भीष्मजी बोले- ब्रह्मन्! आपने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको महिमाका वर्णन किया। अब पुनः उन्हीं श्रीविष्णुभगवान्के माहात्म्यका प्रतिपादन कीजिये । [उनकी नाभिसे] वह सुवर्णमय कमल कैसे उत्पन्न हुआ, प्राचीन कालमें वैष्णवी सृष्टि कमलके भीतर कैसे हुई ? धर्मात्मन् मैं श्रद्धापूर्वक सुननेके लिये बैठा हूँ, अतः आप मुझे भगवान् नारायणका यश अवश्य सुनायें। पुलस्त्यजीने कहा— कुरुश्रेष्ठ! तुम उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हो; अतः तुम्हारे हृदयमें जो भगवान् श्रीनारायणके सुयशको सुननेको उत्कण्ठा हुई है, यह उचित ही है। पुराणोंमें जैसा वर्णन किया गया है, देवताओंके मुखसे जैसा सुना है तथा द्वैपायन व्यासजीने अपनी तपस्यासे देखकर जैसा बतलाया है, वह अपनी बुद्धिके अनुसार मैं तुमसे कहूँगा। यह विश्व परम पुरुष श्रीनारायणका स्वरूप है, इसे मेरे पिता ब्रह्माजी भी ठीक-ठीक नहीं जानते, फिर दूसरा कौन जान सकता है। वे भगवान् नारायण ही महर्षियोंके गुप्त रहस्य, सब कुछ देखने और जाननेवालोंके परमतत्त्व, अध्यात्मवेत्ताओंके अध्यात्म, अधिदैव तथा अधिभूत हैं। वे ही परमर्षियोंके परब्रह्म हैं। वेदोंमें प्रतिपादित यज्ञ उन्होंका स्वरूप है। विद्वान् पुरुष उन्हींको तप मानते हैं। जो कर्ता, कारक, मन, बुद्धि, क्षेत्रज्ञ, प्रणव, पुरुष, शासन करनेवाले और अद्वितीय समझे जाते हैं, जो पाँच प्रकारके प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान), ध्रुव एवं अक्षर-तत्त्व हैं, वे ही परमात्मा नाना प्रकारके भावद्वारा प्रतिपादित होते हैं। वे ही परब्रह्म हैं तथा वे ही भगवान् सबकी सृष्टि और संहार करते हैं। उन्हीं आदि पुरुषका हमलोग यजन करते हैं। जितनी कथाएँ हैं, जो-जो श्रुतियाँ हैं, जिसे धर्म कहते हैं, जो धर्मपरायण पुरुष हैं और जो विश्व तथा विश्वके स्वामी हैं, वे सब भगवान् नारायणके ही स्वरूप माने गये हैं। जो सत्य है, जो मिथ्या है, जो आदि, मध्य और अन्तमें है, जो सीमारहित भविष्य है, जो कोई चर-अचर प्राणी हैं तथा इनके अतिरिक्त भी जोकुछ वस्तु है, वह सब पुरुषोत्तम नारायण ही हैं। कुरुनन्दन! चार हजार दिव्य वर्षोंका सत्ययुग कहा गया है। उसकी सन्ध्या और सन्ध्यांश आठ सौ वर्षोंके माने गये हैं। उस युगमें धर्म अपने चारों चरणोंसे मौजूद रहता है और अधर्म एक ही पैरसे स्थित होता है। उस समय सब मनुष्य स्वधर्मपरायण और शान्त होते हैं। सत्ययुगमें सत्य, पवित्रता और धर्मकी वृद्धि होती है। श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, वही कर्म उस समय सबके द्वारा किया और कराया जाता है। राजन्! सत्ययुगमें जन्मतः धार्मिक अथवा नीच कुलमें उत्पन्न सभी मनुष्योंका ऐसा ही धर्मानुकूल बर्ताव होता है। त्रेतायुगका मान तीन हजार दिव्य वर्ष बतलाया जाता है। उसकी दोनों सन्ध्याएँ छः सौ वर्षोंकी होती हैं। उस समय धर्म तीन चरणोंसे और अधर्म दो पादोंसे स्थित रहता है। उस