व्यासजी कहते हैं- कैलासके रमणीय शिखरपर भगवान् महेश्वर सुखपूर्वक बैठे थे। इसी समय स्कन्दने उनके पास जा पृथ्वीपर मस्तक टेककर उन्हें प्रणाम किया और कहा- 'नाथ! मैं आपसे रविवार आदिका यथार्थ फल सुनना चाहता हूँ।"
महादेवजीने कहा- बेटा! रविवारके दिन मनुष्य त रहकर सूर्यको लाल फूलोंसे अर्घ्य दे औररातको हविष्यान्न भोजन करे। ऐसा करनेसे वह कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। रविवारका व्रत परम पवित्र और हितकर है। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, पुण्यप्रद, ऐश्वर्यदायक, रोगनाशक और स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यदि रविवारके दिन सूर्यकी संक्रान्ति तथा शुक्लपक्षकी सप्तमी हो तो उस दिन किया हुआ व्रत, पूजा और जप - सब अक्षय होता है।शुक्लपक्षके रविवारको ग्रहपति सूर्यको पूजा करनी चाहिये। हाथमें फूल ले, लाल कमलपर विराजमान, सुन्दर ग्रोवासे सुशोभित, रक्तवस्त्रधारी और लाल रंगके आभूषणोंसे विभूषित भगवान् सूर्यका ध्यान करे और फूलोंको सूचकर ईशान कोणकी ओर फेंक दे। इसके बाद 'आदित्याय विग्रहे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात्' इस सूर्य गायत्रीका जप करे तदनन्तर गुरुके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पूजा करे। भक्तिके साथ पुष्प और केले आदिके सुन्दर फल अर्पण करके जल चढ़ाना चाहिये। जलके बाद चन्दन, चन्दनके बाद धूप, धूपके बाद दोप, दीपके पश्चात् नैवेद्य तथा उसके बाद जल निवेदन करना चाहिये। तत्पश्चात् जप, स्तुति, मुद्रा और नमस्कार करना उचित है। पहली मुद्राका नाम अंजलि और दूसरीका नाम धेनु है। इस प्रकार जो सूर्यका पूजन करता है, वह उन्होंका सायुज्य प्राप्त करता है।
भगवान् सूर्य एक होते हुए भी कालभेदसे नाना रूप धारण करके प्रत्येक मासमें तपते रहते हैं। एक ही सूर्य बारह रूपोंमें प्रकट होते हैं। मार्गशीर्षम मित्र, पौष में सनातन विष्णु, माघमें वरुण, फाल्गुनमें सूर्य चैत्रमें भानू, वैशाखमें तापम्, ष्ठ इन्द्र आषाढ़में रवि श्रवणमें गभस्ति भादप्रम आश्विनमें हिरण्यरेता और कार्तिकमें दिवाकर तपते हैं। इस प्रकार बारह महीनोंमें भगवान् सूर्य बारह नामोंसे 1 पुकारे जाते हैं। इनका रूप अत्यन्त विशाल, महान् तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्निके समान देदीप्यमान है। जो इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, उसके शरीर में पाप नहीं रहता। उसे रोग, दरिद्रता और अपमानका कष्ट भी कभी नहीं उठाना पड़ता। वह क्रमशः यश, राज्य, सुख तथा अक्षय स्वर्ग प्राप्त करता है।
अब मैं सबको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले सूर्यके उत्तम महामन्त्रका वर्णन करूंगा। उसका भाव इस प्रकारहै—'सहस्र भुजाओं (किरणों) से सुशोभित भगवान् आदित्यको नमस्कार है। हाथमें कमल धारण करनेवाले वरुणदेवको बारंबार नमस्कार है। अन्धकारका विनाश करनेवाले श्रीसूर्यदेवको अनेक बार नमस्कार है। रश्मिमयी सहस्रों जिाएँ धारण करनेवाले भानुको नमस्कार है। भगवन्! तुम्हीं ब्रह्मा, तुम्हीं विष्णु और तुम्हीं रुद्र हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर अग्नि और वायुरूपसे विराजमान हो; तुम्हें बारंबार प्रणाम है तुम्हारी सर्वत्र गति और सब भूतोंमें स्थिति है, तुम्हारे बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। तुम इस चराचर जगत्में समस्त देहधारियोंके भीतर स्थित हो।" इस मन्त्रका जप करके मनुष्य अपने सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थों तथा स्वर्ग आदिके भोगको प्राप्त करता है। आदित्य, भास्कर, सूर्य, अर्क, भानु, दिवाकर, सुवर्णरता, मित्र, पूषा, त्वष्टा, स्वयम्भू और तिमिराश-ये सूर्यके बारह नाम बताये गये हैं। जो मनुष्य पवित्र होकर सूर्यके इन बारह नामका पाठ करता है, वह सब पापों और रोगोंसे मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होता है।
