ऋषय ऊचुः
भवता कथितं सर्वं यत्किञ्चित् पृष्टमेव च ।
इदानीमपि पृच्छाम एकं वद महामते 1 ॥
ऋषियोंने कहा- महामते। हमलोगोंने जो कुछ पूछा था, वह सब आपने कह सुनाया। अब भी आपसे एक प्रश्न करते हैं, उसका उत्तर दीजिये।
एतेषां खलु तीर्थानां सेवनाद्यत् फलं भवेत् ।
सर्वेषां किल कृत्वैकं कर्म केन च लभ्यते
एतनो ब्रूहि सर्वज्ञ कर्मैवं यदि वर्तते ॥ 2 ॥
इन सभी तीर्थोके सेवनसे जो फल होता है, वही कौन-सा एक कर्म करनेसे प्राप्त हो सकता है ? सर्वज्ञ सूतजी। यदि ऐसा कोई कर्म हो तो उसे हमें बताइये ।
सूत उवाच
कर्मयोगः किल प्रोक्तो वर्णानां द्विजपूर्वशः ।
नानाविधो महाभागास्तत्र चैकं विशिष्यते ॥ 3 ॥
सूतजीने कहा – महाभाग महर्षिगण ! [ शास्त्रों में ] ब्राह्मणादि वर्णोंके लिये निश्चय ही नाना प्रकारके कर्मयोगका वर्णन किया गया है, परन्तु उसमें एक ही बात सबसे बढ़कर है।
हरिभक्तिः कृता येन मनसा कर्मणा गिरा ।
जितं तेन जितं तेन जितमेव न संशयः ॥ 4 ॥
जिसने मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीहरिकी भक्ति की है, उसने बाजी मार ली, उसने विजय प्राप्त कर ली, उसकी निश्चय ही जीत हो गयी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
हरिरेव समाराध्यः सर्वदेवेश्वरेश्वरः ।
हरिनाममहामन्त्रैर्नश्येत् पापपिशाचकम् ॥ 5 ॥
सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी ही भलीभाँति आराधना करनी चाहिये। हरिनामरूपी महामन्त्रोंके द्वारा पापरूपी पिशाचोंका समुदाय नष्ट हो जाता है।
हरेः प्रदक्षिणां कृत्वा सकृदप्यमलाशयाः ।
सर्वतीर्थसमागाह्यं लभन्ते संशयः ॥ 6 ॥
एक बार भी श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करके मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका जो फल होता है, उसे प्राप्त कर लेते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
यन्न प्रतिमां च हरेर्दृष्ट्वा सर्वतीर्थफलं लभेत् ।
विष्णुनाम परं जप्त्वा सर्वमन्त्रफलं लभेत् ॥ 7 ॥
मनुष्य श्रीहरिकी प्रतिमाका दर्शन करके सब तीर्थोंका फल प्राप्त करता है तथा विष्णुके उत्तम नामका जप करके सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल पा लेता है।
विष्णुप्रसादतुलसीमाघ्राय द्विजसत्तमाः ।
प्रचण्डं विकरालं तद् यमस्यास्यं न पश्यति ॥ 8 ॥
द्विजवरो ! भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप तुलसीदलको सूँघकर मनुष्य यमराजके प्रचण्ड एवं विकराल मुखका दर्शन नहीं करता।
सकृत्प्रणामी कृष्णस्य मातुः स्तन्यं पिबेन्न हि ।
हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ 9 ॥
एक बार भी श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य पुनः माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता-उसका दूसरा जन्म नहीं होता। जिन पुरुषोंका चित्त श्रीहरिके चरणों में लगा है, उन्हें प्रतिदिन मेरा बारंबार नमस्कार है।
पुल्कसः श्वपचो वापि ये चान्ये म्लेच्छजातयः ।
तेऽपि वन्द्या महाभागा हरिपादैकसेवकाः ॥ 10 ॥
पुल्कस, श्वपच (चाण्डाल) तथा और भी जो म्लेच्छ जातिके मनुष्य हैं, वे भी यदि एकमात्र श्रीहरिके चरणोंकी सेवामें लगे हों तो वन्दनीय और परम सौभाग्यशाली हैं।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
हरौ भक्तिं विधायैव गर्भवासं न पश्यति ll 11 ॥
फिर जो पुण्यात्मा ब्राह्मण और राजर्षि भगवान्के भक्त हों, उनकी तो बात ही क्या है। भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करके ही मनुष्य गर्भवासका दुःख नहीं देखता ।
हरेरग्रे स्वनैरुच्चैर्नृत्यंस्तन्नामकृन्नरः ।
पुनाति भुवनं विप्रा गङ्गादि सलिलं यथा ॥ 12 ॥
ब्राह्मणो! भगवान्के सामने उच्चस्वरसे उनके नामोंका कीर्तन करते हुए नृत्य करनेवाला मनुष्य गंगा आदि नदियोंके जलकी भाँति समस्त संसारको पवित्र कर देता है।
