भीष्मजीने कहा- विप्रवर! भगवान् शंकरने जिन वैष्णव धर्मोंका उपदेश किया है, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। वे कैसे हैं और उनका फल क्या है? पुलस्त्यजी बोले- राजन्
! प्राचीन रथन्तर कल्पकी बात है, पिनाकधारी भगवान् शंकर मन्दराचलपर विराजमान थे। उस समय महात्मा ब्रह्माजीने स्वयं ही उनके पास जाकर पूछा—'परमेश्वर! थोड़ी-सी तपस्यासे मोक्षको प्राप्ति कैसे हो सकती है?" ब्रह्माजी केइस प्रकार प्रश्न करनेपर जगत्की उत्पत्ति एवं वृद्धि करनेवाले विश्वात्मा उमानाथ शिव मनको प्रिय लगनेवाले वचन बोले।
महादेवजीने कहा – एक समय द्वारकाकी सभा में भगवान् श्रीकृष्ण वृष्णिवंशी पुरुषों, विद्वानों कौरवों और देव गन्धर्वोके साथ बैठे हुए थे। धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली पौराणिक कथाएँ हो रही थीं। इसी समय भीमसेनने भगवान्से परमपदकी प्राप्तिके पूछा। उनका प्रश्न सुनकर भगवान् श्रीवासुदेवने | कहा-'भीम! मैं तुम्हें एक पापविनाशिनी तिथिकापरिचय देता हूँ उस दिन निम्नांकित विधिसे उपवास करके तुम श्रीविष्णुके परम धामको प्राप्त करो। जिस दिन माघ मासकी दशमी तिथि आये, उस दिन समस्त शरीरमें घी लगाकर तिलमिश्रित जलसे स्नान करे तथा 'ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे। 'कृष्णाय नमः' कहकर दोनों चरणोंकी और 'सर्वात्मने नमः' कहकर मस्तककी पूजा करे। 'वैकुण्ठाय नमः' इस मन्त्रसे कण्ठकी और 'श्रीवत्सधारिणे नमः इससे हृदयकी अर्चा करे। फिर 'शङ्खिने नमः', 'चक्रिणे नमः', 'गदिने नमः', 'वरदाय नमः' तथा 'सर्वं नारायणः' (सब कुछ नारायण ही हैं) - ऐसा कहकर आवाहन आदिके क्रमसे भगवान्को पूजा करे। इसके बाद 'दामोदराय नमः' कहकर उदरका, 'पञ्चजनाय नमः ' इस मन्त्रसे कमरका, 'सौभाग्यनाथाय नम:' इससे दोनों जाँघोंका, 'भूतधारिणे नमः' से दोनों घुटनोंका, 'नीलाय नमः' इस मन्त्रसे पिण्डलियों (घुटनेसे नीचेके भाग) का और 'विश्वसृजे नमः' इससे पुनः दोनों चरणोंका पूजन करे। तत्पश्चात् 'देव्यै नमः', 'शान्त्यै नमः,' 'लक्ष्म्यै नमः', 'श्रियै नमः', 'तुष्ट्यै नमः', 'पुष्ट्यै नमः', 'व्युष्ट्यै नमः' – इन मन्त्रोंसे भगवती लक्ष्मीकी पूजा करे इसके बाद 'वायुवेगाय नमः', 'पक्षिणे नमः,' 'विषप्रमथनाथ नमः', 'विहङ्गनाथाय नमः ' - इन मन्त्रोंके द्वारा गरुड़की पूजा करनी चाहिये।
इसी प्रकार गन्ध, पुष्प, धूप तथा नाना प्रकारके पकवानों द्वारा श्रीकृष्णकी, महादेवजीकी तथा गणेशजीकी भी पूजा करे। फिर गौके दूधकी बनी हुई खीर लेकर घीके साथ मौनपूर्वक भोजन करे। भोजनके अनन्तर विद्वान् पुरुष सौ पग चलकर बरगद अथवा खैरेकी दातुन ले उसके द्वारा दाँतोंको साफ करे; फिर मुँह धोकर आचमन करे। सूर्यास्त होनेके बाद उत्तराभिमुख बैठकर सायंकालकी सन्ध्या करे। उसके अन्तमें यह कहे भगवान् श्रीनारायणको नमस्कार है। भगवन्।मैं आपकी शरण में आया हूँ।" [ इस प्रकार प्रार्थना करके रात्रिमें शयन करे ।]
दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर शेषशायी भगवान्की आराधना करे। फिर अग्निमें घीकी आहुति देकर प्रार्थना करे कि 'हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं द्वादशीको श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ ही खौरका भोजन करूँगा। मेरा यह व्रत निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो।' यह कहकर इतिहास-पुराणकी कथा सुननेके पश्चात् शयन करे। सबेरा होनेपर नदीमें जाकर प्रसन्नतापूर्वक स्नान करे। पाखण्डियोंके संसर्ग दूर रहे विधिपूर्वक स करके पितरोंका तर्पण करे। फिर शेषशायी भगवान्को प्रणाम करके घरके सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। उसके भीतर चार हाथको सुन्दर वेदी बनवाये। वेदीके ऊपर दस हाथका तोरण लगाये। फिर सुदृढ़ खंभोंके आधारपर एक कलश रखे, उसमें नीचे की ओर उड़दके दानेके बराबर छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर धारण करे। वेदवेत्ता ब्राह्मणोंने धाराओंकी अधिकता के अनुपातसे फलमें भी अधिकता बतलायी है; इसलिये व्रत करनेवाले द्विजको चाहिये कि प्रयत्नपूर्वक उसे धारण करे दक्षिण दिशाकी ओर अर्धचन्द्र के समान पश्चिमको ओर गोल तथा उत्तरकी ओर पीपलके पत्तेकी आकृतिका मण्डल बनवाये। वैष्णव द्विजको मध्यमें कमलके आकारका मण्डल बनवाना चाहिये। पूर्वकी ओर जो वेदीका स्थान है, उसके दक्षिण ओर भी एक दूसरी वेदी बनवाये भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर हो पूर्वोक्त जलकी धाराको बराबर मस्तकपर धारण करता रहे। दूसरी वेदी भगवान्को स्थापनाके लिये हो। उसके ऊपर कर्णिकासहित कमलकी आकृति बनाये और उसके मध्यभागमें भगवान् पुरुषोत्तमको