सूतजी कहते हैं— महर्षिगण ! अब मैं आपलोगों से परम उत्तम भारतवर्षका वर्णन करूँगा। राजा प्रियमित्र, देव, वैवस्वत मनु पृथु इक्ष्वाकु ययाति, अम्बरीष, मान्धाता नहुष, मुचुकुन्द, कुबेर, उशीनर, ऋषभ, पुरूरवा, राजा नृग, राजर्षि कुशिक, गाधि, सोम तथा राजर्षि दिलीपको, अन्यान्य बलिष्ठ क्षत्रिय राजाओंको एवं सम्पूर्ण भूतोंको ही यह उत्तम देश भारतवर्ष बहुत ही प्रिय रहा। इस देशमें महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान् ऋक्षवान् विन्ध्य तथा पारियात्र- ये सात कुल पर्वत हैं। इनके आसपास और भी हजारों पर्वत हैं। भारतवर्षके लोग जिन विशाल नदियोंका जल पीते हैं, उनके नाम ये हैं-गंगा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, शतद्दु (सतलज), चन्द्रभागा, यमुना, दुष्टुती, विपाशा (व्यास), वेत्रवती (बेतवा, कृष्णा, वेणी, इरावती, (इरावदी), वितस्ता (झेलम), पयोष्णी, देविका, वेदस्मृति, वेदशिरा, त्रिदिया,सिन्धुलाकृमि, करीषिणी, चित्रवहा, त्रिसेना, गोमती, चन्दना, कौशिकी (कोसी), हृद्या, नाचिता, रोहितारणी, रहस्या, शतकुम्भा, सरयू, चर्मण्वती, हस्तिसोमा, दिशा, शरावती, भीमरथी, कावेरी, बालुका, तापी (ताप्ती), नीवारा, महिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कृष्णला, वाजिनी, पुरुमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा, मालावती, पापहारिणी, पलाशिनी, महेन्द्रा, पाटलावती, असिक्नी, कुशवीरा, मरुत्वा, प्रवरा, मेना, होरा, घृतवती, अनाकती, अनुष्णी, सेव्या, कापी, सदावीरा, अधृष्या, कुशचीरा, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वामित्रा, कपिंजला, उपेन्द्रा, बहुला, कुवीरा, वैनन्दी, पिंजला, वेणा, तुंगवेगा, महानदी, विदिशा, कृष्णवेगा, ताम्रा, कपिला, धेनु, सकामा, वेदस्वा, हविः स्रावा, महापथा, क्षिप्रा (सिप्रा), पिच्छला, भारद्वाजी, कौर्णिकी, शोणा (सोन), चन्द्रमा, अन्तःशिला, ब्रह्ममेध्या, परोक्षा, रोही, जम्बूनदी (जम्मू), सुनासा, तपसा, दासी, सामान्या, वरुणा, असी, नीला, धृतिकरी,पर्णाशा, मानवी, वृषभा तथा भाषा द्विजवरो! ये तथा और भी बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ है। अब जनपदोंका वर्णन करता हूँ, सुनिये। कुरु,
पांचाल, शाल्व, मात्रेय, जांगल, शूरसेन (मथुराके आसपासका प्रान्त), पुलिन्द, बौध, माल, सौगन्ध्य, चेदि, मत्स्य (जयपुरके आसपासका भूखण्ड), करूप, भोज, सिन्धु (सिंध), उत्तम, दशार्ण, मेकल, उत्कल, कोशल, नैकपृष्ठ युगंधर, मद, कलिंग, काशि, अपरकाशि जठर, कुकुर, कुन्ति, अवन्ति (उज्जैनके आसपासका देश), अपरकुन्ति, गोमन्त मल्लक, पुण्ड्र नृपवाहिक, अश्मक, उत्तर, गोपराष्ट्र, अधिराज्य, कुशट्ट, मल्लराष्ट्र, मालव (मालवा), उपवास्य, वक्रा, वक्रातप, मागध, सद्य, मलज, विदेह (तिरहुत), विजय, अंग (भागलपुरके आसपासका प्रान्त), वंग (बंगाल), यकृल्लोमा, मल्ल, सुदेष्ण, प्रह्लाद, महिष, शशक, बाह्निक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, पंकल, चर्मचण्डक, अटवीशेखर, मेस्भूत, उपावृत अनुपावृत, सुराष्ट्र (सूरतके आसपासका देश), केकय, कुट्ट, माहेय, कक्ष, सामुद्र, निष्कुट, अन्ध, बहु, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, मलद, सत्वतर, प्रावृषेय, भार्ग, भार्गव, भासुर, शक, निषाद, निषेध, आनर्त (द्वारकाके आसपासका देश) पूर्णत पूतिमत्स्य कुलक तीरग्रह, इंजिक, कल्पकारण, तिलभाग, मसार, मधुमत्त, ककुन्दक, काश्मीर, सिन्धुसौवीर गाथार (कंधार), दर्शक, अभीसार, कुद्रुत, सौरिल, दव, दर्वावात, जामरथ, उरग, बलरट्ट, सुदामा, सुमल्लिक, बन्ध, काँकर कुलिन्द गन्धिक बनायु दर पा कुशबिन्दु का गोपालका कुरुव, किरात, बर सिद्ध, ताम्रलिप्तिक, औड्रम्लेच्छ, सैरिन्द्र और पर्वतीय। ये सब उत्तर भारतके जनपद बताये गये हैं।