दर्शनात् स्पर्शनात्तस्य आलापादपि भक्तितः ।
ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ 13 ॥
उस भक्तके दर्शन और स्पर्शसे, उसके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उसके प्रति भक्तिभाव रखनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
हरे: प्रदक्षिणं कुर्वन्नुच्चैस्तन्नामकृन्नरः ।
करतालादिसंधानं सुस्वरं कलशब्दितम् ।
ब्रह्महत्यादिकं पापं तेनैव करतालितम् ॥ 14 ॥
जो श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करते हुए करताल आदि बजाकर मधुर स्वर तथा मनोहर शब्दोंमें उनके नामोंका कीर्तन करता है, उसने ब्रह्महत्या आदि पापको मानो ताली बजाकर भगा दिया।
हरिभक्तिकथामुक्ताख्यायिकां शृणुयाच्च यः ।
तस्य संदर्शनादेव पूतो भवति मानवः ।। 15 ।।
जो हरिभक्ति-कथारूपी मुक्तामयी आख्यायिकाका श्रवण करता है, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है।
किं पुनस्तस्य पापानामाशङ्का मुनिपुङ्गवाः ।
तीर्थानां च परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः ll 16 ॥
मुनिवरो। फिर उसके विषयमें पापकी आशंका क्या रह सकती है। महर्षियो ! श्रीकृष्णका नाम सब तीर्थोंमें परम तीर्थ है। तीर्थीकुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः तस्मान्मुनिवराः पुण्यं नातः परतरं विदुः ॥ 17 ॥
जिन्होंने श्रीकृष्ण नामको अपनाया है, वे पृथ्वीको तीर्थ बना देते हैं। इसलिये श्रेष्ठ मुनिजन इससे बढ़कर पावन वस्तु और कुछ नहीं मानते।
विष्णुप्रसादनिर्माल्यं भुक्त्वा धृत्या च मस्तके
विष्णुरेव भवेन्मर्त्यो यमशोकविनाशनः ।
अर्चनीयो नमस्कार्यो हरिरेव न संशयः ॥ 18 ॥
श्रीविष्णुके प्रसादभूत निर्माल्यको खाकर और मस्तकपर धारण करके मनुष्य साक्षात् विष्णु ही हो जाता है। वह यमराजसे होनेवाले शोकका नाश करनेवाला होता है; वह पूजन और नमस्कारके योग्य साक्षात् श्रीहरिका ही स्वरूप है—- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
ये ही विष्णुमव्यक्तं देवं वापि महेश्वरम्।
एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्भवः ॥ 19 ॥
जो इन अव्यक्त विष्णु तथा भगवान् महेश्वरको एक भावसे देखते हैं, उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता।
तस्मादनादिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्।
हरं चैकं प्रपश्यध्वं पूजयध्वं तथैव हि ॥ 20 ॥
अतः महर्षियो! आप आदि - अन्तसे रहितअविनाशी परमात्मा विष्णु तथा महादेवजीको एक 'भावसे देखें तथा एक समझकर ही उनका पूजन करें।
येऽसमानं प्रपश्यन्ति हरिं वै देवतान्तरम् ।
ते यान्ति नरकान् घोरान्न तांस्तु गणयेद्धरिः ।। 21 ।।
जो 'हरि' और 'हर' को समान भावसे नहीं देखो श्रीहरिको दूसरा देवता समझते हैं, वे धोर नरकमे पड़ते हैं; उन्हें श्रीहरि अपने भक्तोंमें नहीं गिनते।
मूर्ख वा पण्डितं वापि ब्राह्मणं केशवप्रियम्
श्वपाकं वा मोचयति नारायणः स्वयं प्रभुः 22 ॥
पण्डित हो या मूर्ख, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, यदि वह भगवान्का प्यारा भक्त है तो स्वयं भगवान् नारायण उसे संकटोंसे छुड़ाते हैं।
नारायणात्परो नास्ति पापराशिदद्वानलः।
कृत्वापि पातकं घोरं कृष्णनाम्ना विमुच्यते 23 ॥
भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पापपुंजरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके समान हो। भयंकर पातक करके भी मनुष्य श्रीकृष्ण नामके उच्चारणसे मुक्त हो जाता है।
स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः ।
आत्मनोऽभ्यधिकां शक्तिं स्थापयामास सुव्रताः ll 24 ll
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो! जगद्गुरु भगवान् नारायणने स्वयं ही अपने नाममें अपनेसे भी अधिक शक्ति स्थापित कर दी है।
