकी बात हो सकती है। इषीकेश! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीका तो स्वरूप है।' इस प्रकार स्तुति करके जगदीश्वर गोविन्दको प्रणाम कर अक्रूरजी उन दोनों भाइयोंके साथ पुनः दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही देवनिर्मित मथुरापुरीमें जा पहुँचे। वहाँ नगरद्वारपर बलराम और श्रीकृष्णको बिठाकर वे अन्तःपुरमें गये और राजा कंससे उनके आगमनका समाचार सुनाकर उसके द्वारा सम्मानित हो पुनः अपने घरको चले गये।

तदनन्तर सन्ध्याके समय महाबली बलराम और श्रीकृष्ण एक-दूसरेका हाथ पकड़े मथुरापुरीके भीतर गये। ये दोनों राजमार्गसे जा रहे थे इतनेहीमें उनकी दृष्टि कपड़ा रंगनेवाले एक रंगरेजपर पड़ी, जो दिव्य वस्त्र लिये राजभवनकी ओर जा रहा था बलरामसहित परमपराक्रमी श्रीकृष्णने उन वस्त्रोंको अपने लिये माँगा किन्तु रंगरेजने वे वस्त्र उन्हें नहीं दिये। इतना ही नहीं, उसने सड़क पर खड़े होकर उन्हें बहुत से कटुवचन भी सुनाये। तब महाबली श्रीकृष्णने रंगरेजके मुँहपर एक तमाचा जड़ दिया। फिर तो वह मुँहसे रक्त वमन करता हुआ मार्गमें ही मर गया। बलराम और श्रीकृष्णने अपने बन्धु बान्धव ग्वाल-बालोंके साथ उन सुन्दर वस्त्रोंको यथायोग्य धारण किया। फिर वे मालीके घरपर गये। उसने उन्हें देखते ही नमस्कार किया और दिव्य सुगन्धित पुष्पोंसे प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की। तब उन दोनों यादव- वीरोंने मालीको मनोवांछित वरदान दिया। अब वे गलीकी राहसे घूमने लगे। सामनेसे एक सुन्दर मुखवाली युवती आती दिखायी दी, जो हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए थी। वह स्त्री कुब्जा थी। उन दोनों भाइयोंने उससे चन्दन माँगा कुब्जाने मुसकराते हुए उन्हें उत्तम चन्दन प्रदान किया। चन्दन लेकर उन्होंने इच्छानुसार अपने शरीरमें लगाया और कुब्जाको परम मनोहर रूप देकर वे आगे के मार्गपर बढ़ गये। नगरकी स्त्रियाँ सुन्दर मुखवाले उन दोनों सुन्दर कुमारोंको प्रेमपूर्वक निहारती थीं। इस प्रकार ये अपने अनुयायियोंसहित यज्ञशालामें पहुँचे। वहाँ दिव्य धनुष रखा था। उसकी पूजा की गयी थी। भगवान् मधुसूदनने देखते ही उस धनुषको उठा लिया और खेल-खेल ही उसे तोड़ डाला। धनुष टूटनेकी आवाज सुनकर कंस अत्यन्त व्याकुल हो उठा और उसने चाणूर आदि मुख्य-मुख्य मल्लोंको बुलाकर मन्त्रियोंकी सलाह ले चाणूरसे कहा-'देखो, सब दैत्योंका विनाश करनेवाले बलराम और श्रीकृष्ण आ पहुँचे हैं। कल सबेरे मल्लयुद्ध करके इन दोनोंको बेखटके मार डालो। इन दोनोंको अपने बलपर बड़ा घमण्ड है मतवाले हाथियोंको भिड़ाकर अथवा बड़े-बड़े पहलवानोंको लगाकर जिस किसी उपायसे भी हो सके इन दोनोंको यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये।' इस प्रकार आदेश देकर राजा कंस भाई और मन्त्रियोंके साथ शीघ्र ही सुन्दर राजभवनको छतपर चढ़ गया। नीचे रहनेमें उसे भय लग रहा था। सम्पूर्ण दरवाजों और मार्गोपर उसने मतवाले हाथियोंको नियुक्तकर दिया और सब ओर बड़े-बड़े बलोन्मत्त पहलवान बिठा दिये। यह सब कुछ जानते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण परम बुद्धिमान् बलरामजी