युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है? कृपया बताइये।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! एकचित्त होकर सुनो। भाद्रपद मासके कृष्णपक्षको एकादशीका नाम 'अजा' है, वह सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। जो भगवान् हृषीकेशका पूजन करके इसका व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक विख्यात चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो समस्त भूमण्डलके स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ थे। एक समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर उन्हेंराज्यसे भ्रष्ट होना पड़ा। राजाने अपनी पत्नी और पुत्रको बेचा। फिर अपनेको भी बेच दिया। पुण्यात्मा होते हुए भी उन्हें चाण्डालकी दासता करनी पड़ी। वे मुर्दोंका कफन लिया करते थे। इतनेपर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र सत्यसे विचलित नहीं हुए। इस प्रकार चाण्डालकी दासता करते उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इससे राजाको बड़ी चिन्ता हुई। वे अत्यन्त दुःखी होकर सोचने लगे-'क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा ?' इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे शोकके समुद्रमें डूब गये। राजाको आतुर जानकर कोई मुनि उनके पास आये, वे महर्षि गौतम थे। श्रेष्ठ ब्राह्मणकोआया देख नृपश्रेष्ठने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़ गौतमके सामने खड़े होकर अपना सारा दुःखमय समाचार कह सुनाया। राजाकी बात सुनकर गौतमने कहा- 'राजन् भादोंके कृष्णपक्षमें अत्यन्त कल्याणमयी 'अजा' नामकी एकादशी आ रही है, जो पुण्य प्रदान करनेवाली है। इसका व्रत करो। इससे पापका अन्त होगा। तुम्हारे भाग्यसे आजके सातवें दिन एकादशी है। उस दिन उपवास करके रातमें जागरण करना।'
ऐसा कहकर महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये। मुनिकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्रने उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे राजा सारे दुःखोंसे पार हो गये। उन्हें पत्नीका सन्निधान और पुत्रका जीवन मिल गया। आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठीं देवलोकसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। एकादशी के प्रभावसे राजाने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और अन्तमें वे पुरजन तथा परिजनोंके साथ स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये। राजा युधिष्ठिर जो मनुष्य ऐसा व्रत करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं। इसके पढ़ने और सुननेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है।
युधिष्ठिरने पूछा- केशव भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम, कौन देवता और कैसी विधि है? यह बताइये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! इस विषयमें मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ; जिसे ब्रह्माजीने महात्मा नारदसे कहा था।
नारदजीने पूछा- चतुर्मुख आपको नमस्कार है। मैं भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये आपके मुखसे यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?
ब्रह्माजीने कहा – मुनिश्रेष्ठ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे। भादोंके शुक्लपक्षकी एकादशी 'पद्मा' के नामसे विख्यात है। उस दिन भगवान् हृषीकेशकी पूजा होती है। यह उत्तम व्रत अवश्य करनेयोग्य है।सूर्यवंशमें मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्य प्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे प्रजाका अपने औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन किया करते थे। उनके राज्यमें अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियोंका प्रकोप भी नहीं होता था। उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्यसे समृद्ध थी। महाराजके कोषमें केवल न्यायोपार्जित धनका ही संग्रह था। उनके राज्यमें समस्त वर्णों और आश्रमोंके लोग अपने-अपने धर्ममें लगे रहते थे। मान्धाताके राज्यकी भूमि कामधेनुके समान फल देनेवाली थी। उनके राज्य करते समय प्रजाको बहुत सुख प्राप्त होता था। एक समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर राजाके राज्यमें तीन वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा भूखसे पीड़ित हो नष्ट होने लगी; तब सम्पूर्ण प्रजाने महाराजके पास आकर इस प्रकार कहा
प्रजा बोली- नृपश्रेष्ठ! आपको प्रजाकी बात सुननी चाहिये। पुराणोंमें मनीषी पुरुषोंने जलको 'नारा' कहा है; वह नारा ही भगवान्का अयन-निवासस्थान हैं;
इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। नारायणस्वरूप भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापकरूपमें विराजमान हैं। वे ही मेघस्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षासे अन्न पैदा होता है और अन्नसे प्रजा जीवन धारण करती है। नृपश्रेष्ठ! इस समय अन्नके बिना प्रजाका नाश हो रहा है; अतः ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेमका निर्वाह हो। राजाने कहा – आपलोगोंका कथन सत्य है, क्योंकि अन्नको ब्रह्म कहा गया है। अन्नसे प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्नसे ही जगत् जीवन धारण करता है। लोकमें बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराणमें भी बहुत विस्तारके साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओंके अत्याचारसे प्रजाको पीड़ा होती है; किन्तु जब मैं बुद्धिसे विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता। फिर भी मैं प्रजाका हित करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न करूँगा । ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने-गिने व्यक्तियोंको साथ ले विधाताको प्रणाम करके सघनवनकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर मुख्य-मुख्य मुनियों और तपस्वियोंके आश्रमोंपर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ऋषिका दर्शन हुआ। उनपर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्षमें भरकर अपने वाहनसे उत्तर पड़े और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिने भी 'स्वस्ति' कहकर राजाका अभिनन्दन किया और उनके राज्यके सातों अंगोंकी कुशल पूछी। राजाने अपनी कुशल बताकर मुनिके स्वास्थ्यका समाचार पूछा मुनिने राजाको आसन और अर्घ्य दिया। उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनिके समीप बैठे तो उन्होंने इनके आगमनका कारण पूछा।
तब राजाने कहा - भगवन्! मैं धर्मानुकूल प्रणालीसे पृथ्वीका पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्यमें वर्षाका अभाव हो गया। इसका क्या कारण है। इस बातको मैं नहीं जानता
ऋषि बोले- राजन् ! यह सब युगों में उत्तम सत्ययुग है। इसमें सब लोग परमात्माके चिन्तनमें लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणोंसे युक्त होता है। इस युगमें केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं। किन्तु महाराज! तुम्हारे राज्यमें यह शूद्र तपस्या करता है; इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते तुम इसके प्रतीकारका यत्न करो; जिससे यह अनावृष्टिका दोष शान्त हो जाय l
राजाने कहा- मुनिवर। एक तो यह तपस्यामें लगा है, दूसरे निरपराध है; अतः मैं इसका अनिष्ट नहीं करूँगा। आप उक्त दोषको शान्त करनेवाले किसी धर्मका उपदेश कीजिये।
ऋषि बोले- राजन् यदि ऐसी बात है तोएकादशीका व्रत करो। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो 'पद्मा' नामसे विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रतके प्रभावसे निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी। नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनोंके साथ इसका व्रत करो।
ऋषिका यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णोंको समस्त प्रजाओंके साथ भादोंके शुक्लपक्षकी 'पद्मा' एकादशीका व्रत किया। इस प्रकार व्रत करनेपर मेघ पानी बरसाने लगे। पृथ्वी जलसे आप्लावित हो गयी और हरी-भरी खेती से सुशोभित होने लगी। उस व्रतके प्रभावसे सब लोग सुखी हो गये।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— राजन्। इस कारण इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। 'पद्मा' एकादशीके दिन जलसे भरे हुए घड़ेको वस्त्रसे ढँककर दही और चावलके साथ ब्राह्मणको दान देना चाहिये, साथ ही छाता और जूता भी देने चाहिये। दान करते समय निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे
नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥
भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव।
(59।38-39) '[ बुधवार और श्रवण नक्षत्रके योगसे युक्त द्वादशीके दिन] बुधश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान् गोविन्द! आपको नमस्कार है, नमस्कार है; मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें। आप पुण्यात्माजनोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं।' राजन् ! इसके पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।