शेषजी कहते हैं—मुने! नन्दिग्रामपर दृष्टि पड़ते ही श्रीरघुनाथजीका चित्त भरतको देखनेकी उत्कण्ठासे
विह्वल हो गया। उन्हें धर्मात्माओं में अग्रगण्य भाई भरतकी बारंबार याद आने लगी। तब वे महाबली वायुनन्दन हनुमानजीसे बोले- "वीर! तुम मेरे भाईके पास जाओ। उनका शरीर मेरे वियोगसे क्षीण होकर छड़ीके समान दुबला-पतला हो गया है और वे उसे किसी प्रकार हठपूर्वक धारण किये हुए हैं। जो वल्कल पहनते हैं, मस्तकपर जटा धारण करते हैं, जिनकी दृष्टिमें परायी स्त्री माता और सुवर्ण मिट्टीके ढेलेके समान है तथा जो प्रजाजनोंको अपने पुत्रोंकी भाँति स्नेह-दृष्टिसे देखते हैं, वे मेरे धर्मज्ञ भ्राता भरत दुःखी हैं। उनका शरीर मेरे वियोगजनित दुःखरूप अग्निकी ज्वालामें दग्ध हो रहा है; अतः इस समय तुम तुरंत जाकर मेरे आगमनके संदेशरूपी जलकी वर्षासे उन्हें शान्त करो। उन्हें यह समाचार सुनाओ कि 'सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि कपीश्वरों तथा विभीषणसहित राक्षसोंको साथ से तुम्हारे भाई श्रीराम पुष्पक विमानपर बैठकर सुखपूर्वकआ पहुँचे हैं।' इससे मेरा आगमन जानकर मेरे छोटे भाई भरत शीघ्र ही प्रसन्न हो जायँगे।"
परम बुद्धिमान् श्रीरघुवीरके ये वचन सुनकर हनुमान्जी उनकी आज्ञाका पालन करते हुए भरतजीके निवास-स्थान नन्दिग्रामको गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, भरतजी बूढ़े मन्त्रियोंके साथ बैठे हैं और अपने पूज्य भ्राताके वियोगसे अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उस समय उनका मन श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्दोंके मकरन्दमें डूबा हुआ था और वे अपने वृद्ध मन्त्रियोंसे उन्हींकी कथा - वार्ता कह रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप हों अथवा विधाताने मानो सम्पूर्ण सत्त्वगुणको एकत्रित करके उसीके द्वारा उनका निर्माण किया हो। भरतजीको इस रूपमें देखकर हनुमान्जीने उन्हें प्रणाम किया तथा भरतजी भी उन्हें देखते ही तुरंत हाथ जोड़कर खड़े हो गये और बोले 'आइये, आपका स्वागत है; श्रीरामचन्द्रजीकी कुशल कहिये।' वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि इतनेमें उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी। हृदयसे शोक निकलकहा- 'लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी इस ग्रामके निकट आ गये हैं।' श्रीरघुनाथजीके आगमनके संदेशने भरतके शरीरपर मानो अमृत छिड़क दिया, वे हर्षमें भरकर बोले- 'श्रीरामका संदेश लानेवाले हनुमान्जी ! मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे यह प्रिय समाचार सुनानेके बदलेमें मैं आपको दे सकूँ; इस उपकारके कारण मैं जीवनभर आपका दास बना रहूँगा।' महर्षि वसिष्ठ तथा वृद्ध मन्त्री भी अत्यन्त हर्षमें भरकर अर्घ्य हाथमें लिये हनुमान्जीके दिखाये हुए मार्गसे श्रीरामचन्द्रजीके पास चल दिये। भरतजीकी दृष्टि दूरसे आते हुए परम मनोरम भगवान् श्रीरामपर पड़ी। वे पुष्पक विमानके मध्यभागमें सीता और लक्ष्मणके साथ बैठे थे।
