वैशम्पायनजीने पूछा- विप्रवर! आकाशमें प्रतिदिन जिसका उदय होता है, यह कौन है? इसका क्या प्रभाव है? तथा इस किरणोंके स्वामीका प्रादुर्भाव कहाँसे हुआ है? मैं देखता हूँ-देवता, बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण, दैत्य, राक्षस तथा ब्राह्मण आदि समस्त मानव इसकी सदा ही आराधना किया करते हैं।
व्यासजी बोले- वैशम्पायन ! यह ब्रह्मके स्वरूपसे प्रकट हुआ ब्रह्मका ही उत्कृष्ट तेज है। इसे साक्षात् ब्रह्ममय समझो। यह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है। निर्मल किरणोंसे सुशोभित यह तेजका पुंज पहले अत्यन्त प्रचण्ड और दुःसह था। इसे देखकर इसकी प्रखर रश्मियोंसे पीड़ित हो सब लोग इधर-उधर भागकर छिपने लगे। चारों ओरके समुद्र, समस्त बड़ी-बड़ी नदियाँ और नद आदि सूखने लगे। उनमें रहनेवाले प्राणी मृत्युके ग्रास बनने लगे। मानव समुदाय भी शोकसे आतुर हो उठा। यह देख इन्द्र आदि देवता ब्रह्माजीके पास गये और उनसे यह सारा हाल कह सुनाया। तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा- 'देवगण! यह तेज आदि ब्रह्मके स्वरूपसे जलमें प्रकट हुआ है। यह तेजोमय पुरुष उस ब्रह्मके ही समान है।इसमें और आदि ब्रह्ममें तुम अन्तर न समझना । ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त चराचर प्राणियोंसहित समूची त्रिलोकीमें इसीकी सत्ता है। ये सूर्यदेव सत्त्वमय हैं। इनके द्वारा चराचर जगत्का पालन होता है। देवता, जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज आदि जितने भी प्राणी हैं - सबकी रक्षा सूर्यसे ही होती है। इन सूर्य देवताके प्रभावका हम पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते। इन्होंने ही लोकोंका उत्पादन और पालन किया है। सबके रक्षक होनेके कारण इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। पौ फटनेपर इनका दर्शन करनेसे राशि राशि पाप विलीन हो जाते हैं। द्विज आदि सभी मनुष्य इन सूर्यदेवकी आराधना करके मोक्ष पा लेते हैं। सन्ध्योपासनके समय ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण अपनी भुजाएँ ऊपर उठाये इन्हीं सूर्यदेवका उपस्थान करते हैं और उसके फलस्वरूप समस्त देवताओंद्वारा पूजित होते हैं। सूर्यदेवके ही मण्डलमें रहनेवाली सन्ध्यारूपिणी देवीकी उपासना करके सम्पूर्ण द्विज स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस भूतलपर जो पतित और जूठन खानेवाले मनुष्य हैं, वे भी भगवान् सूर्यकी किरणोंके स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं। सन्ध्याकालमें सूर्यकी उपासना करनेमात्रसे द्विज सारे पापोंसे शुद्धहो जाता है। * जो मनुष्य चाण्डाल, गोघाती (कसाई), पतित, कोड़ी, महापातकी और उपपातकीके दीख जानेपर भगवान् सूर्यका दर्शन करते हैं, वे भारी-से भारी पापसे मुक्त हो पवित्र हो जाते हैं। सूर्यकी उपासना करने मात्र से मनुष्यको सब रोगों से छुटकारा मिल जाता है। जो सूर्यकी उपासना करते हैं, वे इहलोक और परलोकमें भी अंधे, दरिद्र, दुःखी और शोकग्रस्त नहीं होते श्रीविष्णु और शिव आदि देवताओंके दर्शन सब लोगोंको नहीं होते, ध्यानमें ही उनके स्वरूपका साक्षात्कार किया जाता है; किन्तु भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष देवता माने गये हैं।