षडानन! अब मैं महात्मा भास्करके जो दूसरे दूसरे प्रधान नाम हैं, उनका वर्णन करूँगा। तपन, तापन, कर्ता, हर्ता, महेश्वर, लोकसाक्षी, त्रिलोकेश, व्योमाधिप, दिवाकर, अग्निगर्भ, महावित्र, खग, सप्ताश्ववाहन, पद्महस्त, तमोभेदी, ऋग्वेद, यजुः सामग, कालप्रिय, पुण्डरीक, मूलस्थान और भावित जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इन नामका सदा स्मरण करता है, उसे रोगका भय कैसे हो सकता है। कार्तिकेय तुम यत्नपूर्वक सुनो। सूर्यका नाम-स्मरण सब पापको हरनेवाला और शुभ है। महामते! आदित्यकी महिमा विषयमें तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिये। 'ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा', 'ॐ विष्णवे नमः' – इन मन्त्रोंका जप, होम और सन्ध्योपासन करना चाहिये। ये मन्त्र सब प्रकारसे शान्तिदेनेवाले और सम्पूर्ण विघ्नोंके विनाशक हैं। ये सब रोगोंका नाश कर डालते हैं।
अब महात्मा भास्करके मूलमन्त्रका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण कामनाओं एवं प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वह मन्त्र इस प्रकार है - ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।' इस मन्त्रसे सदा सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है—यह निश्चित बात है। इसके जपसे रोग नहीं सताते तथा किसी प्रकारके अनिष्टका भय नहीं होता। यह मन्त्र न किसीको देना चाहिये और न किसीसे इसकी चर्चा करनी चाहिये अपितु प्रयत्नपूर्वक इसका निरन्तर जप करते रहना चाहिये। जो लोग अभक्त, सन्तानहीन, पाखण्डी और लौकिक व्यवहारोंमें आसक्त हों, उनसे तो इस मन्त्रकी कदापि चर्चा नहीं करनी चाहिये। सन्ध्या और होमकर्ममें मूलमन्त्रका जप करना चाहिये। उसके जपसे रोग और क्रूर ग्रहोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है। वत्स ! दूसरे दूसरे अनेकों शास्त्रों और बहुतेरे विस्तृत मन्त्रोंकी क्या आवश्यकता है; इस मूलमन्त्रका जप ही सब प्रकारकी शान्ति तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला है। देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले नास्तिक पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो प्रतिदिन एक, दो या तीन समय भगवान् सूर्यके समीप इसका पाठ करता है, उसे अभीष्ट फलको प्राप्ति होती है। पुत्रकी कामनावालेको पुत्र, कन्या चाहनेवालेको कन्या, विद्याकी अभिलाषा रखनेवालेको विद्या और धनार्थीको धन मिलता है। जो शुद्ध आचार-विचारसे युक्त हो संयम तथा भक्तिपूर्वक इस प्रसंगका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सूर्यलोकको जाता है। सूर्य देवताके व्रतके दिन तथा अन्यान्य व्रत, अनुष्ठान, यज्ञ, पुण्यस्थान और तीर्थोंमें जो इसका पाठ करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है।
व्यासजी कहते हैं—मध्यदेशमें भद्रेश्वर नामसे प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा थे। वे बहुत-सी तपस्याओं तथा नाना प्रकारके व्रतोंसे पवित्र हो गये थे। प्रतिदिन देवता, ब्राह्मण, अतिथि और गुरुजनोंका पूजन करते थे। उनका बर्ताव न्यायके अनुकूल होता था। वे स्वभावकेसुशील और शास्त्रोंके तात्पर्य तथा विधानके पारगामी विद्वान् थे सदा सद्भावपूर्वक प्रजाजनोंका पालन करते थे। एक समयकी बात है, उनके बायें हाथमें श्वेत कुष्ठ हो गया। वैद्योंने बहुत कुछ उपचार किया; किन्तु उससे कोढ़का चिह्न और भी स्पष्ट दिखायी देने लगा। तब राजाने प्रधान प्रधान ब्राह्मणों और मन्त्रियोंको बुलाकर कहा- 'विप्रगण! मेरे हाथमें एक ऐसा पापका चिह्न प्रकट हो गया है, जो लोकमें निन्दित होनेके कारण मेरे लिये दुःसह हो रहा है। अतः मैं किसी महान् पुण्यक्षेत्रमें जाकर अपने शरीरका परित्याग करना चाहता हूँ।'
ब्राह्मण बोले- महाराज! आप धर्मशील और बुद्धिमान् हैं। यदि आप अपने राज्यका परित्याग कर देंगे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। इसलिये आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। प्रभो हमलोग इस रोगको दबानेका उपाय जानते हैं; वह यह है कि आप यत्नपूर्वक महान् देवता भगवान् सूर्यकी आराधना कीजिये।
राजाने पूछा- विप्रवरो किस उपायसे मैं भगवान् भास्करको सन्तुष्ट कर सकूँगा ?