युगमें सत्य एवं शौचका पालन तथा यज्ञ-यागादिका अनुष्ठान होता है। त्रेतामें चारों वर्णोंके लोग केवल लोभके कारण विकारको प्राप्त होते हैं। वर्णधर्ममें विकार आनेसे आश्रमोंमें भी दुर्बलता आ जाती है। यह त्रेतायुगकी देवनिर्मित विचित्र गति है। द्वापर दो हजार दिव्य वर्षोंका होता है। इसकी सन्ध्याओंका मान चार सौं वर्षका बताया जाता है। उस समयके प्राणी रजोगुणसे अभिभूत होनेके कारण अधिक अर्थ-परायण, शठ, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाले तथा क्षुद्र होते हैं। द्वापरमें धर्म दो चरणोंसे और अधर्म तीन पादोंसे स्थित रहता है। दोनों सन्ध्याओंसहित कलियुगका मान एक | हजार दो सौ दिव्य वर्ष है। यह क्रूरताका युग है। इसमें अधर्म अपने चारों पार्दोसे और धर्म एक ही चरणसे स्थित रहता है। उस समय मनुष्य कामी, तमोगुणी और नीच होते हैं। इस युगमें प्रायः कोई साधक, साधु और सत्यवादी नहीं होता। लोग नास्तिक होते हैं ब्राह्मणोंके प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। सब मनुष्य अहंकारके वशीभूत होते हैं। उनमें परस्पर प्रेम प्रायः बहुत ही कम होता है कलियुगमें ब्राह्मणोंके आचरण प्रायः शूद्रोंके सेहो जाते हैं। आश्रमोंका ढंग भी बिगड़ जाता है। जब युगका अन्त होनेको आता है, उस समय तो वर्णोंके पहचानने में भी सन्देह हो जाता है-कौन मनुष्य किस वर्णका है, यह समझना कठिन हो जाता है। यह बारह हार दिव्य वर्षोंका समय एक चतुयुग (चौकड़ी) कहलाता है। इस प्रकारके हजार चतुर्युग बीतनेपर ब्रह्माका एक दिन होता है।
इस प्रकार ब्रह्माकी भी आयु जब समाप्त हो जाती है, तब काल सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी आयु पूरी हुई जान जगत्का संहार करनेके लिये महाप्रलय आरम्भ करता है। योग-शक्ति-सम्पन्न सर्वरूप भगवान् नारायण सूर्यरूप होकर अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रोंको सोख लेते हैं। तदनन्तर श्रीहरि बलवान् वायुका रूप धारणकर सारे जगत्को कँपाते हुए प्राण, अपान और समान आदिके द्वारा आक्रमण करते हैं। घ्राणेन्द्रियका विषय, घ्राणेन्द्रिय तथा पार्थिव शरीर- ये गुण पृथ्वीमें समा जाते हैं। रसनेन्द्रिय, उसका विषय रस और स्नेह आदि जलके गुण जलमें लीन हो जाते हैं। नेत्रेन्द्रिय, उसका विषय रूप और मन्दता, पटुता आदि नेत्रके गुण-ये अग्नि तत्त्वमें प्रवेश कर जाते हैं। वागिन्द्रिय और उसका विषय, स्पर्श और चेष्टा आदि वायुके गुण-ये वायुमें समा जाते हैं। श्रवणेन्द्रिय और उसका विषय शब्द तथा सुननेकी क्रिया आदि गुण आकाशमें विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार कालरूप भगवान् एक ही मुहूर्तमें सम्पूर्ण लोकोंकी जीवनयात्रा नष्ट कर देते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और क्षेत्रज्ञ - ये परमेष्ठी ब्रह्माजीमें लौन हो जाते हैं और ब्रह्माजी भगवान् हृषीकेशमें लीन हो जाते हैं। पंच महाभूत भी उस अमित तेजस्वी विभुमें प्रवेश कर जाते हैं। सूर्य, वायु और आकाश नष्ट हो जाने तथा सूक्ष्म जगत्के भी लीन हो जानेपर अमितपराक्रमी सनातन पुरुष भगवान् श्रीविष्णु सबको। दध करके अपने में समेटकर अकेले ही अनेक सहनम युगतिक एकार्णवके जलमें शयन करते हैं। उन अव्यक्त परमेश्वरके सम्बन्धमें कोई व्यक्त जीव यह नहीं जान पाता कि ये पुरुषरूप कौन हैं। उन देव श्रेष्ठके विषयमें उनके सिवा दूसरा कोई कुछ नहीं जानता।