विराजमान करे उनके निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लम्बा, उतना हीचौड़ा और उतना ही गहरा हो उसके ऊपरी किनारेपर तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण [ कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित करके] जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णु सम्बन्धी मन्त्रद्वारा हवन करे। इस प्रकार वहाँ विधि पूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्ड मध्यमें यत्नपूर्वक घीकी धारा गिराये, देवाधिदेव भगवान्के श्रीविग्रहपर दूधकी धारा छोड़े तथा अपने मस्तकपर पूर्वोक्त जलधाराको धारण करे। घीकी धारा मटरकी दालके बराबर मोटी होनी चाहिये। परन्तु दूध और जलकी धाराको अपनी इच्छाके अनुसार मोटी या पतली किया जा सकता है। ये धाराएँ रातभर अविच्छिन्न रूपसे गिरती रहनी चाहिये। फिर जलसे भरे हुए तेरह कलशोंकी स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलंकृत होने चाहिये। उनके साथ चंदोवा, उदुम्बर- पात्र तथा पंचरत्नका होना भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण वैष्णव सामका गायन करते रहें। उपर्युक्त वारों ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अंगूठी, कड़े, सोनेकी जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे।
इस प्रकार गीत और मांगलिक शब्दोंके साथ रात्रि व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित) - को सब वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंको अपेक्षा दूनी मात्रमें अर्पण करे। रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे उठकर [नित्यकर्मके पश्चात्] तेरह गौएँ दान करनी चाहिये। उनके साथकी समस्त सामग्री सोनेकी होनी चाहिये। वे सब की सब दूध देनेवाली और सुशीला हो। उनके सौंग सोनेसे और खुर चाँदीसे मँढ़े हुए हों तथा उन सबको वस्त्र ओझकर चन्दनसे विभूषित किया गया हो। गौओंके साथ काँसीका दोहनपात्र भी होनाचाहिये। गोदानके पश्चात् ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भक्ष्य भोज्य पदार्थोंसे तृप्त करके नाना प्रकारके वस्त्र दान 1 करे। फिर स्वयं भी क्षार लवणसे रहित अन्नका भोजन करके ब्राह्मणोंको विदा करे। पुत्र और स्त्रीके साथ आठ पगतक उनके पीछे-पीछे जाय और इस प्रकार प्रार्थना करे – 'हमारे इस कार्यसे देवताओंके स्वामी भगवान् श्रीविष्णु, जो सबका क्लेश दूर करनेवाले हैं, प्रसन्न हों। श्रीशिवके हृदयमें श्रीविष्णु हैं और श्रीविष्णुके हृदयमें श्रीशिव विराजमान हैं। मैं इन दोनोंमें अन्तर नहीं देखता - इस धारणासे मेरा कल्याण हो।* यह कहकर उन कलशों, गौओं, शय्याओं तथा वस्त्रोंको सब ब्राह्मणोंके घर पहुँचवा दे। अधिक शय्याएँ सुलभ न हों तो गृहस्थ पुरुष एक ही शय्याको सब सामानोंसे सुसज्जित करके दान करे। भीमसेन! वह दिन इतिहास और पुराणोंके श्रवणमें ही बिताना चाहिये। अत: तुम भी सत्त्वगुणका आश्रय ले मात्सर्यका त्याग करके इस व्रतका अनुष्ठान करो। यह बहुत गुप्त व्रत है, किन्तु स्नेहवश मैंने तुम्हें बता दिया है। वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग 'भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको हरनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी' व्रत कहा जाता थाइसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे देवराज इन्द्रका सारा पाप नष्ट हो गया था। इसीके अनुष्ठानसे मेरी प्रिया सत्यभामाने मुझे पतिरूपमें प्राप्त किया। इस कल्याणमयी तिथिको सूर्यदेवने सहस्रों धाराओंसे स्नान किया था, जिससे उन्हें तेजोमय शरीरकी प्राप्ति हुई । इन्द्रादि देवताओं तथा करोड़ों दैत्योंने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया है। यदि एक मुखमें दस हजार करोड़ (एक खरब) जिह्वाएँ हाँ तो भी इसके फलका पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता।
महादेवजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! कलियुगके पापको नष्ट करनेवाली एवं अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस कल्याणमयी तिथिकी महिमाका वर्णन यादवराजकुमार भगवान् श्रीकृष्ण अपने श्रीमुखसे करेंगे। जो इसके व्रतका अनुष्ठान करता हैं, उसके नरकमें पड़े हुए पितरोंका भी यह उद्धार करनेमें समर्थ है। जो अत्यन्त भक्तिके साथ इस कथाको सुनता तथा दूसरोंके उपकारके लिये पढ़ता है, वह भगवान् श्रीविष्णुका भक्त और इन्द्रका भी पूज्य होता है। पूर्व कल्पमें जो माघ मासकी द्वादशी परम पूजनीय कल्याणिनी तिथिके नामसे प्रसिद्ध थी, वही पाण्डुनन्दन भीमसेनके व्रत करनेपर अनन्त पुण्यदायिनी भीमद्वादशी' के नामसे प्रसिद्ध होगी।