तथा अपने अनुयायी ग्वाल-बालोंके साथ रातभर उस यज्ञशालामें ही ठहरे रहे। रात बीतनेपर जब निर्मल प्रभात आया तो बलराम और श्रीकृष्ण दोनों वीर शय्यासे उठकर स्नान आदिसे निवृत्त हुए। फिर भोजन करके वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित हो युद्धके लिये उत्सुक होकर वे उस शाला चले मानो दो सिंह किसी बड़ी गुफासे बाहर निकले हों। राजमहलके दरवाजेपर कुवलयापीड़ हाथी खड़ा था, जो हिमालय पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वही कंसकी विजयाभिलाषाको बढ़ानेवाला था। उसने ऐरावतके भी दाँत खट्टे कर दिये थे। उस महाकाय और मतवाले गजराजको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण सिंहकी भाँति उछल पड़े और अपने हाथसे उसकी सैंड पकड़कर वे लीलापूर्वक उसे घुमाने लगे। घुमाते घुमाते ही भगवान् धरणीधरने उसे धरतीपर पटक दिया। हाथीका सारा अंग चूर-चूर हो गया और वह डरावनी आवाजमें चिग्घाड़ता हुआ मर गया। इस प्रकार हाथीको मारकर बलराम और श्रीकृष्णने उसके दोनों दाँत उखाड़ लिये और पहलवानोंसे युद्ध करनेके लिये वे रंगभूमिमें पहुँचे। वहाँ जितने दानव थे, वे सब गोविन्दका पराक्रम देख भयभीत हो भाग खड़े हुए। तब कंसके भवनमें प्रवेश करके वे महाबली वीर युद्धके लिये उत्कण्ठित हो हाथीके दाँत घुमाने लगे। वहाँ उन महात्माओंने कंसके दो मल्ल चाणूर और मुष्टिकको उपस्थित देखा। कंस भी महाबली बलराम और गोविन्दको देखकर भयभीत हो उठा तथा अपने प्रधान मल्ल चाणूरसे बोला 'वीर! इस समय तुम इन ग्वाल-बालोंको अवश्य मार डालो। मैं तुम्हें अपना आधा राज्य बाँटकर दे दूंगा।' उस समय उन दोनों मल्लोंको भगवान् श्रीकृष्ण 'अभेद्य कवचसे युक्त और दूसरे मेरुपर्वतके समान विशालकाय दिखायी दिये। कंसकी दृष्टिमें प्रलयकालीन अग्नि-से जान पड़े। स्त्रियोंको साक्षात् कामदेव प्रतीत हुए माता-पिताने उन्हें नन्हें शिशुके रूपमें ही देखा। देवताओंकी दृष्टिमें वे साक्षात् श्रीहरि थे और ग्वाल बाल उन्हें अपना प्यारा सखा ही समझते थे। इस प्रकारउन सर्वव्यापक भगवान् विष्णुको वहाँके लोगोंने अपने-अपने भावोंके अनुसार अनेक रूपोंमें देखा। वसुदेव, अक्रूर और परम बुद्धिमान् नन्द दूसरे कोठेपर चढ़कर वहाँका महान् युद्ध देख रहे थे। देवकी अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ बैठकर बेटेका मुँह निहार रही थीं। उस समय उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे स्त्रियोंने उन्हें बहुत समझाया और आश्वासन दिया। तब वे किसी दूसरे भवनमें चल गयीं। तदनन्तर विमानपर बैठे हुए देवता आकाशमें जय-जयकार करते हुए कमलनयन भगवान् अच्युतकी स्तुति करने लगे। वे जोर-जोरसे कहते थे-'भगवन्! कंसका वध कीजिये ।' इसी समय रंगभूमिमें तुरही आदि बाजे बज उठे।