भीष्म एक समयकी बात सुनो, महामुनि मार्कण्डेयको एकार्णवके जलमें शयन करनेवाले भगवान् कौतूहलवश अपने मुँहमें लील गये। कई हजार वर्षोंकी आयुवाले वे महर्षि भगवान्के ही उत्कृष्ट तेजसे उनके उदरमें तीर्थयात्राके प्रसंगसे विचरते हुए पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें घूमते फिरे अनेकों पुण्यतीर्थोके जलसे युक वन और नाना प्रकारके आश्रम उन्हें दृष्टिगोचर हुए। उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञद्वारा यजन करनेवाले यजमानों तथा यज्ञमें सम्मिलित सैकड़ों ब्राह्मणोंको भी उन्होंने भगवान्के उदरमें देखा वहाँ ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके लोग सदाचारमें स्थित थे। चारों ही आश्रम अपनी-अपनी मर्यादामें स्थित थे। इस प्रकार भगवान्के उदरमें समूची पृथ्वीपर विचरते बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीको सौ वर्षोंसे कुछ अधिक समय बीत गया। तदनन्तर वे किसी समय पुनः भगवान्के मुखसे बाहर निकले। उस समय भी सब ओर एकार्णवका जल ही दिखायी देता था। समस्त दिशाएँ कुहरेसे आच्छादित थीं। जगत् सम्पूर्ण प्राणियोंसे रहित था ऐसी अवस्थामै मार्कण्डेयजीने देखा-एक बरगदकी शाखापर एक छोटा-सा बालक सो रहा है। यह देखकर मुनिको बड़ाआश्चर्य हुआ। वे उस बालकका वृत्तान्त जाननेके लिये उत्सुक हो गये। उनके मनमें यह संदेह हुआ कि मैंने म कभी इसे देखा है। यह सोचकर वे उस पूर्व परिचित बालकको देखनेके लिये आगे बढ़े। उस समय उनके नेत्र भयसे कातर हो रहे थे। उन्हें आते देख बालरूपधारी भगवान्ने कहा-'मार्कण्डेय। तुम्हारा स्वागत है। तुम डरो मत, मेरे पास चले आओ।'
मार्कण्डेय बोले- यह कौन है, जो मेरा तिरस्कार करता हुआ मुझे नाम लेकर पुकार रहा है? भगवान्ने कहा- बेटा। मैं तुम्हारा पितामह, आयु प्रदान करनेवाला पुराणपुरुष हूँ। मेरे पास तुम क्यों नहीं आते तुम्हारे पिता आंगिरस मुनिने पूर्वकालमें पुत्रकी कामनासे तीव्र तपस्या करके मेरी ही आराधना की थी। तब मैंने उन अमिततेजस्वी महर्षिको तुम्हारे जैसा तेजस्वी पुत्र होनेका सच्चा वरदान दिया था।
यह सुनकर महातपस्वी मार्कण्डेयजीका हृदय प्रसन्नतासे भर गया, उनके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। वे मस्तकपर अंजलि बाँधे नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करने लगे और बोले- 'भगवन् मैं आपकी मायाको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ; इस एकार्णवके बीच आप बालरूप धरकर कैसे सो रहे हैं?'