ब्राह्मण बोले- राजन्! आप अपने राज्यमें ही रहकर सूर्यदेवकी उपासना कीजिये; ऐसा करनेसे आप भयंकर पापसे मुक्त हो स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकेंगे। यह सुनकर सम्राट्ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रणाम किया और सूर्यकी उत्तम आराधना आरम्भ की वे प्रतिदिन मन्त्रपाठ, नैवेद्य, नाना प्रकारके फल, अर्घ्य, अक्षत, जपापुष्प, मदारके पते, लाल चन्दन, कुंकुम, सिन्दूर, कदलीपत्र तथा उसके मनोहर फल आदिके द्वारा भगवान् सूर्यकी पूजा करते थे। राजा गूलरके पात्रमें अर्घ्य सजाकर सदा सूर्यदेवताको निवेदन किया करते थे। अर्घ्य देते समय वे मन्त्री और पुरोहितोंके साथ सदा सूर्यके सामने खड़े रहते थे। उनके साथ आचार्य, रानियाँ, अन्तःपुरमै रहनेवाले रक्षक तथा उनकी पलियाँ, दासवर्ग तथा अन्य लोग भी रहा करते थे वे सब लोग प्रतिदिन साथ ही साथ अर्घ्य देते थे सूर्यदेवताके अंगभूत जितने व्रत थे, उनका भी उन्होंने एकाग्रचित्त होकरअनुष्ठान किया। क्रमशः एक वर्ष व्यतीत होनेपर राजाका रोग दूर हो गया। इस प्रकार उस भयंकर रोग नष्ट हो जानेपर राजाने सम्पूर्ण जगत्को अपने यक्ष करके सबके द्वारा प्रभातकालमें सूर्यदेवताका पूजन और व्रत कराना आरम्भ किया। सब लोग कभी हविष्यान्न खाकर और कभी निराहार रहकर सूर्यदेवताका पूजन करते थे। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गोंके द्वारा पूजित होकर भगवान् सूर्य बहुत सन्तुष्ट हुए और कृपापूर्वक राजाके पास आकर बोले- 'राजन्। तुम्हारे मनमें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे वरदानके रूपमें माँग लो। सेवकों और पुरवासियोंसहित तुम सब लोगोंका हित करने के लिये मैं उपस्थित हूँ।'
राजाने कहा- सबको नेत्र प्रदान करनेवाले भगवन्! यदि आप मुझे अभीष्ट वरदान देना चाहते हैं, तो ऐसी कृपा कीजिये कि हम सब लोग आपके पास रहकर ही सुखी हों।
सूर्य बोले- राजन् ! तुम्हारे मन्त्री, पुरोहित, ब्राह्मण, स्त्रियाँ तथा अन्य परिवारके लोग सभी शुद्ध होकर कल्पपर्यन्त मेरे रमणीय धाममें निवास करें।
व्यासजी कहते हैं—यों कहकर संसारको नेत्र प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर राजा भद्रेश्वर अपने पुरवासियोंसहित दिव्यलोकमें आनन्दका अनुभव करने लगे। वहाँ जो कीड़े-मकोड़े आदि थे, आदि थे, वे भी अपने पुत्र आदिके साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको सिधारे। इसी प्रकार राजा, ब्राह्मण, कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले मुनि तथा क्षत्रिय आदि अन्य वर्ण सूर्यदेवताके धाममें चले गये। जो मनुष्य पवित्रतापूर्वक इस प्रसंगका पाठ करता है, उसके सब पापका नाश हो जाता है तथा वह रुद्रकी भाँति इस पृथ्वीपर पूजित होता है जो मानव संयमपूर्वक इसकाश्रवण करता है, उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। इस अत्यन्त गोपनीय रहस्यका भगवान् सूर्यने यमराजको उपदेश दिया था। भूमण्डलपर तो व्यासके द्वारा ही इसका प्रचार हुआ है।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! इस तरह नाना प्रकारके धर्मोका निर्णय सुनाकर भगवान् व्यास शम्याप्राशमें चले गये। तुम भी इस तत्त्वको श्रद्धापूर्वक जानकर सुखसे विचरो और समयानुसार भगवान् श्रीविष्णुके सुयशका सानन्द गान करते रहो। साथ ही जगत्को धर्मका उपदेश देते हुए जगद्गुरु भगवान्को प्रसन्न करो।
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवर्षि नारद मुनिवर श्रीनारायणका दर्शन करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर बदरिकाश्रम तीर्थमें चले गये।
महाराज ! इस प्रकार यह सारा सृष्टिखण्ड मैंने क्रमशः तुम्हें सुना दिया। यह सम्पूर्ण वेदार्थोंका सार है, इसे सुनकर मनुष्य भगवान्का सान्निध्य प्राप्त करता है। यह परम पवित्र, यशका निधान तथा पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। यह देवताओंके लिये अमृतके समान मधुर तथा पापी पुरुषोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य ऋषियोंके इस शुभ चरित्रका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। सत्ययुगमें तपस्या, त्रेता में ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमें एकमात्र दानकी विशेष प्रशंसा की गयी है। सम्पूर्ण दानोंमें भी समस्त भूतोंको अभय देना- यही सर्वोत्तम दान है; इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। * तीर्थ और श्राद्धके वर्णनसे युक्त यह पुराण खण्ड कहा गया। यह पुण्यजनक, पवित्र, आयुवर्धक और सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। जो मनुष्य इसका पाठ या श्रवण करता है, वह श्रीसम्पन्न होता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो लक्ष्मीसहित भगवान् श्रीविष्णुको प्राप्त कर लेता है।