देवता बोले- ब्रह्मन् ! सूर्य देवताको प्रसन्न करनेके लिये आराधना, उपासना अथवा पूजा तो दूर रहे, इनका दर्शन ही प्रलयकालकी आगके समान है। भूतलके मनुष्य आदि सम्पूर्ण प्राणी इनके तेजके प्रभावसे मृत्युको प्राप्त हो गये। समुद्र आदि जलाशय नष्ट हो गये। हमलोगोंसे भी इनका तेज सहन नहीं होता; फिर दूसरे लोग कैसे सह सकते हैं। इसलिये आप ही ऐसी कृपा करें, जिससे हमलोग भगवान् सूर्यका पूजन कर सकें। सब मनुष्य भक्तिपूर्वक सूर्यदेवकी आराधना कर सकें इसके लिये आप ही कोई उपाय करें।
व्यासजी कहते हैं-देवताओंके वचन सुनकर ब्रह्माजी ग्रहोंके स्वामी भगवान् सूर्यके पास गये और सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये उनकी स्तुति करने लगे।
ब्रह्माजी बोले- देव तुम सम्पूर्ण संसारके नेत्रस्वरूप और निरामय हो। तुम साक्षात् ब्रह्मरूप हो । तुम्हारी ओर देखना कठिन है। तुम प्रलयकालकी अग्निके समान तेजस्वी हो । सम्पूर्ण देवताओंके भीतर तुम्हारी स्थिति है। तुम्हारे श्रीविग्रहमें वायुके सखा अग्नि निरन्तर विराजमान रहते हैं। तुम्हींसे अन्न आदिका पाचन तथा जीवनकी रक्षा होती है। देव! तुम्हींसे उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। एकमात्र तुम्हींसम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी हो। तुम्हारे बिना समस्त संसारका जीवन एक दिन भी नहीं रह सकता। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंके प्रभु तथा चराचर प्राणियोंके रक्षक, पिता और माता हो। तुम्हारी ही कृपासे यह जगत् टिका हुआ है। भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओंमें तुम्हारी समानता करनेवाला कोई नहीं है। शरीरके भीतर, बाहर तथा समस्त विश्वमें – सर्वत्र तुम्हारी सत्ता है। तुमने ही इस जगत्को धारण कर रखा है। तुम्हीं रूप और गन्ध आदि उत्पन्न करनेवाले हो। रसोंमें जो स्वाद है, वह तुम्हींसे आया है। इस प्रकार तुम्हीं सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर और सबकी रक्षा करनेवाले सूर्य हो । प्रभो ! तीर्थों, पुण्यक्षेत्रों, यज्ञों और जगत्के एकमात्र कारण तुम्हीं हो। तुम परम पवित्र, सबके साक्षी और गुणोंके धाम हो। सर्वज्ञ, सबके कर्ता, संहारक, रक्षक, अन्धकार, कीचड़ और रोगोंका नाश करनेवाले तथा दरिद्रताके दुःखोंका निवारण करनेवाले भी तुम्हीं हो। इस लोक तथा परलोकमें सबसे श्रेष्ठ बन्धु एवं सब कुछ जानने और देखनेवाले तुम्हीं हो। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो सब लोकोंका उपकारक हो
आदित्यने कहा- महाप्राज्ञ पितामह! आप विश्वके स्वामी तथा स्रष्टा हैं, शीघ्र अपना मनोरथ बताइये। मैं उसे पूर्ण करूँगा।
ब्रह्माजी बोले- सुरेश्वर! तुम्हारी किरणें अत्यन्त प्रखर हैं। लोगोंके लिये वे अत्यन्त दुःसह हो गयी हैं। अतः जिस प्रकार उनमें कुछ मृदुता आ सके, वही उपाय करो।
आदित्यने कहा – प्रभो ! वास्तवमें मेरी कोटि-कोटि किरणें संसारका विनाश करनेवाली ही हैं। अतः आप किसी युक्तिद्वारा इन्हें खरादकर कम कर दें।