श्रीभगवान् ने कहा- ब्रह्मन् ! मैं नारायण हूँ। जिन्हें हजारों मस्तकों और हजारों चरणोंसे युक्त बताया जाता है, वह विराट परमात्मा मेरा ही स्वरूप है। मैं सूर्यके समान वर्णवाला तेजोमय पुरुष हूँ मैं देवताओंको हविष्य पहुँचानेवाला अग्नि हूँ और मैं ही सात घोड़ोंके रथवाला सूर्य हूँ। मैं ही इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित होनेवाला इन्द्र और ऋतुओंमें परिवत्सर हूँ। सम्पूर्ण प्राणी तथा समस्त देवता मेरे ही स्वरूप हैं। मैं सर्पोंमें शेषनाग और पक्षियोंमें गरुड़ हूँ। सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाला काल भी मुझे ही समझना चाहिये। समस्त आश्रमों में निवास करनेवाले मनुष्योंका धर्म और तप मैंहो हूँ। मैं दयापरायण धर्म और दूधसे भरा हुआ महासागर हूँ तथा जो सत्यस्वरूप परम तत्व है, वह भी मैं ही हूँ। एकमात्र में ही प्रजापति हूँ में ही सांख्य, मैं ही योग और मैं ही परमपद हूँ। यज्ञ, क्रिया और ब्राह्मणोंका स्वामी भी मैं ही हूँ। मैं ही अग्नि, मैं ही वायु में ही पृथ्वी में ही आकाश और में ही जल, समुद्र नक्षत्र तथा दसों दिशाएँ है। वर्षा, सोम, मेघ और हविष्य इन सबके रूपमें मैं ही हूँ। क्षीरसागर के भीतर तथा समुद्रगत बडवाग्निके मुखमें भी मेरा ही निवास है। मैं ही संवर्तक अग्नि होकर सारा जल सोख लेता हूँ मैं ही सूर्य हूँ में ही परम पुरातन तथा सबका आश्रय हूँ। भविष्यमें भी सर्वत्र मैं ही प्रकट होऊंगा तथा भावी सम्पूर्ण वस्तुओंकी उत्पत्ति मुझसे ही होती है। विप्रवर! संसारमें तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ सुनते हो और जो कुछ अनुभव करते हो उन सबको मेरा ही स्वरूप समझो। मैंने ही पूर्वकालमें विश्वको सृष्टि की है तथा आज भी मैं ही करता हूँ। तुम मेरी ओर देखो। मार्कण्डेय! मैं ही प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करता हूँ। इन सारी बातोंको तुम अच्छी तरह समझ लो । यदि धर्मके सेवन या श्रवणकी इच्छा हो तो मेरे उदरमें रहकर सुखपूर्वक विचरो मैं ही एक अक्षरका और मैं ही तीन अक्षरका मन्त्र हूँ। ब्रह्माजी भी मेरे ही स्वरूप हैं। धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्गसे परे ओंकारस्वरूप परमात्मा, जो सबको तात्विक दृष्टि प्रदान करनेवाले हैं, मैं ही हूँ।
इस प्रकार कहते हुए उन महाबुद्धिमान् पुराणपुरुष | परमेश्वरने महामुनि मार्कण्डेयको तुरंत ही अपने मुँह में से लिया। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ भगवान् के उदरमें प्रवेश कर गये और नेत्रके सामने एकान्त स्थानमें धर्म श्रवण करनेकी इच्छासे बैठे हुए अविनाशी हंस भगवान् के पास उपस्थित हुए। भगवान् हंस अविनाशी और विविध शरीर धारण करनेवाले हैं। वे चन्द्रमा और सूर्यसे रहित प्रलयकालीन एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे विचरते तथाजगत् की सृष्टि करनेका संकल्प लेकर विहार करते हैं। तदनन्तर विमलमति महात्मा हंसने लोक- रचनाका विचार किया। उस विश्वरूप परमात्माने विश्वका चिन्तन किया एवं भूतोंकी उत्पत्तिके विषयमें सोचा। उनके तेजसे अमृतके समान पवित्र जलका प्रादुर्भाव हुआ। अपनीमहिमासे कभी च्युत न होनेवाले सर्वलोकविधाता महेश्वर श्रीहरिने उस महान् जलमें विधिवत् जलक्रीड़ा की। फिर उन्होंने अपनी नाभिसे एक कमल उत्पन्न किया, जो अनेकों रंगोंके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। वह सुवर्णमय कमल सूर्यके समान तेजोमय प्रतीत होता था ।