कंसके दोनों महामल्लों और महाबली श्रीकृष्ण एवं बलराममें भिड़ंत हो गयी। चाणूरके साथ भगवान् श्रीकृष्ण और मुष्टिकके साथ बलरामजी भिड़ गये। नीलगिरि तथा श्वेतगिरिके समान कान्तिवाले दोनों महात्मा मल्लयुद्धकी रीति-नीतिके अनुसार लड़ने लगे। वे एक-दूसरेको कभी मुक्कोंसे मारते और कभी ताल ठोंकते थे। उनमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ, जो देवताओंको भी भयभीत कर देनेवाला था। भगवान् श्रीकृष्णने चाणूरके साथ बहुत देरतक खेल करके उसके शरीरको रगड़ डाला और फिर लीलापूर्वक पृथ्वीपर दे मारा। देवताओं और दानवोंको भी दुःख देनेवाला वह महामल्ल बहुत रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर गिरा और मर गया। इसी प्रकार पराक्रमी बलरामजी भी मुष्टिकके साथ देरतक लड़ते रहे। अन्तमें उन्होंने उसकी छातीमें कई मुक्के जड़ दिये। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और स्नायु बन्धन टूट गया। फिर तो वह भी प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उन दोनों भाइयोंका यह पराक्रम देख बाकी सारे पहलवान भाग गये। यह देखकर कंसको बड़ा भय हुआ। वह वेदनासे व्याकुल हो उठा। इसी बीचमें दुर्धर्ष वीर बलराम और श्रीकृष्ण कंसके ऊंचे महलपर चढ़ गये। फिर भगवान् श्रीकृष्णने कंसकेमस्तकमें थप्पड़ मारकर उसे छतसे नीचे गिरा दिया। पृथ्वीपर गिरते ही उसका सारा अंग छिन्न-भिन्न हो गया और वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा। फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा कंसका और्ध्वदेहिक संस्कार कराया। श्रीकृष्णके द्वारा कंसके मारे जानेपर महाबली बलरामजीने भी कंसके छोटे भाई सुनामाको मुक्केसे ही मार डाला और उसे उठाकर धरतीपर फेंक दिया।

इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलरामजी भाईसहित दुरात्मा कंसको मारकर अपने माता-पिताके समीप आये और बड़ी भक्तिके साथ उन्होंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। देवकी और वसुदेवने बड़े प्रेमसे उन दोनोंको बारंबार छाती से लगाया और पुत्रस्नेहसे द्रवित हो उनका मस्तक सूँघा । देवकीके दोनों स्तनोंसे उनके ऊपर दूधकी वृष्टि होने लगी। तत्पश्चात् बलराम और श्रीकृष्ण माता-पिताको आश्वासन दे बाहर आये। इसी समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवेश्वरगण फूलोंकी वर्षा करने लगे। तथा मरुद्गणके साथ श्रीजनार्दनको नमस्कार और उनकी स्तुति करके हर्षमग्न हो अपने-अपने लोकको चले गये। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ जाकर नन्दरायजी तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको नमस्कार किया। धर्मात्मा नन्दने बड़े स्नेहसे उन दोनोंको गले लगा लिया। फिर भगवान् जनार्दनने उन सबको बहुत से रत्न और धन भेंट किये। नाना प्रकारके वस्त्र, आभूषण तथा प्रचुर धन-धान्य देकर उन सबका पूजन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णके विदा करनेपर नन्द आदि गोप हर्ष और शोकमें डूबे हुए वहाँसे व्रजमें लौट गये। इसके बाद बलराम और श्रीकृष्णने अपने नाना उग्रसेनजीके पास जाकर उन्हें बन्धनसे मुक्त किया और बारंबार सान्त्वना दे मथुराके राज्यपर उनका अभिषेक कर दिया। अक्रूर आदि जितने श्रेष्ठ यदुवंशी थे, उन सबको राज्यमें | विशेष पदपर स्थापित किया और उग्रसेनको राजा बनाकर परम धर्मात्मा भगवान् वासुदेव धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करने लगे।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार