महादेवजी कहते हैं— देवि! एक समयकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकासे मथुरामें आये और वहाँसे यमुना पार करके नन्दके व्रजमें गये। वहाँ उन्होंने अपने पिता नन्दजी तथा यशोदा मैयाको प्रणाम करके उन्हें भलीभाँति सान्त्वना दी, फिर पिता-माताने भी उन्हें छाती से लगाया। इसके बाद वे बड़े-बड़े गोपसे मिले। उन सबको आश्वासन दिया तथा बहुत से वस्त्र और आभूषण आदि भेंटमें देकर वहाँ रहनेवाले सब लोगोंको सन्तुष्ट किया ।
तत्पश्चात् पावन वृक्षोंसे भरे हुए यमुनाके रमणीय तटपर गोपांगनाओंके साथ श्रीकृष्णने तीन राततक वहाँ सुखपूर्वक निवास किया। उस समय उस स्थानपर अपने पुत्रों और स्त्रियाँसहित नन्दगोप आदि सब लोग, यहाँतक कि पशु, पक्षी और मृग आदि भी भगवान् वासुदेवकी कृपासे दिव्य रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हुए और परम धाम- वैकुण्ठलोकको चले गये। इस प्रकार नन्दके व्रजमें निवास करनेवाले सब लोगोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण देवियों और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए शोभा सम्पन्न द्वारकापुरीमें आये।
वहाँ वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव प्रतिदिन उनकी पूजा करते थे तथा वे विश्वरूपधारी भगवान् दिव्य रत्नोंद्वारा बने लतागृहों में पारिजात-पुष्प बिछाये हुए मृदुल पलंगोंपर शयन करके अपनी सोलह हजार आठ रानियोंके साथ विहार किया करते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंका हित और समस्त भूभारका नाश करनेके लिये भगवान् यदुवंशमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने सभी राक्षसोंका संहार करके पृथ्वीके महान् भारको दूर किया तथा नन्दकेव्रज और द्वारकापुरीमें निवास करनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको भवबन्धनसे मुक्त करके उन्हें योगियोंके ध्येयभूत परम सनातन धाममें स्थापित कर दिया।
तदनन्तर वे स्वयं भी अपने परम धामको पधारे। पार्वतीने कहा- भगवन्! वैष्णवोंका जो यथार्थ धर्म है, जिसका अनुष्ठान करके सब मनुष्य भवसागर से पार हो जाते हैं, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
महादेवजीने कहा- देवि ! प्रथम वैष्णवोंकी द्वादश प्रकारकी शुद्धि बतायी जाती है। भगवान्के मन्दिरको लीपना, भगवान्की प्रतिमाके पीछे-पीछे जाना तथा भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा करना-ये तीन कर्म चरणोंकी शुद्धि करनेवाले हैं। भगवान्की पूजाके लिये भक्तिभावके साथ पत्र और पुष्पोंका संग्रह करना यह हाथोंकी शुद्धिका उपाय है। यह शुद्धि सब प्रकारकी शुद्धियोंसे बढ़कर है। भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके नाम और गुणोंका कीर्तन वाणीकी शुद्धिका उपाय बताया गया है। उनकी कथाका श्रवण और उत्सवका दर्शन-ये दो कार्य क्रमशः कानों और नेत्रोंकी शुद्धि करनेवाले कहे गये हैं। मस्तकपर भगवान्का चरणोदक, निर्माल्य तथा माला धारण करना-ये भगवान्के चरणोंमें पड़े हुए पुरुषके लिये सिरको शुद्धिके साधन हैं। भगवान्के निर्माल्यभूत पुष्प आदिको सूँघना अन्तःशुद्धि तथा घ्राणशुद्धिका उपाय माना गया है। श्रीकृष्णके युगल चरणोंपर चढ़ा हुआ पत्र-पुष्प आदि संसारमें एकमात्र पावन है, वह सभी अंगोंको शुद्ध कर देता है।
भगवान की पूजा पाँच प्रकारकी बतायी गयी है; उन पाँचों भेदोंको सुनो-अभिगमन, उपादान, योग, स्वाध्याय और इज्या—ये ही पूजाके पाँच प्रकार हैं: अब तुम्हें इनका क्रमशः परिचय दे रहा हूँ। देवताके स्थानकोझाड़-बुहारकर साफ करना, उसे लीपना तथा पहलेके चढ़े हुए निर्माल्यको दूर हटाना - 'अभिगमन' कहलाता है। पूजाके लिये चन्दन और पुष्पादिके संग्रहका नाम 'उपादान' है। अपने साथ अपने इष्टदेवकी आत्मभावना करना अर्थात् मेरा इष्टदेव मुझसे भिन्न नहीं है, वह मेरा ही आत्मा है; इस तरहकी भावनाको दृढ़ करना 'योग' कहा गया है। इष्टदेवके मन्त्रका अर्थानुसन्धानपूर्वक जप करना 'स्वाध्याय' है। सूक्त और स्तोत्र आदिका पाठ, भगवान्का कीर्तन तथा भगवत्तत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका अभ्यास भी 'स्वाध्याय' कहलाता है। अपने आराध्यदेवकी यथार्थ विधिसे पूजा करनेका नाम 'इज्या' है। सुव्रते! यह पाँच प्रकारकी पूजा मैंने तुम्हें बतायी। यह क्रमशः साष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य नामक मुक्ति प्रदान करनेवाली है।
अब प्रसंगवश शालग्राम शिलाकी पूजाके सम्बन्धर्मे कुछ निवेदन करूँगा। चार भुजाधारी भगवान् विष्णुके दाहिनी एवं ऊर्ध्वभुजाके क्रमसे अस्त्रविशेष ग्रहण करनेपर केशव आदि नाम होते हैं अर्थात् दाहिनी ओरका ऊपरका हाथ, दाहिनी ओरका नीचेका हाथ, बार्थी ओरका ऊपरका हाथ और बायीं ओरका नीचेका हाथ इस क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र आदि आयुधों को क्रम वा व्यतिक्रमपूर्वक धारण करनेपर भगवान्की भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ होती हैं। उन्हीं संज्ञाओंका निर्देश करते हुए यहाँ भगवान्का पूजन बतलाया जाता है। उपर्युक्त क्रमसे चारों हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले विष्णुका नाम 'केशव' है। पद्म, गदा, चक्र और शंखके क्रमसे शस्त्र धारण करनेपर उन्हें 'नारायण' कहते हैं। क्रमशः चक्र, शंख, पद्म और गदा ग्रहण करनेसे वे 'माधव' कहलाते हैं। गदा, पद्म, शंख और चक्र - इस क्रमसे आयुध धारण करनेवाले भगवान्का नाम 'गोविन्द' है। पद्म, शंख, चक्र और गदाधारी विष्णुरूप भगवान्को प्रणाम है। शंख, पद्म, गदा और चक्र धारण करनेवाले मधुसूदन-विग्रहको नमस्कार है। गदा, चक्र, शंख और पद्मसे युक्तत्रिविक्रमको तथा चक्र, गदा, पद्म और शंखधारी वामनमूर्तिको प्रणाम है। चक्र, पद्म, शंख और गदा धारण करनेवाले श्रीधररूपको नमस्कार है। चक्र, गदा, शंख तथा पद्मधारी हृषीकेश! आपको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्र ग्रहण करनेवाले पद्मनाभविग्रहको नमस्कार है। शंख, गदा, चक्र और पद्मधारी दामोदर! आपको मेरा प्रणाम है। शंख, कमल, चक्र तथा गदा धारण करनेवाले संकर्षणको नमस्कार है। चक्र, शंख गदा तथा पद्मसे युक्त भगवान् वासुदेव! आपको प्रणाम है। शंख, चक्र, गदा और कमल आदिके द्वारा प्रद्युम्नमूर्ति धारण करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। गदा, शंख, कमल तथा चक्रधारी अनिरुद्धको प्रणाम है। पद्म, शंख, गदा और चक्रसे चिलित पुरुषोत्तमरूपको नमस्कार है। गदा, शंख, चक्र और पद्म ग्रहण करनेवाले अधोक्षजको प्रणाम है। पद्म, गदा, शंख और चक्र धारण करनेवाले नृसिंह भगवान्को नमस्कार है। पद्म, चक्र, शंख और गदा लेनेवाले अच्युतस्वरूपको प्रणाम है। गदा, पद्म, चक्र और शंखधारी श्रीकृष्णविग्रहको नमस्कार है।
जिस शालग्राम शिलामें द्वार स्थानपर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्लवर्णकी रेखासे अंकित और शोभासम्पन्न दिखायी देती हो, उसे भगवान् श्रीगदाधरका स्वरूप समझना चाहिये। संकर्षणमूर्तिमें दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। प्रद्युम्नके स्वरूपमें कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्रका चिह्न सूक्ष्म रहता है। अनिरुद्धकी मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भागमें गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वारभागमें नीलवर्ण और तीन रेखाओंसे युक्त भी होती है भगवान् नारायण श्यामवर्णके होते हैं, उनके मध्यभागमै गदाके आकारकी रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। भगवान् नृसिंहकी मूर्ति चक्रका स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच विन्दुओंसे युक्त होते हैं। ब्रह्मचारीके लिये उन्हींका पूजन विहित है। वे भोंकी रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालग्राम शिलामें दो चक्रकेचिह्न विषमभावसे स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराहभगवान्का स्वरूप हैं, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान् वाराह भी सबकी रक्षा करनेवाले हैं। कच्छपकी मूर्ति श्यामवर्णकी होती है। उसका आकार पानीकी भँवरके समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र विन्दुओंके चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठभाग श्वेत रंगका होता है। श्रीधरको मूर्तिमें पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमालीके स्वरूपमें गदाका चिह्न होता है। गोल आकृति, मध्यभागमें चक्रका चिन तथा नीलवर्ण, यह वामनमूर्तिकी पहचान है। जिसमें नाना प्रकारको अनेकों मूर्तियों तथा सर्प शरीरके चिह्न होते हैं, वह भगवान् अनन्तकी प्रतिमा है। दामोदरकी मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्णकी होती है। उसके मध्यभागमें चक्रका चिह्न होता है। भगवान् दामोदर नील चिह्नसे युक्त होकर संकर्षणके द्वारा जगत्की रक्षा करते हैं। जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदिसे युक्त एवं स्थूल है, उस शालग्रामको ब्रह्माकी मूर्ति समझनी चाहिये। जिसमें वृहत् छिद्र, स्थूल चक्रका चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्णका स्वरूप है। वह विन्दुयुक्त और विन्दुशून्य दोनों ही प्रकारका देखा जाता है। हयग्रीव मूर्ति अंकुशके समान आकारवाली और पाँच रेखाओंसे युक्त होती है। भगवान् वैकुण्ठ कौस्तुभमणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती। है। वह एक चक्रसे चिह्नित और श्याम वर्णकी होती है। मत्स्य भगवान्की मूर्ति बृहत् कमलके आकार की होती है। उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हारकी रेखा देखी जाती है। जिस शालग्रामका वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भागमें एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रोंके चिह्नसे युक्त हो, वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका स्वरूप है, वे भगवान् सबकी रक्षा करनेवाले हैं। द्वारकापुरीमें स्थित शालग्रामस्वरूप भगवान् गदाधरको नमस्कार है, उनका दर्शन बड़ा ही उत्तम है। वे भगवान् गदाधर एक चक्रसे चिह्नित देखे जाते हैं। लक्ष्मीनारायण दो चक्रोंसे, त्रिविक्रम तीनसे,चतुर्व्यूह बारसे, वासुदेव पाँचसे, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सातसे, पुरुषोत्तम आठसे, नवव्यूह नवसे, दशावतार दससे, अनिरुद्ध ग्यारहसे और द्वादशात्मा बारह चक्रोंसे युक्त होकर जगत्की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र-चिह्न धारण करनेवाले भगवान्का नाम अनन्त है। दण्ड, कमण्डलु और अक्षमाला धारण करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्मा तथा पाँच मुख और दस भुजाओंसे सुशोभित वृषध्वज महादेवजी अपने आयुधसहित शालग्राम शिलामें स्थित रहते हैं। गौरी, चण्डी, सरस्वती और महालक्ष्मी आदि माताएँ हाथमें कमल धारण करनेवाले सूर्यदेव, हाथीके समान कंधेवाले गजानन गणेश, छः मुखोंवाले स्वामी कार्तिकेय तथा और भी बहुत से देवगण शालग्राम प्रतिमामें मौजूद रहते हैं, अतः मन्दिरमें शालग्राम शिलाकी स्थापना अथवा पूजा करनेपर ये उपर्युक्त देवता भी स्थापित और पूजित होते हैं। जो पुरुष ऐसा करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदिकी प्राप्ति होती है।
गण्डकी अर्थात् नारायणी नदीके एक प्रदेशमें शालग्रामस्थल नामका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँसे निकलनेवाले पत्थरको शालग्राम कहते हैं। शालग्राम शिलाके स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मोंके पापका नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फलके विषयमें कहना ही क्या है वह भगवान्के समीप पहुँचानेवाला है। बहुत जन्मोंके पुण्यसे यदि कभी गोष्पदके चिनसे युक्त श्रीकृष्ण-शिला प्राप्त हो जाय तो उसीके पूजनसे मनुष्यके पुनर्जन्मकी समाप्ति हो जाती है। पहले शालग्राम शिलाको परीक्षा करनी चाहिये यदि वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणीकी मानी गयी है और यदि उसमें दूसरे किसी रंगका सम्मिश्रण हो तो वह मिश्रित फल प्रदान करनेवाली होती है जैसे सदा काठके भीतर छिपी हुई आग मन्थन करनेसे प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी शालग्राम शिलामें विशेषरूपसे अभिव्यक होते हैं। जो प्रतिदिन द्वारकाकी शिला - गोमतीचक्रसे युक्त बारहशालग्राममूर्तियोंका पूजन करता है, वह वैकुण्ठलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो मनुष्य शालग्राम शिलाके भीतर गुफाका दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्पके अन्ततक स्वर्गमें निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरीकी शिला अर्थात् गोमतीचक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठलोक माना जाता है; वहाँ मृत्युको प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो शालग्राम शिलाकी कीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रयका अनुमोदन करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्यका समर्थन करता है, वे सब नरकमें पड़ते हैं। इसलिये देवि ! शालग्राम शिला और गोमतीचक्रकी खरीद-बिक्री छोड़ देनी चाहिये। शालग्राम-स्थलसे प्रकट हुए भगवान् शालग्राम और द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्र- इन दोनों देवताओंका जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्रसे युक्त, अनेकों चक्रोंसे चिह्नित तथा चकासन-शिलाके समान आकारवाले भगवान् शालग्राम साक्षात् चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं। ओंकाररूप तथा नित्यानन्दस्वरूप शालग्रामको नमस्कार है। महाभाग शालग्राम ! मैं आपका अनुग्रह चाहता हूँ। प्रभो! मैं ऋणसे ग्रस्त हूँ, मुझ भक्तपर अनुग्रह कीजिये।
अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तिलककी विधिका वर्णन करता हूँ। ललाटमें केशव, कण्ठमें श्रीपुरुषोत्तम, नाभिमें नारायणदेव, हृदयमें वैकुण्ठ, बायीं पसलीमें दामोदर, दाहिनी पसलीमें त्रिविक्रम, मस्तकपर इषीकेश, पीठमें पद्मनाभ, कानोंमें गंगा-यमुना तथा दोनों भुजाओंमें श्रीकृष्ण और हरिका निवास समझना चाहिये। उपर्युक्त स्थानों में तिलक करनेसे ये बारह देवता संतुष्ट होते हैं। तिलक करते समय इन बारह नामोंका उच्चारण करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर विष्णुलोकको जाता है। भगवान्के चरणोदकको पीना चाहिये और पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि समस्त परिवारके शरीरपर उसे छिड़कना चाहिये। श्रीविष्णुका चरणोदकयदि पी लिया जाय तो वह करोड़ों जन्मोंके पापका नाश करनेवाला होता है। भगवान के मन्दिरमें खड़ाऊँ या सवारीपर चढ़कर जाना, भगवत् सम्बन्धी उत्सवोंका सेवन न करना, भगवान् के सामने जाकर प्रणाम न करना, उच्छिष्ट या अपवित्र अवस्थामें भगवान्की वन्दना करना एक हाथसे प्रणाम करना, भगवान् के सामने ही एक स्थानपर खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना, भगवान् के आगे पाँव फैलाना, पलंगपर बैठना, सोना, खाना, झूठ बोलना, जोर-जोर से चिल्लाना, परस्पर बात करना, रोना, झगड़ा करना, किसीको दण्ड देना, अपने बलके घमंड में आकर किसीपर अनुग्रह करना, स्त्रियोंके प्रति कठोर बात कहना, कम्बल ओढ़ना, दूसरेकी निन्दा, परायी स्तुति गाली बकना, अधोवायुका त्याग (अपशब्द) करना, शक्ति रहते हुए गौण उपचारोंसे पूजा करना-मुख्य उपचारोंका प्रबन्ध न करना, भगवान्को भोग लगाये बिना ही भोजन करना, सामयिक फल आदिको भगवान्की सेवामें अर्पण न करना, उपयोगमें लानेसे बचे हुए भोजनको भगवान्के लिये निवेदन करना, भोजनका नाम लेकर दूसरेकी निन्दा तथा प्रशंसा करना, गुरुके समीप मौन रहना, आत्म-प्रशंसा करना तथा देवताओंको कोसना-ये विष्णुके प्रति बत्तीस अपराध बताये गये हैं मधुसूदन! मुझसे प्रतिदिन हजारों अपराध होते रहते हैं; किन्तु मैं आपका ही सेवक हूँ, ऐसा समझकर मुझे उनके लिये क्षमा करें।' इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़कर साष्टांग प्रणाम करना चाहिये। ऐसा करनेसे भगवान् श्रीहरि सदा हजारों अपराध क्षमा करते हैं। द्विजातियोंके लिये सबेरे और शाम-दो ही समय भोजन करना वेदविहित है। गोल लौकी, लहसुन, ताड़का फल और भाँटा - इन्हें वैष्णव पुरुषोंको नहीं खाना चाहिये। वैष्णवके लिये बड़, पीपल, मदार, कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार (कचनार) और कदम्बकेपत्ते में भोजन करना निषिद्ध है। जला हुआ तथा भगवान्को अर्पण न किया हुआ अन्न, जम्बीर और बिजौरा नीबू, शाक तथा खाली नमक भी वैष्णवको नहीं खाना चाहिये। यदि दैवात् कभी खा ले तो भगवन्नामका स्मरण करना चाहिये। हेमन्त ऋतु में उत्पन्न होनेवाला सफेद धान जो सड़ा हुआ न हो, मूँग, तिल, यव, केराव, कंगनी, नीवार (तीना), शाक, हिलमोचिका ( हिलसा), कालशाक, बथुवा, मूली, दूसरे दूसरे मूल-शाक, सेंधा और साँभर नमक, गायका दही, गायका घी, बिना माखन निकाला हुआ गायका दूध, कटहल, आम, हर्रे, पिप्पली, जीरा, नारंगी, इमली, केला, लवली (हरफा रेवरी), आँवलेका फल, गुड़के सिवा ईंखके रससे तैयार होनेवाली अन्य सभी वस्तुएँ तथा बिना तेलके पकाया हुआ अन्न इन सभी खाद्य पदार्थोंको मुनिलोग हविष्यान्न कहते हैं। जो मनुष्य तुलसीके पत्र और पुष्प आदिसे युक्त माला धारण करता है, उसको भी विष्णु ही समझना चाहिये। आँवलेका वृक्ष लगाकर मनुष्य विष्णुके समान जाता है। आँवलेके चारों ओर साढ़े तीन सौ हाथकीभूमिको कुरुक्षेत्र जानना चाहिये। तुलसीकी लकड़ीके रुद्राक्षके समान दाने बनाकर उनके द्वारा तैयार की हुई माला कण्ठमें धारण करके भगवान्का पूजन आरम्भ करना चाहिये। भगवान्को चढ़ायी हुई तुलसीकी माला मस्तकपर धारण करे तथा भगवान्को अर्पण किये हुए चन्दनके द्वारा अपने अंगोंपर भगवान्का नाम लिखे। यदि तुलसीके काष्ठकी बनी हुई मालाओंसे अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनादि कार्य करे तो वह कोटिगुना फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य तुलसीके काष्ठकी बनी हुई माला भगवान् विष्णुको अर्पित करके पुनः प्रसादरूपसे उसको भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं। पाद्य आदि उपचारोंसे तुलसीकी पूजा करके इस मन्त्रका उच्चारण करे- जो दर्शन करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर रोगोंका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् श्रीकृष्णके समीप ले जाती है और भगवान्के चरणोंमें चढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवीको नमस्कार है। *