अत्र ये विवदन्ते वा आयासलघुदर्शनात्
फलानां गौरवाच्चापि ते यान्ति नरकं बहु ।। 25 ।।
नाम-कीर्तनमें परिश्रम तो थोड़ा होता है, किन्तु फल भारी से भारी प्राप्त होता है—यह देखकर जो लोग इसकी महिमाके विषयमें तर्क उपस्थित करते हैं, वे अनेकों बार नरकमें पड़ते हैं।
तस्माद्धरी भक्तिमान् स्याद्धरिनामपरायणः
पूजकं पृष्ठतो रक्षेन्नामिनं वक्षसि प्रभु ।। 26 ।।
इसलिये हरिनामकी शरण लेकर भगवान्की भक्ति करनी चाहिये। प्रभु अपने पुजारीको तो पीछे रखते हैं; किन्तु नाम-जप करनेवालेको छाती से लगाये रहते हैं।
हरिनाममहावज्रं पापपर्वतदारणम्।
तस्य पादौ तु सफलौ तदर्थगतिशालिनौ ॥ 27 ॥
हरिनामरूपी महान् वज्र पापोंके पहाड़को विदीर्ण करनेवाला है। जो भगवान्की ओर आगे बढ़ते हों, मनुष्यके वे ही पैर सफल हैं।
तावेव धन्यावाख्यातौ यौ तु पूजाकरौ करौ ।
उत्तमाङ्गमुत्तमाङ्गं तद्धरौ नम्रमेव यत् ॥ 28 ॥
वे ही हाथ धन्य कहे गये हैं, जो भगवान्की पूजामें संलग्न रहते हैं। जो मस्तक भगवानके आगे झुकता हो, वही उत्तम अंग है।
सा जिह्वा या हरिं स्तौति तन्मनस्तत्पदानुगम् ।
तानि लोमानि चोच्यन्ते यानि तन्नाम्नि चोत्थितम् ॥ 29 ॥
कुर्वन्ति तच्च नेत्राम्बु यदच्युतप्रसङ्गतः
जीभ वही श्रेष्ठ है, जो भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करती है। मन भी वही अच्छा है, जो उनके चरणोंका अनुगमन - चिन्तन करता है तथा रोएँ भी वे ही सार्थक कहलाते हैं, जो भगवान्का नाम लेनेपर खड़े हो जाते हैं। इसी प्रकार आँसू वे ही सार्थक हैं, जो भगवान्की चर्चाके अवसरपर निकलते हैं।
अहो लोका अतितरां दैवदोषेण वञ्चिताः ॥ 30 ॥
नामोच्चारणमात्रेण मुक्तिदं न भजन्ति वै।
अहो संसारके लोग भाग्यदोषसे अत्यन्त वंचित हो रहे हैं, क्योंकि वे नामोच्चारणमात्रसे मुक्ति देनेवाले भगवान्का भजन नहीं करते।
वञ्चितास्ते च कलुषाः स्वीणां सङ्गप्रसङ्गतः ॥ 31 ॥
प्रतिष्ठन्ति च लोमानि येषां नो
कृष्णशब्दने स्त्रियोंके स्पर्श एवं चर्चासे जिन्हें रोमांच हो आता है, श्रीकृष्णका नाम लेनेपर नहीं, वे मलिन तथा कल्याणसे वंचित हैं।
ते मूर्खा ह्यकृतात्मानः पुत्रशोकादिविह्वलाः ॥ 32 ॥
रुदन्ति बहुलालापैन कृष्णाक्षरकीर्तने
जो अजितेन्द्रिय पुरुष पुत्रशोकादिसे व्याकुल होकर अत्यन्त विलाप करते हुए रोते हैं, किन्तु श्रीकृष्णनामके अक्षरोंका कीर्तन करते हुए नहीं रोते, वे मूर्ख हैं।
जिह्वां लब्ध्वापि लोकेऽस्मिन्कृष्णनाम जपेन्न हि ॥ 33 ॥
लब्ध्वापि मुक्तिसोपानं हेलयैव च्यवन्ति ते ।
जो इस लोकमें जीभ पाकर भी श्रीकृष्णनामका जप नहीं करते, वे मोक्षतक पहुँचनेके लिये सीढ़ी पाकर भी अवहेलनावश नीचे गिरते हैं।
तस्माद्यत्नेन वै विष्णुं कर्मयोगेन मानवः ॥ 34 ॥
कर्मयोगार्चितो विष्णुः प्रसीदत्येव नान्यथा
तीर्थादप्यधिकं तीर्थं विष्णोर्भजनमुच्यते ॥ 35 ॥
इसलिये मनुष्यको उचित है कि वह कर्मयोगके द्वारा भगवान् विष्णुकी यत्नपूर्वक आराधना करे। कर्मयोगसे पूजित होनेपर ही भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं, अन्यथा नहीं। भगवान् विष्णुका भजन तीर्थोंसे भीअधिक पावन तीर्थ कहा गया है।
सर्वेषां खलु तीर्थानां स्नानपानावगाहनैः ।
यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं कृष्णसेवनात् ॥ 36 ॥
सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करने, उनका जल पीने और उनमें गोता लगानेसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वह श्रीकृष्णके सेवनसे प्राप्त हो जाता है।
यजन्ते कर्मयोगेन धन्या एव नरा हरिम् ।
तस्माद्यजध्वं मुनयः कृष्णं परममङ्गलम् ॥ 37॥
भाग्यवान् मनुष्य ही कर्मयोगके द्वारा श्रीहरिका पूजन करते हैं। अतः मुनियो ! आपलोग परम मंगलमय श्रीकृष्णकी आराधना करें।