मुनिवरो! अब दक्षिण भारतके जनपदोंका वर्णन किया जाता है। द्रविड (तमिलनाड), केरल (मलावार), प्राच्य मूषिक बालकृषिक कर्णाटक, महिषक, किष्किन्ध झल्लिक, कुन्तल, सौहृद, नलकानन, कोकुट्टक, चोल,कोण, मणिवालय, सभंग, कनक, कुकुर, अंगार, मारिए ध्वजिनी, उत्सव, संकेत, त्रिगर्भ, माल्यसेनि, व्यूढक, कोरक, प्रोष्ठ, संगवेगधर, विन्द्य, रुलिक, बल्वल, मलर, अपरवर्तक, कालद, चण्डक, कुरट, मुशल, तनवाल, सतीर्थ, पूति, संजय, अनिदाय, शिवाट तपान, सूतप ऋषिक, विदर्भ (बरार), वंगण और परतंगण अब उत्तर एवं अन्य दिशाओंमें रहनेवाले म्लेच्छोंके स्थान बताये जाते हैं-यवन (यूनानी) और काम्बोज - ये बड़े क्रूर म्लेच्छ हैं। कृघृह, पुलट्य, हूण, पारसिक (ईरान) तथा दशमानिक इत्यादि अनेकों जनपद हैं। इनके सिवा क्षत्रियोंके भी कई उपनिवेश हैं वैश्यों और शूद्रोंके भी स्थान है शूरवीर आभीर, दरद तथा काश्मीर जातिके लोग पशुओंके साथ रहते हैं। खाण्डीक, तुषार, पद्माव, गिरिगहर, आत्रेय, भारद्वाज, स्तनपोषक, द्रोषक और कलिंग ये किरातोंकी जातियाँ हैं [ और इनके नामसे भिन्न-भिन्न जनपद हुए हैं] तोमर, हन्यमान और करभंजक आदि अन्य बहुत-से जनपद हैं। यह पूर्व और उत्तरके जनपदोंका वर्णन हुआ। ब्राह्मणो । इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने सब देशोंका परिचय दिया है। इस अध्यायका पाठ और श्रवण त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) - रूप महान् फलको देनेवाला है।
द्विजवरी प्राचीन कालमें राजा युधिष्ठिर के साथ जो देवर्षि नारदका संवाद हुआ था, उसका वर्णन करता है आपलोग श्रवण करें। महारथी पाण्डवोंके राज्यका अपहरण हो चुका था। वे द्रौपदीके साथ वनमें निवास करते थे। एक दिन उन्हें परम महात्मा देवर्षि नारदजीने दर्शन दिया। पाण्डवोंने उनका स्वागत-सत्कार किया। नारदजी उनकी की हुई पूजा स्वीकार करके युधिष्ठिरसे बोले- 'धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ! तुम क्या चाहते हो?' यह सुनकर धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने भाइयों सहित हाथ जोड़ देवतुल्य नारदजीको प्रणाम किया और कहा 'महाभाग आप सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित हैं आपके संतुष्ट हो जानेपर मैं अपनेको कृतार्थ मानता हूँ-मुझे किसी बातकी आवश्यकता नहीं है। मुनिश्रेष्ठ! जोतीर्थयात्रामें करता प्रवृत्त होकर समूची पृथ्वीको परिक्रमा है, उसको क्या फल मिलता है? ब्रह्मन्! इस को आप पूर्णरूपसे बताने की कृपा करें।" ll 3 ll
नारदजी बोले - राजन्! पहलेकी बात है, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप धर्मानुकूल व्रतका नियम लेकर गंगाजीके. आप मुनियोंकी भाँति निवास करते थे। कुछ कालके बाद एक दिन जब महामना दिलीप जप कर रहे थे, उसी समय उन्हें ऋषियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीका दर्शन हुआ महर्षिको उपस्थित देख राजाने उनका विधिवत् पूजन किया और कहा – 'उत्तम व्रतका पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ! मैं आपका दास दिलीप हूँ। आज आपका दर्शन पाकर मैं सब पापोंसे मुक्त हो गया।'
वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! तुम धर्मके ज्ञाता हो। तुम्हारे विनय, इन्द्रियसंयम तथा सत्य आदि गुणोंसे मैं सर्वधा संतुष्ट हूँ बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?