श्रीरामचन्द्रजीने भी जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए भरतको पैदल ही आते देखा; साथ ही उनकी दृष्टि उन मन्त्रियोंपर भी पड़ी, जिन्होंने भाईके वेषके समान ही वेष धारण कर रखा था। उनकेमस्तकपर भी जटा थी तथा वे भी निरन्तर तपस्यासे क्लेश उठानेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। राजा भरतको इस अवस्थामें देखकर श्रीरघुनाथजीको बड़ी चिन्ता हुई, वे कहने लगे-'अहो! राजाओंके भी राजा महाबुद्धिमान् महाराज दशरथका यह पुत्र आज जटा और वल्कल आदि तपस्वीका वेष धारण किये पैदल ही मेरे पास आ रहा है। मित्रो! मैं वनमें गया था; किन्तु मुझे भी ऐसा दुःख नहीं उठाना पड़ा, जैसा कि मेरे वियोगके कारण इस भरतको भोगना पड़ रहा है। अहो! देखो तो सही, प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा और हितैषी मेरा भाई भरत मुझे निकट आया सुनकर हर्षमें भरे हुए वृद्ध मन्त्रियों तथा महर्षि वसिष्ठजीको साथ लेकर मुझसे मिलनेके लिये आ रहा है।' इस प्रकार भगवान् श्रीराम आकाशमें स्थित पुष्पक विमानसे उपर्युक्त बातें कह रहे थे और विभीषण, हनुमान् तथा लक्ष्मण उनके प्रति आदरका भाव प्रकट कर रहे थे। निकट आनेपर भगवान्का हृदय विरहसे कातर हो उठा और वे 'भैया! भैया भरत! तुम कहाँ हो' इस प्रकार कहते तथा बारंबार 'भाई! भाई!! भाई!!!' की रटलगाते हुए तुरंत ही विमानसे उतर पड़े। सहायकोंसहित श्रीरामचन्द्रजीको भूमिपर उतरे देख भरतजी हर्षके आँसू बहाते हुए उनके सामने दण्डकी भाँति धरतीपर पड़ गये। श्रीरघुनाथजीने भी उन्हें दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़ा देख हर्षपूर्ण दृष्टिसे देखते हुए अपनी दोनों भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। आरम्भमें श्रीरामचन्द्रजीके बारंबार उठानेपर भी भरतजी उठे नहीं, अपितु अपने दोनों हाथोंसे भगवान्के चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोते रहे।
भरतजीने कहा - महाबाहु भगवान् श्रीराम मेँ दुष्ट, दुराचारी और पापी हूँ; मुझपर कृपा कीजिये आप दयाके सागर हैं, अपनी दयासे ही मुझे अनुगृहीत कीजिये। भगवन्! जिन्हें सीताजीके कोमल हाथोंका स्पर्श भी कठोर जान पड़ता था, आपके उन्हीं चरणोंको मेरे कारण वनमें भटकना पड़ा!
यों कहकर भरतजीने दीनभावसे आँसू बहाते हुए बारंबार श्रीरघुनाथजीके चरणोंका आलिंगन किया और हर्षसे विह्वल होकर उनके सामने हाथ जोड़े खड़े हो गये ।करुणासागर श्रीरघुनाथजीने अपने छोटे भाईको गले लगाकर प्रधान मन्त्रियोंको भी प्रणाम किया तथा सबसे आदरपूर्वक कुशल- समाचार पूछा। इसके बाद भाई भरतके साथ वे पुष्पक विमानपर जा बैठे। वहाँ भरतजीने अपनी भ्रातृ-पत्नी पतिव्रता सीताजीको देखा, जो अत्रिकी भार्या अनसूया तथा अगस्त्यकी पत्नी लोपामुद्राकी भाँति जान पड़ती थीं। पतिव्रता जनक किशोरीका दर्शन करके भरतजीने उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और कहा—'माँ! मैं महामूर्ख हूँ; मेरे द्वारा जो अपराध हो गया है, उसे क्षमा करना; क्योंकि आप जैसी पतिव्रताएँ सबका भला करनेवाली ही होती हैं।' परम सौभाग्यवती जनक-किशोरीने भी अपने देवर भरतकी ओर आदरपूर्ण दृष्टि डालकर उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उनका कुशल-मंगल पूछा। उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर सब-के-सब आकाशमें आ गये; फिर एक ही क्षणमें श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि पिताकी राजधानी अयोध्या अब बिलकुल अपने निकट है।