बाजीने सूर्यके कहने विश्वकर्माको बुलाया और वज्रकी सान बनवाकर उसीके ऊपर प्रलयकालके समान तेजस्वी सूर्यको आरोपित करके उनके प्रचण्ड तेजको छाँट दिया। उस छँटे हुए तेजसे ही भगवान्श्रीविष्णुका सुदर्शनचक्र बनाया गया। अमोघ यमदण्ड, शंकरजीका त्रिशूल, कालका खड्ग, कार्तिकेयको आनन्द प्रदान करनेवाली शक्ति तथा भगवती दुर्गाके विचित्र शूलका भी उसी तेजसे निर्माण हुआ। ब्रह्माजीकी आज्ञासे विश्वकर्माने उन सब अस्त्रोंको फुर्तीसे तैयार किया था। सूर्यदेवकी एक हजार किरणें शेष रह गयीं, बाकी सब छाँट दी गयीं। ब्रह्माजीके बताये हुए उपायके अनुसार ही ऐसा किया गया।
कश्यपमुनिके अंश और अदिति के गर्भ से उत्पन्न होनेके कारण सूर्य आदित्यके नामसे प्रसिद्ध हुए । भगवान् सूर्य विश्वकी अन्तिम सीमातक विचरते और मेरु गिरिके शिखरोंपर भ्रमण करते रहते हैं। ये दिन रात इस पृथ्वीसे लाख योजन ऊपर रहते हैं। विधाताकी प्रेरणासे चन्द्रमा आदि ग्रह भी वहीं विचरण करते हैं। सूर्य बारह स्वरूप धारण करके बारह महीनोंमें बारह राशियोंमें संक्रमण करते रहते हैं। उनके संक्रमणसे ही संक्रान्ति होती है, जिसको प्रायः सभी लोग जानते हैं।
मुने! संक्रान्तियोंमें पुण्यकर्म करनेसे लोगोंको जो फल मिलता है, वह सब हम बतलाते हैं। धनु, मिथुन, मीन और कन्या राशिकी संक्रान्तिको षडशीति कहते हैं तथा वृष, वृश्चिक, कुम्भ और सिंह राशिपर जो सूर्यकी संक्रान्ति होती है, उसका नाम विष्णुपदी है। षडशीति नामकी संक्रान्तिमें किये हुए पुण्यकर्मका फल छियासी हजारगुना, विष्णुपदीमें लाखगुना और उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन कोटि कोटिगुना अधिक होता है। दोनों अयनोंके दिन जोकर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है। मकरसंक्रान्तिमें सूर्योदयके पहले स्नान करना चाहिये। इससे दस हजार गोदानका फल प्राप्त होता है। उस समय किया हुआ तर्पण, दान और देवपूजन अक्षय होता है। विष्णुपदी नामक संक्रान्तिमें किये हुए दानको भी अक्षय बताया गया है । दाताको प्रत्येक जन्ममें उत्तम निधिकी प्राप्ति होती है। शीतकालमें रूईदार वस्त्र दान करनेसे शरीर में कभी दुःख नहीं होता। तुला दान और शय्या - दान दोनोंका ही फल अक्षय है । माघमासके कृष्णपक्षकी अमावास्याको सूर्योदयके पहले जो तिल और जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह स्वर्गमें अक्षय सुख भोगता है। जो अमावस्याके दिन सुवर्णजटित सींग और मणिके समान कान्तिवाली शुभलक्षणा गौको, उसके खुरोंमें चाँदी मँढ़ाकर काँसेके बने हुए दुग्धपात्रसहित श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिये दान करता है, वह चक्रवर्ती राजा होता है। जो उक्त तिथिको तिलकी गौ बनाकर उसे सब सामग्रियों सहित दान करता है, वह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें अक्षय सुखका भागी होता है। ब्राह्मणको भोजनके योग्य अन्न देनेसे भी अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो उत्तम ब्राह्मणको अनाज, वस्त्र, घर आदि दान करता है, उसे लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती। माघमासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको मन्वन्तर - तिथि कहते हैं; उस दिन जो कुछ दान किया जाता है, वह सब अक्षय बताया गया है। अतः दान और सत्पुरुषोंका पूजन- ये परलोकमें अनन्त फल देनेवाले हैं।