दिलीप बोले- मुने। आप प्रसन्न हैं, इतनेसे ही मैं अपनेको कृतकृत्य समझता हूँ। तपोधन! जो (तीर्थ बजाके उद्देश्यसे सारी पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करता है, उसको क्या फल मिलता है? यह मुझे बताइये।
वसिष्ठजीने कहा - तात! तीर्थोंका सेवन करनेसे जो फल मिलता है, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। तीर्थ ऋषियोंके परम आश्रय हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तीर्थसेवनका फल उसे ही मिलता है, जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह अपने वशमें हों जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् हो तथा जिसने दान लेना छोड़ दिया हो। जो संतोषी, नियमपरायण, पवित्र, अहंकारशून्य और उपवास (व्रत) करनेवाला हो; जो अपने आहार और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर चुका हो, जो सब दोषोंसे मुक्त हो तथा जिसमें क्रोधका अभाव हो। जो सत्यवादी, दृढप्रतिज्ञ तथा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति अपने जैसा भाव रखनेवाला हो, उसीको तीर्थका पूरा फल प्राप्त होता है। राजन्! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें नाना प्रकारके साधन औरसामग्रीकी आवश्यकता होती है। कहीं कोई राजा या धनवान् पुरुष ही यज्ञका अनुष्ठान कर पाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें वह शास्त्रोक्त कर्म बतला रहा हूँ, जिसे दरिद्र मनुष्य भी कर सकते हैं तथा जो पुण्यकी दृष्टिसे यज्ञफलोंकी समानता करनेवाला है; उसे ध्यान देकर सुनो। पुष्कर तीर्थमें जाकर मनुष्य देवाधिदेवके समान हो जाता है। महाराज! दिव्यशक्तिसे सम्पन्न देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षिगण वहाँ तपस्या करके महान् पुण्यके भागी हुए हैं; जो मनीषी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं तथा वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है। इस तीर्थमें पितामह ब्रह्माजी सदा प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। महाभाग ! पुष्करमें आकर देवता और ऋषि भी महान् पुण्यसे युक्त हो परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। जो वहाँ स्नान करके पितरों और देवताओंके पूजनमें प्रवृत्त होता है, उसके लिये मनीषी विद्वान् अश्वमेधसे दसगुने पुण्यकी प्राप्ति बतलाते हैं। जो पुष्करके वनमें जाकर एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, वह उसके पुण्यसे ब्रह्मधाममें स्थित अजित लोकोंको प्राप्त होता है। जो सायंकाल और प्रातः कालमें हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका चिन्तन करता है, वह सब तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। पुष्करमें जानेमात्रसे स्त्री या पुरुषके जन्मभरके किये हुए सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके आदि हैं, उसी प्रकार पुष्कर भी समस्त तीर्थोंका आदि कहलाता है। पुष्करमें नियम और पवित्रतापूर्वक बारह वर्षतक निवास करके मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्रका अनुष्ठान करता है अथवा केवल कार्तिककी पूर्णिमाको पुष्करमें निवास करता है, उसके ये दोनों कर्म समान ही हैं। पहले तो पुष्करमें जाना ही कठिन है। जानेपर भी वहाँ तपस्या करना और भी कठिन है। पुष्करमें दान देना उससे भी कठिन है और सदा वहाँ निवास करना तो बहुत ही मुश्किल है।